Home गेस्ट ब्लॉग ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से, पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से, पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध

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ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से, पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से, पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध

कामुकता आज चर्चा के केंद्र में है. इसके बारे में भारतीय समाज में तेजी से मंथन चल रहा है. कामुकता के सवालों पर खुली बहसें हो रही हैं. एक जमाना था जब कामुकता के बारे में बात करना निषिद्ध था. अपराध था. जो लोग बात करते थे उन्हें हेयदृष्टि से देखा जाता था. उनसे दूर रहने की सलाह दी जाती थी. सामंतकाल के पहले यह स्थिति नहीं थी.

प्राचीनकाल में आम लोगों की शिक्षा के सामान्य विमर्श में कामुकता और सेक्स संबंधी विषय भी शामिल थे. सामंतकाल के आने के बाद कामुकता के प्रति खुलापन गायब हो गया. अब अन्य अनेक विषयों की तरह कामुकता संबंधी विमर्श भी चंद लोगों की बपौती हो गया. सामंती दौर में निर्मित निषिध्द तत्वों में सेक्स और कामुकता संबंधी तत्वों को भी शामिल कर लिया गया. यह सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा.

सामंती मानसिकता शर्म या पर्दा डालने पर जोर देती है. शर्म और पर्दे
की ओट में सबकुछ लागू कर सकते हैं. यहां तक कि कामुकता और सेक्स पर भी विमर्श कर सकते हैं. कामुकता और सेक्स के इन दिनों विमर्श के केंद्र में आने से सामंती विचारधारा को जबर्दस्त धक्का लगा है. यह आधुनिकता की जीत है. आज पर्दा, झिझक और शर्म को प्रतिगामिता और पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाता है. लगातार ऐसे संस्कारों, मूल्य और रवैए पर जोर दिया जा रहा है जो ‘बोल्ड और ब्यूटीफुल’ की मानसिकता निर्मित करें.

शर्म, लज्जा और आवरण के बिना चीजों, वस्तुओं और घटनाओं को देखना, पारदर्शी रूप में देखना, बेझिझक बातें करना आधुनिकता की निशानी है. इसके विपरीत लज्जालु, शर्मीलापन, पर्दादारी, प्रच्छन्न ढंग से बातें करना, जी हुजूरी की भाषा में बोलना या किसी अन्य के माध्यम से बातें करना सामंती मानसिकता की निशानी है. इस तरह की मानसिकता के खिलाफ साधारण लोगों में प्रतिक्रिया तेज हुई है. आज कामुकता, सेक्स, एकल परिवार, स्त्री के अधिकार और अस्मिता के सवालों पर समाज पूरी तरह विभाजित है. आम तौर पर इन विषयों पर धार्मिक तत्ववादी और प्रतिगामी संगठन सामंती रवैया अपनाए हुए हैं.

सच्चाई यह है कि स्त्री, कामुकता और सेक्स समाज की वास्तविकता हैं. इनसे बचकर कोई भी नहीं रह सकता. इन तीनों के प्रति पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण आज भी वैचारिक स्तर पर वर्चस्व बनाए हुए है. राजनीति में इसका धार्मिक तत्ववादियों, फासीवादियों और प्रतिक्रियावादी राजनीति से संबंध है. स्त्री, कामुकता और सेक्स संबंधी विषयों पर जितनी ज्यादा बहस होगी उतना ही वे ताकतें कमजोर होंगी जो पितृसत्तात्मकता के पक्ष में खड़ी हैं. खुली बहस से वर्जना और अछूतभाव से मुक्ति मिलेगी. स्त्री, कामुकता और सेक्स को दमित भावबोध से मुक्त करके वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने के लिए आवश्यक है, इनके बारे में प्रश्नाकुलता पैदा की जाए और परिवार और समाज में खुलकर बातें की जाएं.

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि आधुनिकता और पूंजीवादी दृष्टिकोण ने ऐसे संस्थानों और नियमों, कानूनों का निर्माण किया जिसमें सामंती दमनात्मक रवैय्ये को समाहित कर लिया गया. सोवियत संघ में समाजवादी सत्ता की स्थापना और स्त्रीवादी आंदोलन के प्रभाववश स्त्री, कामुकता और सेक्स के प्रति लोकतांत्रिक भावबोध पैदा हुआ. इन तीनों तत्वों के प्रति पुराने विचारों और मान्यताओं और दमनात्मक रवैए से मुक्ति की दिशा में समाज तेजी से आगे बढ़ा.

कामुकता और सेक्स के प्रति पूंजीवादी और सामंती दृष्टिकोण

पूंजीवादी और सामंती दृष्टिकोण कामुकता और सेक्स के प्रति बुनियादी तौर पर अनुदार और अराजक है. जो लोग कामुकता और सेक्स के बारे में प्रचलित और पुराने विचारों को नहीं मानते तो उन्हें दंडित करता है. पूंजीपति वर्ग सभ्यता के निर्माण पर जोर देता है. पूंजीपति वर्ग के लिए सभ्यता (सिविलाइजेशन) का मतलब है अनुशासनपूर्ण जीवन. अनुशासन का मतलब है इच्छाओं पर आंतरिक नियंत्रण.

इस विचार पर बल दिया गया कि अनुशासन के द्वारा ही बलिष्ठ और शक्तिशाली समाज, संस्थानों और संगठनों का निर्माण हो सकता है. बलिष्ठ शरीर के माध्यम से स्वत:स्फूर्त इच्छाओं को काबू में रखने में सफलता मिलती है. अनुशासित और शक्तिशाली शरीर ‘पावर’ या सत्ता को जन्म देता है. जिसके पास ‘पावर’ है वही समर्थ है. ‘पावर’ का दारोमदार अनुशासन पर टिका है. इसका यदि कामुकता और सेक्स के क्षेत्र में प्रयोग करेंगे तो समस्याएं खड़ी हो सकती हैं.

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी में सेक्स के विभिन्न रूपों को लेकर विकसित औद्योगिक देशों और सोवियत संघ में चिकित्सा क्षेत्र में विशेष अनुसंधान कार्य हुए. इनके परिणामस्वरूप कामुकता को गुप्त रखने पर जोर दिया गया. इसे गुप्त रखने के उपायों पर अमल किया गया. इसके खिलाफ तरह-तरह के कानूनी प्रावधान बनाए गए. इस तरह के प्रयासों का लक्ष्य था व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को विकसित करना.

किंतु दूसरी ओर स्त्री आंदोलन और मजदूर आंदोलन के विकास के कारण पितृसत्तात्मकता कमजोर हुई. कामुकता का विज्ञान के रूप में विकास हुआ. अब कामुकता का केस हिस्ट्री के तौर पर अध्ययन किया जाने लगा, वहीं दूसरी ओर चर्च में जाकर आत्मस्वीकृतियों के जरिए ज्यादा से ज्यादा आम लोग अपनी सेक्स संबंधी गलतियों के प्रायश्चित के लिए जाने लगे इस सबके कारण सेक्स को गुप्त रखने पर जोर दिया गया. इसे ‘निजी जीवन का रहस्य’ कहा गया. बाद में कामुकता को जानने के बजाय कामुकता के ‘सत्य’ की खोज पर ध्यान दिया गया. इसके कारण आधुनिकता के साथ ‘सत्य’ की खोज की मुहिम चल निकली. कालांतर में सामान्य कामुकता और असामान्य कामुकता के बीच फर्क किया गया.

