
सुब्रतो चटर्जी
बुर्जुआ, लिबरल लोकतंत्र को पुनर्जीवित करने की लड़ाई कोई फ़ासिस्ट लोगों से सांवैधानिक तरीके से नहीं जीत सकता है. इसके लिए जनता की वृहद भागीदारी की ज़रूरत है. फासीवाद सबसे पहले सांवैधानिक संस्थानों पर क़ब्ज़ा कर और फिर न्यायपालिका के प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग से अपने को देश में स्थापित करता है.
यही कारण है कि जब विपक्ष चुनाव आयोग की धांधलियों के खिलाफ चुनाव आयोग में ही शिकायत करता है, या सेंगोलधारी सम्राट के संसद में गुहार लगाता है, तो मुझे हंसी आती है. ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया मेरे मन में तब होती है जब विपक्ष अपनी शिकायतों को लेकर सुप्रीम कोठा पर जाता है.
मुद्दों से पलायन करना अगर सत्ता पक्ष की पहचान बन चुकी है तो लड़ाई के मैदान से पलायन भी विपक्ष की पहचान बन गई है. जिन तथाकथित लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई विपक्ष लड़ने का स्वांग करता है, वो दरअसल जनता के बीच जाकर लड़नी चाहिए. इसलिए मैं बार-बार कहता रहा हूं कि सड़क की लड़ाई संसद या न्यायपालिका में नहीं लड़ी जा सकती है, जीतना तो दूर की बात है.
इस दृष्टि से देखें तो विपक्ष ने भारत में फासीवाद और फासीवाद के खतरों के बारे कितना जागरूक किया है ? क्या कोई दावा कर सकता है कि अगर कल विपक्ष सत्ता में आ जाए तो भारत से फासीवाद का ख़ात्मा हो जाएगा ? मत भूलिए कि इसी जनता के 37% धर्मांध, सांप्रदायिक और कानून और संविधान में विश्वास नहीं करने वाले लोग हो गए हैं, और यह कोई मामूली संख्या नहीं है. कई यूरोपीय देशों की कुल जनसंख्या से दूनी या चौगुनी है.
सवाल यह है कि इतनी बड़ी मानसिक कुष्ठ पीड़ित जनसंख्या को लेकर हम निर्णायक तौर पर फासीवाद से मुक़ाबला कैसे कर सकते हैं, सिर्फ़ चुनावी जीत के सहारे ? विशेषकर उन परिस्थितियों में जब सीपीएम जैसे तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टी मोदी को फ़ासिस्ट मानने के लिए आज भी तैयार नहीं है ?
V-dem की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2018 से ही लोकतंत्र मर चुका है. जब 2019 के आम चुनावों के बाद मैंने यही बात कही थी तो लोग मोदी की जीत का श्रेय पुलवामा और फर्जिकल स्ट्राइक को दे रहे थे. दरअसल भारत की अधिकांश जनता और तथाकथित बुद्धिजीवियों को ये मालूम ही नहीं है कि फासीवाद में जनता अप्रासंगिक बना दी जाती है.
2019 के चुनावों के पहले मैंने लिखा था कि ईमानदारी से चुनाव लड़ कर भाजपा 150 से ज्यादा सीटें नहीं ला पाएगी. किसी ने नहीं माना. आज जब एडीआर की वह रिपोर्ट सिर्फ़ सार्वजनिक ही नहीं, वरन सुप्रीम कोठा के सामने भी पड़ी हुई है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि 2019 के चुनावों में भाजपा ने करीब 160 सीटें इवीएम के सहारे जीतीं तो सारे महारथियों को सांप सूंघ गया है.
इसी तरह से 2024 के चुनावों में भी मैंने लिखा था कि भाजपा अपने दम पर बमुश्किल 130 से 140 सीटें लाएगी, तब भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ. आज सुप्रीम कोठा के सामने एडीआर की याचिका लगी हुई है कि किस तरह से 240 में से करीब 80 सीटें भाजपा को धांधली से मिलीं. है किसी के पास कोई जवाब ?
सवाल ये है कि विपक्ष इसके खिलाफ क्या कर रही है ? जैसा कि पहले बताया कि संसदीय वाम का एक बड़ा तबका मोदी को फ़ासिस्ट मानता ही नहीं है, कांग्रेस जैसे मध्यम मार्गी दलों की बात तो छोड़ ही दीजिए. जिस पार्टी के सर्वोच्च नेता को भारत भ्रमण करना पड़ता है ये देखने के लिए कि इस व्यवस्था में कितना अन्याय, शोषण और उत्पीड़न है, उस लीडरशिप की बात जितनी कम की जाए उतना ही बेहतर है.
Bunch of jokers pitted against the worst criminals in the history of mankind! (मानव इतिहास के सबसे बुरे अपराधियों के खिलाफ़ कुछ मज़ाकिया लोगों का एक समूह खड़ा है!)
कुछ दिनों पहले लिखा था कि मेरे अनुमान से महज़ नब्बे से एक सौ अस्सी दिनों के अंदर भारत में वो बगावत शुरू होगी जो इस निजाम को ही नहीं इस क्रोनी पूंजीवादी व्यवस्था को भी प्रकारांतर में ख़त्म कर देगी, तो यह कोई ज्योतिषीय भविष्यवाणी नहीं थी. यह भारत की 145 करोड़ जनता में से 130 करोड़ जनता के दिलों दिमाग में जलती हुई सुसुप्त ज्वालामुखी की एक रीडींग है. हरेक बार की तरह इस बार भी मेरा आकलन सटीक सिद्ध होने जा रहा है, ऐसा मेरा विश्वास है. जब सारे राजनीतिक दल फ़ेल कर जाते हैं, जनता तब भी ज़िंदा रहती है, मत भूलिए.
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