[भाजपा की केन्द्र सरकार एक ओर जहां इतिहास बदलने की लगातार प्रयास कर रही है, ऐसे में इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में दुनिया के महान दार्शनिक कार्ल-मार्क्स के अन्यन्य मित्र और दुनिया के मजदूरों के महान शिक्षक व नेता फ्रेडरिक एंगेल्स भारत के इतिहास पर एक गहरी निगाह डाले हैं, जिसे भी हम अपने पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे उन्होंने लिखा है.]
भारतीय विद्रोह के दूसरे संकटपूर्ण काल की समाप्ति हो गई है. पहले का केंद्र दिल्ली था; उसका अंत उस शहर पर हमले के द्वारा कब्जा करके किया गया था. दूसरे का केंद्र लखनऊ था और अब उसका भी पतन हो गया है. जो जगहें अभी तक शांत रही हैं, यदि वहां नए विद्रोह नहीं फूट पड़ते, तो विद्रोह धीरे-धीरे शांत होता हुआ अपने उस अंतिम लंबे काल में प्रवेश कर जाएगा जिसमें कि, अंत में, विद्रोही डकैतों या डाकुओं का रूप ले लेंगे. और तब वे देखेंगे कि देश के निवासी भी उनके उतने ही कट्टर शत्रु हैं जैसे कि स्वयं ब्रिटिश.
लखनऊ के हमले का ब्योरा अभी तक प्राप्त नहीं हुआ. लेकिन प्रारंभिक कार्रवाइयों की और अंतिम संघर्षों की रूपरेखाएं ज्ञात हैं. हमारे पाठकों को याद होगा कि लखनऊ की रेजीडेंसी की सहायता करने के बाद जनरल कैंपबेल ने उस सैनिक अड्डे को उड़ा दिया था. लेकिन जनरल आउट्रम को लगभग पांच हजार सैनिकों के साथ उन्होंने आलमबाग में तैनात कर दिया था. यह शहर के कुछ मील के फासले पर एक किलाबंद स्थान था. शेष अपनी फौजों के साथ कैंपबेल स्वयं कानपुर लौट गए थे. वहां पर विद्रोहियों ने जनरल विंढम को हरा दिया था. इन विद्रोहियों को कैंपबेल ने पूर्णतया परास्त कर दिया और जमुना के उस पार कालपी में खदेड़ दिया. इसके बाद सैनिक सहायता और भारी तोपों के आने का कानपुर में वे इंतजार करने लगे. आक्रमण की अपनी योजनाएं उन्होंने तैयार कीं, अवध पर कब्जा करने के लिए जिन सेनाओं को भेजना था उन्हें एक जगह जमा होने के आदेश उन्होंने जारी किए, और कानपुर को एक ऐसा मजबूत और विशाल कैंप बना दिया जिससे कि लखनऊ के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाइयों का वह फौजी और मुख्य अड्डा बन सके. जब यह सब पूरा हो गया तो एक और काम उन्होंने किया. इस काम को पूरा करने से पहले आगे बढ़ने को वह निरापद नहीं समझते थे. इस काम को पूरा करने की उनकी कोशिश पहले के लगभग तमाम भारतीय कमांडरों से अलग करके उन्हें विशिष्ट बना देती है. कैंपबेल ने कहा कि कैंप में औरतें नहीं चाहिए. लखनऊ में, कानपुर की ओर कूच के समय इन ‘वीरांगनाओं’ को वह काफी देख चुके थे. ये स्त्रियां इसे बिलकुल स्वाभाविक मानती थीं कि फौज की सारी गतिविधि उनकी इच्छाओं और आराम के विचार को ध्यान में रखकर हो. भारत में हमेशा ऐसा ही होता आया था. कैंपबेल ज्योंही कानुपर पहुंचे, त्योंही उन्होंने इस पूरी दिलचस्प और तकलीफदेह कौम को, अपने रास्ते से दूर, इलाहाबाद भेज दिया. फिर तुरंत ही महिलाओं के उस दूसरे दल को भी उन्होंने बुलवा भेजा जो उस समय आगरे में था. जब तक वे कानपुर नहीं आ गईं और जब तक सकुशल उन्हें भी उन्होंने इलाहाबाद के लिए रवाना नहीं कर दिया, तब तक लखनऊ की तरफ बढ़ रही अपनी फौजों के साथ वह भी आगे नहीं गए.
