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बिहार में क्रांतिकारी मजदूर संगठन ‘बमवा’ का गठन और उसका दस्तावेज

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बिहार में क्रांतिकारी मजदूर संगठन 'बमवा' का गठन और उसका दस्तावेज
बिहार में क्रांतिकारी मजदूर संगठन ‘बमवा’ का गठन और उसका दस्तावेज

आज देश बहुत ही नाजुक स्थिति से गुजर रहा है. कोरोना महामारी के कारण देश में लगे लाकडाउन ने देश के मेहनतकश वर्ग और गरीब किसानों की कमर पूरी तरह तोड़ के रख दी, और उनके भविष्य को पूरी तरह से अंधेरे कुंए में धकेल दिया. इस तालाबंदी से देश के लगभग 120 करोड़ लोग प्रभावित हुए. लेकिन इन 120 करोड़ लोगों में से लगभग 65 करोड़ मेहनतकशों-मजदूरों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ. और इन 65 करोड़ मेहनतकशों-मजदूरों में से भी सबसे ज्यादा प्रभावित, असंगठित क्षेत्र के करीब 50 करोड़ मेहनतकश-मजदूर हुए.

इसका असर ये रहा कि लॉकडाउन के करीब तीन महीनों के भीतर ही लगभग 12 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी खो दी. जहां इस एक बीमारी ने भारत जैसे निचले विकासशील देश की पूंजीवादी व्यवस्था की पोल पूरी तरह से खोल दी, वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद के सिरमौर कहे जाने वाले अमेरिका की डूब रही अर्थव्यवस्था ने पूरी दुनिया की आंखें खोल दी. परिणामस्वरूप, अब पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को ये साफ साफ दिखाई देने लग पड़ा है कि दुनिया के सभी पूंजीवादी व्यवस्था वाले देशों में, मेहनतकशों-मजदूरों को सिर्फ कीड़े-मकौड़े ही समझा जाता है और इन देशों में जो भी नियम-कानून बनाए जाते हैं वो सभी पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए ही बनाए जाते हैं.

जिसका नतीजा यह रहा कि यहां एक तरफ भारत की करीब 120 करोड़ मेहनतकश आबादी का भविष्य अंधकार की ओर बढ़ गया, वहीं दूसरी ओर देश के कुछ सबसे बड़े पूंजीपतियों ने इस महामारी को अपने मुनाफे के साधन में बदल लिया और अपने मुनाफे के नए-नए रिकॉर्ड स्थापित करके अपनी संपत्ति में बेशुमार इजाफा किया. इन पूंजीपतियों में सबसे पहला नाम है मुकेश अंबानी का, जिसने लाकडाउन के केवल 3 महीनों में लगभग 3 लाख करोड़ रुपये (3000000000000 रूपये) कमाकर अपनी संपत्ति दुगुनी कर ली और एशिया में पहले स्थान पर आ कर दुनिया में चौथे सबसे अमीर आदमी बन गया.

इसी तरह अमेरिका में, जहां कोरोना की सबसे अधिक मार पड़ी, और लगभग 4 करोड़ लोगों ने बेरोजगार होने पर जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी वस्तुओं की मांग की; उसी अमेरिका में, अमेज़ेंन कंपनी के मालिक बेजोस ने लाकडाउन के केवल तीन महिनों में पाच लाख करोड़ रूपये (5000000000000 रुपए) कमाए और दुनिया का सबसे अमीर आदमी बनने का खिताब हासिल किया.

यहां सवाल यह उठता है कि आज जो भारत की करीब 120 करोड़ मेहनतकश आबादी अंधकार की ओर बढ़ रही है, क्या उसका कारण एकमात्र करोना महामारी है ? ऊपर दिए गए तथ्यों से यह बिलकुल स्पष्ट है कि हमारे देश के मौजूदा हालातों का असली कारण कोरोना बिलकुल भी नहीं है, बल्कि पहले से ही बर्बादी की तरफ बढ़ रहे भारत और दुनिया को करोना ने थोड़ा ज्यादा तेजी से बर्बादी की कगार पर ला दिया है. जैसे कि किसी जर्जर हो चुकी इमारत को थोड़ा सा भी धक्का लगने से वो चरमरा कर गिर जाती है, बिल्कुल उसी तरह भारत और बाकी दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्थाओं ने चरमराना शुरू कर दिया है. असलियत यह है कि कोरोना लॉकडाउन से पहले ही भारत की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी थी.

करोना महामारी की शुरुआत से पहले (मार्च 2020 से पहले) ही भारत में पिछले 45 वर्षों का बेरोज़गारी का रिकार्ड टूट चुका था. भारत के इतिहास में पहली बार पिछले सालों में किसानों से ज्यादा बेरोजगार नौजवानों ने आत्महत्या की. भुखमरी में भारत दुनिया में बहुत ऊपर आ चुका था. 20 लाख कम्पनियों में से 7 लाख कंपनियां बंद हो चुकी थीं.

केंद्र सरकार द्वारा पूंजीपतियों के लूटने के धंधे को बढ़ाने के लिए, एक के बाद एक सरकारी संस्थाओं/कंपनियों को पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा था या उन्हें हमेशा के लिए बंद कर दिया जा रहा था. इन सरकारी संस्थाओं/कंपनियों में बी.एस.एन.एल (BSNL), बी.पी.सी.एल (BPCL), एयर इंडिया (Air India), बिजली विभाग, रेलवे विभाग, डाक विभाग, बैंक, कोयला खान, युद्ध सामग्री फैक्ट्रीयां आदि शामिल हैं. जिसके कारण वे दिन-प्रतिदिन अपने लाखों कर्मचारियों/मजदूरों को नौकरी से निकाल रहे थे. जिसके कारण बेरोजगारी में भारत का पिछले 45 वर्षों का रिकॉर्ड टूट गया. इसी के कारण आज भी नई नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं और सरकारी/गैर-सरकारी संस्थाएं/कम्पनियां लगातार अपने पुराने कर्मचारियों को नौकरियों से निकाल रहे हैं.

