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फ्रांस की घटनाएं : पर्दे के पीछे का सच

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बेहद आश्चर्यजनक है कि बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को ठूंंसना चाह रही है, परन्तु पिछले पांच दशक से बिहार विभिन्न प्रकार के आंदोलनों का केन्द्र बना हुआ है, जिसमें हिंसक और अहिंसक दोनों ही आंदोलन हो रहे हैं. इन आंदोलनों के झंझावात का सबसे उज्ज्वल पहलू होता है लोगों के राजनीतिक चेतना में अतुलनीय बढ़ोतरी. आंदोलन खासकर हिंसक माओवादी आंदोलन ने लोगों की राजनीतिक चेतना में गुणात्मक बदलाव लाया है, जिस कारण यहां के चुनाव में न तो साम्प्रदायिक और न ही जातिवादी ऐजेंडा ही टिक सकता है.

बावजूद इसके जब भाजपा बिहार चुनाव को फ्रांस की घटना के जरिए जब साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रही है, तब निश्चित तौर पर वह हाशिये पर धकेल दी जायेगी. लेकिन इसी बहाने हमें फ्रांस की घटना का जायजा जरुर करना चाहिए कि आखिर फ्रांस जैसे विकसित राष्ट्रों में साम्प्रदायिक ताकतें क्यों और किस तरह फल-फूल रही है, इसकी तहकीकात करते हुए सोशल मीडिया पर अमरेश मिश्र लिखते हैं –

योरोप में सबसे बेहतर राज्य कौन-सा है ? जहां सबसे ज़्यादा राष्ट्रीयकरण है, बेरोज़गारी भत्ता है, स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा बहुत सस्ती है ? अमीरों पर सबसे अधिक टैक्स है ? गरीबों को राहत है ? बेहिचक वह देश फ्रांस है !

कई वर्षों से IMF-World Bank-अमेरिकी-ब्रिटिश लाबी कोशिश कर रही है कि फ्रांस में निजीकरण किया जाये. स्वास्थ्य-शिक्षा को मंहगा बनाया जाये, इसीलिये इस लाबी ने चरम-दक्षिणपंथी ली पेन को खड़ा किया और फ्रांस के नागरिकों के भीतर इस्लामोफोबीया पैदा किया गया.

बिलकुल भारत की तरह, जैसे यहां लोगों के अंदर मुसलमानों के प्रति नफरत बढ़ाई गई. फिर मोदी को चढ़ाया गया. मोदी ने छह सालों में भयंकर निजीकरण किया. कितनी कल्याणकारी नीतियों को अंदर से खोखला किया. अंबानी-अडानी के मुनाफे में कई गुना बढ़ोतरी हुई. गरीब और गरीब हुआ. भारत की ग्रोथ माईनस में चली गई. कोविड के दौरान लोग पाई-पाई के मोहताज हो गये.

फ्रांस का भी यही हाल करना है, लेकिन फ्रांस और भारत में बहुत फर्क है. आधुनिक फ्रांस सामंतवाद विरोधी हिंसक क्रांति के बल पर आधुनिक हुआ. उसके यहां उस समय औद्योगिक क्रांति हुई जब भारत एक गुलाम देश था इसलिये फ्रांस में वामपंथी-प्रगतिशील सोच का बहुत प्रभाव है.

अब IMF-World बैंक को एक ऐसी diversion की राजनीति चाहिये थी, जिससे फ्रांस की प्रगतिशील-वामपंथी परंपरा का दक्षिणपंथी हित में इस्तेमाल हो. ये तभी संभव था, जब फ्रांस मे प्रगतिवाद का नया, फर्जी ‘दुश्मन’ पैदा किया जाये !

वो कैसे होगा ? आतंकवाद को बढ़ाओ ! खासतौर पर इस्लामी आतंकवाद को ! ऐसी घटनाएं मुसलमानों के हाथों कराओ, जो फ्रांस के प्रगतिशील मूल्यों पर हमला लगे.

चार्ली हेबडो कांड उस समय हुआ जब फ्रांस इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद में फिलिस्तीन का पक्ष ले रहा था ! दक्षिणपंथी ली पेन की लोकप्रियता उस हमले के बाद बढ़नी शुरू हुई. अब जो घटनायें हो रही हैं, वो बिलकुल ली पेन को शिखर पर पहुंंचा रही हैं.

ली पेन के माध्यम से, IMF-World Bank-अमरीकी-ब्रिटिश लाबी, फ्रांस के कल्याणकारी राज्य को खत्म करेंगी. फ्रांस का निजीकरण होगा और उक्त लाबी अरबों-खरबों कमायेगी !

मज़ेदार बात यह है की जो लोग जानते हैं कि मोदी के सत्ता में आने के पहले मुसलमानों को हिंदुओं का दुश्मन बनाने का लंबा खेल चला, वो फ्रांस के खेल को धार्मिक लड़ाई या प्रगति बनाम कट्टरपंथ के झगड़े के रूप मे देख रहे हैं. कई मुस्लिम नेता भी चाहते हैं की झूठे ध्रुवीकरण की राजनीति चले इसीलिये वो पढ़े-लिखे मुसलमानों को असली खेल नहीं बता रहे.

