आखिरकार लखनऊ पर किए गए हमले और उसके पतन का ब्योरेवार वृत्तांत अब हमें प्राप्त हो गया है. सैनिक दृष्टि से सूचना का मुख्य स्रोत जो चीज हो सकती थी, यानी सर कॉलिन कैंपबेल की रिपोर्ट, वह तो वास्तव में अभी तक प्रकाशित नहीं की गई है; लेकिन ब्रिटेन के अखबारों में छपे हुए संवाद, और खास तौर से, लंदन टाइम्स में प्रकाशित हुए मिस्टर रसेल के पत्र जिनके मुख्य अंश हमारे पाठकों के सामने रखे जा चुके हैं. हमलावर दल की कार्रवाइयों की आम स्थिति को बताने के लिए बिलकुल काफी हैं.
तार से प्राप्त हुए समाचारों के आधार पर रक्षात्मक कार्रवाइयों में दिखलाई गई कायरता के संबंध में जो निष्कर्ष हमने निकाले थे, उन्हें विस्तृत रिपोर्टों ने एकदम सही साबित कर दिया है. हिंदुओं ने जो किलेबंदी की थी, वह देखने में भयानक लगने पर भी, वास्तव में उन आग्नेय पंखदार ब्यालों और विकृत चेहरों की आकृतियों से अधिक महत्व की नहीं थी जो चीनी ‘योध्दा’ अपनी ढालों पर अथवा अपने शहरों की दीवालों पर बना देते हैं. ऊपर से देखने पर प्रत्येक किला एक अभेद्य दीवार मालूम होता था. गोलीबारी के लिए बनाए गए गुप्त छेदों और मार्गों और कमरकोटों के अलावा और कुछ उसमें नहीं दिखलाई देता था. उसके पास पहुंचने के मार्ग में हर संभव प्रकार की कठिनाई दृष्टिगत होती थी. हर जगह उनमें तोपें और छोटे हथियार अड़े हुए दिखलाई देते थे. लेकिन हर ऐसे किलेबंद मोर्चे के बाजुओं और पिछवाड़े को पूर्णतया उपेक्षित छोड़ दिया गया था; विभिन्न किलेबंदियों के बीच पारस्परिक सहयोग की बात तो जैसे कभी सोची ही नहीं गई थी; और, किलेबंदियों के बीच की और उनके आगे की जमीन तक को कभी साफ नहीं किया गया था. इससे रक्षा करने वालों की जानकारी के बिना ही, सामने से और बाजुओं से, दोनों तरफ से, उन पर हमले की तैयारियां की जा सकती थीं और नितांत निरापद रूप से कमरकोटे के कुछ गज पास तक पहुंचा जा सकता था. सुरंग लगाने वाले ऐसे निजी सिपाहियों के एक समूह से, जिसके कोई अफसर नहीं रह गए थे और जो ऐसी सेना में काम कर रहे थे जिसमें अज्ञान और अनुशासनहीनता का ही बोलबाला था, जिस प्रकार की किलेबंदियों की अपेक्षा की जा सकती थी, ये उसी प्रकार की किलेबंदियां थीं. लखनऊ की किलेबंदियां क्या थीं, बस देशी सिपाहियों के लड़ने का जो पूरा तरीका है उसी को जैसे पक्की ईंटों की दीवालों और मिट्टी के कमरकोटों का रूप दे दिया गया था. यूरोपियन सेनाओं की कार्य-नीति का जो यांत्रिक या ऊपरी भाग था, उसे तो आंशिक रूप से उन्होंने जान लिया था; कवायद के नियमों और प्लैटून की ड्रिल के तरीकों की उन्हें काफी जानकारी हो गई थी; तोपें लगाकर बैट्री का निर्माण वे कर ले सकते थे और दीवाल में गुप्त रास्ते भी बना सकते थे; लेकिन किसी मोर्चे की रक्षा के लिए कंपनियों और बटैलियनों की गतिविधियों को किस तरह से संयोजित