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फ़ासीवाद के साथ बहस नहीं की जा सकती, उसे तो बस नष्ट किया जाना है

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फ़ासीवाद और औरतें : फ़ासीवाद के साथ बहस नहीं की जा सकती, उसे तो बस नष्ट किया जाना है

मशहूर लेखिका ‘क्लाडिया कून्ज‘ अपनी पुस्तक ‘मदर्स इन फादरलैण्ड’ में लिखती हैं कि जब एक वरिष्ठ नाजी अफसर से यह पूछा गया कि हिटलर ने अभी तक शादी क्यों नहीं की तो वह गर्व से कहता है कि ‘हिटलर ने जर्मनी से शादी कर ली है. जर्मनी ही हिटलर की बहू है.’ यह कोई सामान्य मज़ाक की बात नहीं है, इसके गहरे निहितार्थ हैं, जिसे समझने की ज़रूरत है.

समाज में परिवार नामक संस्था जिस सामंती-पितृसत्तात्मक ढांचे में चलती है उसमें औरतें पुरुषों के अधीन होती हैं. पुराने मुहावरे में कहा जाय तो पुरुषों के पैरों की जूती होती हैं. ठीक इसी तरह एक तानाशाह या फ़ासीवादी शासक पूरे देश को अपने पैरों की जूती समझता है और उसी हिसाब से जनता से व्यवहार करता है.

परिवार की संस्था और औरतों की इस अधीनता को जितना ही गौरवान्वित किया जायेगा, उतना ही तानाशाह को अपनी वैधता साबित करना आसान होगा. इसलिए फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक दौर में हमेशा परिवार और मातृत्व का महिमागान किया जाता है. हिटलर ने साफ़-साफ़ ऐलान किया था- ‘मेरे राज्य में माताएं सबसे महत्वपूर्ण नागरिक हैं.’

आरएसएस की शाखाओं में औरतें क्यों नहीं जाती है ? यह सवाल समय-समय पर उठता रहा है. इसका बहुत ही दिलचस्प लेकिन अर्थपूर्ण जवाब दिया गया. आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने ‘इकोनामिक टाइम्स’ अखबार को बताया – ‘शाखा का समय ऐसा है कि यह औरतों को सूट नहीं करता.’ इस पंक्ति को डिकोड करना मुश्किल नहीं है. सुबह के समय औरतें पूरे दिन की भारी गाड़ी को ठेलने के लिए कमर कस रही होती हैं. ऐसे में उनके पास सुबह 6 बजे शाखा जाने का समय कहां होगा. यानी अगर वे सुबह-सुबह शाखा में जाती हैं तो घरेलू काम कौन करेगा ?

शाखा में औरतों को न बुलाने का दूसरा जो कारण उन्होंने बताया वह यह था कि शाखा में जिस तरह कि शारीरिक मेहनत करवाई जाती है, औरतें उसके योग्य नहीं है. यानी औरतें स्वाभाविक रूप से कमज़ोर होती हैं. इससे औरतों के प्रति इन फ़ासीवादियों और साम्प्रदायिक लोगों के रुख का पता चलता है. हाल ही में हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म संसद’ में औरतों का आहवान किया गया कि वे ज़्यादा से ज़्यादा बच्चा पैदा करें और इसमें मुस्लिमों को काफी पीछे छोड़ दें.

मोहन भागवत व अन्य साम्प्रदायिक नेता अक्सर इस नारे को उछालते रहते हैं. जर्मनी में नाजीवादियों ने एक सूत्र ही गढ़ लिया था-  ‘जमीन भोजन प्रदान करती है, औरतें जनसंख्या प्रदान करती हैं और मर्द कार्यवाही करते हैं.’ यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि बच्चा मतलब लड़का होता है. यानी फ़ासीवाद में महिलाओं पर लड़का पैदा का दबाव पहले से कहीं ज्यादा बढ़ जाता है.

इस दवाब का असर आप इस आंकड़े से समझ सकते हैं. ‘संयुक्त राष्ट्र पापुलेशन फंड’ के अनुसार भारत में 2013-17 के बीच 4.6 करोड़ लड़कियां ‘गायब’ हुई हैं. यानी इन्हें भ्रूण में या भ्रूण के बाहर मार डाला गया है इसलिए हम देखते हैं कि प्रत्येक दंगे में इसी बच्चा पैदा करने की मशीन को ध्वस्त करने का प्रयास किया जाता है ताकी विरोधी कौम की नस्ल को समाप्त किया जा सके.