पर जनता का अपना अनुभव होता है. वह जनता समझ रही है कि मोदी कोई हिंदू राष्ट्र का पैरोकार नहीं, पूंजीपतियों का दोस्त है. उसी तरह फ्रांस में भी आम जनता इस खेल को समझ रही है, बस उसकी ‘मन की बात’ मीडिया आप तक पहुंचने नहीं दे रहा.

तो ये है असली खेल. इस्लामोफोबिया के आड़ में दक्षिणपंथी ताकतें अमेरिका और उसके एजेंटों के माध्यम से एक लोककल्याणकारी राज्य को खत्म कर भारत की ही तरह फासीवादी और अंबानी-अडानी जैसे ही निजी औद्योगिक घरानों की सेवा कर सके. इसमें दुखद हकीकत यह है कि मुस्लिम धर्म के कुछ लोग भी इस खेल में शामिल हो गये हैं. पत्रकार गिरीश मालवीय लिखते हैं –

कंबोडिया के हिन्दू मंदिरों में मान लीजिए कि हिन्दू प्रतीकों का अपमान जैसी कोई घटना घट जाती है तो क्या आप उम्मीद करते हैं कि भारत के हर शहर में उस घटना के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रर्दशन होंगे ?

पोलैंड में कहीं ईसाई प्रतीकों का अपमान होता है तो क्या आप सोचते हैं कि पूरी दुनिया में ईसाई धर्मावलम्बी उस घटना के खिलाफ अपने घरों से बाहर निकल कर प्रदर्शन करेंगे, रैलियां निकालेंगे, जुलूस निकालेंगे ?

बामियान में बुद्ध की मूर्ति को दहशतगर्दो ने ढहा दिया, मैंने कहीं नहींं सुना कि श्रीलंका बर्मा जैसे बौद्ध मूल के देशों में जनता ने कोई आक्रामक प्रतिक्रिया व्यक्त की हो ? देश भर में रैलियां जुलूस निकाल रहे हो ? या उनके खिलाफ हिंसा को जायज ठहराने की बात भी हो रही हो ?

बुद्धिजीवी वर्ग जरूर ऐसी घटनाओं की कड़े शब्दों में निंदा करता है, आलोचना करता है लेकिन बहुत उग्र प्रतिक्रिया दुनिया के किसी हिस्से में सुनने में नहीं आती.

लेकिन मुस्लिम मतावलंबियों के साथ ऐसा नहीं है. फ़्रांस के एक शहर में एक कार्टून पत्रिका में एक कार्टून जो तीन चार साल पहले छपा था, उससे उपजा विवाद आज भी पूरी दुनिया को हैरान-परेशान कर रहा है, दुनिया भर के देशों के अलग-अलग शहरों में प्रदर्शन हो रहे हैं.

मैंने भारतीय मुसलमान को कभी कोई युनिवर्सिटी, स्कूल या कॉलेज मांंगने के लिए प्रदर्शन करते हुए नहीं देखा, न ही कभी वह अपने इलाक़े में अस्पताल के लिए या अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं के आंदोलन चलाते हैं और न ही बिजली पानी के लिए, वो अपने इलाके में कभी बेसिक जन सुविधाओं की मांग करता कोई बड़ा आंदोलन नही चलाते

पर मुझे बड़ी हैरानी होती है जब वह सुदूर बसे फ्रांस में एक घटना घटती है और भोपाल में एक बड़ा जंगी प्रदर्शन आयोजित होता है. और ऐसा सिर्फ़ भोपाल में ही नहींं हुआ, दुनिया के कई शहरों में ऐसा प्रदर्शन हो रहा है.

ऐसा क्यों होता है यह जानना बड़ा दिलचस्प है. यह पैन इस्लाम के कारण है डिक्शनरी में लिखा है कि पैन-इस्लामवाद एक राजनीतिक आंदोलन है, जो एक इस्लामी राज्य के तहत मुसलमानों की एकता की वकालत करता है. पैन इस्लाम का इस्लामी पर्यायवाची शब्द, इतिहाद-ए-इस्लाम या इत्तिहाद-ए-दीन है, इसकी ही वजह से हिंदुस्तान के मुसलमान भी अपनी विविधताओं वाली पहचान की जड़ से उखड़ कर, उसकी जगह अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम से जुड़ जाता है.

यही कारण है कि एक कट्टर धार्मिक पहचान के तौर पर मुसलमान जाने अनजाने अन्तर्राष्ट्रीय डाकुओं की मददगार बन जा रही है जो सारी दुनिया की बहुसंख्यक जनता का खून चूसना अपना अधिकार मान रही है. भारत में भी पिछले छह सालों से यही हो रहा है और देश की बहुसंख्यक जनता को उजाड़ कर अंबानी-अडानी जैसे धन्नासेठों का गुलाम बनाया जा रहा है. पत्रकार और विद्वान फरीदी अल हसन तनवीर सोशल मीडिया पर तीखा स्वर में लिखते हुए कहते हैं –

मुहम्मद, इस्लाम, क़ुरान को आलोचना के दायरे में लाने के चलते अगर किसी का क़त्ल कर देने का समर्थन करना ईमान है तो मैं मुसलमान नहीं हूंं बे !