किया जाए, अथवा बैट्रियों और गुप्त मार्गों वाले मकानों और दीवालों को किस तरह एक सूत्र में ऐसे पिरोया जाए कि उनसे मुकाबला कर सकने लायक कैंप कायम हो जाए, इसके बारे में वे कुछ भी नहीं जानते थे. इस प्रकार, आवश्यकता से अधिक छेद बनाकर अपने महलों की ठोस पक्की दीवालों को उन्होंने कमजोर कर दिया था; उनमें गुप्त मार्गों और रंध्रों (छेदों) की तहों पर तहें उन्होंने बना दी थीं; उनकी छतों पर चबूतरे बनाकर उन्होंने बैट्रियां लगा दी थीं; लेकिन यह सब बेकार था, क्योंकि उन्हें बहुत आसानी से उनके खिलाफ ही इस्तेमाल किया जा सकता था. इसी तरह से, यह जानते हुए कि सैनिक कार्यनीति में वे कच्चे हैं, अपनी इस कमी को पूरा करने की कोशिश में हर चौकी पर उन्होंने अधिक से अधिक आदमी ठूंस दिए थे. इसका नतीजा सिवा इसके और कुछ हो नहीं सकता था कि उससे अंगरेजों की तोपों को भयानक सफलता प्राप्त हो जाए; और, ठलुओं की इस भीड़ पर किसी अप्रत्याशित दिशा से आक्रमणकारी सेनाएं ज्योंही धावा बोल दें, त्योंही किसी भी तरह का अनुशासित और व्यवस्थित रक्षात्मक कार्य वहां असंभव हो जाए. और जब किसी आकस्मिक योग से किलेबंदियों के भयानक दिखने वाले इस मोर्चे पर हमला करने के लिए अंगरेज मजबूर हो गए, तो यह देखा गया कि इन किलेबंदियों का निर्माण इतना दोषपूर्ण था कि बिना किसी जोखिम के ही उनके पास पहुंचा जा सकता था, उन्हें तोड़ा जा सकता था और उन पर अधिकार किया जा सकता था. इमामबाड़े में ऐसा ही देखने को मिला था. इस इमारत से कुछ ही गजों के फासले पर एक पक्की दीवाल थी. अंगरेजों ने इस दीवाल के बिलकुल पास तक एक छोटी सी सुरंग बना ली (यह इस बात का सबूत है कि इमारत के ऊपरी हिस्से में तोपों के लिए जो झरोखे और रंध्र बनाए गए थे, उनसे एकदम सामने के मैदान पर गोलंदाजी नहीं की जा सकती थी). उसके बाद इसी दीवाल का, जिसे स्वयं हिंदुस्तानियों ने अपने लिए बनाया था, अंगरेजों ने इमारत को तोडने के लिए एक आड़ के रूप में इस्तेमाल किया. इस दीवाल के पीछे वे 68-68 पौंड की दो तोपें (नौ सैनिक तोपें) ले आए. ब्रिटिश सेना में 68 पौंड वाली हल्की से हल्की तोप का वजन भी, उसकी गाड़ी के बिना, 87 हंड्रेडवेट होता है; लेकिन अगर मान लें कि बात 8 इंच वाली तोप की ही की जा रही है, तो इस तरह की हल्की से हल्की तोप का वजन भी 50 हंड्रेडवेट होता है, और गाड़ी समेत कम से कम 3 टन. इस तरह की तोपें एक ऐसे महल के नजदीक तक ले आई जा सकीं जो कई मंजिल ऊंचा है और जिसकी छत पर तोपखाना लगा हुआ है, यह बात जाहिर करती है कि रक्षा करने वाले सिपाही सैनिक इंजीनियरिंग के संबंध में जिस प्रकार अनभिज्ञ थे और सैनिक महत्व की जगहों के संबंध में जिस प्रकार का तिरस्कार भाव उनमें भरा हुआ था, उस तरह की चीज किसी भी सभ्य सेना के किसी भी सुरंग लगाने वाले सैनिकों में नहीं मिल सकती.