सरकारी कंपनियों/संस्थानों/विभागों को बंद करवाकर और उन पर मुद्ठी भर पूंजीपतियों का कब्जा करवाकर सरकारी विभागों का जोर-शोर से निजीकरण चालू है. निजी कंपनी/एजेंसियों के
मालिकों/पूंजीपतियों के लिए सबसे बड़ी चीज मुनाफा है और यह तभी हो सकता है जब किसी कारखाने/कंपनी में कम से कम लोगों को काम पर रखा जाए ताकि उन्हें ज्यादा लोगों को वेतन न देना पड़े ! इस वजह से मेहनतकश लोगों को लगातार नौकरियों से निकाला जा रहा है.

इतना ही नहीं अब तो सरकारी नौकरी करने वालों को भी रिटायरमेंट से पहले ही नौकरी से निकाला जा रहा है या फिर नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसका नतीजा यह रहा कि देश के करोड़ों नौजवानों, मजदूरों, मेहनतकशों को नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है. मतलब देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह डूबने की कगार पर थी और करोना महामारी ने सिर्फ इस प्रक्रिया को थोड़ा तेज कर दिया.

नरेंद्र मोदी की तरफ से 24-25 फ़रवरी, 2020 को अमेरिका के राष्ट्रपति सिर्फ इतना ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री ने ट्रंप के स्वागत के लिए गुजरात में करवाए गए ‘नमस्ते ट्रम्प’ कार्यक्रम में इकट्ठे हुए विदेशी लोगों सहित करीब एक लाख लोगों ने भारत में कोरोना महामारी को खुला आमंत्रण दे दिया. हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन
(WHO) ने 30 जनवरी, 2020 को दुनिया को ‘कोरोना इमरजेंसी’ के बारे में चेतावनी दी थी.

इसका मतलब साफ़ है कि कोरोना महामारी इस कार्यक्रम से पहले ही पूरी दुनिया में फैलना शुरू हो चुकी थी, लेकिन फिर भी सरकार ने इस कार्यक्रम को अपने निजी फायदे के लिए करवाया. इतना ही नहीं, इस कार्यक्रम के बाद, केंद्र सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के लाकडाउन (तालाबन्दी) ने मज़दूर वर्ग की वो कमर तोड़ दी, जो शायद अब कभी सीधी नहीं होगी.

इस बिना तैयारी के लॉकडाउन ने सबसे ज्यादा असर डाला भारत के विभिन्न राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों-मेहनतकशों पर, जिनके लिए लॉकडाउन जीवन और मृत्यु का कारण बन गया और हजारों मजदूरों को बेरोजगारी के कारण भुखमरी, बीमारी, मृत्यु का सामना करना पड़ा और घर लौटने के लिए हजारों किलोमीटर का पैदल सफर करके वापिस लौटना पड़ा. और इस दर्द को सिर्फ मेहनतकश-मजदूर वर्ग ही समझ सकता है. इसलिए आज जो मजदूर वर्ग की हालत है उसका जिम्मेदार करोना नहीं बल्कि मानवता-विरोधी, भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था है, जिसे बदले बिना मानवता और मेहनतकश-मजदूर वर्ग को आज़ाद नहीं किया जा सकता.

भारत में आउटसोर्सिंग प्रक्रिया (ठेकेदारी प्रथा)

भारत सरकार द्वारा लुटेरे पूंजीपतियों की मुनाफे की हवस को पूरा करने का काम यहीं नहीं रुका बल्कि सरकारी विभागों में भी आउटसोर्सिंग (ठेकेदारी प्रथा) के जरिये मेहनतकशों/मजदूरों/कर्मचारियों की भर्ती का खतरनाक सिलसिला शुरू किया गया. आउटसोर्सिंग (ठेकेदारी प्रथा) पर मेहनतकशों/मजदूरों/कर्मचारियों की भर्ती करवाने के पीछे सरकार या इस पूंजीवादी व्यवस्था की असली मंशा क्‍या है, इस बात को समझना सबके लिए बहुत जरुरी है.

प्रदेश के सभी विभागों में पद खाली होते हैं. सरकार पक्की भर्ती कम करती है, क्योंकि वेतन-भत्ते आदि ज्यादा देने पड़ते हैं. कम खर्च में काम चलाने के लिए केंद्र सरकार (या पूंजीवादी व्यवस्था) और सभी राज्य सरकारें आउटसोर्सिंग के तहत भर्तियों पर ज्यादा जोर दे रही है. निजी एजेंसियों को मैनपावर देने की जिम्मेदारी देती हैं, इसके बदले एजेंसियां सरकार से मोटा कमीशन लेती हैं. सरकार ने मिनिमम 5% सर्विस चार्ज तय कर रखा है, हकीकत में एजेंसियां / कम्पनियां 45% तक सर्विस चार्ज ले रही हैं.

नौकरी पर कौन लगता है और कौन नहीं, इसके बजाए एजेंसी को केवल कमीशन से मतलब होता है. सभी विभाग अपने विभाग से संबंधित मंत्री को खाली पदों की फाइल भेजते हैं. इसके बाद मंत्री और क्षेत्रीय विधायक अपने उम्मीदवारों की सूची पहले ही भेज देते हैं ताकि उनके नजदीकीयों को चुना जाए. इनके भेजे नामों को विभाग पहल देते हैं और बिना किसी टेस्ट या इंटरव्यू के भर्ती कर देते हैं. सारा खेल आउटसोर्सिंग के तहत होने वाली भर्तियों के जरिए हो रहा है.