19वीं शताब्दी में सेक्स विमर्श

19वीं शताब्दी में सेक्स विमर्श के दौरान तीन तरह के दृष्टिकोण सामने आए. पहला विमर्श स्त्री की कामुकता को ‘हिस्टीरिया’ के चिकित्साशास्त्र से जोड़ता है.
दूसरा, बच्चों के संदर्भ में कामुकता की व्याख्या प्रस्तुत करता है. इन लोगों ने बताया गया कि बच्चे सेक्स की दृष्टि से सक्रिय होते हैं, अत: बच्चों को सेक्स से दूर रखना चाहिए. तीसरा विमर्श पिता के संदर्भ में कामुकता पर विचार करता है और कामुकता को परिवार और शादी से जोड़कर देखता है. शादी में सेक्स को आवश्यक और स्व-नियामक मान लिया गया.

आरंभ में परिवार नियोजन की पद्धतियों को गैर-जरूरी माना गया. आरंभ के वर्षों में यह तर्क दिया गया कि जो परिवार नियोजन करना चाहता है तो उसे अपनी कामेच्छा पर नियंत्रण लगाना चाहिए, इससे परिवार स्वत: छोटा हो जाएगा. यही वह दौर है जब तेजी से संयुक्त परिवार के टूटने की प्रक्रिया शुरू हुई. दूसरी ओर मूलत: सभी धर्मों की ओर से संयुक्त या बड़े परिवार की वकालत शुरू हुई.

फूको के अनुसार कामुकता की धारणा का उदय विभिन्न किस्म के आधुनिक सामाजिक संस्थानों के उदय के साथ हुआ. आधुनिक समाज और आधुनिक राष्ट्र को सक्षम बनाने में अन्य बातों के अलावा जनसंख्या नियंत्रण के उपायों की बहुत बड़ी भूमिका रही है. मूलत: इस बात पर जोर दिया गया कि शारीरिक स्वास्थ्य कैसा हो. सामाजिक विकास की सारी तकनीकी इसी उद्देश्य से निर्मित की गई.

इसके माध्यम से व्यक्ति की शारीरिक क्षमता के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल पर जोर दिया गया. इसके कारण ‘कामुकता के सांस्थानिक’ रूपों का जन्म हुआ. इसे शरीर और आनंद का अर्थशास्त्र भी कह सकते हैं. प्राचीनकाल में वात्स्यायन का कामसूत्र मूलत: ‘निजी’ या ‘सेल्फ’ की देखभाल, कामेच्छा, इच्छापूर्ति आदि पर जोर देता है. कालांतर में दार्शनिकों ने इसका निषेध किया और नैतिकता और सौंदर्यशास्त्र का अंग बना दिया. यह भी बताया गया कि जीवन के लिए सेक्स से ज्यादा जरूरी है भोजन और भजन. अध्यात्मवादियों की यह सबसे बड़ी जीत थी. इसके चलते ‘आत्म’ की उपेक्षा हुई. ‘सत्य’ की खोज पर जोर दिया गया। अब ‘आत्म’ (सेल्फ) से बड़ा ‘सत्य’ हो गया.

कामुकता (सेक्सुएलिटी) पदबंध का सबसे पहले 19वीं शताब्दी में प्रयोग मिलता है. बायोलॉजी और ज्यूलॉजी में यह पदबंध 1800 ई. में मिलता है. किंतु आज जिस अर्थ में इस पदबंध का प्रयोग होता है उसकी शुरुआत 19वीं के अंत में हुई. यह पता चला कि स्त्रियों को ऐसी अनेक बीमारियां होती हैं जो मर्दों को नहीं होतीं. इनका संबंध स्त्री की सेक्सुएलिटी से है. इसके बाद सारे प्रयास इस दिशा पर केंद्रित हो गए कि स्त्री की कामुकता को कैसे नियंत्रित किया जाए. यह भी बताया गया कि जो स्त्री कामुक आनंद के बारे में महसूस करती है वह अस्वाभाविक है.
भारतीय परंपरा में कामुकता सामाजिक निर्मिति है. यह पावर या सत्ता का खेल है. इसे मात्र शारीरिक उत्तेजनाओं के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. शारीरिक उत्तेजना से आनंद मिल सकता है और नहीं भी मिल सकता. कामुकता को सक्रिय बनाने वाली एकमात्र शक्ति है पावर.

कामुकता का शास्त्र दरबारी संस्कृति के तहत रचा गया. इसके बाद ही इसके विविध रूपों को समाज जान पाया. श्रृंगार रस केंद्रित रचनाएं कामुकता पर ही रोशनी डालती हैं. इसके कारण स्त्री की भूमिका और स्त्री की स्थिति के प्रति उदासीनता और उसे मातहत बनाने की प्रवृत्ति का विकास हुआ. स्त्री की भूमिका को कम करके देखा गया. इसके दो महत्वपूर्ण दुष्परिणाम हुए – पहला, स्त्री सामाजिक विमर्श से गायब हो गई और दूसरा, कामुकता विमर्श सत्ता का विमर्श बन गया. साथ ही, स्त्री और कामुकता दोनों को रहस्यमय और गुप्त बना दिया गया.

सामंती दौर में कामुकता और स्त्री पर्याय बनाए गए. आधुनिक काल की शुरुआत के साथ सामंतवाद की जिस गति से विदाई हुई उसी गति से कामुकता और स्त्री के प्रश्न सामने आते गए. उन्नीसवीं शताब्दी में चिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हुए. इनके बारे में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा जो सामग्री प्रकाशित हुई उसने स्त्री, सेक्स और कामुकता के पुराने मिथों को तोड़ा. किंतु इस क्षेत्र की जानकारियां चंद हाथों तक सीमित थी. अधिकांश जनता अशिक्षित थी. कामुकता और सेक्स से संबंधित साहित्य साधारण जनता की पहुंच के बाहर था. यहां तक कि शिक्षित जनता के पास तक इस साहित्य की पहुंच नहीं थी. इस क्षेत्र की तमाम जानकारियां सिर्फ पेशेवर लोगों के पास तक ही बमुश्किल पहुंच पाई थी. स्त्रियों तक ऐसे साहित्य की पहुंच शून्य के बराबर थी.

यही वजह थी कि अधिकांश औरतें आज भी कामुकता, स्त्री और सेक्स के बारे में अज्ञानी की तरह पेश आती हैं. अधिकांश औरतों को शादी के समय सेक्स का ज्ञान नहीं होता. शादी के बाद स्त्री को पुरुष की इच्छाओं की अनिच्छित भाव से पूर्ति करनी होती है. यही वजह है कि आम तौर पर माताएं कहती हैं कि ‘बेटी शादी के बाद तुम्हें अनेक ऐसी बातें माननी पड़ सकती हैं जिन्हें तुम पसंद न करो. तुम उनकी उपेक्षा करना क्योंकि मैंने भी ऐसा ही किया था.’

आधुनिक समाज

आधुनिक समाज के आने के बाद पति-पत्नी के बीच में भावात्मक एकता और संतान के प्रति जिम्मेदारी पर जोर दिया गया. संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार का जन्म हुआ. पुराने घर की सामुदायिक भावना को ध्वस्त करते हुए घर की नई धारणा और परिवेश ने जन्म लिया.