अब रही उस विज्ञान की बात जिसका वहां अंगरेजों को मुकाबला करना पड़ा था. जहां तक साहस और संकल्प की बात है, तो रक्षकों के अंदर इनका भी उतना ही अभाव था. ज्योंही एक सेना ने हमला किया, त्योंही मार्टीनियर से लेकर मूसाबाग तक देशियों का बस एक ही शानदार नजारा दिखलाई दिया, वे सब के सब सिर पर पैर रखकर भागते नजर आए ! इन तमाम लड़ाइयों में एक भी ऐसी नहीं है जिसका उस कत्लेआम से भी (क्योंकि लड़ाई तो उसे मुश्किल से ही कहा जा सकता है) मुकाबला किया जा सके जो सिकंदरबाग में कैंपबेल द्वारा रेजीडेंसी की मदद के समय हुआ था. हमलावर सेनाएं ज्योंही आगे बढ़ती हैं, त्योंही पीछे की तरफ आम भगदड़ मच जाती है, और वहां से भागने के चूंकि कुछ इने-गिने ही संकरे रास्ते हैं, इसलिए यह सारी बेतहाशा भागती भीड़ वहीं ठहर जाती है. एकदम भेड़ियाधसान ढंग से लोग एक-दूसरे के ऊपर गिरते-पड़ते नजर आते हैं और जरा भी प्रतिरोध किए बिना बढ़ते हुए अंगरेजों की गोलियों और संगीनों के शिकार बन जाते हैं. घबराए हुए देशियों के ऊपर किए जाने वाले इन खूली हमलों में से किसी भी एक में ‘अंगरेजों की संगीन’ ने जितने लोगों की जानें ली हैं, उतने लोगों की जानें यूरोप और अमरीका दोनों में अंगरेजों द्वारा लड़ी गई सारी लड़ाइयों में मिलाकर भी उसने नहीं ली थीं. पूरब की लडाइयों में जहां एक ही पक्ष सक्रिय होता है और दूसरा बिलकुल बोदे ढंग से निष्क्रिय, इस तरह के संगीन युध्द एक आम बात है; बर्मी नोकदार बल्लियों से बने मोर्चे प्रत्येक जगह इसी चीज का उदाहरण पेश करते हैं. मिस्टर रसेल के वृत्तांत के अनुसार, अंगरेजों की मुख्य क्षति जो हुई थी, वह उन्हें उन हिंदुस्तानियों से पहुंची थी जो भागते समय पीछे छूट गए थे और जिन्होंने बैरीकेड बनाकर महलों के कमरों में अपने को बंद कर लिया था. वहां से खिड़कियों के अंदर से आंगन और बाग में रहने वाले अफसरों के ऊपर उन्होंने गोलियां बरसाई थीं.
इमामबाड़े और कैसरबाग के हमले के समय हिंदुस्तानी इतनी तेजी से भागे थे कि उन जगहों पर कब्जा करने तक की जरूरत नहीं पड़ी थी. उनके अंदर अंगरेज यों ही चलते हुए पहुंच गए थे. लेकिन वास्तव में दिलचस्प चीज अब शुरू हो रही थी; क्योंकि, जैसा कि मिस्टर रसेल उल्लसित होकर कहते हैं, कैसरबाग की फतह उस दिन इतनी अप्रत्याशित थी कि इस बात तक के लिए काफी समय नहीं मिल पाया था कि अंधाधुंध लूट-खसोट को रोकने की कोई तैयारी की जा सके. अपने अंगरेज सिपाहियों को अवध के महामहिम के हीरे-जवाहरात, बहुमूल्य हथियारों, कपड़ों और उनकी तमाम पोशाकों तक को इस तरह खुल कर लूटते-खसोटते देखकर सच्चे, उद्दंडता-प्रेमी जॉन बुल को एक खास आनंद मिला होगा ! सिख, गोरखे और उनके तमाम नौकर-चाकर भी अंगरेजों के इस उदाहरण की नकल करने के लिए बिलकुल तैयार थे. इसके बाद फिर लूट और तबाही का ऐसा नजारा वहां दिखलाई दिया कि उसका बयान करने की ताकत मि. रसेल की लेखनी में भी नहीं रह गई. हर कदम के साथ अब लूट-खसोट और तबाही का बाजार गर्म था. कैसरबाग का पतन 14 तारीख को हो गया था; और, उसके आधे घंटे के बाद ही अनुशासन समाप्त हो गया था. सैनिकों के ऊपर से अफसरों का सारा नियंत्रण खतम हो गया था। 