पिछले दिनों हरियाणा नगर निकाय में प्रदेश स्तर पर ऐसे हुई भर्तियों में ₹100 करोड़ से ज्यादा के घोटाले के आरोप लगे. सरकार से विजिलेंस जांच का आश्वासन भी मिला, लेकिन नतीजा जीरो रहा. इसी दौरान हिसार सर्कल में एक कंपनी ने बिजली निगम में 260 कर्मी नई भर्ती प्रक्रिया के तहत दिखाकर उनसे 5-5 हजार लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी. हैरानी की बात यह रही कि उक्त कर्मचारी पहले से ही वहां काम कर रहे थे, केवल एजेंसी बदली गई.

एजेंसियों को सिर्फ कमीशन से मतलब होता है इसलिए नियम-
कायदा छोड़ अपनी मनमर्जी से कर्मचारियों की भर्तियां करती हैं. जैसे पिछले वर्ष जींद में सेहत विभाग में आउटसोर्सिंग पर भर्ती के लिए विधायक ने रात में कोठी पर बैठकर चहेतों की लिस्ट ठेकेदार को दी थी. इसी तरह एक घटना में जब एक एजेंसी ने सोनीपत अस्पताल से आउटसोर्स पर लगे एक कर्मी को निकाला तो उससे नौकरी पर बने रहने के लिए 20 हजार की रिश्वत मांगी गई, तब उक्त कर्मी ने सुपरवाइजर का रिश्वत मांगने वाला ऑडियो वायरल किया.

यमुनानगर में एक आउटसोर्सिंग कंपनी ने सरकारी स्कूलों में चौकीदार-चपरासी के इंटरव्यू मैरिज पैलेस में लिए जिसका विभागीय अधिकारियों को पता ही नहीं था और बाद में ये भर्ती रद्द की गई. एजेंसियों के कर्मचारियों की भर्ती के भी कोई नियम नहीं है. एजेसियां मनमर्जी से नियुक्ति करती हैं. कर्मचारी की योग्यता की भी ठीक से जांच नहीं होती है. इसे लेकर योग्य बेरोजगार हमेशा आवाज उठाते रहते हैं.

आखिर क्या है यह पूंजीवादी व्यवस्था ?

पूंजीवादी व्यवस्था का मतलब है कि उत्पादन के साधन (मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने वाले सामान बनाने के साधन) जैसे फैक्ट्रियां-कारखाने, उद्योग-धंधे, खेत-खलिहान, खानों, जंगलों, तेल के कुओं आदि पर देश के सिर्फ मुट्ठी भर लुटेरे पूंजीपतियों का कब्जा है. देश की सरकारों द्वारा जो भी नियम-कानून बनाए जाते हैं, वे सभी उनके मुनाफे या लाभ के लिए ही बनाए जाते हैं.

सीधे शब्दों में कहा जाए तो, भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी या किसी भी अन्य पार्टी की सरकार हो, वे सभी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली होती हैं. इसलिए इन पूंजीपतियों को मेहनतकशों, मज़दूरों, किसानों, नौजवानों की लूट करने की खुली छूट दे दी जाती है. इसका मतलब यह है कि असली सत्ता पूंजीपतियों के हाथ में है ना कि कठपुतली सरकारों के हाथ में. और जब तक सत्ता पूंजीपतियों के हाथों में रहेगी, तब तक सब कुछ मुनाफे के लिए ही किया जाता रहेगा, चाहे इसके लिए पूरी मानवता की ही बलि क्‍यों ना चढा दी जाए.

पूंजीपतियों को सबसे अधिक मुनाफा मेहनतकश-मज़दूर वर्ग से ही होता है. और इस लूट का कुछ हिस्सा वे मध्य वर्ग को अपने साथ बनाए रखने के लिए करते हैं. कहने का अर्थ है कि मध्यम वर्ग केवल पूंजीपतियों का ही सहयोगी होता है लेकिन यह पूंजीपति अब मध्यम वर्ग को भी अपना निवाला बनाके निगल रहे हैं. इसी पूंजीवादी व्यवस्था के कारण ही देश की लगभग 85 प्रतिशत आबादी दो वक़्त की रोटी के लिए दिन-रात मरती है, जिसके कारण देश भूखमरी, बेरोजगारी, लूटपाट, अपराध, अन्याय आदि में बहुत ऊपर है.

इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था के कारण है ही देश का नौजवान दर-दर की ठोकर खा रहा है क्योंकि ना तो उसकी शिक्षा के लिए कोई उचित व्यवस्था है और ना ही उनके लिए कोई रोजगार है. देश का लुटेरा पूंजीपति या तो उसे नौकरी नहीं देता या उसे ‘ठेकेदारी प्रथा’ और ‘हायर एंड फायर’ की भट्टी में झोंक देता है. जहां ना तो कोई इज्ज़तयोग्य वेतन होता है, ना ही नौकरी की गारंटी, ना ही काम के निर्धारित घंटे, और ना ही अपने ऊपर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार.

ऐसी हालातों में युवा बार-बार झूठे सपने दिखाने वाली पूंजीवादी पार्टियों और उसके नेताओं द्वारा ठगे जाते हैं क्योंकि उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं होता है । शिक्षा का निजीकरण करके इसे एक व्यवसाय बना दिया गया है, इसलिए ज्यादातर छात्रों को बीच में ही शिक्षा को छोड़ देना पड़ता है या फिर अगर कोई किसी तरीके से डिग्री ले भी लेता है, तो भी वह रोजगार के लिए दर-दर भटकता है और लुटेरा पूंजीपति उसकी मेहनत को लूटने के लिए तैयार बैठा होता है.