अवध के इस अभियान के लिए जिस पैमाने पर व्यवस्था की गई थी, वह भारत में अब तक बेमिसाल थी. वहां पर अंगरेजों ने जो सबसे बड़ा अभियान, अफगानिस्तान पर आक्रमण के अभियान समान संगठित किया था. उसमें इस्तेमाल किए जाने वाले सैनिकों की संख्या किसी भी समय 20,000 से अधिक न थी, और उनमें भी बहुत बड़ा बहुमत हिंदुस्तानियों का था. इसके विपरीत, अवध के इस अभियान में केवल यूरोपियनों की संख्या अफगानिस्तान भेजे गए तमाम सैनिकों की संख्या से अधिक थी. मुख्य सेना में, जिसका नेतृत्व सर कॉलिन कैंपबेल स्वयं कर रहे थे, तीन डिवीजन पैदल सेना के थे, एक घुड़सवारों का और एक तोपखाना और एक डिवीजन इंजीनियरों का था. पैदल सेना का पहला डिवीजन, आउट्रम के नेतृत्व में, आलमबाग पर अधिकार किए हुए था. उसमें पांच यूरोपियन और एक देशी रेजीमेंट थी. कैंपबेल की सक्रिया सेना में, जिसे लेकर कानपुर से सड़क के मार्ग से वह आगे बढ़े थे, दूसरे (जिसमें चार यूरोपियन और एक देशी रेजीमेंट थी) और तीसरे (जिसमें पांच यूरोपियन और एक देशी रेजीमेंट थी) डिवीजन थे, सर होप ग्रैंट के नीचे का एक घुड़सवार डिवीजन था (जिसमें तीन यूरोपियन और चार या पांच देशी रेजीमेंटें थीं) और तोपखाने का अधिकांश था (जिसमें अड़तालीस मैदानी तोपें, घेरा डालने वाली गाड़ियां और इंजीनियर थे). गोमती और गंगा के बीच, जौनपुर और आजमगढ़ में, एक ब्रिगेड ब्रिगेडियर फ्रैंक्स के नेतृत्व में केंद्रित था. उसको गोमती के किनारे-किनारे लखनऊ की ओर बढ़ने का आदेश था. इस ब्रिगेड में देशी सैनिकों के अलावा तीन यूरोपियन रेजीमेंटें और दो बैट्रियां (तोपखाने की टुकड़िया) थीं. इस ब्रिगेड को कैंपबेल के सैनिक अभियान का दाहिना अंग बनाना था. इन्हें लेकर कैंपबेल की सेना में कुछ सैनिक इस प्रकार थे :
पैदल सेना | घुड़सवार | तोपखाना और इंजीनियर | कुल | |
यूरोपियन | 15,000 | 2,000 | 3,000 | 20,000 |
देशी | 5,000 | 3,000 | 2,000 | 10,000 |
अर्थात, कुल मिलाकर उसमें 30,000 सैनिक थे. इन्हीं में उन 10,000 नेपाली गोरखों को जोड़ देना चाहिए जो जंग बहादुर के नेतृत्व में गोरखपुर से सुलतानपुर की तरफ बढ़ रहे थे. इनको लेकर आक्रमणकारी सेना की कुल संख्या 40,000 सैनिकों की हो जाती है. लगभग ये सब नियमित सैनिक थे. लेकिन बात यहीं नहीं खतम होती. कानपुर के दक्षिण में, एक मजबूत सेना के साथ सर एच. रोज थे. सागर से वह कालपी और जमुना के निचले भाग की ओर बढ़ रहे थे. उनका लक्ष्य यह था कि अगर फ्रैंक्स और कैंपबेल की दोनों सेनाओं के बीच में कुछ लोग भाग निकलें तो वह उन्हें पकड़ लें. उत्तर-पश्चिम में, फरबरी के अंत के करीब ब्रिगेडियर चैंबरलेन