17 तारीख को लूट-खसोट की रोकथाम के लिए जनरल कैंपबेल को जगह-जगह पहरा बैठाने के लिए मजबूर होना पड़ा. ‘जब तक मौजूदा उच्छृंखलता का दौर खतम न हो जाए,’ तब तक हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने के लिए वह बाध्य हो गए. सैनिक साफ तौर से हाथ से बिलकुल बाहर निकल गए थे. 18 तारीख को हमें यह कहा जाता है कि बहुत ही निम्न किस्म की लूट-खसोट तो रुक गई है, लेकिन तबाही और बर्बादी का सिलसिला अब भी उसी तरह जारी है. लेकिन जिस समय शहर में सेना का अगला भाग, मकानों के अंदर से किए जाने वाले देशियों की गोलीबारी का मुकाबला कर रहा था, उसी समय उसका पिछला भाग खूब जी खोलकर लूट-खसोट और बर्बादी कर रहा था. शाम को लूट-खसोट के खिलाफ एक नया एलान किया गया. आदेश जारी किया गया कि प्रत्येक रेजीमेंट से छांट-छांट कर मजबूत टुकड़ियों भेजी जाएं जो लूट करने वाले अपने सैनिकों को पकड़ कर वापिस ले आएं. उन्हें यह भी आदेश दिया गया कि अपने अनुचरों को भी वे अपने साथ ही अपने घर पर रखें. जब तक कहीं डयूटी पर न भेजा जाए, तब तक कोई भी व्यक्ति कैंप से बाहर न जाए. 20 तारीख को इसी आदेश को पुन: दुहराया गया. उसी दिन, दो अंगरेज ‘अफसर और भद्र प्ररुष,’ लेफ्टीनेंट केप और थैकवेल, ‘शहर में लूट मचाने गए और वहीं एक घर के अंदर उनकी हत्या कर दी गई. और 26 तारीख को भी हालत इतनी खराब थी कि लूट और बलात्कार को रोकने के लिए अत्यंत कठोर आदेश फिर जारी करने पड़े. हर घंटे हाजिरी लेने की व्यवस्था जारी कर दी गई. तमाम सिपाहियों को शहर के अंदर घुसने की सख्त मनाही कर दी गई. यह हुक्म जारी कर दिया गया कि अनुचर लोग अगर हथियारों के साथ शहर में पाए जाएं, तो उन्हें फांसी दे दी जाए; जिस समय सैनिक डयूटी पर न हों, वे हथियार के साथ बाहर न निकलें, और जिन लोगाें का लड़ाई से ताल्लुक नहीं है, उन सबों से हथियार छीन लिए जाएं. इन आदेशों की गंभीरता स्पष्ट कर देने के लिए ‘उचित स्थानों पर’ लोगों को बेंत लगाने के लिए काफी टिकटियां खड़ी कर दी गईं.
19वीं शताब्दी में किसी सभ्य सेना का इस तरह का व्यवहार सचमुच अनोखी चीज है. दुनिया की कोई भी दूसरी सेना अगर इस तरह की ज्यादतियों के दसवें हिस्से की भी गुनहगार होती, तो क्रुध्द अंगरेजी अखबार उसको किस तरह से बदनाम करते, इसकी अच्छी तरह कल्पना की जा सकती है. लेकिन ये तो ब्रिटिश सेना के कारनामे हैं, और इसलिए हमसे कहा जाता है कि युध्द में ऐसी चीजों का होना स्वाभाविक होता है. ब्रिटिश अफसरों और भद्र पुरुषों को पूर्ण स्वच्छंदता है कि चांदी के चम्मचों, हीरे-जवाहरात से जड़े कंगनों और अन्य छोटी-मोटी उन तमाम चीजों को, जिन्हें अपने गौरवस्थल पर वे पा जाएं, निशानियों के रूप में हथिया लें. और अगर युध्द के बीचोबीच भी कैंपबेल को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा है कि व्यापक डाकेजनी और हिंसा को रोकने की गरज से, स्वयं अपनी सेना के हथियारों को वह छीन ले, तो हो सकता है कि इस कदम को उठाने के लिए उसके पास कोई फौजी कारण रहे हों. पर, सचमुच ऐसा कौन होगा जो इतनी थकान और मुसीबतों के बाद यदि वे बेचारे हफ्ते भर की छुट्टी मनाएं और कुछ मौज-मजा करें, तो उस पर भी आपत्ति करे !