माता-पिता की बीमारी और परिवार की खराब हालातों के नीचे दबा हुआ नौजवान अपने मालिकों या पूंजीपतियों की शर्तों को स्वीकार करता हुआ जो कुछ भी मिलता है, उसके साथ गुजर-बसर करने के लिए मजबूर होता है. आज देश और दुनिया की पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था इतने गहरे संकट में फंस गई है कि अब इससे नौजवानों-विद्यार्थियों की भलाई की उम्मीद करना खुद को बेवकूफ बनाने वाली बात है.

आज के भारत में मेहनतकश नौजवानों के चकनाचूर होते सपने

देश के करोड़ों मेहनतकश नौजवान/विद्यार्थी पढ़ने-लिखने के बाद एक हसीन ज़िंदगी का सपना देखते हैं. आज के नौजवानो को टी.वी, फिल्‍मों और अखबारों को देख कर यह लगने लग लगता है कि आंखें झपकते ही उनको एक शाही नौकरी, अलीशान घर और एक चमचमाती कार मिल जायेगी. परन्तु सच तो यह है कि सिर्फ़ कुछ नौजवानों को छोड़ कर बाकी सभी मेहनतकश/नौजवान बेरोजगारी की दलदल में जकड़े जाते हैं और बदहाली, कंगाली के अंधेरों में हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं.

जब एक नौजवान/विद्यार्थी पढ़-लिख कर कर नौकरी के लिए फार्म भरता है तो उसको इस सच्चाई का पता लगता है कि सिर्फ़ 5 हज़ार सीटों के लिए करीब 42 लाख विद्यार्थी पेपर दे रहे हैं, तब उसको समझ आती है कि उसके सपने पूरे होने की उम्मीद बिल्कुल ना के बराबर है. और तब तो उस की उम्मीदों पे पूरी तरह पानी फिर जाता है जब उसको यह पता लगता है कि चपरासी की सिर्फ़ 1000 पोस्ट के लिए करीब 6 लाख लोगों ने अप्लाई किया (फार्म भरा) है, जिस में करीब 30 हज़ार विद्यार्थी एम.ए (MA), बी.टेक (B.Tech.), एम.एस.सी (MSC), पी.एच.डी (PhD) आदि डिग्रियां लिए बैठे हैं.

इसलिए आज देश के मेहनतकशों/ नौजवानों/विद्यार्थियों को सब से पहले देश के हालातों को पूरी तरह समझना पड़ेगा ताकि वे झूठे सपनों के जाल में फंस कर नशे, आत्महत्या, अपराध आदि जैसे गलत रास्तों को पकड़ने की जगह इस देश की भ्रष्ट और मानवता विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने के रास्ते को पकड़ें.

टी.वी. और अखबारों में दिखाऐ जाने वाले खुशहाल भारत की असलियत यह है कि आंकड़ों के अनुसार भुखमरी और कुपोषण में भारत सारी दुनिया में बहुत आगे है. भ्रष्टाचार में भारत एशिया में पहले नंबर पर है. देश की करीब 85 प्रतिशत आबादी देश के करीब 6-7 प्रतिशत पैसे (सम्पत्ति) पर जिंदा है. देश की करीब 65 करोड़ आबादी (देश की लगभग आधी आबादी) देश के सिर्फ 3 प्रतिशत पैसे (सम्पत्ति) पे जिंदा है. मतलब दो वक्त की रोटी के लिए भी दिन रात मरना पड़ता है.

भारत सरकार के करीब तीन साल पहले के आंकड़ों के अनुसार देश के करीब 54 प्रतिशत लोग दिहाड़ीदार हैं. देश के करीब 25 करोड़ परिवारों में से 43 करोड़ परिवार, 5 हज़ार रुपए प्रति महीना से भी कम कम पैसे पे ज़िंदगी काट रहे हैं. देश में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 9 करोड़ (साल 2048 में) से बढकर 35 करोड़ (साल 2022 में) हो गयी है. आर्थिक मंदी भारत के गले की फांस बन गई है. बेरोजगारी का पिछले 45 सालों का रिकार्ड टूटा है. करोना की वजह से लगे लाकडाउन ने इन आंकड़ों को और ज्यादा भयानक बना दिया है. क्‍या ऐसे हलातों में हसीन ज़िंदगी का सपना देखने वाले करोड़ों मेहनतकशों-नौजवानों-विद्यार्थियों को रोज़गार मिल पायेगा ?

इस बेरोजगारी के चलते हालात ऐसे हो गए हैं कि अब देश के बेरोजगार नौजवान, देश के किसानों से भी ज़्यादा आत्महत्या कर रहे हैं. साल 2018 में करीब साढ़े दस हज़ार (10500) किसानों ने आत्महत्या की, परन्तु उससे भी ज़्यादा, लगभग तेरह हज़ार (13000) बेरोजगार नौजवानों ने आत्महत्या की.

यदि तस्वीर का दूसरा रुख देखें तो देश की सिर्फ 5 प्रतिशत आबादी के पास देश का 60 प्रतिशत पैसा (सम्पत्ति) है. साल 2020 के आंकड़ों के अनुसार देश के सिर्फ़ 9 आदमियों (पूंजीपतियों) के पास देश की 65 करोड़ मेहनतकश जनता के बराबर पैसा था और आज देश के सिर्फ़ 400 पूंजीपतियों की दौलत (करीब 55 लाख करोड़ रूपये) से करीब डेढ़ साल के लिए पूरे भारत का बजट चल सकता है.