ने उत्तर गंगा को पार कर लिया. अवध के उत्तर-पश्चिम में स्थित रुहेलखंड में वह प्रविष्ट हो गया. जैसा कि ठीक ही अनुमान लगाया गया था, विद्रोही सेनाओं के पीछे हटने के लिए मुख्य अड्डा यही जगह तय थी. इर्द-गिर्द से अवध को घेरे रखने वाले शहरों के गैरीसनों को भी उसी सेना में मिला दिया जाना चाहिए जिसने, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, उस राज्य के ऊपर किए गए आक्रमण में भाग लिया था. इस तरह, इस पूरी सेना में निश्चित रूप से 70,000 से 80,000 तक लड़ने वाले हैं. इनमें से, सरकारी वक्तव्यों के अनुसार, कम से कम 28,000 अंगरेज हैं. इस सैनिक शक्ति में सर जॉन लॉरेंस की उस सेना के अधिकांश को नहीं शामिल किया गया है जो दिल्ली में एक प्रकार से बाजू पर अधिकार किए हुए पड़ी है और जिसमें मेरठ और दिल्ली के 5,500 यूरोपियन और 20,000 या 30,000 के करीब पंजाबी हैं.
इस विशाल सैनिक शक्ति का एक जगह केंद्रीकरण कुछ तो जनरल कैंपबेल के व्यूह रचना का परिणाम है, लेकिन कुछ वह इस बात का भी परिणाम है कि हिंदुस्तान के विभिन्न भागों में विद्रोह को कुचल दिया गया है, और इसकी वजह से, स्वाभाविक रूप से सैनिक इस घटनास्थल पर आकर जमा हो गए हैं. इसमें संदेह नहीं कि कैंपबेल इससे कम सैनिक-शक्ति होने पर भी हमला करता; लेकिन, जिस समय वह हमले की तैयारी कर रहा था, उसी समय परिस्थितिवश, उसके पास और भी सैनिकों की नई कुमुक पहुंच गई; और, यह जानते हुए भी कि लखनऊ में उसे कैसे तुच्छ दुश्मन से लड़ना है, ऐसा आदमी वह नहीं था कि इन नए मौकों का फायदा उठाने से इनकार कर देता. और यह बात भी भुलाई नहीं जानी चाहिए कि यद्यपि सैनिकों की यह संख्या बहुत बड़ी लगती है, लेकिन वह फ्रांस के बराबर के बड़े क्षेत्र में फैली हुई थी; और निर्णायक क्षण में केवल लगभग 20,000 यूरोपियनों, 10,000 हिंदुस्तानियों और 10,000 गोरखों को ही लेकर वह लखनऊ पहुंच सका था. इनमें से भी देशी अफसरों की कमान में काम करने वाले गोरखा सैनिकों की वफादारी, कम से कम संदेहजनक तो थी ही. निस्संदेह, शीघ्र विजय प्राप्त करने के लिए इस सैनिक शक्ति का केवल यूरोपियन भाग ही काफी से अधिक था; लेकिन, फिर भी, उसके सामने जो काम था उसके मुकाबले में उसकी शक्ति बहुत ज्यादा नहीं थी. और, बहुत संभव मालूम पड़ता है कि कैंपबेल की इच्छा यह थी कि, कम से कम एक बार, अवध के लोगों को गोरी फिरंगी फौज की एक इतनी भयावनी तादाद वह दिखा दे जितनी कि भारत में जहां विद्रोह इसीलिए संभव हो सका था कि यूरोपियनों की संख्या थोड़ी थी और देश भर में वे दूर-दूर फैले हुए थेऔर कहीं की जनता ने इससे पहले कभी न देखी थी.
