देश में आज जो राजनैतिक माहौल है, वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव तक, अगर उसमें कोई बहुत बड़ा बदलाव नही आया, तो देश का वोटर न चाहते हुए भी, सत्ता की बागडोर एक बार फिर बीजेपी को सौंप देगा और उसकी कोशिश होगी कि वर्ष 2014 में कांग्रेस जिस गहरे गड्ढे में गिर गयी थी, उससे वो बाहर आ जाये. सत्ता की कुर्सियों से उतार, धूल चटा देना और धूल चाट रहों को सत्ता की कुर्सी पर बिठा देना, इस देश में लोकतंत्र की परिपक्वता की निशानी है.
वर्ष 2014 में लोकसभा के चुनावों में शर्मनाक हार के बाद भी, संगठन में शीर्ष नेतृत्व परिवर्तन की मांग का न उठाना, एक सवाल तो खडा करता ही है और वह यह कि – कांग्रेस जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं का संगठन है या जमीन से कटे नेताओं का जमावड़ा ?
पूरा देश इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि – हिंदी बोलने और समझ सकने वाले राज्यों में, जो पार्टी अपना दबदबा बना लेती है, वही देश को प्रधानमन्त्री भी दे पाती है. गुजरात में जन्मा नरेंद्र दामोदर दास मोदी जब बनारस में आकर चुनाव लड़ता है, तो बनारस के लोगों को वह पराया और अमित शाह “विदेशी” नहीं लगता. इसी खूबी के चलते मोदी-अमित शाह की जोड़ी कांग्रेस के राहुल-सोनिया की जोड़ी पर भारी पडती है. हिन्दुस्तान में, राजनीति के संग्राम तथ्यों के मैदान में तर्क के हथियारों से नहीं लड़े और जीते जाते. यही कारण है चुनावी वादों के पुलिंदों को सार्वजनिक तौर पर “जुमले” बता, मुस्कराते हुए कचरे की पेटी में डाल देना, भले ही मतदाताओं को चुभें, पर गहरे घाव नहीं देता.
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में, अपने राजनैतिक सफर के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गयी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व, अपनी “मशाल” राहुल के हाथों थमा, “हिंदी बोल और समझ सकने” की अपनी कमी को दूर करता तो दिखता है, पर पिछले 15 वर्षों से सक्रीय राजनीति में रहते हुए राहुल की कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है, जो उनके आभामण्डल को चमका सके. यह कमी, गांव-कस्बों के उन कांग्रेसियों को, जो कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व पर कसे जाने वाले तन्जों को झेलते हैं, को एक अजीब तरह की कुण्ठा और अवसाद में ढकेल देती है. वर्ष 2019 में आसन्न लोकसभा चुनावों में उतरने से पहले कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के सामने, यह हिमालयी जिम्मेदारी है, कि वह कुण्ठा और अवसाद में डूब चुके अपने जमीनी कार्यकर्ताओं को सक्रीय कैसे करे?
राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने के बाद राजनैतिक गलियारों में एक धारणा बुदबुदाने लगी है कि प्रदेशों की जमीन पर अपने पाऊं पर खड़े नेता, संवेदनशील मामलों में, तत्काल निर्णय लेलेते हैं, और उस पर शीर्ष नेतृत्व की मोहर बाद में लगवा लेते हैं. यदि निर्णय करने की यह स्वायत्तता शीर्ष नेतृत्व की ही दी हुयी है तो यह बहुत शुभ संकेत है. परन्तु यदि यह सत्य नही है तो बहुत गंभीर है. चर्चाओं में है कि कर्नाटक चुनाव परिणामों के आने के तत्काल बाद विधायक दल के नेता की बागडोर, जेडीएस को सौंपने का तात्कालिक निर्णय, स्थानीय नेताओं ने लिया और बाद में शीर्ष नेतृत्व की मोहर लगवाई गयी.
भले ही मोहर बाद में लगवाई गयी, भले ही यह निर्णय कर्नाटक इकाई ने लिया हो, पर सत्ता के दरवाजे पर पहुंच चुकी बीजेपी को कांग्रेस ने कुण्डी नही खोलने दी, ये पुरे देश ने देखा. हर पखवाड़े एक नयी योजना या कार्यक्रम की घोषणा के शोर से, आकाश गुंजायमान करते रहने वाली बीजेपी की नीतियों और कार्यशैली को नापसंद करने वाले और मोदी जी की निरंकुशता और विरोधियों पर अमर्यादित आक्रामकता से त्रस्त लोगों ने, तमाम उपचुनावों में बीजेपी के पाऊं में बेड़ियां डाली हो, कर्नाटक में एक दूसरे का हाथ थाम “कभी न टूटे साथ” की कसमें खायी हों, पर 2019 के लोकसभा चुनाव, जब पूरे देश में हो रहे होंगें, वही पार्टिया फिर दुबारा वैसा ही करती दिखेंगी, ऐसा मानना अपने को गफलत में रखना ही होगा.