देश के करीब 2000 लोगों (लुटेरे पूंजीपतियों) ने देश की करीब आधी से ज्यादा सम्पत्ति पर (पैसे) कब्ज़ा कर रखा है और पूरे देश को आर्थिक गुलाम बना रखा है. असल में अमीरी और गरीबी की इतनी बड़ी खाई की जिम्मेवार इस देश की भ्रष्ट और मानवता-विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था ही है, जो एक तरफ़ देश की लगभग 120 करोड़ मेहनतकश आबादी को दो वक्त की रोटी के लिए तिल-तिल करके मारती है और दूसरी तरफ़ देश के करीब 2000 पूंजीपतियों के हाथ में देश की करीब आधी से ज्यादा संपत्ति पर कब्ज़ा करवा रखा है.

यही वह मुट्ठी भर लुटेरे पूंजीपति हैं जो इस बात का फ़ैसला करते हैं कि देश के कितने मेहनतकशों/नौजवानों को रोज़गार देना है और कितने मेहनतकशों/नौजवानों को कंगाली-बदहाली की दलदल में धकेलना है. मतलब देश के करोड़ों मेहनतकशों-नौजवानों-विद्यार्थियों के सपनों को तबाह करने वाले यही पूंजीपति हैं. यहां यह भी सवाल उठता है कि देश में करीब 75 प्रतिशत नौजवानों की ताकत होते हुए भी देश इतनी बदहाली से क्‍यों गुज़र रहा है, जबकि इतनी बड़ी नौजवानों की ताकत के साथ किसी भी देश को खुशहाल बनाया जा सकता है.

इसका मतलब तो यही निकलता है कि इन नौजवानों की ताकत और ऊर्जा को गलत दिशा में लगाया जा रहा है. इनकी ताकत को सिर्फ़ मुट्ठी भर लुटेरे पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, ना कि मानवता के लिए. और यही वह व्यवस्था है जिसने स्कूलों और कालेजों में शिक्षा का निजीकरण करके और व्यापार बनाकर, शिक्षा को ह॒द से ज़्यादा मंहगी करके मेहनतकश-मजदूर घरों के विद्यार्थियों के बुनियादी शिक्षा के अधिकार को भी ठोकर मारी है और देश के करोड़ों नौजवानों के एक इंसानी ज़िंदगी जीने के सपने को भी चकनाचूर किया है.

किसानों की हालात

किसानों की अंतहीन आत्महत्याओं के सिलसिले के साथ सभी वाकिफ हैं. देश के 85 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत किसान हैं (जो पेट भरने के लिए खेती के साथ-साथ मजदूरी भी करने को मजबूर हैं), देश के 50 प्रतिशत किसानों के पास देश की कुल खेती योग्य ज़मीन में से सिर्फ़ 3 प्रतिशत ज़मीन मौजूद है. सीमांत किसान, छोटे किसान और छोटे-मध्यम किसानों के लिए खेती सिर्फ़ और सिर्फ़ घाटे का सौदा है.

जिसका कारण है महंगे बीज, महंगी कीटनाशक दवाएं, महंगी खादें, महंगी मशीनों की वजह से फ़सल का लागत मूल्य इतना ज़्यादा हो जाता है कि किसानों को फ़सल बेचने के बाद जो कीमत मिलती है वह इतनी कम होती है कि लागत मूल्य निकालने के बाद उसका दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी ढंग से नहीं हो पाता.

अब यहां यह बात हर किसी को समझने की ज़रूरत है कि बीज, कीटनाशक दवाएं, खाद, मशीनों आदि को जो कंपनियां बनाती हैं वह भी इन बड़े-बड़े लुटेरे पूंजीपतियों की हैं जो अपने मुनाफे के लिए इन के रेट अपने तरीके से तय करते हैं. और जो कंपनियां सरकार के जरिए किसानों से फसलों को खरीदती हैं वो भी इन पूंजीपतियों की ही हैं, जो अपने अंधे मुनाफे की हवस को पूरा करने के लिए अनगिनत किसानों की बलि लेने से भी नहीं पीछे हटते.

मेहनतकशों-मज़दूरों की हालात

तीसरी तरफ यदि मज़दूरों की बात करें तो उन की ज़िंदगी किसी गुलाम से भी अधिक बुरी हो चुकी है. अंतहीन बेरोज़गारी के चलते फ़ैक्टरियों में उनको सिर्फ़ जिन्दा रहने लायक ही वेतन मिलता है, लेकिन उसके बदले उनको अपना सब कुछ कुर्बान करना पड़ता है. 8 घंटे की जगह अब 11-12 घंटे काम करवाना आम बात हो गई है और वह भी बिना ओवरटाइम दिए.

मौजूदा सरकार ने मज़दूरों द्वारा संघर्ष करके हासिल किए मज़दूर हित के 44 कानूनों को ख़त्म करके अब सिर्फ़ 4 लेबर कोड लागू कर दिए हैं, जिससे उनके अनगिनत अधिकार जैसे नौकरी से बेवजह निकाले जाने पर लड़ने का अधिकार, यूनियन बनाने का अधिकार, ठेका मज़दूरी के साथ जुड़े अधिकार, वेतन के साथ जुड़े अधिकार, आदि सब लगभग ख़त्म कर दिए गए हैं, जिसकी वजह से मज़दूरों को फैक्ट्री मालिकों /पूंजीपतियों की गुलामी करने के इलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा है.

और जिनको फ़ैक्टरियों /कारखानों /कंपनियों में काम नहीं मिलता वह असंगठित क्षेत्रों जैसे मनरेगा, मजदूरी, दिहाड़ीदारी, खेत मज़दूरी, निर्माण मज़दूरी, आदि किस्म की मज़दूरी (साल में 365 दिनों में से सिर्फ़ 150-200 दिन मिलने वाले काम) या आउटसोर्सिंग पर मजदूरी (ठेका मजदूरी, जैसे निगम निकायों में सफाई मजदूरी) के साथ ही गुज़र बसर करके अपनी और अपने परिवार की दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ ढंग के साथ नहीं कर पाने की हालत में तिल-तिल करके मरते हैं.