अवध की सेना बंगाल के अधिकांश विद्रोही रेजीमेटों के अवशेषों और उसी इलाके में इकट्ठे किए गए देशी रंगरूटों को लेकर बनी थी. बंगाल के विद्रोही रेजीमेंटों से आए हुए लोगों की संख्या 35,000 या 40,000 से अधिक नहीं हो सकती थी. आरंभ में इस सेना में 80,000 आदमी थे. युध्द की मार-काट, सेना-त्याग और पस्तहिम्मती की वजह से इसकी शक्ति कम से कम आधी घट गई होगी. जो कुछ बच रही थी, वह भी असंगठित थी, आशाविहीन थी, बुरी हालत में थी और युध्द के मोर्चों पर जाने के लिहाज से सर्वथा अयोग्य थी. नई भर्ती की गई फौजों के सैनिकों की संख्या एक लाख से डेढ़ लाख तक बताई जाती है; लेकिन उनकी संख्या कितनी थी यह महत्वहीन है. उनके हथियारों में कुछ बंदूकें थीं, वे भी रद्दी किस्म की. लेकिन उनमें से अधिकांश के पास जो हथियार थे, उनका इस्तेमाल बिलकुल पास की लड़ाई में ही किया जा सकता था. ऐसी लड़ाई में जिसकी सबसे कम संभावना थी. इस सैनिक शक्ति का अधिकांश लखनऊ में था जो सर जे. आउट्रम के सैनिकों का मुकाबला कर रहा था; लेकिन उसकी दो टुकड़ियां इलाहाबाद और जौनपुर की दिशा में भी काम कर रही थीं.
लखनऊ को चारों तरफ से घेरने का अभियान फरवरी के मध्य के करीब आरंभ हुआ. 15 से 26 तारीख तक मुख्य सेना और उसके नौकरों-चाकरों की भारी संख्या (जिनमें 60,000 तो केवल सफरी सामान ले चलने वाले अनुचर थे) कानपुर से अवध की राजधानी की तरफ कूच करती रही. रास्ते में उसे कहीं किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. इसी बीच, 21 और 24 फरवरी को, सफलता की जरा भी आशा के बिना, दुश्मन के आउट्रम वाले मोर्चे पर हमला बोल दिया. 19 तारीख को फ्रैंक्स ने सुलतानपुर पर धावा कर दिया; विद्रोहियों की दोनों सेनाओं को उसने एक ही दिन में हरा दिया; और फिर, घुड़सवारों के अभाव में जितनी भी अच्छी तरह उनका पीछा किया जा सकता उतनी अच्छी तरह से उसने उनका पीछा किया. दोनों पराजित सेनाओं के मिल जाने पर, 23 तारीख को उन्हें फिर उसने हरा दिया. उनकी 20 तोपें और उनका खेमा और सारा सरोसामान इस टक्कर में नष्ट हो गया. जनरल होप ग्रैंट मुख्य सेना के अगले भाग का नेतृत्व कर रहा था. जबरदस्ती कूच के समय मुख्य सेना से अपने को उसने अलग कर लिया था और बाईं तरफ बढ़ कर, 23 और 24 तारीख को, लखनऊ से रुहेलखंड को जाने वाली सड़क पर स्थित दो किलों को उसने तहस-नहस कर दिया था. 2 मार्च को मुख्य सेना लखनऊ के दक्षिणी भाग में केंद्रित कर दी गई थी. नहर इस भाग की हिफाजत करती है. शहर पर अपने पिछले हमले के समय कैंपबेल को इस नहर को पार करना पड़ा था. इस नहर के पीछे खंदकें खोदकर मजबूत किलेबंदी कर ली गई. 3 तारीख को अंगरेजों ने दिलकुशा पार्क पर कब्जा कर लिया. इस पर कब्जा करने के साथ-साथ पहले आक्रमण का भी श्रीगणेश हो गया था. 