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किस ‘मिलान कुंदेरा’ का ‘शोक मनायें’ और किसका नहीं…!

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किस 'मिलान कुंदेरा' का 'शोक मनायें' और किसका नहीं...!
किस ‘मिलान कुंदेरा’ का ‘शोक मनायें’ और किसका नहीं…!
मनीष आजाद

कल मिलान कुंदेरा की मौत के बाद सोशल मीडिया पर श्रद्धांजलियों का तांता लग गया था. निश्चित ही कुंदेरा बड़े और बहुआयामी रचनाकार हैं. सर्वसत्तावाद के खिलाफ़ व्यक्तिगत आज़ादी उनकी रचनाओं का आधारभूत दर्शन है. लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है, जिस पर हमारा ध्यान जाना चाहिए.

ब्रिटिश लेखिका और पत्रकार जॉन स्मिथ की 1989 में एक मशहूर किताब आयी ‘Misogynies’. इसमें उन्होंने धर्म, राजनीति के अलावा साहित्य में मौजूद नारी-विरोधी दृष्टिकोणों को रेखांकित किया है.

इस किताब में उन्होंने मिलान कुंदेरा की रचनाओं से कई वाक्यांशों को उधृत करते हुए उन्हें misogynist यानी नारी विरोधी साबित किया है. उनके एक बहुपठित उपन्यास ‘The Unbearable Lightness of Being’ के आधार पर, विशेषकर जिस तरह से इस उपन्यास में टेरेज़ा (Tereza) और सबीना (Sabina) का चित्रण किया गया है वह misogynist न भी हो तो यहां पर लेखक का ‘मेल गेज’ (male gaze) साफ दिखता है.

जब ‘नोम चोम्स्की’ जैसे जन-बुद्धिजीवीयों ने इज़राइल का बहिष्कार कर रखा है, उस वक़्त उन्होंने इज़राइल का सर्वोच्च पुरस्कार (Jerusalem Prize for literature) ग्रहण किया और साथ ही इज़राइल की तारीफ भी की. और इस तरह अपने उन पाठकों को मायूस किया जो उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति निष्ठा के कारण उनकी रचनाओं से जुड़े थे.

पूरे फिलिस्तीन को इज़राइल ने कैद किया हुआ है. ऐसे में सर्वसत्तावाद के खिलाफ़ निजी स्वतंत्रता के पक्षधर एक लेखक का इज़राइल का सर्वोच्च पुरस्कार ग्रहण करना और फिर ‘नस्ल’/धर्म के आधार पर बने देश की तारीफ करना वास्तव में अपने ईमानदार पाठकों की पीठ में छुरा घोपना है.

उनकी कुछ रचनाओं में पूर्वी यूरोप और खासकर रूस के प्रति उनकी ‘नस्लीय’ नफरत भी देखने को मिलती है. चेक भाषा से फ्रेंच की तरफ जाने का शायद एक कारण यह भी है.

लेखन के प्रति उनके शास्त्रीय नज़रिये के कारण ही उन्होंने अपनी किताबों का ‘किण्डल वर्जन’ नहीं जारी होने दिया. इस कारण बहुत से लोग उनकी रचनाओं तक नहीं पहुंच पाए. मिलान कुंदेरा की लोकप्रियता बर्लिन दीवार के ढहने से भी जुड़ी हुई है, यह बात नहीं भूलनी चाहिए.

बहरहाल मुझे उनका एक उद्धरण बहुत पसंद है- ‘सत्ता के खिलाफ़ इंसान की लड़ाई, भूलने के खिलाफ़ स्मृति की लड़ाई है.’ (The struggle of man against power is the struggle of memory against forgetting).

जॉन स्मिथ की ‘Misogynies’ अमेज़न पर उपलब्ध है. इसे पढ़ा जाना चाहिए.

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