मानवता विरोधी भ्रष्ट पूंजीवाद

पर इस पूंजीवादी सत्ता के पास इन मेहनतकशों, मज़दूरों, गरीब किसानों और नौजवानों की समस्याओं का कोई हल नहीं है क्योंकि उनको अपने मुनाफे की अंधी हवस को लगातार बरकरार रखना है. यह मेहनतकश, मज़दूर, गरीब किसान, नौजवान हर रोज़ अपने हकों को हासिल करने के लिए सडकों पे उतर कर बग़ावत कर रहे हैं.

देश में ये मेहनतकश, मज़दूर, गरीब किसान, नौजवान एकजुट हो कर कहीं क्रांति या इंकलाब न कर दें इसलिए यह पूंजीवादी सत्ता अपनी कठपुतली सरकारों के ज़रिये इस मेहनतकश जनता को भटकाने के लिए धर्म/जाति /क्षेत्रवाद /राष्ट्रवाद/नकली देशभक्ति के नाम पर आपस में बांटने की लगातार साजिश कर रही है और एक के बाद एक, इससे जुड़े मुद्दों को हवा दे कर और फिर उनके फ़ैसले तानाशाही तरीके से लागू करवा रही है, जैसे कि नयी शिक्षा नीति, कश्मीर समस्या, राम मंदिर मुद्दा, नोटबंदी,सी.ए.ए (CAA), एन.आर.सी (NRC), आदि. इसके इलावा भी इस पूंजीवादी व्यवस्था ने अपनी पकड को मजबूत बनाए रखने के लिए कई पुराने सामंती मूल्यों को भी जिंदा रखा हुआ है जैसे जातिवाद को बढ़ावा देना.

यहां यह सवाल उठता है कि क्या इन सभी मुद्दों का देश की करीब 120 करोड़ मेहनतकश आबादी को रत्ती भर भी कोई फ़ायदा है ? इन सरकारों ने कभी देश की अंतहीन बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी के बारे में कोई मुद्दा क्यों नहीं उठाया ? इसका जवाब है कि यह
पूंजीवादी व्यवस्था और इसकी सभी सरकारें मेहनतकश वर्ग के लिए बनी ही नहीं है, यह सिर्फ़ और सिर्फ़ पूंजीपतियों के लिए ही काम करती है.

इसलिए अब वक्त आ गया है कि अब यह पूरी मेहनतकश जनता
(मेहनतकश, मज़दूर, गरीब किसान, नौजवान) को अपने आप समझना होगा कि यह जो मुद्दे सरकार उठा रही है, इन मुद्दों का हमारी बुनियादी मानवीय ज़रूरतों जैसे रोटी, कपड़ा, मकान और रोज़गार के साथ कोई लेना-देना नहीं है, और अभी तक ऐसा एक भी कानून पास नहीं हुआ है, जो हमें हमारे बुनियादी अधिकार दिलवा सके इसलिए हमें इस बात के लिए भी पूरा सतर्क रहना पड़ेगा कि कहीं हम इस सत्ता द्वारा फैलाए गए धर्म/जातिगत क्षेत्रवाद/राष्ट्रवाद/नकली देशभक्ति के अंधभक्त बनकर अपनी बुनियादी इंसानी ज़रूरतों की लड़ाई को ही न ख़त्म कर बैठें. और सत्ता या सरकारों द्वारा फैलाए गए जहर का शिकार होकर अपनी और अपनी आने वाली पीड़ियों की कब्र ही न खोद बैठें.

सत्ता या सरकारें चाहे हमारी इंसानी ज़रूरतों के संघर्ष को भटकाने के लिए चाहे लाख काले कानून बनाएं, पर हम अपनी इंसानी ज़रूरतों के लिए लगातार संघर्ष करके अपने हक हासिल करेंगे और हमारी होने वाली हर लूट का हम सब एकजुट होकर सामना करेंगे.

देश के मेहनतकश-वर्ग का मकसद

इसलिए आज हम ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर एसोसिएशन’ की तरफ से देश के सारे मेहनतकशों-मजदूरों-गरीब किसानों-नौजवानों का आह्वान करते हैं कि आओ हम अपने-अपने अधिकारों की लड़ाई को एक साथ जोड़ दें और इस भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ एकजुट हो जाएं. मेहनतकशों-मजदूरों-गरीब किसानों-नौजवानों
का दुश्मन एक ही है, जिसका नाम है पूंजीवादी व्यवस्था.

इसलिए हम सभी मेहनतकश-मज़दूर-गरीब किसान-नौजवान एकजुट होकर इस भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने में जुट जाएं, जहां मनुष्य के हाथों मनुष्य की लूट’ का ख़ात्मा हो और जहां हर मेहनतकश-मज़दूर-गरीब किसान-नौजवान एक इंसानी ज़िंदगी जी सके. यही शहीद भगत सिंह का सपना भी था और यही हमारा लक्ष्य भी है.

बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)

देश के बाकी राज्यों की तरह बिहार में भी सफाई कर्मचारियों/मजदूरों की स्थिति भी बहुत दयनीय है. पूंजीवाद के मुनाफे की हवस को पूरा करने के लिए निजीकरण के दैत्य ने निगम निकायों को अपने दांतों में पूरी तरह से जकड़ लिया है, जिस वजह से अब नियमित/पक्के कर्मचारियों की जगह आउटसोर्सिंग (ठेकेदारी प्रथा) के जरिए कर्मचारियों की भर्ती पूरे जोर शोर से चालू है. और आउटसोर्सिंग के जरिए भर्ती में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है और जिससे सफाई मजदूरों/ कर्मचारियों का शोषण चरम सीमा पर है.