4 तारीख को ब्रिगेडियर फ्रैंक्स मुख्य सेना में आ मिला. वह अब उसका दाहिना अंग बन गया. स्वयं उसके दाहिनी तरफ गोमती नदी थी जो उसकी सहायता कर रही थी. इसी बीच दुश्मन की मोर्चेबंदी के खिलाफ बैट्रियां (तोपें) अड़ा दी गईं, और, शहर के आगे, गोमती के आर-पार, दो पानी में तैरने वाले पुल बन लिए गए. ये पुल ज्योंही तैयार हो गए, त्योंही पैदल सेना के अपने डिवीजन, 1,400 घोड़ों और 30 तोपों को लेकर, सर जे. आउट्रम बाईं तरफ, यानी उत्तरी-पूर्वी किनारे पर मोर्चा लगाने के लिए नदी के पार चले गए. इस स्थान से नहर के किनारे-किनारे फैली हुई दुश्मन की सेना के एक बड़े भाग को और उसके पीछे के कई किलाबंद महलों को वह घेर ले सकता था. यहां पहुंचकर अवध के पूरे उत्तर-पूर्वी भाग के साथ दुश्मन के संचार साधनों को भी उसने काट दिया. 6 और 7 तारीख को उसे काफी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन दुश्मन को उसने सामने से मार भगाया. 8 तारीख को उसके ऊपर फिर हमला हुआ, पर इसमें भी दुश्मन को कोई सफलता नहीं मिली. इसी बीच, दाहिने तट की बैट्रियों ने गोलंदाजी शुरू कर दी थी. नदी के तट पर स्थित आउट्रम की बैट्रियों ने विद्रोहियों के बाजू और पिछवाड़े पर प्रहार करना शुरू कर दिया. 9 तारीख को सर ई. लुगर्ड के मातहत दूसरे डिवीजन ने मारटीनियर पर धावा करके अपने अधिकार में ले लिया. यह, जैसा कि हमारे पाठकों को याद होगा, दिलकुशा के सामने, नहर के दक्षिण भाग में, जहां यह नहर गोमती से मिलती है, एक कालेज और पार्क है. 10 तारीख को बैंक घर सेंध लगा दी गई और उस पर कब्जा कर लिया गया. आउट्रम नदी के किनारे-किनारे और आगे बढ़ता गया और विद्रोही जहां भी पड़ाव डालते, वहीं अपनी तोपों से उनको वह भूनने लगता. 11 तारीख को दो पहाड़ी रेजीमेंटों ने (42वीं और 93वीं रेजीमेंटों ने) बेगम के महल पर हमला कर दिया और आउट्रम ने, नदी के बाएं किनारे से, शहर जाने वाले पत्थर के पुल पर हमला बोल दिया और आगे बढ़ गया. फिर अपने सैनिकों को उसने नदी के पार उतार दिया और सामने की अगली इमारत के बरक्स हमले में शामिल हो गया. 13 मार्च को एक दूसरी किलाबंद इमारत, इमामबाड़े पर हमला किया गया. तोपखाने को सुरक्षित स्थान में खड़ा करने के लिए एक खाई खोद ली गई थी और, अगले दिन सेंध के तैयार होते ही इस इमारत पर धावा करके कब्जा कर लिया गया. कैसरबाग, यानी बादशाह के महल की तरफ भागते हुए दुश्मन का पीछा इतनी तेजी से किया गया कि भगोड़ों के पीछे-पीछे गोरी फौज भी उसके अंदर घुस गई. एक हिंसापूर्ण संघर्ष शुरू हो गया, लेकिन तीसरे पहर तीन बजे तक महल अंगरेजों के कब्जे में आ गया था. लगता है कि इसके बाद संकट पैदा हो गया. कम से कम प्रतिरोध की सारी भावना खतम हो गई और कैंपबेल ने भागने वाले लोगों का पीछा करने और उन्हें पकड़ने की कार्रवाइयां फौरन शुरू कर दीं. घुड़सवारों के एक ब्रिगेड और घुड़सवार तोपखाने की कुछ तोपों के साथ ब्रिगेडियर कैंपबेल को उनका पीछा करने के लिए भेजा गया. इधर ग्रैंट एक दूसरे ब्रिगेड को लेकर विद्रोहियों को पकड़ने के लिए लखनऊ से रुहेलखंड के मार्ग पर सीतापुर की ओर चल पड़े. इस प्रकार गैरीसन के उस भाग को, जो भाग खड़ा हुआ था, ठिकाने लगाने की व्यवस्था करके पैदल सेना तोपखाना समेत शहर के भीतर उन लोगों का सफाया करने के लिए आगे बढ़ी जो अब भी वहां जमे हुए थे. 