सच तो यह है कि यूरोप और अमरीका में कहीं भी ऐसी कोई सेना नहीं है जिसमें इतनी पाशविकता भरी हो जितनी कि ब्रिटिश सेना में है. लूट-खसोट, हिंसा, कत्लेआम आदि की वे चीजें, जिन्हें हर जगह सख्ती से और पूर्णतया खतम कर दिया गया है, ब्रिटिश सिपाही का अब भी एक पुरातन अधिकार, उसका एक निहित विशेषाधिकार मानी जाती हैं. स्पेन के युध्द में बाडाजोज और सान सेबास्टिन पर हमला करके अधिकार कर लेने के बाद, ब्रिटिश सैनिकों ने लगातार कई दिनों तक जो कुत्सित कार्य वहां किए थे, उनका फ्रांसीसी क्रांति के आरंभ के बाद से किसी भी दूसरे देश के इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. कब्जा किए गए शहर को लूटने-खसोटने के लिए सिपाहियों को सौंप देने की मध्ययुगीन प्रथा पर और सभी जगहों में प्रतिबंध लगा दिए गए हैं, लेकिन ब्रिटिश सेना में यह नियम अब भी उसी प्रकार चालू है. जरूरी सैनिक आवश्यकताओं की वजह से दिल्ली में इस चीज को रोका गया था; और यद्यपि उसके एवज में ज्यादा तनखाह देकर सेना को खुश करने की कोशिश की गई थी, फिर भी वह काफी बुड़बुड़ाई थी. और अब लखनऊ में दिल्ली की सारी कमी को उसने पूरा कर लिया है. बारह दिन और बारह रात तक लखनऊ में कोई ब्रिटिश सेना नहीं थी बस कानूनहीन, शराब में धुत पाशविकता से भरी हुई केवल एक भीड़ थी. वह डाकुओं के गिरोहों में बंटी हुई थी. और ये डाकू देशी सिपाहियों से कहीं अधिक बेलगाम, हिंस्र और लालची थे जिन्हें वहां से निकाल बाहर किया गया था. 1858 में की गई लखनऊ की लूट-खसोट और बर्बादी ब्रिटिश सेना के माथे पर हमेशा एक अमिट कलंक के रूप में अंकित रहेगी.
भारत को सभ्य और इनसान बनाने की क्रिया में क्रूर ब्रिटिश सैनिकों ने अगर भारतीयों की केवल निजी संपत्ति की ही लूट-मार मचाई थी, तो उसके फौरन बाद ब्रिटिश सरकार स्वयं आगे आ गई और उसने भारतीयों की वास्तविक रियासतों को भी हड़प लिया. लोग बातें करते हैं कि प्रथम फ्रांसीसी क्रांति ने अमीर-उमरा और गिरजाघरों की जमीनें छीन ली थीं. लोग कहते हैं कि लुई नेपोलियन ने ओरलिंयस परिवार की संपत्ति जब्त कर ली थी. पर यहां लार्ड कैनिंग हैं एक ब्रिटिश अमीर, जो अपनी भाषा,आचार-व्यवहार और भावनाओं में मधुर हैं. वे पधारते हैं और अपने एक उच्च अधिकारी, विस्काउंट पामर्सटन की आज्ञा से, एक पूरी कौम की रियासतों को हजम कर जाते हैं. 10,000 वर्ग मील के क्षेत्र में एक-एक धूर, एक-एक कट्ठा और एक-एक एकड़ भूमि पर वे कब्जा कर लेते हैं ! जॉन बुल के लिए यह सचमुच बहुत बढ़िया लूट है ! और नई सरकार के नाम पर, लार्ड एलेनबरो ज्योंही इस बेमिसाल हरकत को अनुचित ठहराते हैं, त्योंही इस जबरदस्त डाकेजनी की हिमायत करने के लिए और यह दिखाने के लिए कि जॉन बुल को इस बात का पूरा अधिकार है कि वह जिस चीज को चाहें उसे जब्त कर लेंटाइम्स और दूसरे अनेक छोटे-मोटे ब्रिटिश अखबार फौरन उठ खड़े होते हैं ! पर हां, जॉन तो एक असाधारण प्राणी है ! उसके लिए जो हरकत सद्गुण है, उसी को अगर दूसरा कोई करने की हिमाकत दिखाए, तो टाइम्स की नजर में वह महाघातक बन जाएगा !
