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‘फाइव ब्रोकेन कैमराज’ : फिलिस्तीन का गुरिल्ला सिनेमा

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'फाइव ब्रोकेन कैमराज' फिलिस्तीन का गुरिल्ला सिनेमावेस्ट बैंक स्थित अपने गांव ‘बी लिन’ की जमीन पर इजराइलियों के अनाधिकृत कब्जे और इसके खिलाफ फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध को 2005 से 2010 तक अपने कैमरे से कैद करने की कोशिश में इस फिल्म के डायरेक्टर ‘इमाद बुरनाद’ के 5 कैमरे टूट गये. कभी इजराइली सैनिको ने सीधे उसे तोड़ डाला तो कभी विरोध प्रदर्शनों पर इजराइली गोलाबारी में क्षतिग्रस्त हो गये और इस तरह फिल्म को नाम मिला- ‘5 broken cameras’ (फाइव ब्रोकेन कैमराज).

इस फिल्म की सबसे खूबसूरत बात यह है कि इसमें फिल्मकार इमाद बुरनाद अपने पूरे परिवार के साथ इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल है. इस दौरान उनके सामने ही उनके दो भाई गिरफ्तार कर लिए गये और वह उसे कैमरे में शूट करते रहे, जबकि उनके मां-बाप व परिवार के अन्य लोग इस गिरफ्तारी का सक्रिय विरोध करते रहे. पिता तो उसे ले जाने वाले वाहन के ऊपर ही चढ़ गये थे. एक साल तक तो फिल्मकार इमाद बुरनाद खुद भी नजरबंद रहे.

दूसरी खूबसूरत बात इस फिल्म की यह है कि इसी दौरान इमाद बुरनाद के सबसे छोटे बेटे ‘गीब्रील’ की दुनिया भी फिल्म के समानान्तर चलती रहती रहती है. गीब्रील की पैदाइश 2005 की है. दरअसल गीब्रील की दुनिया को कैद करने के लिए ही इमाद ने अपना पहला कैमरा खरीदा था. गीब्रील विरोध प्रदर्शनों के इसी माहौल में धीरे-धीरे बड़ा होता है. इमाद, गीब्रील के माध्यम से भी बहुत कुछ कहने में कामयाब रहा है.

2010 तक यानी 5 वे कैमरे के टूटने तक गीब्रील 5 साल का हो जाता है और अपने पिता के साथ विरोध प्रदर्शनों में भी जाने लगता है और बहुत कुछ समझने भी लगता है. फिलिस्तीन में बच्चों का विरोध प्रदर्शनों में शामिल होना और इजराइलियो का बच्चों पर अत्याचार करना दोनो ही आम बात है. फिल्मकार ने इस पहलू को शामिल करके फिलिस्तीनियों के संघर्ष को और नैतिक बल दे दिया है.

फिलिस्तीन के संघर्ष और उनके मनोविज्ञान को समझने के लिए यह फिल्म बेहतरीन है.

फिल्म से जुड़ी एक खास बात यह है कि जब आस्कर समारोह में भाग लेने के लिए फिल्मकार इमाद का परिवार अमेरिका पहुचा तो एयरपोर्ट पर उन्हे परेशान किया गया और उनसे काफी पूछताछ की गयी. यहां भी उनका बेटा गीब्रील इन सब का साक्षी बना. बाद में ‘माइकल मूर’ सहित कई लोगो ने इसका विरोध किया.

फिल्म देखते समय यह याद रखना चाहिए कि यह फिल्म राजनीतिक रुप से थोड़ी कमजोर फिल्म है. इजराइल के खिलाफ कोई राजनीतिक फिल्म बनाये और उसमे उसके आका अमरीका का जिक्र तक ना हो, यह बात पचती नही. फिर फिल्म में एक जगह बेवजह ‘हमास’ की आलोचना की गयी है. जिसका कोई सन्दर्भ फिल्म में नही था.

फिर फिलस्तीन जैसे संघर्ष वाले क्षेत्रों में यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि प्रतिरोध हिंसक है या अहिंसक लेकिन फिल्म में बहुत बारीकी से प्रतिरोध संघर्ष को दो भागों में बांटकर अहिंसक संघर्ष को औचित्य प्रदान किया गया है लेकिन शायद इसी कारण फिल्म को आस्कर में जगह मिली और ‘फोर्ड फाउन्डेशन’ ने इसमे पैसा लगाया. इस फिल्म की मुख्य फंडिग एजेंसी ‘ग्रीन हाउस प्रोजेक्ट’ है, जिसका उद्देश्य ही है कि वह अहिंसक प्रतिरोध वाली फिल्मों में ही पैसा लगायेगी. खैर यह कहानी फिर कभी.

  • मनीष आज़ाद

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