गंगाराम कलुन्दिया
तीस साल पहले पुलिस ने भारतीय सेना के एक रिटायर्ड जवान को जीप के पीछे बांधकर घसीटा था. पुलिस ने उसे बचाने आये आदिवासियों के ऊपर गोली चला कर उन्हें दूर भगा दिया. ये आदिवासी तीर धनुष लेकर इस जवान की जान बचाने की असफल कोशिश कर रहे थे.
पुलिस ने सेना के इस जवान को पकड़कर अपनी गाडी में डाला, फिर उसके पेट में संगीन घोंप दी. इसके बाद इस घायल सैनिक को जीप के पीछे बांधकर गांव में घसीटा. उसका कसूर यह था कि उसने अपने गांव वालों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई थी. इस हत्या की कभी कोई जांच नहीं की गयी, ना ही इस हत्या के लिए ज़िम्मेदार किसी पुलिस वाले को कोई सजा हुई.
मृतक सिपाही गंगाराम कलुन्दिया झारखंड की ‘हो’ जनजाति का सदस्य था. वह 19 साल की उम्र में सेना में भर्ती हो गया था. उसने सन 1965 और सन 1971 की लड़ाई में भाग लिया था. वह बिहार रेजिमेंट में था. वह तरक्की करते हुए जूनियर आफिसर के ओहदे तक पहुंच गया था.
जब उसके गांव को आसपास के 110 गांव के साथ विश्व बैंक के पैसे से कुजू बांध बनाने के लिए उजाड़ा जाने लगा तो गंगाराम कलुन्दिया ने अपने लोगों की ज़मीन और उनके मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए संगठित करने का फैसला लिया. इसके लिए उसने सेना से स्वैछिक सेवा निवृत्ति ले ली. वह अपने गांव इलिगारा, जिला सिंहभूम में लोगों को संगठित कर रहा था, तभी 4 अप्रैल, 1982 को पुलिस ने उनकी हत्या कर दी.
‘ये वो पत्थर है. इसे हमने गंगाराम कलुन्दिया की याद में लगाया है. मैं तब चौदह साल का था. इस जगह हमने पुलिस को गंगाराम को ले जाने से रोकने की कोशिश की की थी.’ तोब्ड़ो मुझे बताता है ‘और उस जगह से पुलिस ने हम लोगों पर गोली चलाई थी.’
गंगाराम कलुन्दिया की हत्या के बाद शुरू हुआ आदिवासियों का संघर्ष जारी रहा. तोब्ड़ो को पुलिस के आस-पास होने की खबर सुन कर भूमिगत होना पड़ता था. सुरेन्द्र बुदुली की उम्र बावन साल है. वह भी बांध के खिलाफ आन्दोलन में शामिल थे. इन लोगों को जीत तब मिली जब विश्व बैंक ने इस इस बांध के लिए पैसा भेजना बंद कर दिया. विश्व बैंक की रिपोर्ट में लिखा था कि इस ज़मीन पर केवल धान होता है. ‘लेकिन यह झूठ है ! हम सब्जी भी उगाते हैं.’
अब गंगाराम की याद में हर साल शहीदी दिवस मनाया जाता है. अब हर पार्टियों के नेता जो दलाल और ठेकेदार हैं, वो शहीदी दिवस का फायदा उठाना चाहते हैं लेकिन उस समय ये लोग सरकार के डर से गंगाराम कलुन्दिया का नाम भी नहीं लेते थे.
गंगाराम कलुन्दिया अकेले आदिवासी कार्यकर्ता नहीं थे जिन्हें आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने के कारण मार डाला गया हो. चाईबासा से कुछ ही किलोमीटर दूर साल के जंगल में बंडा गांव में बीच बाज़ार में लाल सिंह मुंडा को दिन दहाड़े मार डाला गया था. उसकी गलती यह थी कि वह गांव की पवित्र देवभूमि पर ठेकेदारों द्वारा कबाड़ खाना खोलने का विरोध कर रहा था.
‘आप बस से चाईबासा जाइए. थोडा पीछे आइये. आपको बाहरी लोग बस से उतर कर आदिवासियों की पवित्र देवभूमि पर पेशाब करते हुए मिलेंगे’, फिलिप कुजूर ने बताया. फिलिप कुजूर खुद आदिवासी हैं और वे झारखंड खनिज क्षेत्र समन्वय समिति के सदस्य हैं. कुजूर ललित महतो के साथी रहे हैं. ललित महतो की पलामू में मई 2008 में हत्या कर दी गयी थी.
इसी प्रकार नियामत अंसारी को माओवादियों ने 2 मार्च 2011 को मार डाला था. प्रदीप प्रसाद को पीएलएफ़आई के आतंकवादियों ने 29 दिसम्बर 2011 को मार डाला था. इसी प्रकार सिस्टर वालसा को, जो पचुवारा में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहीं थी, उन्हें 15 नवम्बर 2011 को मार डाला गया.
गांव की सड़कों पर आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई में मारे गए आदिवासियों के नामों के पत्थर लगे हैं. चाईबासा में कार्यरत सामजिक संस्था ‘बिरसा’ के प्रांगण में एक पत्थर पर कुछ और नाम भी हैं. ‘वह्स्पति महतो पुरलिया में 1971 में मारे गए, शक्तिनाथ महतो धनबाद में 1977 में मारे गए, अजीत महतो तिरल्डीह में 1982 में मारे गए, बीदर नाथ गुआ में 1983 में मारे गए, अश्विनी कुमार सवाया को 1984 में चाईबासा में मारा गया और देवेन्द्र मांझी को गोईलकेरा 1994 में मारा गया. इस शिला लेख के अंत में लिखा है ‘और अनाम शहीद …. हज़ारों में’.
फिलिप बताते हैं कि जब मैं युवा था तो एक बार दो वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ भ्रमण कर रहा था. वे दोनों बूढ़े कार्यकर्ता हर गांव की ओर इशारा करके बताते थे कि इस गांव में हमारे फलां कार्यकर्ता की हत्या कर दी गयी और इस गांव में दुसरे की, हमने इन सब को लोगों के अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया था.’ मैंने अंत में पलट कर पूछा ‘आपने उन्हें लड़ना तो सिखाया, पर खुद को जिंदा कैसे बचा कर रखना है यह क्यों नहीं सिखाया ?’
गंगाराम की बातें सब करते हैं लेकिन उनकी पत्नी की कोई देखभाल नहीं करता. बिरनकुई कुलान्दिया गंगाराम की विधवा है. इनकी बेटी प्रसव के दौरान मर गयी. सरकार ने इनके पति को मार डाला और इनकी बेटी की मौत अस्सी हज़ार हर साल मरने वाली मांओं में से बस एक संख्या भर है.
गंगाराम के मरने के बाद उसके छोटे भाई ने गंगाराम की पन्द्रह एकड़ ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया. गंगाराम की पत्नी को भूख से व्याकुल होकर उसी गांव को छोड़ना पड़ा, जिसे बचाने के लिए उसकी पति ने अपनी जान दे दी थी. अब वह अपने भतीजे के पास रहती है.
गंगा राम की पत्नी गर्व से अपने पति को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए प्रशस्ति पत्र को पढ़ती है. उसकी आवाज़ सौम्य है परन्तु इस आवाज़ में पति के हत्यारों को माफी ना देने का और न्याय के लिए लड़ने का स्वर भी है.
- जावेद इकबाल, एक स्वतंत्र पत्रकार
(अनुवाद – हिमांशु कुमार)
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