कितने लोग जानते हैं कि शार्ली हेब्दो में डेन कार्टूनिस्ट द्वारा बनाये गए उस विवादास्पद कार्टून की विषयवस्तु क्या थी ? जिसे पैगम्बर का कार्टून मान मुसलमान खौले जा रहे हैं. आखिर क्या दिखाया गया था उस कार्टून में ? अधिकांश नहीं जानते होंगे! लेकिन समर्थन और विरोध कर रहे हैं.

एक इस्लामिक वेशभूषा और चेहरे वाला व्यक्ति जिसके सर पर जो पगड़ी है, उसे एक सुलगते बॉम्ब के रूप में दिखाया गया था. मुसलमानों का विरोध तो एक बार समझ भी आता है. आखिर ये उन्हें चिढ़ाने और प्रतिक्रिया ज़ाहिर करने के उद्देश्य से ही बनाया व प्रकाशित किया गया था. और वे इतने मूर्ख और जज़्बाती हैं कि उसी इच्छित पैटर्न के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं.

लेकिन सबसे हास्यास्पद बात ये है कि बॉम्ब वाली पगड़ी पहने अपने पैगम्बर के कार्टून को देख खौले हुए मुल्लों की आलोचना वे हिंदुत्ववादी भी कर रहे हैं जो परम राष्ट्रभक्त कनाडाई नागरिक अक्षय कुमार ऊर्फ़ राजीव भाटिया की फ़िल्म का विरोध मात्र इस कारण से कर रहे हैं कि उसका नाम ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ क्यों रखा गया ?

आपको देवी ‘लक्ष्मी’ के नाम के साथ ‘बॉम्ब’ शब्द मंजूर नहीं, जबकि उसी देवी के पूजन के उपरांत आप दशकों से करोड़ों-अरबों के बॉम्ब आतिशबाजी के रूप में फोड़ कर पर्यावरण दूषित करते आये हो और आने वाले 15 दिन में फिर से करोगे. और देखिये अपनी बहुसंख्य तानाशाही के चलते आपने राष्ट्रवादी अक्षय को फ़िल्म के टाइटल से ‘बॉम्ब’ शब्द हटाने पर धमका ही लिया न. मार दी न अभिव्यक्ति कि आज़ादी ?

और उन्हें भी अपने पैगम्बर की पगड़ी में बॉम्ब की तस्वीर का व्यंग्य चिढ़ा रहा है. जबकि वे भी बॉम्ब की संस्कृति की राह पर चल पड़े हैं। बस यूरोप में वे बहुसंख्यक नहीं हैं इसलिए आपकी तरह डरा, झुका और धमका न पाए इसलिए हमले और बहिष्कार का खेल खेल रहे हैं. बहिष्कार का खेल आप भी तो अभी अभी खेल कर हटे हो न ? आपसी विरोध, आलोचनाओं और नफ़रतों के ढेर के बावजूद आखिर आपकी सोच इतनी मिलती जुलती क्यों है मेरे कट्टरपंथी भाइयों ?

CAA-NRC विरोध आंदोलनों के समय जो दढ़ियल मुल्ले और आंखों को पसेरी भर काजल से लसेड़े हिजाब वाली ख़ातूनें फ्रांसीसी क्रांति से हासिल समता, स्वतंत्रता और धर्म निरपेक्षता जैसे मूल्यों की बात करते नहीं थकती थी, वे आज मूर्खों की तरह फ्रांस के विरोध में I love Muhammad को ट्रेंड करा रहे हैं. ये दोगलापन है. दुनिया आपका असली वास्तविक चरित्र देख रही है.

रसूल के चेलों, रसूल खुद पर कूड़ा फेंकने वाली औरत की खैरियत जानने उसके घर पहुंच गए थे. उसके बीमार होने पर उसकी खिदमत और देखभाल करते रहे थे. और तुम उनकी उम्मत होने का दावा करते हो और फ्रांसीसी चर्च में घुस कर हत्याएं करते हो. औरत तक का सर काट लेते हो ! और तुम मेरे मलेच्छ हिंदुस्तानी भाई बहनों, तुम इस हिंसक कृत्य का समर्थन कर NRC-CAA पर परधर्मियों से समर्थन की उम्मीद पालते हो ! कितने पाखंडी दिखते हो तुम ऐसा करते. तुमसे बेगैरत उम्मत और किसी रसूल के हिस्से न आई होगी ! बेचारे रसूल !

दरअसल आपका एकमात्र प्यार मुहम्मद की आलोचना पर हत्या को जायज़ ठहराना ही है. समता, स्वतंत्रता और धर्म निरपेक्षता का तो आप नक़ाब पहन लिए थे. अगर आपने ख़ुद में बदलाव न किया तो एक दिन भारत ही नहीं सारी दुनिया में NRC आएगी और आपको कोई शाहीन बाग न मिलेगा प्रदर्शन और विरोध के लिए.

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