15 से 19 तारीख तक लड़ाई मुख्यतया शहर की संकरी गलियों में ही होती रही होगी, क्योंकि नदी के किनारे के हमलों और बागों पर तो पहले ही कब्जा कर लिया गया था. 19 तारीख को पूरा शहर कैंपबेल के अधिकार में था. कहा जाता है कि लगभग 50,000 विद्रोही भाग गए हैं, कुछ रुहेलखंड की तरफ, कुछ दोआब और बुंदेलखंड की तरफ. दोआब और बुंदेलखंड की दिशा में भागने का मौका उन्हें इसलिए मिला कि जनरल रोज अपनी सेना के साथ जमुना से अब भी कम से कम 60 मील की दूरी पर हैं, और कहा जाता है कि, 30,000 विद्रोही उनके सामने हैं. रुहेलखंड की दिशा में विद्रोहियों के लिए फिर इकट्ठा हो सकने का भी एक अवसर था, क्योंकि कैंपबेल इस स्थिति में नहीं होंगे कि बहुत तेजी से उनका पीछा कर सकें और चैंबरलेन कहां है, इसके बारे में किसी को कोई खबर नहीं है. इसके अतिरिक्त, इलाका काफी बड़ा है और कुछ समय के लिए उन्हें मजे में पनाह दे सकता है. इसलिए विद्रोह का नया रूप संभवत: यह शक्ल अख्तियार करे कि बुंदेलखंड और रुहेलखंड में दो विद्रोही सेनाएं संगठित हो जाएं. लेकिन लखनऊ और दिल्ली की सेनाएं रुहेलखंड की तरफ कूच करके रुहेलखंड की सेना का जल्दी ही सफाया कर सकती हैं.
इस अभियान में सर सी. कैंपबेल की कारवाइयां, जहां तक हम अभी उनको समझ सकते हैं, उसी बुध्दिमानी और तेजी के साथ संगठित की गई थीं जिससे वे अब तक आम तौर पर उन्हें संगठित करते आए हैं. लखनऊ को चारों तरफ से घेरने के लिए सेनाओं का व्यूह बहुत अच्छी तरह से तैयार किया गया था. मालूम होता है कि हमले के संबंध में हर परिस्थिति का पूरा-पूरा लाभ उठाया गया था. दूसरी तरफ, विद्रोहियों का आचरण अगर ज्यादा नहीं तो पहले के समान ही हेय था. लाल कोटों को देखते ही उनके अंदर हर जगह भय छा गया. फ्रैंक्स की सेना ने अपने से 20 गुनी अधिक सेना को पराजित कर दिया और उसका एक भी आदपी खेत नहीं रहा. जो तार आए हैं वे यद्यपि, हमेशा की तरह, ‘सख्त प्रतिरोध’ और ‘जबरदस्त लड़ाई’ की ही बातें करते हैं, लेकिन अंगरेजों को हुआ नुकसान जहां वह बताया गया है हास्यास्पद रूप से इतना कम है कि हमारा खयाल है कि इस बार भी उन्हें लखनऊ में उससे ज्यादा बहादुरी दिखलाने की जरूरत नहीं थी जितनी उन्होंने तब दिखलाई थी जब अंगरेज पहले वहां पहुंच थे. और न उससे अधिक यश ही उन्होंने इस बार प्राप्त किया है.
[30 अप्रैल, 1858 न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5312, में एक संपादकीय लेख के रूप में प्रकाशित हुआ]
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