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सुब्रतो चटर्जी
जिस फ़्री बीज पर सुप्रीम कोर्ट रंडी रोना गा रहा है, उन योजनाओं पर केंद्र और राज्य सरकारों का सिर्फ़ 1.5% जीडीपी का खर्च औसतन होता है. आज दैनिक भास्कर के फ़्रंट पेज पर यह आंकड़ा आया है, जो आंकड़े छिपाये गये हैं वो ये कि सरकार कॉरपोरेट टैक्स पर जीडीपी का कितना प्रतिशत छूट देती है.
अगर भारत का बजट कुल पचास लाख करोड़ का है और कॉरपोरेट टैक्स और ऋण माफ़ी पिछले दो सालों में 21 लाख करोड़ है, तो बजट का कितना प्रतिशत हुआ, इसे समझने के लिए आइंस्टीन होने की ज़रूरत नहीं है.
दूसरी तरफ़, मूल्य वृद्धि और रुपये के अवमूल्यन के कारण से भारत की कुल जीडीपी 3.6 ट्रीलियन की बनी हुई है. इसमें से अगर सालाना 16 लाख करोड़ को माइनस कर दिया जाए तो कितना बचता है, यह भी देखा जाए.
जब सालाना खुदरा मुद्रास्फीति की दर करीब करीब 10% या उससे अधिक हो तो 3 ट्रीलियन की इकोनॉमी को 3.6 ट्रीलियन की इकॉनमी बनने में बिना किसी आर्थिक प्रगति के ही सिर्फ़ दो साल ही लगेंगे.
दूसरी तरफ़, मोदी सरकार के हरेक बजट में रेवेन्यू खर्च पर ध्यान दिया जाता है और केपेक्स, यानि capital expenditure पर नहीं. पब्लिक स्पेंडिंग नदारद है. नतीजा ये हुआ है कि पिछले दस सालों में कोई भी सरकारी प्रतिष्ठान नहीं बने. जब सरकारी प्रतिष्ठान ही नहीं तो सरकारी नौकरी भी नहीं. (आप बिना नौकरी के आरक्षण पर राजनीति करते रहिए)
इन्फ़्रास्ट्रक्चर पर खर्च दरअसल वर्ल्ड बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या एशियन डेवलपमेंट बैंक के पैसे पर ठेकेदार कल्याण योजना के तहत चल रहा है. आज राष्ट्रीय उच्च पथ निगम के पास इस उधार का ब्याज चुकाने के पैसे भी नहीं हैं.
एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार ने पिछले दस सालों में विभिन्न लोक लुभावन योजनाओं पर 100 लाख करोड़ रुपए खर्च किए हैं. इतने पैसे में तो भारत अमरीका न सही, इंग्लैंड तो बन ही जाता. सवाल ये है कि पैसे जा कहां रहे हैं ?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि पैसे घुमाकर भाजपा के कैडर को मिल रहा है. यह पूरी तरह से ग़लत है. चुनावी प्रक्रिया को सुप्रीम कोठा के सहयोग से हैक कर लेने के बाद भाजपा या मोदी को किसी कैडर की ज़रूरत नहीं है.
ये जो माइक्रो लेवल पर बूथ मैनेजमेंट की बात होती है, ये सब चूतियापा के सिवा कुछ भी नहीं है. सच तो यह है कि मोदी को सत्ता में बने रहने के लिए जनता की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि भारत में सत्ता सुनिश्चित करने के लिए बस एक मशीनरी चाहिए, जो कि उसके पास है.
फिर वही सवाल. पैसा जा कहां रहा है ? क्या यह round tripping के ज़रिए विदेश में जाकर लौट कर मोदी और उसके मित्रों के पास जा रहा है ? अगर नहीं तो CAG जांच करे या ईडी करें. करेगा कौन ? चूंकि जनता ये सब सवाल न पूछे, इसलिए आज 80 करोड़ भिखार्थी हैं मी लॉर्ड और कल 100 करोड़ भी होंगे. आप क्या उखाड़ लेंगे ?
L&T चेयरमैन कहते हैं कि उनको काम करने के लिए लेबर नहीं मिलते हैं, क्योंकि सरकार मुफ़्त अनाज दे रही है. क्या आप बताएंगे कि आप ठेके लेबर को कितनी मजदूरी देते हैं ?
आउटसोर्सिंग के इस दौर में सेवानिवृत सैनिक कल्याण संघ भी सशस्त्र गार्ड के लिए कंपनियों या सरकारी संस्थाओं से तीस हज़ार रुपये महीने का लेकर गार्ड को महज 18000 रुपये देता है. प्राइवेट सुरक्षा कंपनियों की बात तो छोड़िए. यूं ही कोई आर. के. सिन्हा SIS नहीं बनाता है और भाजपा में नहीं जाता है.
L&T जैसी कंपनियां क्या अपना एक parmanent work force नहीं बना सकती हैं regular employment देकर ? इससे उनके मुनाफ़े में कितना घाटा हो जाएगा ? शायद दो प्रतिशत, क्योंकि विनिर्माण क्षेत्र में लगी कंपनियों का लेबर पर कुल खर्च कभी भी दस प्रतिशत से ज़्यादा होता ही नहीं है. उनके बैलेंस शीट को देखिए.
ऐसे में ठेका मज़दूरों की ज़रूरत क्यों है ? दो प्रतिशत मुनाफ़े में घाटा बचाने के लिए या बिचौलियों की दलाल संस्कृति को जिलाए रखने के लिए ?
सच ये नहीं है कि मज़दूरों को काम की ज़रूरत नहीं है या उनके पास काम करने की इच्छा नहीं है. मनरेगा और रोज़गार दफ़्तरों में enrolled unemployed लोगों की संख्या बताती है कि ऐसा बिल्कुल नहीं है.
दरअसल, आज भारत का मज़दूर exploited होने के लिए तैयार नहीं है. वह जानता है कि लेबर ठेकेदार कितने पैसे उनके नाम पर कंपनियों से लेते हैं और कितना उनको देते हैं, इसलिए वो उदासीन हैं.
आज की उदासीनता कल के विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करती है. इसलिए मी लॉर्ड, आपके रोने से free bees बंद नहीं होंगे. यह सड़ते हुए और अपने ही अंतर्द्वंद्वों के शिकार होते पूंजीवादी व्यवस्था की खुद को बचाने की आख़िरी लड़ाई है. सवाल ये है कि कब तक ??
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