इसके इलावा निगम निकायों के अन्य सभी तरह के कर्मचारी किसी ना किसी तरह से इस मानवता विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का लगातार शिकार होते रहते हैं. इन सभी तरह के निकाय कर्मचारियों/मजदूरों को इंसाफ दिलाने के लिए ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ का गठन किया गया है, जिसका मुख्य उद्देश्य बिहार के निगम निकाय कर्मचारी/मजदूर वर्ग में इस भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के खिलाफ संघर्ष की चेतना पैदा करना और इस शोषण के खिलाफ संघर्षों के मैदान में उतार के अपने इंसानी हकों को हासिल करने के लिए तैयार करना है.

यह संगठन पूरे बिहार के मेहनतकश वर्ग को एकजुट करने के लिए भी काम करेगा और साथ में देश के बाकी हिस्सों के मेहनतकश वर्ग को अपने साथ लाने के लिए प्रयास करेगा. ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ के गठन से पहले इस एसोसिएशन के लोग लम्बे समय से ‘इंकलाबी म्युनिसिपल फ्रंटलाइन वर्कर्स यूनियन’ के नाम से लगातार बिहार के निगम निकाय कर्मचारियों के लिए आवाज उठाते रहे हैं.

अपनी आवाज़ को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने के लिए इस संगठन ने ‘बिहार राज्य स्थानीय निकाय कर्मचारी महासंघ (ऐक्टू से सम्बंधित)’ से संबद्ध (Affiliate) करवाया था, लेकिन वहां पर कोई रास्ता ना दिखने पर सभी ने मिल कर ऐसे संगठन के गठन की बात सोची जो ना सिर्फ सारे मेहनतकश वर्ग को इस व्यवस्था का असली शोषक चेहरा दिखाए बल्कि इस व्यवस्था के शोषण के खिलाफ सही दिशा में संघर्ष करने की काबलियत भी पैदा करे. क्योंकि अगर सही दिशा में संघर्ष ना किए जाएं तो सारे संघर्ष असफल हो जाते हैं और हम अपनी मंजिल से बहुत दूर हो जाते हैं.

इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए, बिहार के विभिन्न इलाकों के संघर्षशील साथियों के अनथक प्रयासों से ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ का गठन किया. इसलिए बिहार के सभी मेहनतकश निकाय/सफाई कर्मचारियों/मजदूरों से अनुरोध है कि वे अपने हक-सच की लड़ाई के लिए सही दिशा में आवाज़ उठाने के लिए ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ से जुड़ें और भारत की भ्रष्ट पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के खिलाफ मेहनतकश वर्ग की आवाज़ को मजबूत और बुलंद करने में अपना पूरा योगदान दें. इसी रास्ते से हमारी मुक्ति संभव है.

इस एसोसिएशन को पंजाब की रजिस्टर्ड यूनियन ‘उसारी (निर्माण) मजदूर एकता मंच’ से संबद्ध (Affiliate) किया गया है.

हम यहां ये भी कहना चाहते हैं कि कि देश भर में रोजगार के नाम पर बंधुआ मजदूर बनाकर रख दिये गये आउटसोर्सिंग कर्मचारियों को न तो सरकार और न ही उसके अधिकारी मनुष्य समझते हैं. पटना स्थित मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में से एक ‘आईजीआईएमएस’ (IGIMS) में कार्यरत डेढ़ हजार से अधिक आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों की भी यही नियति बन गई थी. लेकिन मजदूर नेता अविनाश कुमार के शानदार नेतृत्व में आईजीआईएमएस के आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों ने एकजुट होकर आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों के साथ हो रहे अमानवीय कृत्य के खिलाफ आवाज बुलंद की.

इसका परिणाम यह हुआ कि गिद्ध की तरह आईजीआईएमएस पर अपना खूनी पंजा गड़ाये चिकित्सा अधीक्षक के पद पर तैनात मनीष मंडल ने अपने गुंडा गिरोह के द्वारा अविनाश कुमार पर जानलेवा
हमला कराया और इस आन्दोलन को खत्म करवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. लेकिन फिर भी इन बहादुर संघर्षशील आऊटसोर्सिंग कर्मचारियों के संगठन ने संघर्ष का मैदान कभी नहीं छोड़ा.

हम यहां ये भी बताना चाहते हैं कि इस पूरे संघर्ष में शुरू से लेकर अंत तक हमारे उन साथियों ने भी अपना पूरा योगदान दिया
जिन्होंने ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ का गठन करने की पहल की है.

उसारी (निर्माण) मजद्वूर एकता मंच (रजि.), पंजाब के बारे में

पंजाब के निर्माण मजदूरों के हकों की आवाज़ उठाने के लिए साल 2016 में पंजाब के संघर्षशील लोगों द्वारा ‘उसारी (निर्माण) मजदूर एकता मंच’ का गठन किया गया था और इस यूनियन को भारत के ट्रेड यूनियन एक्ट के अधीन रजिस्टर्ड करवाया गया. इस यूनियन द्वारा पंजाब के विभिन्न इलाकों में लगातार निर्माण मजदूरों के इंसानी हकों के लिए संघर्ष किया जा रहा है. अनगिनत बार इस यूनियन ने बड़े-बड़े संघर्षों में शानदार जीत हासिल की है और मजदूर/मेहनतकश वर्ग में अपनी पैठ जमाई है.

