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गढ़चिरौली एन्काउंटर: आदिवासियों के नरसंहार पर पुलिसिया जश्न

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गढ़चिरौली एन्काउंटर: माओवादियों के नाम पर आम आदिवासियों की हत्या पर पुलिस का जश्न

छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमा पर गढ़चिरौली में बीते रविवार और सोमवार को गढ़चिरौली पुलिस के नक्सलविरोधी अभियान में सी-60 कमांडों ने अपने दो दिनों के ऑपरेशन में 39 माओवादियों को मार गिराने का दावा किया है. सुरक्षा बलों ने माओवादियों से अब तक की सबसे बड़ी मुठभेड़ का दावा किया है. सुरक्षा बलों का दावा है कि करीब दो दिनों तक चली इस मुठभेड़ में अब तक 39 माओवादियों के शव बरामद कर लिए गए हैं.

जानकारों के अनुसार इस मुठभेड़ में सुरक्षा बल को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हुआ है और जितने मुठभेड़ में सुरक्षा बल माओवादी मारने का दावा कर रही है उतने हथियार भी बरामद नहीं हुए हैं. पुलिस का कहना है कि मुठभेड़ असली थी लेकिन इंद्रावती नदी के किनारे का मंजर कुछ और ही बयां कर रहा था. नदी के किनारे पर उपयोग की गई साबुन, टूथपेस्ट, टूथब्रश जैसे कई और सामान पड़े हुए थे. देखकर साफ पता चल रहा था कि जिस वक्त पुलिस ने नक्सलियों को चारों तरफ से घेरा, उस वक्त वे नहा-धो रहे थे. बर्तन और खाने-पीने की चीजें भी इधर-उधर बिखरी पड़ी मिलीं.

क्रांतिकारी कवि वरवर राव ने इस मुठभेड़ पर सवाल खड़े किए हैं. वरवर राव का कहना है कि “मुठभेड़ के बाद सामने आए तथ्यों से लगता है कि वहां मुठभेड़ हुई ही नहीं है. कुछ माओवादी आदिवासियों के साथ चर्चा कर रहे हों, उसी दौरान सुरक्षाबलों ने उन्हें निशाना बना लिया हो.” वरवर कहते हैं कि “यदि मुठभेड़ होती तो सुरक्षाबलों को कुछ नुकसान तो होता ही, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. इस मुठभेड़ में कुछ ही माओवादी मारे गए. बाकी ज्यादातर आदिवासी ही हैं. सुरक्षाबलों ने ज्यादातर आदिवासियों को निशाना बनाया है.” वरवर राव ने कहा कि “इस मुठभेड़ को लेकर उतना रिस्पांस नहीं मिल रहा है, जितना कि छत्तीसगढ़ में किसी छोटी मुठभेड़ के बाद भी मिलता है.”  वरवर राव कहते हैं कि” सरकार आदिवासियों का हक छीनने का प्रयास कर रही है. जल, जंगल व जमीन पर आदिवासियों का हक है. ये हक सरकार मल्टीनेशनल कंपनियों को देना चाहती है.”

बता दें कथित मुठभेड़ के बाद सुरक्षा बल के जवानों द्वारा डीजे की धुन में थिरकने की भी खबर आ रही थी. किसी की भी हत्या पर जब जश्न मनाया जाता है तो समझ लीजिए लोकतंत्र की हत्या हो गयी है. गढ़चिरौली में नरसंहार कर सैन्य बलों ने लाशों की ढेर लगा दी है और इस हत्या का जश्न मनाया जा रहा है . नक्सली क्या इंसान नहीं हैं ? नक्सलियों में बड़ी संख्या में आदिवासी, भूमिहीन किसान, पिछड़े वर्ग के किसान हैं. कार्रवाई में मानवीय रास्ता अपनाने के बजाए उन्हें गोलियों से भून डाला जा रहा है. फिर वही सवाल उठ रहा है कि सुरक्षा बल नक्सली को मार रहे हैं या आदिवासियों को.

सामाजिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार कथित मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि पुलिस की कहानी से जिन बातों का उत्तर नहीं मिलता, वे हैं –

1- यदि यह दलम का कैंप था तो उनके हथियार कहां गये ? क्या दलम के सदस्य खाली हाथ थे ? या वे दलम के सदस्य नहीं थे ? यदि दलम के सदस्य हथियारबंद थे और कैंप लगा रहे थे तो निश्चय ही गुरिल्ला ट्रेनिंग उसका हिस्सा होगा ? यदि वे सांस्कृतिककर्मी थे तब क्या वे पुलिस के साथ इतनी लंबी मुठभेड़ में लगे रहे ?

2- माओवादियों के हथियार लड़ाई में चूक गये तब क्या एक भी पुलिस वाला घायल नहीं हुआ? यदि वे चारों तरफ से घिरे थे और कैंप लगाये थे तो उनके सामान कहां गये, उनके किट आदि कहां हैं ?

3- पुलिस को जो ‘ठोस खबर’ थी उससे दो किमी के दायरे में घेराबंदी की गई. नदी के हिस्से को छोड़कर पीछे से घेराबंदी का दायरा दो किमी रखने पर सी-60 की दो कंपनियां घेराबंदी के लिए पर्याप्त थीं ?

बस्तर के पत्रकार संजय ठाकुर ने अपने फेसबुक टाइमलाइन में प्रतिक्रिया दी है कि गढ़चिरौली से अब जो खबर निकल कर बाहर आ रही है वो रूह कंपा देने वाली है. अब तक जिसे सबसे बड़ा नक्सल एनकाउंटर कहा जा रहा था, उस एनकाउंटर में बड़ी संख्या में ग्रामीण भी मारे गए हैं. बिल्कुल बीजापुर के सारकेगुड़ा और एडसमेटा की तरह– सूत्रें की मानें तो ग्रामीण किसी शादी समारोह में इकट्ठा हुए थे और नक्सल शंका पर उन पर गोलियां चला दी गईं— हालांकि इलाके में दो एनकाउंटर होने की बात भी सामने आ रही है, जिसमे कुछ नक्सली भी मारे गए हैं– लेकिन फिलहाल हम पत्रकारों को नक्सली और ग्रामीण दोनों की मौतों के एंगल पर काम करना चाहिए.

(बस्तर में रहने वाले तामेश्वर सिन्हा पेशे से पत्रकार हैं और अपनी जमीनी रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं.)

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