‘घर’ के परिवेश और कार्य क्षेत्र के परिवेश को अलग करके देखा जाने लगा. घरेलू और सामाजिक, निजी और सामाजिक में फर्क पैदा हुआ. अब निजी जिंदगी और निजता पर जोर दिया जाने लगा. व्यक्ति की निजी जिंदगी, एकल परिवार, प्राइवेसी आदि की धारणा के विकास के कारण स्त्री की अस्मिता, भावों, इच्छाओं और आकांक्षाओं को तरजीह दी गई. इसके अलावा परिवार नियोजन के आधुनिक उपायों ने कामुकता और सेक्स को स्वायत्त बनाया. परिवार नियोजन के आधुनिक उपायों के इस्तेमाल से स्त्री को गर्भधारण करने और बच्चे पैदा करने के जंजाल से मुक्ति मिली.

ध्यान रहे, छोटे परिवार के निर्माण में आधुनिक गर्भ-निरोधक उपायों की महत्वपूर्ण भूमिका है. परिवार नियोजन के बारे में लंबे समय से प्रचार अभियान चलता रहा है किंतु कायदे से प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही परिवार नियोजन के प्रयासों को बल मिला है. पश्चिमी जगत में ईसाइयत ने बड़े पैमाने पर परिवार नियोजन का विरोध किया इसके बावजूद परिवार नियोजन को सफलता मिली.

भारत में यदि परिवार नियोजन के उपायों को स्वेच्छा से जनप्रिय बना दिया गया होता और धार्मिक और फासीवादी संगठनों ने इसके खिलाफ जहरीला प्रचार न किया होता तो हमारे समाज की तस्वीर कभी की बदल चुकी होती. आज सच्चाई यह है कि हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्म के हितों और विचारों के प्रचारक संगठन अपने-अपने तरीके से परिवार नियोजन, गर्भपात, एकल परिवार आदि का जमकर विरोध कर रहे हैं. यही वजह है कि इन तबकों के वोट हासिल करने के लिए प्रमुख राजनीतिक दल इन सवालों पर खुलकर प्रचार अभियान नहीं चलाते.

प्रभावी ढंग से परिवार नियोजन के उपायों को लागू करने का मतलब है कामुकता और सेक्स को स्वायत्त बनाना. आज वैज्ञानिक खोजों के कारण स्त्री को सेक्स और कामुकता के बहाने मिलने वाली यातनाओं और मृत्यु से मुक्ति मिली है. स्त्री के निजी जीवन में बुनियादी बदलाव पैदा किया है. आज स्त्री के लिए कामुकता (कुछ हद तक मर्द के लिए भी) वैविध्यपूर्ण आनंद का रूप ग्रहण कर चुकी है.

एक जमाना था जब सेक्स का प्रजनन से संबंध था. प्रजनन के कारण बड़े पैमाने पर औरतों को अकाल मृत्यु का शिकार होना पड़ता था. एक तरह से स्त्री के लिए सेक्स का मतलब मौत था. किंतु परिवार नियोजन के उपायों के आने के बाद सेक्स का प्रजनन से संबंध विच्छेद हो गया. आज स्थिति यह है कि बगैर सेक्स किए गर्भधारण किया जा सकता है.

कामुकता व्यक्ति का निजी गुण

आज सेक्स और कामुकता पूरी तरह स्वायत्त हैं. यह कामुकता की मुक्ति की घोषणा है. अब कामुकता पूरी तरह व्यक्ति का निजी गुण बन गई है वह चाहे तो अन्य से इसका विनिमय कर सकता है. यह कृत्रिम कामुकता है. यह स्त्री की सबसे बड़ी जीत है.

अधिकांश औरतें सैकड़ों वर्षों से कामुक आनंद से वंचित थी. कामुक आनंद स्त्रियों के लिए भयानक सपने की तरह था. वे सेक्स करते हुए डरती थीं कि उन्हें इसके कारण गर्भधारण की पीड़ा से गुजरना पड़ेगा. बार-बार गर्भधारण का अर्थ था स्त्री की असमय मौत. आज भी भारतीय समाज में परिवार नियोजन के उपायों के प्रति अज्ञानता और सामान्य-से खर्चे पर इनकी अनुपलब्धता के कारण बड़ी संख्या में स्त्रियां प्रजनन के दौरान ही मर जाती हैं. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो परिवार नियोजन के उपायों ने स्त्री को मौत से मुक्ति दिलाकर क्रांतिकारी भूमिका अदा की है.

इधर के वर्षों में एड्स के आने के कारण कुछ लोगों ने सेक्स का मौत से फिर से संबंध जोड़ने की कोशिश की है. किंतु यह सेक्स और मौत के पुराने संबंध की वापसी नहीं है क्योंकि एड्स स्त्री और पुरुष में फर्क नहीं करता. पहले सेक्स के कारण स्त्री के लिए ही मौत का खतरा था जबकि एड्स के कारण स्त्री-पुरुष दोनों ही मर सकते हैं.

इसके अलावा एड्स जैसी भयानक बीमारी से बचने में सबसे प्रभावी परिवार नियोजन का मैथड ‘कंडोम’ ही है. भारतीय समाज की सामंती मानसिकता साधारण नागरिक को परिवार नियोजन के पुरुष केंद्रित उपायों के इस्तेमाल से रोकती है. आज भी मेडीकल स्टोर्स पर गर्भ निरोधक गोलियां या कंडोम मांगते हुए लोग शर्माते हैं. दुकानदार भी देते हुए शर्माता है. यहां तक कि सेक्सोलॉजी के विशेषज्ञ डाक्टरों के चैंबर चारों ओर से बंद गुप्त घर की तरह होते हैं.

पत्र-पत्रिकाओं की दुकानों पर सेक्स या कामुकता का साहित्य चोरी-छिपे बिकता है या फिर आम आदमी जिस निस्संकोच भाव के साथ राजनीति, साहित्य, धर्म आदि की पत्र-पत्रिकाएं पढ़ लेता है, उलट-पुलटकर देख लेता है. उसी निस्संकोच भाव का वह सेक्स या कामुकता पर केंद्रित पत्रिका को देखते समय प्रदर्शन नहीं करता.

सामंती मानसिकता का आलम यह है कि सेक्स और कामुकता केंद्रित पत्रिकाएं अमूमन सीलबंद होती हैं जबकि अन्य विषयों की पत्रिकाएं सीलबंद नहीं होतीं. कहने का तात्पर्य यह कि कामुकता का बिक्रेता भी सामंती मानसिकता का सम्मान करता है.

विगत पचास वर्षों में जो कामुक क्रांति हुई है उसके कारण लिंगाधारित तटस्थ कामुकबोध का भौतिक आधार निर्मित हुआ. इसके कारण स्त्री को कामुक स्वायत्तता की दिशा में आगे कदम बढ़ाने का अवसर मिला है. वहीं दूसरी ओर समलैंगिक कामुकता और परवर्जन का स्त्री और पुरुष दोनों में तेजी से विकास हुआ है. ये कृत्रिम कामुकता (प्लास्टिक सेक्सुएलिटी) की देन है.