इसी बीच, लूट-खसोट के लिए ब्रिटिश सेना के एकदम तितर-बितर हो जाने के कारण, विद्रोही भाग कर खुले मैदानों में दूर निकल गए. उनका पीछा करने वाला कोई नहीं था. वे रुहेलखंड में फिर जमा हो रहे हैं. साथ ही साथ उनका एक छोटा सा भाग अवध की सीमा में छोटी-मोटी लड़ाइयां लड़ रहा है. कूछ दूसरे भगोड़े बुंदेलखंड की तरफ निकल गए हैं. साथ ही गर्मी का मौसम और वर्षा के दिन भी तेजी से समीप आते जा रहे हैं और इस बात की आशा करने का कोई कारण नहीं है कि इस बार भी मौसम यूरोपियनों के लिए, पिछले वर्ष की ही तरह, अप्रत्याशित रूप से उतना ही अनुकूल होगा. पिछले साल, अधिकांश यूरोपियन सैनिक वहां के मौसम के आदी हो गए थे; इस साल उनमें से अधिकांश नए-नए वहां पहुंचे हैं. इसमें संदेह नहीं कि जून, जुलाई और अगस्त में किए जाने वाले सैनिक अभियानों में अंगरेजों को भारी संख्या में लोगों की जाने गंवानी पड़ेंगी, और हर जीते गए शहर में गैरीसनों को तैनात करने की आवश्यकता के कारण, उनकी सक्रिय सेना बहुत जल्दी साफ हो जाएगी. अभी से ही हमें बता दिया गया है कि 1,000 सैनिकों की मासिक सहायता से भी सेना इस स्थिति में नहीं रहेगी कि वह कारगर रह सके. और जहां तक गैरीसनों की बात है, तो केवल लखनऊ के लिए 8,000 सैनिकों की, यानी कैंपबेल की एकतिहाई सेना से भी अधिक की आवश्यकता है. रुहेलखंड के अभियान के लिए जो शक्ति संगठित की जा रही है वह भी लखनऊ के इस गैरीसन की तुलना में मुश्किल से ही बड़ी होगी. विद्रोहियों की बड़ी-बड़ी सेनाओं के इधर-उधर तितर-बितर हो जाने के बाद यह निश्चित है कि छापेमार युध्द शुरू हो जाएगा. हमें यह इत्तिला भी मिल गई है कि ब्रिटिश अफसरों के अंदर यह राय बन रही है कि वर्तमान युध्द और उसके साथ जमकर होने वाली लड़ाइयों और घेरों की तुलना में, छापेमार युध्द अंगरेजों के लिए कहीं अधिक कष्टदायक और जानलेवा साबित होगा. और, अंत में, सिख भी इस तरह से बात करने लगे हैं जो अंगरेजों के लिए बहुत शुभ नहीं मालूम होती है. वे महसूस करते हैं कि उनकी सहायता के बिना अंगरेज भारत के ऊपर कब्जा नहीं बनाए रख सकते थे, और अगर विद्रोह में वे भी शामिल हो गए होते तो यह निश्चित है कि, कम से कम कुछ समय के लिए, हिंदुस्तान से इंगलैंड हाथ धो बैठता. इस बात को वे जोर-जोर से कह रहे हैं और अपने पूर्वी ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं. अंगरेज अब उनकी नजर में उतनी अधिक श्रेष्ठ कौम नहीं रह गई जिसने मुड़की, फीरोजशाह और अलिवाल में उन्हें परास्त कर दिया था. इस तरह के विश्वास के बाद, खुली शत्रुता करने लगना पूर्वी देशों के लिए एक ही कदम दूर रह जाता है. एक चिनगारी से भी आग भड़क सकती है. संक्षेप में, लखनऊ की फतह भी भारतीय विद्रोह को कुचलने में उसी तरह असफल रही है जिस तरह कि दिल्ली की फतह उसे खतम करने में नाकामयाब रही थी. इस साल गर्मियों के सैनिक अभियान के फलस्वरूप ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जा सकती है जिसके कारण अगले जाड़ों में अंगरेजों को मोटे तौर से फिर वहीं से काम शुरू करना पड़ जाए जहां से उन्होंने पहले शुरू किया था. यह भी संभव है कि पंजाब को भी उन्हें फिर से फतह करना पड़े. लेकिन अनुकूल से अनुकूल परिस्थिति में भी, उन्हें एक लंबे और कष्टदायक छापामार युध्द का सामना करना पड़ेगा. भारत की गर्मी में यूरोपियनों के लिए यह कोई ऐसी अच्छी चीज नहीं है जिससे कोई दूसरा ईर्ष्या कर सके !
[25 मई, 1858 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, अंक 5333, में एक संपादकीय लेख के रूप में प्रकाशित हुआ]
Read Also –
फ्रेडरिक एंगेल्स (1858) : लखनऊ का पतन
फ्रेडरिक एंगेल्स (1857) : दिल्ली का कब्जा
कार्ल मार्क्स (1857) : भारत से आने वाले समाचार
कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1857) : भारत में विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1857) : भारतीय सेना में विद्रोह
कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन
कार्ल मार्क्स (1853) : भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम
कार्ल मार्क्स (1853) : ईस्ट इंडिया कंपनी, उसका इतिहास और परिणाम
मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]