सोशल मीडिया (व्हाट्सएप) पर कुमार प्रशांत के नाम से यह लेख मिला है. श्रीलंका के बहाने सत्ता के स्वकेन्द्रित चरित्र के बेबाक विश्लेषण के साथ ही लोकशक्ति की सर्वोपरिता की स्थापना है, इसलिए साझा कर रहा हूं. यह लेख सत्ता को समझने के लिए जरूरी है.
पता नहीं कब से, कलेजे का पूरा जोर लगा कर हम चिल्लाते रहे – ‘आवाज दो, हम एक हैं’; लेकिन हम एक नहीं हुए ! वे कोई आवाज नहीं लगाते, जुलूस नहीं निकालते, लेकिन समय पड़ने पर इस तरह एक होते हैं कि समय भी हक्का-बक्का रह जाता है.
श्रीलंका के अपराधी, अपदस्थ, अपमानित व भगोड़े राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे तब अपना देश छोड़ भागे, जब सारा देश जल रहा था और उनकी बनाई सारी व्यवस्था ध्वस्त पड़ी थी. यह वैसा दौर था जिसमें कोई देशभक्त देश छोड़ कर भाग नहीं सकता है. उसका भागना ही प्रमाणित करता है कि वह और कुछ भी हो, देशभक्त तो नहीं है.
देशभक्त होगा तो अपने मन-प्राणों का पूरा बल जोड़ कर हालात को संभालने की कोशिश करेगा और इस कोशिश में होम होना ही बदा हो तो वही स्वीकार करेगा लेकिन गोटबाया की देशभक्ति ने उसे भागने का रास्ता दिखाया. भागने से पहले वह गायब हो गया था, क्योंकि श्रीलंका की सड़कों पर, सरकारी इमारतों पर, राष्ट्रपति भवन पर नागरिकों का कब्जा हो गया था.
नागरिक यानी लोक, जिनसे श्रीलंका का ही नहीं, सारी दुनिया का लोकतंत्र बनता है. लोकतंत्र की शोकांतिका यह है कि वह बनता लोक से है, चलता तंत्र से है. चलाने वाले वेतनभोगी बड़े-छोटे हर कर्मचारी को अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि वे हैं तो राष्ट्र है इसलिए जब कभी लोक अपनी हैसियत बताने सामने आता है, तंत्र के होश उड़ जाते हैं. वह फौज-पुलिस, लाठी-गोली, अश्रुगैस-पानी की तलवारें लेकर मुकाबले को उतर आता है. यही गोटाबाया ने भी किया, और जब कोई बस नहीं चला तो भय से कहीं जा छुपा, कहां ?
यही कहानी मुझे आज आपको सुनानी है. जब श्रीलंका के सागर में उत्ताल लोक लहरें उठ रही थीं और सेना ऐसा दिखा रही थी कि वह लोक से सहानुभूति रखती है, ठीक उसी वक्त, वही सेना लोकद्रोही गोटाबाया को पनाह भी दे रही थी. इतना ही नहीं, वह बयान दे रही थी कि हमने गोटाबाया को न तो छुपा रखा है, न छुपने में मदद ही की है. गोटाबाया में थोड़ा भी नैतिक बल होता तो वह तभी-के-तभी इस्तीफा दे देता. सभी गोटाबाया ने ऐसा ही तो किया था.
यह भयानक हकीकत हममें से कम लोग ही जानते होंगे कि श्रीलंका की राष्ट्रीय सरकार में ‘गोटाबायों’ की उपस्थिति कैसी व कितनी थी. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने अपने भाई गोटाबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति बनाया था, अपने दूसरे भाई बासिल राजपक्षे को वित्त मंत्री, अपने भतीजे नामाल को खेल व युवा मंत्री, दूसरे भाई चामाल को सिंचाई मंत्री, और चामाल के बेटे शाशींद्र को कृषि मंत्री बनाया था.
महिंदा ने अपने बेटे योशिथा को प्रधानमंत्री कार्यालय का प्रमुख नियुक्त किया था तो दामाद निशांता विक्रमसिंघे को लंकन एयरलाइंस का प्रमुख बनाया था. ऐसा राष्ट्रीय परिवारवाद क्रूरता व आतंक के सहारे ही टिकाया जा सकता है, यह जानते हुए महिंद्रा और गोटाबाया ने तमिल लंकाइयों से युद्ध छेड़ दिया और दुश्मनों की तरह उनका खात्मा करवाया.
इसके लिए जरूरी था कि लंकाई समाज में चरम घृणा फैलाई जाये, ताकि सभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जायें इसलिए तमिल बनाम सिंघली का खूनी दौर चला. बौद्ध पंडे-पुजारी राजा के समर्थन में धर्म-ध्वजा लेकर उतर पड़े. सत्ता प्रायोजित इस सामाजिक तांडव में कमजोर व भ्रष्ट विपक्ष बिखर कर रह गया.