कुछ लोग कामुकता को फ्रायड से जोड़ते हैं जबकि फ्रायड ने कामुकता और निजी अस्मिता के अंतस्सबंध की खोज की. फ्रायड के पहले समाज इस संबंध से अनभिज्ञ था. फ्रायड ने कामुकता को निजी मसला बनाया. मनोविज्ञान का मानना है कामुकता मनुष्य की चेतन और अवचेतन फैंटेसी है. जहां पर अस्मिता के संघर्ष उभरेंगे वहां पर स्त्री, कामुकता और सेक्स के सवाल भी उठेंगे. इस परिप्रेक्ष्य में कामुकता का संबंध अस्मिता के साथ है.

स्त्री अस्मिता का सवाल

आज विश्वभर में अस्मिता का सवाल सबसे बड़ा मसला है. आज समाज में स्त्रियां यह सवाल कर रही हैं कि स्त्री क्या है ? उसके अधिकार क्या हैं ? क्या वह पुरुष के समान है ? क्या उसे पुरुष संदर्भ के बगैर अपनी पहचान बनाने और अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार है ? आज स्त्रियां कह रही हैं कि मेरा तन, मन और धन सिर्फ मेरा है.

आज समाज में इस तरह की भावना के कारण शरीर हमारी अस्मिता की पहचान का मुख्य उपकरण बन गया है. आज प्रत्येक सामाजिक प्राणी शरीर के माध्यम से अपनी इमेज प्रक्षेपित कर रहा है. शरीर के नए-नए कद, आकार-प्रकार, बनावट, नाक-नक्श, हाव-भाव आदि पर जोर दिया जा रहा है. स्त्री पुरानी पहचान और भूमिका को त्याग रही है. चारों ओर उसी की रूप चर्चा है और मुक्त रूप का बोलबाला है. इसके कारण कामुकता का अर्थशास्त्र पैदा हुआ है.

कामुकता और सेक्स का उद्योग विशालकाय रूप में उभरकर सामने आया है. यही स्थिति समलैंगिक पंथियों की है, वे भी अपनी पहचान खोज रहे हैं. वे पहले से तयशुदा हैट्रोसेक्सुअल स्टीरियोटाइप को चुनौती दे रहे हैं.

कहने का तात्पर्य यह कि लिंगाधारित पहचान के प्रश्न प्रमुखता हासिल कर रहे हैं. साथ ही, प्रत्येक अपने ‘निजी’ भावों, इच्छाओं, शरीर आदि पर जोर दे रहा है. शारीरिक ‘एपियरेंस’ और ‘कंट्रोल’ को तरह-तरह की माध्यम प्रस्तुतियों के जरिए उभारा जा रहा है. यह बायो पावर के युग की सूचना है. आज बॉडी संचालक शक्ति है. उसे अस्मिता और जीवनशैली के साथ जोड़कर पेश किया जा रहा है. इस क्रम में धार्मिक तत्ववादी संगठन धर्म को जीवन शैली के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं.

हिंदुत्ववादियों की हिंदू धर्म की व्याख्या मूलत: धर्म को जीवनशैली मानकर चलती है. अस्मिता का जीवनशैली से जुड़ना वस्तुत: विश्व पूंजीवादी बाजार के तर्क की जीत है और हिंदू तत्ववादी इसी चीज का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं. वे हिंदू धर्म को जीवनशैली मानते हैं. शरीर कैसे जीवनशैली से जुड़ गया ? उसे ‘डाइटिंग’ (नियंत्रित आहार) के आधुनिक अर्थ के साथ जोड़कर देखें.

‘डाइटिंग’ का खान-पान के विज्ञान के प्रवेश के साथ संबंध है. पहले खान-पान का विज्ञान के साथ संबंध नहीं था. आज खान-पान का विज्ञान निर्मित हो चुका है. आज व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या खाए ? क्या पीए ? आज विकसित देशों में प्रत्येक व्यक्ति (अति गरीब को छोड़कर) ‘डाइटिंग’ करता है. इसके कारण ‘डाइटिंग’ का 33 बिलियन डॉलर का विश्व बाजार पैदा हो गया है.

विश्वव्यापी पूंजीवादी व्यवस्था के उदय के साथ खाने-पीने की तरह-तरह की चीजें बाजार में उपलब्ध हुईं. ‘डाइटिंग’ उद्योग ने इसे नई बुलंदियों तक पहुंचाया. आज अनेक किस्म की खाने-पीने की चीजें पूरे वर्ष सहज ही उपलब्ध हैं. खान-पान का जीवनशैली से संबंध जुड़ने के कारण दुनिया के प्रति हमारा रवैया बदला. जीवन शैली में धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण का प्रसार हुआ. ‘डाइटिंग’ का लक्ष्य युवा औरतें ही होती हैं. इससे ज्यादातर औरतों में तरह-तरह की शारीरिक और मानसिक समस्याएं जन्म ले रही हैं.

भारतीय परंपरा में  सेक्स को प्रेम से अलग कर दिया गया

भारतीय परंपरा में स्त्री की जो इमेज रही है उसमें मातृभाव हावी रहा है. यहां तक कि पत्नी से जो उम्मीदें की जाती हैं उनका मातृभाव से गहरा संबंध है. इसके कारण पति-पत्नी के बीच का शारीरिक प्रेम अच्छी नजर से नहीं देखा जाता. उस प्रेम को अच्छा माना जाता है जिसमें शारीरिक प्रेम कम और वायवीय प्रेम ज्यादा हो. पति और पत्नी के बीच के शारीरिक प्रेम के बारे में जो आचार-संहिता बनाई गई उसमें इस बात का खास तौर पर ध्यान रखा गया. प्रेम को आनंद का पर्याय बनाया गया और सेक्स को प्रेम से अलग कर दिया गया.

भारतीय चिंतकों ने पति के लिए निर्देश दिया कि वह अपनी पत्नी को सिर्फ ऋतु के समय ही प्यार करे. यानी मासिक धर्म से दूसरे मासिक धर्म के बीच के सोलह दिनों को ऋतु कहा गया. इसमें भी पहले चार दिन, ग्यारहवें और तेरहवें दिन संभोग न करें. बाकी रात्रि में संभोग करे. यानी महीने में मात्र दस दिन संभोग की इजाजत दी गई. इसमें भी सम तिथियों में संभोग करने से पुत्र और विषम तिथियों में संभोग करने से पुत्री प्राप्ति का योग बताया गया. जाहिरा तौर पर भारतीय मनोदशा पुत्री प्राप्ति के पक्ष में नहीं है.

इसका परिणाम यह है कि संभोग के लिए जो दिन सुझाए गए वे सीधे-सीधे घटकर आधे रह गए. इसके अलावा पर्व हैं, अमावस्या है, पूर्णिमा है, या देवी-देवताओं के मेले या त्यौहार हैं जिनके अवसर पर संभोग करना मना है. यदि कोई इन तिथियों में संभोग करता है तो उससे क्या नुकसान हो सकता है इसकी लंबी सूची है. इसके अलावा दिन में सेक्स करना मना है. कहने का मतलब यह कि महीने में संभोग के लिए सुरक्षित बमुश्किल पांच रातें खोजना लॉटरी निकलने के बराबर है.