कारण स्पष्ट हैं-
(1) कांग्रेस को छोड़ कर किसी अन्य पार्टी के अखिल भारतीय होने के दावों को देश का आमजन मानस स्वीकार नहीं करता.
(2) बीजेपी के विजय रथ ने जिस तरह प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों को रौंदा है, उन प्रदेशों में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, एक प्रदेश में बीजेपी का विरोध करने वाली पार्टी, दुसरे प्रदेश में बीजेपी के सुर में सुर मिलाने में तनिक भी लज्जा महसूस नही करेगी. क्या दिल्ली में केजरीवाल का विरोध, कांग्रेस को बीजेपी के सुर में सुर मिलाता नहीं जान पड़ता. अब चाहे कांग्रेस कितनी भी सफाई दे, आमजन मानस की कोई रूची राजनैतिक दांव-पेंचो को समझने में कतई नही होती, वो तो बस एक धारणा बना लेता है, जिसे बदलना आसान नही होता. बिहार, आन्ध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आदि कितने ही राज्यों में ये खेल पूरी निर्लज्जता के साथ क्या नही खेला जा रहा है.
(3) बीजेपी के विरोध में एक मात्र कांग्रेस पार्टी ही है, जिसे हार-जीत की परवाह से ज्यादा चिंता, अपनी हैंसियत को बचाए रखने की करनी चाहिए. पर वह ऐसा करती दिख नही रही.
(4) भारतीय लोकतंत्र में “जातीय और धार्मिक नेताओं” को संस्था समझने की प्रवृत्ति बहुत बड़ा कोढ़ है. राजनैतिक पार्टियों में, न तो ऐसे नेताओं की कमी है, जो अपनी पार्टी की लोकप्रियता के गिरते ग्राफ के साथ, चोला बदलने को लालायित रहते हैं, और न ऐसी पार्टियों की कमी है, जो ऐसे नेताओं का पलक-पांवड़े बिछा स्वागत करने को तत्पर रहती हैं.
ज्यादातर, चुनाव से पहले और बाद में जिस पार्टी की लोकप्रियता की बयार चलने लगती है, पेड़ से टूटे सूखे पत्तों की तरह, यह उसी दिशा में बहने को तैयार रहते हैं. अभी हाल ही में गुजरात में अन्य पिछड़ा वर्ग के, और पार्टी टिकट पर पांच बार विधायक चुने जा चुके वरिष्ठ कांग्रेस नेता, त्यागपत्र दे बीजेपी सरकार के मंत्रीमण्डल का हिस्सा बन गए है. बीजेपी को भरोसा है कि कुंवरजी बावलिया, 2019 के चुनाव में पिछड़ा वर्ग के अपने समर्थकों के वोट बीजेपी को डलवा देंगे. निष्कर्ष यह निकलता है कि अनुसूचितजातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों के स्थानीय नेता के प्रति आस्थावान लोग और इसी प्रकार धर्म गुरुओं के प्रति आस्थावान लोग, उनके कहने पर वोट डालते हैं. समाज में व्याप्त यही प्रवृत्ति लोकतन्त्र का कोढ़ है.
भले ही कांग्रेस सांसदों की संख्या 44 से चार रह जाय, इससे उसकी राजनैतिक ताकत तो कम होती है, पर एक वैचारिक रूप से परिपक्व पार्टी के रूप में उसकी हैसियत और गौरवमयी प्रतिष्ठा कम नही होती. परन्तु वर्तमान नेतृत्व, कांग्रेस की इस हैंसियत और प्रतिष्ठा को क्या सुरक्षित और अखंडित रख पाएगा ? यह तो आने वाला समय ही बतायेगा. यदि कांग्रेस संगठन ने 2014 की हार के बाद तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष के इस्तीफे की पेशकश को ठुकराने के बजाय स्वीकार कर लिया होता तो मेरा मानना है पार्टी, अपनी खोयी हुयी जमीन को धूर्त कौरवों के हाथों से, छीनने के लिए इन्द्रप्रस्थ के मैदान में संघर्ष करती दिख रही होती.
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर
– विनय ओसवाल
देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
सम्पर्क नं. 7017339966
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