यूनियन ने अपने कार्य-क्षेत्र को सिर्फ निर्माण मजदूरों के संघर्ष तक ही नहीं सीमित रखा बल्कि बाकी सारे मेहनतकश तबकों जैसे मनरेगा मजदूरों, सफाई मजदूरों, दिहाड़ी मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों, गरीब किसानों और नौजवानों के संघर्षों में भी कंधे से कन्धा मिला कर साथ दिया और उनके संघर्षों को मुकाम तक पहुंचाया.

और अब इसी तरह से यूनियन ने बिहार के मेहनतकश सफाई कर्मचारियों/ मजदूरों को एकजुट करके संघर्षों के जरिए उन्हें उनके इंसानी हक़ हासिल करवाने के लिए बीड़ा उठाया है. ‘उसारी (निर्माण) मजदूर एकता मंच’ के पंजाब के प्रधान (अध्यक्ष) राकेश कुमार हैं.

बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा) द्वारा जारी संघर्ष

“बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा) द्वारा मेहनतकश निकाय मजदूरों/कर्मचारियों की मांगों को लेकर संघर्ष का उदघोष किया गया है, जिसके लिए पूरे बिहार स्तर पर बैठकों/क्न्वेंश्स्स के जरिए प्रचार-प्रसार शुरू किया गया है. सरकार से मांगों को मनवाने के लिए राज्य स्तरीय धरने प्रदर्शन/हड़तालें की जाएंगी और ये लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक कि इस व्यवस्था द्वारा मेहनतकश वर्ग के शोषण का अंत ना हो जाए. ‘बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन’ (बमवा)’ निम्नलिखित मांगों को लेकर राज्यव्यापी संघर्ष छेड़ेगा –

मांगों की सूची –

(1) (क) जिन दैनिककर्मियों की सेवा 40 वर्ष या उससे अधिक हो गई है, उन्हें नियमित किया जाए.

(ख) जब तक इन दैनिककर्मियों की सेवा का नियमितिकरण नहीं हो जाता है, तब तक इन्हें ‘समान काम, समान वेतन’ के अनुसार मासिक वेतन का भुगतान किया जाए.

(2) (क) सभी नगर निकायों में कार्यरत कर्मियों को समान रूप से 7वें वेतन आयोग द्वारा तय वेतन का लाभ दिया जाए.

(ख) कई संवर्गो में उत्पन्न वेतन विसंगति को अविलम्ब दूर किया जाए.

(ग) 5वां, 6ठा एवं 7वें वेतन आयोग की बकाया राशि का अविलम्ब भुगतान किया जाए.

(3) पटना में हुए जल जमाव की जांच हेतु राज्य सरकार द्वारा गठित उच्चस्तरीय जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर आउटसोर्स से नियुक्ति बंद हो और वर्तमान में कार्यरत इन कर्मियों को निकाय कर्मी माना जाए.

(4) सभी निकायों में ई. एस. आई / ई.पी.एफ की सुविधा लागू की जाए एवं इसकी स्थिति अद्यतन की जाए.

(5) (क) सभी निकायों में समान रूप से पेंशन योजना लागू की जाए.

(ख) वर्ष 2004 अथवा इसके बाद नियुक्तकर्मियों को एनपीएस के साथ जोड़ा जाए एवं सबको प्राण नम्बर आवंटित किया जाए.

(6) राज्य के सभी निकायों में समान रूप से एसीपी / एमएसीपी लागू किया जाए.

(7) (क) कार्य के दौरान मृत्यु होने पर निकायकर्मियों तथा स्थाई दैनिक अथवा आउटसोर्स कर्मियों के आश्रितों को मुआवजे के रूप में न्यूनतम 40 लाख रूपये की सहायता दी जाए.

(ख) कोविड-49 के दौरान समान रूप से नगर निकाय के सभी स्थायी / दैनिक एवं आउटसोर्सकर्मियों को एक माह का वेतन प्रोत्साहन राशि के रूप में अथवा वर्ष में 13 माह के वेतन का भुगतान किया जाए.

(8) मृत निकायकर्मियों के आश्रितों की नियुक्ति अविलम्ब की जाए एवं इसकी प्रक्रिया पूर्व की तरह निकाय स्तर से ही किया जाए.

(9) नगर विकास एवं आवास विभाग का आदेश पत्रांक- 2503 दिनांक 30.05.2018, ज्ञापांक-3153 दिनांक 29.06.2048, ज्ञापांक- 526 दिनांक 31.03.2021 एवं ज्ञापांक- 1801 दिनांक 05.05.2021 को रद्व किया जाए.

(10). पटना नगर निगम के स्तर पर दिनांक 08.02.2020 को हुए समझौते का कार्यान्वयन किया जाए.

(11) 74वें संविधान संशोधन की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ बंद हो एवं उक्त संशोधन के आलोक में राज्य के सभी नगर निकायों की स्वायत्तता बरकरार रखी जाए.

इन मांगों के इलावा “बिहार म्युनिसिपल वर्कर्स एसोसिएशन (बमवा)’ इन मांगों के लिए भी आवाज़ उठाएगा –

(क) पटना के ‘इंदिरा गाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आईजीआईएमएस)’ (IGIMS) में अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे जिन 24 आउटसोर्सिंग कर्मचारियों को नौकरी से बाहर निकाल दिया गया है, उन्हें तुरंत वापिस उनके पदों पर नियुक्त किया जाए और उनकी तमाम मांगों को माना जाये एवं आउटसोर्सिंग कर्मचारियों पर हमला करने वाले अधिकारियों पर तुरंत करवाई की जाए.

(ख) नरकटियागंज और इसके आसपास के इलाकों में वन्य जीवों के द्वारा मचाए जाने वाले उत्पात से होने वाले जान-माल के नुकसान को रोकने के लिए वन्य-जीवों के उत्पात को रोकने का स्थायी हल निकाला जाए.

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