इस तरह के प्रावधान बताते हैं कि भारतीय परंपरा विवाहित जीवन में भी सेक्स को पर्याप्त जगह नहीं देती. यानी हम भारतीय हैं कृपया सेक्स की बातें न करें. सेक्स संबंधी रूढ़ियां हिंदू समाज में आज भी बहुत मजबूत हैं. यही वजह है कि उच्च जाति की औरतें योनि और जननेंद्री के नाम को नहीं लेती. उसके लिए तरह-तरह के छद्म नाम दे दिए गए हैं. यह मान्यता है कि योनि व जननेंद्री को सही नाम से पुकारेंगे तो वह आकर्षित कर सकती है.

सेक्स के बारे में खड़ी की गईं सांस्कृतिक बाधाएं

स्थिति यह है कि डाक्टर के पास एक उच्च शिक्षा संपन्न व्यक्ति जब अपने उपचार के लिए पहुंचा तो उसे अंग्रेजी में गुप्तांग का नाम बोलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी किंतु ज्यों ही डाक्टर ने उन्हें अपनी मातृभाषा में गुप्तांग का नाम लेने के लिए कहा, उस भाषा में अनूदित करने के लिए कहा जो भाषा उनके शारीरिक अनुभव के करीब हो तो उन महाशय के पास शब्द नहीं थे. कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदू समाज में सेक्स और कामुकता के प्रति अज्ञान के कारण बड़े पैमाने पर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तनाव पैदा हो रहे हैं. इस अज्ञान का सबसे प्रमुख कारण है सेक्स के बारे में खड़ी की गईं सांस्कृतिक बाधाएं.

प्रसिद्ध मनोशास्त्री सुधीर कक्कड़ ने लिखा है आम तौर पर यह मिथ है कि निचली जातियों में सांस्कृतिक बाधाएं नहीं होतीं किंतु सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि बड़े पैमाने पर निचली जातियों में सेक्स को लेकर व्यापक असंतोष है. दिल्ली में रहने वाली निचली जातियों की औरतों ने बताया कि सेक्स ने प्यार और लगाव के बजाय उनके मन में वैमनस्य और अलगाव पैदा किया है. इसका प्रधान कारण यह है कि अधिकांश औरतों को प्यार या संभोग जनबहुल कमरे में करना पड़ता है जो चंद मिनट का होता है. इसमें किसी भी किस्म का शारीरिक और मानसिक आनंद नहीं मिलता.

अधिकांश औरतों के लिए यह अनुभव पीड़ादायक और अरुचिकर होता है. यदि यह बात कोई औरत बता दे तो उसे शारीरिक उत्पीड़न के भय से गुजरना होता है. स्थिति यहां तक बदतर होती है कि सेक्स के समय कोई भी औरत अपने कपड़े तक नहीं उतार पाती क्योंकि कपड़े उतारकर सेक्स करने में शर्म महसूस होती है. निचली जाति की जिन औरतों में पति के प्रति समर्पण की भावना पाई जाती है वहां पर सेक्स को मर्द का ही विशेषाधिकार और आवश्यकता माना जाता है. इसे ये औरतें इन शब्दों में बताती हैं ‘आदमी बोलना चाहता है.’

आम तौर पर हिंदुस्तानी औरतें सेक्स के बारे में रूपकों में बातें करती हैं जैसे ‘हफ्ते में एक बार लगवा लेते हैं.’ यानी सप्ताह में एक बार इंजेक्शन लगवा लेते हैं. कहने का मतलब यह है कि संभोग पीड़ादायक है किंतु स्वास्थ्य के लिए जरूरी है. संभोग के लिए सबसे ज्यादा चर्चित पदबंध है, काम और धंधा अर्थात् कार्य और व्यापार. निचली जाति की औरतों और पुरुषों में संभोग एक तरह का समझौता और निर्वैयक्तिक विनिमय संबंध है. इसमें एक पक्ष शोषण करता है और आनंद लेता है.

दूसरी ओर मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के पति-पत्नी संबंधों में आम तौर पर आंतरिक लगाव का अभाव मिलेगा. खासतौर पर औरतों में अपने पति के प्रति एक मर्द के तौर पर आंतरिक लगाव अनुपस्थित मिलेगा. पति-पत्नी के बीच में युगल के तौर पर जिस आंतरिकता की बातें की जाती हैं उन्हें जीवन के विभिन्न पड़ावों पर सुनते हुए स्त्रियां बड़ी होती हैं और ये सारी बातें कल्पना और फैंटेसी से निकली होती हैं. इन मीठी-मीठी बातों के माध्यम से पति-पत्नी के मधुर जगत की सृष्टि की जाती है.

जबकि जीवन की वास्तविकता यह है कि पति-पत्नी के जीवन में वह सुनहरा दिन कभी नहीं आता जिसकी मधुर बातें सुनते हुए लड़कियां बड़ी होती हैं. इन दोनों के बीच जो असमान संबंध उभरकर आता है, यह असमानता प्रत्येक क्षेत्र में अभिव्यक्ति पाती है जिसके कारण कभी-कभी आनंद का क्षण आता है और बाकी समय महाभारत चलता रहता है, जिसमें असंतोष, दुख, दर्द और कुंठाओं की बार-बार अभिव्यक्ति होती है.

इसका प्रधान कारण यह है कि भारतीय समाज में सेक्स और कामुकता के प्रति आंतरिक गंभीर भावबोध का अभाव है. इस अभाव की जड़ें हमारे सामाजिक संबंधों की प्रकृति में छिपी हैं. पति-पत्नी के बीच के मौजूदा सामाजिक संबंधों में व्याप्त असमानता, कामुकता और सेक्स के प्रति अवैज्ञानिक रवैए को जब तक नहीं बदलेंगे तब तक नई भावनाओं के साथ हमारा समाज सामंजस्य नहीं बिठा पाएगा.

उपभोक्तावादी संस्कृति के माध्यम से कामुकता की लोकप्रियता

परवर्ती पूंजीवाद के दौर में कामुकता की लोकप्रियता ने कामुक पहचान को नया जन्म दिया. इसे उपभोक्तावादी संस्कृति के माध्यम से निर्मित किया. यह परवर्ती पूंजीवाद के विकास की सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है. आज सेक्स और सेक्सुएलिटी का पूरी तरह वस्तुकरण हो चुका है. उसे वस्तुओं के साथ जोड़ दिया गया है. अब सब कुछ खुला और बाजार में, दिन के उजाले में होता है.

पूर्व-आधुनिक काल में कामुकता राज्य के संरक्षण में पलती थी. आज वह स्वायत्त और आत्मनिर्भर है. इसे प्रत्यक्षत: सत्ता के संरक्षण की जरूरत नहीं है. इसके विपरीत सत्ता और बाजार इसके सहयोग पर निर्भर हैं. दरबारी सभ्यता ने कामुकता को समृद्धि के प्रदर्शन से जोड़ा. पूंजीवाद ने इसे निर्वस्त्र करके सत्ताधारी राजनीति के वर्चस्व से जोड़ा और बाजार का सर्वस्व बना डाला.