जब जन असंतोष उभरने लगा तो उस पर पानी डालने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया ने अपने भाई प्रधानमंत्री महिंद्रा का इस्तीफा ले लिया और सरकार की पूरी कमान खुद संभाल ली. जनता को संदेश गया – ‘देखो, कैसा राजा है, अपने भाई को भी नहीं छोड़ता है !’ हमारे यहां इन दिनों इसे ‘जीरो टॉलरेंस’ कहा जाता है.
इस्तीफा देने के बाद प्रधानमंत्री महिंद्रा कहीं गुम हो गए और ऐसे हुए कि आज तक किसी को पता नहीं है कि वे कहां हैं. इसे हम चाहें तो ‘अज्ञातवास’ की साधना कह सकते हैं. महिंद्रा के बाद गोटाबाया ‘अज्ञातवासी’ हुए. जनता से द्रोह करने वाले गोटाबाया को फ़ौज ने छुपा कर रखा और फिर मौका पाते ही फौजी विमान से, 5 परिवारजनों के साथ 3 सरकारी अधिकारियों की देख-रेख में मालदीव भेज दिया.
मालदीव का सत्तापक्ष समझता था कि लंका के सत्तापक्ष का प्रतिनिधि अपना आदमी है इसलिए उसने श्रीलंका की जनता के द्रोही गोटाबाया को पनाह दी. वहां सरकारी सुरक्षा में बैठ कर गोटाबाया ने अपनी गोटियां बिठायीं और फिर उड़ कर पहुंचा सिंगापुर. सिंगापुर के सत्तापक्ष ने भी स्वधर्म निभाया और एक राजनीतिक भगोड़े के लिए अपना द्वार खोल दिया.
कैसा मासूम बयान दिया वहां के सत्तापक्ष ने – ‘न हमने शरण दी है, न उन्होंने शरण मांगी है !’ अपने देश से चोरी से भाग निकला कोई साधारण अपराधी इस तरह घोषणा करके सिंगापुर आये तो क्या उसे सिंगापुर में प्रवेश व पनाह मिल जाएगी ? सरकार जवाब नहीं देती है, धमकी देती है – ‘किसी को, किसी प्रकार का विरोध जताने की सिंगापुर में अनुमति नहीं है !’
खबर गर्म है कि गोटाबाया सिंगापुर में जमा व निवेश की गई अपनी अरबों की दौलत को ठिकाने लगाने की व्यवस्था करने में जुटे हैं. सिंगापुर सत्तापक्ष को पता है कि उनकी अर्थ-व्यवस्था ऐसे ही गोटाबायों के दम पर जिंदा है, सो उसे उनका साथ देना ही है.
यह है सत्ता प्रतिष्ठान का ‘हम एक हैं !’ इसमें सत्तापक्ष व विपक्ष जैसा भेद नहीं है, देश-विदेश का फर्क नहीं है. आप देखिए, गोटाबाया की हत्या, लूट, दमन, धोखा और फिर देश की आंखों में धूल झोंक कर भाग निकलने की किसी महाशक्ति ने निंदा की ? किसी ने मालदीव या सिंगापुर से पूछा कि एक अपराधी को उसने कैसे पनाह दी ?
नहीं, सभी चुप हैं क्योंकि सभी जानते हैं कि कल अपनी जनता से बचने का ऐसा रास्ता उन्हें भी पकड़ना पड़ सकता है इसलिए ये सभी मिल कर ऐसा सत्ता प्रतिष्ठान बनाते हैं, जिसमें समय-समय पर कारपोरेट, न्यायपालिका, कार्यपालिका, पुलिस-फौज, बैंकिग आदि अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं.
गांधी ने बहुत पहले, बहुत गहराई से इसे पहचाना था. न्यायालय के बारे में उन्होंने कहा था कि निर्णायक घड़ी में यह अंतत: सत्ता प्रतिष्ठान के साथ जाएगा और इसलिए लोक को अपने अधिकार के संघर्ष में न्यायालय पर आधार नहीं रखना चाहिए.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अकेले गांधी ही थे कि जिन्होंने फासिज्म के खिलाफ लोकतंत्र का नाम लेकर युद्ध करने वाले मित्र राष्ट्रों से पूछा था कि भारत जैसे महादेश को गुलाम रख कर आप लोकतांत्रिक लड़ाई का नाम भी कैसे ले सकते हैं ? तब जवाब किसी तरफ से नहीं आया था और गांधी ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का ऐसा बिगुल फूंका कि साम्राज्यवाद को भारत छोड़ कर निकलना पड़ा था.
तब गांधी ने भी ‘हम एक हैं’ का हाथ बढ़ाया था और धर्म-जाति-भाषा-वर्ग आदि का भेद पार कर लोगों ने उनका हाथ थामा था. सामने आज़ादी खड़ी थी. ऐसी एकता साधे बिना श्रीलंका को भी और हमें भी थामने वाला कोई नहीं होगा. रानिल विक्रमसिंघे के श्रीलंका का नया राष्ट्रपति बनने से इस लेख का संदर्भ आौर भी सशक्त हो गया है.
- अनिल कुमार राय
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