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से, पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामंतवाद का कामुकता से संबंध है. पूंजीवाद का अर्द्धनग्नता (सेमी पोर्नोग्राफी) से और परवर्ती पूंजीवाद का पोर्नोग्राफी से संबंध है.
मध्यकाल में कामुकता की अभिव्यक्ति कलाओं में हुई और कामुक कला-निपुण था. पूंजीवाद ने कामुक को कामुकता की वस्तु बना दिया, उसे कला और कौशल से पृथक किया, अब कामुकता मात्र देह होकर रह गई. परवर्ती पूंजीवाद ने कामुकता को आम जीवन का सबसे आकर्षक और गतिशील तत्व बना दिया.

सामंती दौर में कामुकता के क्षेत्र में विशिष्ट जातियों और पेशेवर लोगों का दखल था. आज इस पर प्रत्येक नागरिक का दखल है. आज विज्ञापन के मॉडल या पोर्नोग्राफी के मॉडल सुधीजनों या गुणीजनों के परिवारों से नहीं आते अपितु आम शहरी परिवारों से आते हैं. अब गुण के बजाय शरीर के ऊपर जोर है. सामंतवाद में कामुकता दरबार को संबोधित करती थी.

आधुनिककाल में समस्त सामाजिक समूहों और वर्गों को संबोधित करती है. सामाजिक जीवन से पलायन की ओर ले जाती है. आज कामुकता सबसे बड़ा उद्योग है. भारत में इसका 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार है. आम तौर पर कामुकता पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती है, किंतु प्रतिबंध इस समस्या का समाधान नहीं है. प्रतिबंध के बजाय इसके प्रति आलोचनात्मक रवैया पैदा किया जाना चाहिए. उसने नए किस्म की गुलामी और आजादी को जन्म दिया है. यह हमारे निजी जीवन की कामुकता के अधिकार का क्षय है. यह स्वतंत्र कल्पनाशीलता के लिए चुनौती है, यह व्यक्तिगत शैली के लिए गंभीर समस्या है. हमें इस सवाल पर सोचना चाहिए कि हाल के वर्षों में कामुकता और पोर्नोग्राफी के व्यापक प्रचार-प्रसार के पीछे सबसे प्रमुख कारण क्या है ? संभवत: कामुकता के बहाने सत्ताधारी वर्गों के द्वारा जनतांत्रिक महिला आंदोलन का प्रत्युत्तर देने की कोशिश की जा रही है.

औरतों के अंदर जहां एक ओर आत्मविश्वास पैदा हुआ है, वहीं दूसरी ओर स्त्री के प्रति हिंसाचार में वृद्धि हुई है. विभिन्न माध्यमों के जरिए हिंसा को नॉर्मलाइज किया जा रहा है. कामुक सामग्री का सामाजिक जीवन में तेजी से इस्तेमाल बढ़ा है. इससे आक्रामकता, संकीर्णता, प्रतिगामिता में वृद्धि हुई है. साथ ही, सामाजिक परिवर्तन के विरोधी भावबोध का सामाजिक आधार मजबूत हुआ है. जनमाध्यमों में औरतों के मसलों पर चर्चाएं कम हो रही हैं जबकि औरत के परंपरागत सरोकारों मसलन, खाद्य, फैशन, सुंदरता, साज-सज्जा आदि पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है. इस स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि कामुकता और सेक्स के प्रति पूर्वग्रहों से अपने को मुक्त करें। कामुकता और सेक्स जीवन की वास्तविकता है. इसके प्रति वैज्ञानिक रवैया अपनाएं. साथ ही, साधारण स्त्रियों के आम सवालों और समस्याओं को चर्चा के केंद्र में लाएं.

भारतीय साहि‍त्‍य में कामुकता वि‍मर्श

साहित्य में एक दौर ऐसा भी आया था जब कहा गया कि ‘प्रत्येक बात को कहने दो’, इस नारे के तहत सेक्स के संदर्भ में जितने भी विवरण थे, सबको खुलकर बता दिया गया. यह कार्य लंबे समय से श्रृंगार-साहित्य और रीतिवादी साहित्य करता रहा है. सेक्स का वर्णन अब सभ्य, सुसंस्कृत विवरणों के रूप में रखने की बात कही जाने लगी.

आधुनिक काल आने के बाद विमर्श की भाषा एकदम बदल गयी. श्रृंगार साहित्य के लेखकों के लिए जीवन का कोई क्षेत्र खासकर कामुकता से जुड़ा कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं था. व्यक्ति के गुप्त जीवन के सेक्स संबंधी पहलुओं का उद्धाटन करना उनका लक्ष्य था. उसके उद्धाटन में वे शर्मिन्दगी महसूस नहीं करते थे. इस सारे साहित्य के बारे में आधुनिक काल में जबर्दस्त बहस चलायी गयी, इसके समस्त ब्यौरों को आधुनिक मनुष्‍य के सामने इसलिए पेश किया गया कि वह सेक्स के बारे में अब अपना मूंह बंद कर ले. यही वह महान् प्रक्रिया है जिसमें सेक्स का विमर्श में रूपान्तरण हुआ.

विगत तीन सौ वर्षों की यह उपलब्धि है कि आधुनिक मनुष्‍य सेक्स से संबंधित सारी बातें बताता रहा है. यह सारा कार्य श्रृंगार और रति साहित्य के उद्धाटन के बहाने हुआ है.  इसका बहुस्तरीय प्रभाव पड़ा है. इच्छाओं का सघनीकरण, रूपान्तरण और संशोधन हुआ है. इससे सेक्स का दायरा बढ़ा है. सेक्स विमर्श ने संगठनों के जटिल स्वरूप पर अनेक स्तरों पर प्रभाव छोड़ा है. आज पाबंदी या सेंसरशि‍प किसी काम की नहीं रह गई है. सेक्स विमर्श पर पहले की तुलना में ज्यादा सामग्री उपलब्ध है.

फूको कहता है कि सेक्स कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका आप मूल्यांकन कर लें बल्कि सेक्स ऐसी चीज है जिसे निगमित करना होता है. उसकी सार्वजनिक क्षमता होती है. इसके लिए प्रबंधन प्रक्रिया की जरूरत होती है. इसकी जिम्मेदारी विश्‍लेषणात्मक विमर्श को लेनी होगी. यही वजह है कि यूरोप में 18वीं शताब्दी में ‘सेक्स’ पुलिस का विषय हो गया. अब यह पूरी तरह दमित व्यवस्था की बजाय सामूहिक और व्यक्तिगत शक्ति की व्यवस्था हो गया. नियमों के जरिए अब हम तर्क को पुष्‍ट करने लगे. राज्य की आंतरिक शक्ति को मजबूत बनाने लगे. अब पावर सिर्फ जनतंत्र के ही पास नहीं थी बल्कि सामान्य जन के पास भी थी. उन लोगों के पास भी थी जो इसमें रहते थे.

सेक्स पर पुलिसिया पहरा उसे सख्ती से टेबू बनाता है और उपयोगी सेक्स विमर्श के जरिए प्रचारित प्रसारित करता है. पावर की तकनीक की व्याख्या करते हुए फूको ने लिखा कि 18वीं सदी में पावर की सबसे प्रभावी तकनीक के रूप में ‘जनसंख्या’ का आर्थिक और राजनीतिक समस्या के रूप में जन्म हुआ. कहा गया जनसंख्या संपदा है. जनसंख्या लोगों की शक्ति है. श्रम क्षमता है. अब सरकार सोचने लगी कि वह जन को नहीं ‘जनसंख्या’ को सम्बोधित कर रही है, देख रही है. उसके विशि‍ष्‍ट फिनोमिना हैं, मानक हैं.

जनसंख्या की बुनियाद में सेक्स था. यही वजह थी कि जन्मदर, शादी की उम्र, वैध और अवैध संतति, कामुक क्रिया की गति, कैसे बच्चा पैदा करते हैं, अविवाहित औरत पर असर, गर्भनिरोध के उपायों का असर इत्यादि सवालों को जानने की कोशि‍श की गई. इसके बावजूद सेक्स को ‘अति-गोपनीय’ कहा गया. लंबे समय तक यह तर्क दिया गया कि समृद्ध होना है तो ज्यादा से ज्यादा जनसंख्या वृद्धि करो. पहली बार ऐसा हुआ कि समाज का भविष्‍य नंबरों से जोड़ दिया गया, उसे नागरिक के उज्ज्वल भविष्‍य शादी के नियमों और परिवार के संगठन के साथ जोड़ दिया गया. अब देखना यह था कि प्रत्येक व्यक्ति कैसे सेक्स करता है.

19 वीं शताब्दी आते-आते राज्य और नागरिक के बीच विवाद के मुद्दों में केन्द्रीय मुद्दा था सेक्स. राज्य अब जानना चाहता था कि नागरिक कैसे सेक्स कर रहे हैं. इसके लिए वे क्या कर रहे हैं. 19वीं शताब्दी में सेक्स का विमर्श अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता है. इसके लिए विशेष ज्ञान, विश्‍लेषण और समाधान तलाशे जाने लगे. यही स्थिति बच्चों के सेक्स की भी थी.

वयस्कों और बच्चों के बीच इस विषय पर बोलने की आजादी छीन ली गई. ऐसा नहीं है कि इस दौर में सेक्स पर कभी बातें नहीं हुईं. बल्कि भिन्न तरीके से हुई हैं. ये भिन्न लोग थे जो भिन्न नजरिए से बोल रहे थे. भिन्न किस्म के परिणाम हासिल करने की कोशि‍श कर रहे थे. चुप्पी स्वयं में या नाम न बोलने की आदत ने इस विमर्श की सीमाएं बांध दी.

किसी ने क्या कहा और क्या नहीं कहा इसमें कोई वायनरी अपोजीशन नहीं है. बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि किसी भी चीज को भिन्न तरीके से कैसे नहीं कहा गया. जो बोल सकते थे और जो नही बोल सकते थे, उसे कैसे वितरित किया गया।किस तरह के विमर्श को आधिकारिक माना गया, इसके लिए किस तरह के मनमाने नियम बनाए गए, यहां एक नहीं अनेक चुप्पियां हैं. ये चुप्पियां अन्तर्ग्रथित रणनीति और अनुमति प्राप्त विमर्श से बंधी हुई हैं.

अठारहवीं शताब्दी से सेक्स के बारे में बहुस्तरीय विमर्श नजर आते हैं. ये सभी विमर्श सेक्स को कैसे लागू किया जाए, इसके विभिन बिन्दुओं को पेश करते हैं. इन्हें योग्य वक्ताओं द्वारा संहिताबद्ध रूप में पेश किया गया. इनके माध्यम से ही पावर यानी सत्ता ने हमारे जीवन में हस्तक्षेप किया.

बच्चों और तरूणों का सेक्स 18 वीं शताब्दी से ही सबसे ज्यादा विवादास्पद विषय रहा है. इसके लिए अनेक किस्म की संस्थानगत तकनीक और विमर्शात्मक रणनीतियां बनायी गयी. बच्चों और वयस्कों को अनेक तरीकों से सेक्स के सवाल पर बोलने से वंचित किया गया. इसका तरीका यह रहा है सेक्स के बारे में प्रत्यक्ष या सीधे न बोला जाए, ठोस रूप में न बोला जाए, जोर-जबर्दस्ती के स्वर में न बोला जाए. उनके बीच में काम करने के लिए यह जरूरी है कि विमर्श को ऐसे पेश किया जाए कि वे इसे बड़ों के द्वारा कहे गए कथन के रूप में आत्मसात् करें और इसे पावर संबंधों के संदर्भ में अभिव्यक्त किया जाए.

18वीं शताब्दी के बाद से सेक्स के नाम पर कोई उत्तेजनात्मक वैचारिक संघर्ष नहीं हुआ. सेक्स ने सत्ता के खिलाफ अपनी भूमिका अदा करनी बंद कर दी. इसके विपरीत सत्ता के गलियारों से सेक्स के बारे में जो कुछ बोला गया, दर्ज किया गया उसने सेक्स को प्रत्यक्ष बहस से बाहर कर दिया. सेक्स को छिपने के लिए मजबूर कर दिया.

ब्रि‍टि‍श साम्राज्यवाद ने समूचे समाज को अपनी कामुकता की धारणा बदलने के लिए मजबूर किया और उसे निरंतर बहस का मुद्दा बनाए रखा. इसके लिए बहुरूपी मैकेनिज्म भी बनाया गया. अर्थव्यवस्था, उपदेश, चिकित्सा, न्याय, उत्तेजना, अपहरण, वितरण और सेक्स विमर्श को संस्थानगत रूप दिया गया. हमारी सभ्यता को क्या चाहिए, इस आधार पर संगठित किया गया. इतने कम समय में किसी भी समाज ने इतने व्यापक पैमाने पर किसी भी विमर्श को कभी आत्मसात नहीं किया है, जितना जल्दी सेक्स विमर्श को किया है.

यह सच है कि हम सेक्स के बारे में अन्य विषयों की तुलना में ज्यादा समय बातें करते हैं. हम अपने दिमाग में लक्ष्य तय करते हैं. हम अपने को संतुष्‍ट करते हैं कि हमने सेक्स पर ज्यादा बात नहीं की. यह कार्य हम इनर्सिया या समर्पणबोध के जरिए करते हैं जो विभिन्न चैनलों के जरिए सक्रिय रहता है.

मध्यकाल में सेक्स विमर्श दरबारी संस्कृति के माध्यम से दाखिल होता था, यही उसका एक मात्र रूप था. इसके विपरीत आधुनिक काल में सेक्स विमर्श अनेक रूपों में आता है. मध्यकाल की एकरूपता आधुनिककाल में खत्म हो जाती है. अब वह बिखरा हुआ, बहुस्तरीय है. वह अनेक किस्म के विमर्शों के माध्यम से आता है. जैसे डेमोग्राफी, मेडीसिन, बायोलॉजी, मनोचिकित्सा, मनोविज्ञान, एथिक्स, राजनीतिक आलोचना आदि. इसके अलावा सामाजिक बंधन की नैतिकता उसे बांधे रखती है.

आधुनिक काल में सेक्स विमर्श के अनेक केन्द्र जन्म ले लेते हैं. वे जटिल रूपों में अपना विकास करते हैं. इनके एक जैसे सरोकार हैं, इनमें सबसे प्रमुख सरोकार है सेक्स को छिपाना. इस कार्य के लिए विगत तीन सौ सालों में अनेक किस्म के उपकरण इजाद किए गए हैं, जिससे आप इसके बारे में बोलें, स्वयं बोले, सुनें, रिकॉर्ड करें, लिपिबद्ध करें और वितरित करें कि उसके बारे में क्या सोचते हैं ?

सारा नेटवर्क सेक्स के इर्दगिर्द ही घूम रहा है. किसी न किसी रूप में थोड़े बहुत फर्क के साथ समस्त किस्म के विमर्शों पर उसे थोप दिया गया है. जबकि मौखिक तौर पर हम इस युग में तर्क की वरीयता की बातें कर रहे हैं. इस सबको लेकर आपत्तियों का उठना स्वाभाविक है क्योंकि सेक्स पर बात करने के लिए अनिवार्यत: इतने मैकेनिज्म ईजाद किए गए हैं. हमें इस पर लगी सभी पाबंदियां हटा देनी चाहिए और सेक्स को नए नजरिए से देखना चाहिए.

किन्तु यह काम सीमित और सतर्क संहिताबद्ध ढ़ंग से किया जाना चाहिए. आप जितना ज्यादा सेक्स के बारे में बातें करेंगे उसके उतने ही स्वर्त:स्फूर्त्‍त उपकरण सामने आ जाएंगे. इसके विमर्श को सख्त परिस्थितियों में करने का यह अर्थ नहीं है कि सेक्स को गुप्त बना दिया जाए या सेक्स को गोपनीय बनाने के प्रयासों की इससे पुष्‍टि‍ नहीं होती.

फूको कहता है कि सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इसे आज भी गोपनीय बनाने की कोशि‍श की जा रही है. किन्तु यह बात बार-बार कही गयी है कि सेक्स, विमर्श के दायरे के बाहर होता है और इसके लिए एकमात्र रास्ता है उसकी बाधाओं को हटाना. सेक्स की गोपनीयता को भंग करना. इससे ही वह रास्ता साफ होगा जिसकी हमें परीक्षा करनी है. क्या नश्‍तर लगाने से सेक्स विमर्श में उत्तेजना आएगी, इसका लक्ष्य सेक्स पर बोलने लिए लोगों को उत्तेजित करना नहीं है, वह तो आईना है. वह प्रत्येक वास्तव विमर्श की बाहरी सीमा है, असल में जो कुछ छिपाया जा रहा है उसका उद्धाटन करना है. चुप्पी को कम करना है.

चरम काम –तृप्ति के दीवाने !

अब उन्हें क्रांति नहीं सेक्स चाहिए. क्रांति से जुड़े सवाल, क्रांति से जुड़े इवेंट, इमेज, आंदोलन और पठनीय सामग्री उन्हें आकर्षित नहीं कर रहे, उन्हें सेक्स क्रांति चाहिए. चरम यौन तृप्ति चाहिए. कामुक परम सुख चाहिए. उन्हें स्त्री का कामुक अंदाज और कामुक मांगे अपील कर रही हैं. लोकतंत्र में उनको यह सब मांगने का हक है. सवाल यह है वे चरम काम-तृप्ति के जरिए आखिर जाना कहां चाहते हैं ? मुक्त कामुक प्रवाह और उसकी सार्वजनिक अभिव्यक्ति की मांग और उसके समर्थन में लिखी जा रही टिप्पणियां बताती हैं कि सोशल मीडिया की ध्यान हटाने की टेकनीक किस तरह समझदार लोगों को भी प्रभावित और परिचालित कर रही है.

भारत की मौजूदा अवस्था बेहद जटिल और गंभीर है. इस समय देश में राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक विध्वंस लीला चल रही है. व्यापक निरूद्योगीकरण और भयावह बेकारी से युवाओं और सोशल मीडिया यूजरों को परिचित कराना प्राथमिक समस्या है. इस राष्ट्रीय विध्वंस लीला से जुड़े प्रमुख सवालों पर सचेतनता पैदा करने की जरूरत है. हमारे इंटरनेट यूजरों का अधिकांश हिस्सा यथार्थ से काट दिया गया है और वह गैर-यथार्थवादी सवालों पर जूझ रहा है. उसे इंटरनेट एडिक्शन, टीवी एडिक्शन और ड्रग एडिक्शन, एंटी मुस्लिम एडिक्शन और हिन्दुत्व के एडिक्शन में फंसा दिया गया है.

ये एडिक्शन के पांच क्षेत्र हम सबके लिए, पूरे राष्ट्र के लिए गंभीर चुनौती हैं और ये राष्ट्रीय एकता और सचेतनता के लिए भी चुनौती हैं. जब देश पहले से पांच किस्म के एडिक्शन का शिकार हो, खासकर नौजवान और औरतें इन पांच किस्म के एडिक्शन से सबसे अधिक प्रभावित हों तो सबसे पहले इन पर ध्यान जाना चाहिए. हमारे पास इनसे निकलने का दूर-दूर तक कोई एक्शन प्लान, नीतियां और जनांदोलन नजर नहीं आ रहे.

ऐसी अवस्था में चरम यौन सुख का प्रश्न एकदम बेमानी है. जिन विद्वानों ने समाजवादी देशों के उदाहरण दिए हैं वे जान-बूझकर उस सच्चाई पर पर्दा डाल रहे हैं कि वहां क्रांति के काम पहले किए गए कामुकता और चरम यौन तृत्ति के सवालों पर बातें बाद में की गईं. मसलन्, सोवियत संघ में चरम यौन सुख के नाम पर वेश्यावृत्ति की हिमायत करने वालों के खिलाफ व्यापक मुहिम चलायी गयी.

सच यह है भारत में पांच एडिक्शन वस्तुतःपांत प्रेत हैं जो सत्ता की मदद से सक्रिय हैं. इन प्रेतों की मुक्ति के उपायों पर सबसे पहले विचार करने की जरूरत है. एडिक्शन के शिकार समाज को यौन तृप्ति कभी नहीं मिल सकती. चरम यौन तृप्ति की हिमायत वस्तुतःस्त्री के शोषण और दमन से ध्यान हटाने का सबसे आकर्षक बहाना है. सामाजिक परिवर्तन प्राथमिक शर्त है, उसके बिना किसी भी किस्म का सुख, चाहे वह यौन सुख ही क्यों न हो व संभव नहीं है.

स्त्री की रक्षा की पहली शर्त है पहले स्त्री बचाओ. स्त्री पर विभिन्न रुपों में हो रहे हमलों पर आम जनता, खासकर औरतों को गोलबंद करो. आज हकीकत यह है स्त्रियों का बहुत बड़ा हिस्सा उपरोक्त पांच एडिक्शन का शिकार बनाया जा चुका है. इससे कैसे लड़ें, इस पर विचार करें. स्त्री की ऐतिहासिक विकास यात्रा और स्त्री के वर्तमान के यथार्थ को अधिक से अधिक बारीकी से जानें और सामने लाएं.

हकीकत यह है कि औरत को हम अभी तक न्यूनतम नहीं जानते, औरत के मसलों पर न्यूनतम समय या शब्द तक खर्च नहीं करते, यह दशा उन महान क्रांतिकारियों की है जो चरम यौन तृप्ति की मांग का समर्थन कर रहे हैं. भारत को फिलहाल पांच एडिक्शन से मुक्ति के लिए जनांदोलन चाहिए.

  • जगदीश्वर चतुर्वेदी, सुधा सिंह

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ROHIT SHARMA

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