बच्चा पैदा करने की मशीन बनने से इंकार करने वाली मुक्त और आत्मनिर्भर औरतें साम्प्रदायिक/फ़ासीवादियों की आंखों में कांटे की तरह चुभती है और वे ऐसी औरतों को सबक सिखाने के इंतज़ार में घात लगाकर बैठे रहते हैं. इसी पृष्ठभूमि में उपरोक्त लेखिका क्लाडिया कून्ज बहुत महत्वपूर्ण बात कहती हैं- ‘फ़ासीवाद में जैसे आर्य यहूदियों के ऊपर विजय का जश्न मनाते हैं, वैसे ही मर्द मुक्त औरतों के ऊपर अपनी जीत का जश्न मनाते हैं.’ भारत के सन्दर्भ में भी हूबहू यह बात सच है. लव जेहाद कानून औरतों के ऊपर मर्दो की जीत का जश्न है.

भारत में इस पर अभी अध्ययन की ज़रूरत है कि जैसे-जैसे साम्प्रदायिक विचार और उसकी राजनीति समाज में अपना पैर पसार रही है, वैसे-वैसे पुरूषों में कन्डोम का इस्तेमाल घट रहा है. भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार 2008 से 2016 के बीच कन्डोम का इस्तेमाल 52 प्रतिशत घटा है. ऐसे में आप समझ ही सकते हैं कि परिवार नियोजन का बोझ औरतों के ऊपर और बढ़ता जा रहा है.

आरएसएस के ‘परिवार प्रबोधन’ कार्यक्रम में औरतों की परम्परागत भूमिका पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता है और उन्हें ‘संस्कृति की पुनरोत्पादक’ बता कर उनका गौरवगान किया जाता है. चूंकि बच्चे की पहली पाठशाला मां की गोद होती है, इसलिए फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक ताकतें इसके प्रति बहुत सचेत होती हैं.

औरतों के अन्दर पहले से मौजूद पितृसत्ता सोच वह पुल का काम करती है, जिसके माध्यम से तमाम ज़हर और प्रतिक्रियावादी विचार औरतों के अन्दर डाले जाते हैं, जहां से वह बहुत सहज तरीके से मासूम बच्चे के अन्दर प्रवेश करती रहती है और उसके ‘कामन सेन्स’ का हिस्सा बनती रहती है. इसलिए पितृसत्ता-साम्प्रदायिकता-फ़ासीवाद में एक गहरा रिश्ता होता है. भारत में जब यह मनुवाद से जुड़ जाता है तो और भी खतरनाक काकटेल बन जाता है.

आखिर दंगों में हिन्दू सवर्ण जातियां दलित जातियों को मुसलमानों के प्रति उकसा कर तमाम सवर्ण विशेषाधिकारों के प्रति दलितों के संघर्ष को कुन्द करने का प्रयास करती हैं. दरअसल फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक प्रोजेक्ट सभी प्रगतिशील/क्रान्तिकारी प्रोजेक्ट को रोकने और उसे ध्वस्त करने का प्रोजेक्ट है. इसलिए हमें इसे बहुत गंभीरता से लेना चाहिए.

‘निशा पाहूजा’ की मशहूर डाकूमेन्ट्री ‘द वर्ल्ड बिफोर हर’ (The World Before Her) में आरएसएस का एक अनुषांगिक संगठन ‘दुर्गा वाहिनी’ की एक कार्यशाला पूरी कर चुकी महज 11 साल की लड़की कैमरे के सामने बहुत आत्मविश्वास से कहती है- ‘मुझे गर्व है कि मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं है.’ आप सोच सकते हैं कि यही लड़की जब मातृत्व की भूमिका में आयेगी तो उसकी गोद में बच्चा क्या-क्या सीखेगा.

अब आप उस बच्चे की कल्पना कीजिए जो ऐसी मां की गोद से उतर कर स्कूल जाता है और वहां भी यही सब सीखता है. फिर वह टीवी खोलता है और वहां भी यहीे सब और भी अश्लील और उत्तेजक अंदाज में देखता है. फिर वह बड़ों की सोहबत में जाता है और वहां भी उसे वही ज़हर मिलता है. बार-बार होने वाले इस ‘रिपीटीशन’ से उसके अन्दर प्रतिक्रियावादी जहरीले साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विचार अच्छी तरह जड़ जमा लेते हैं. और फिर उसी की आशंका हमेशा बनी रहती है जो 13 दिसम्बर को हरियाणा के पलवल में हुआ जहां एक मुस्लिम युवक के हिन्दू दोस्तों ने ही उसे यह कह कर ‘लिंच’ कर दिया कि वैसे तो तुम हमारे दोस्त हो, लेकिन हो तो मुल्ला.

लव-जेहाद जैसे कानून को आप इसी अक्स में देख सकते हैं, जहां औरतों की एजेन्सी को यानी उनकी स्वतंत्र भूमिका को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है. औरतों की तथाकथित शुचिता के ताले की चाभी अब परिवार के पुरुष मुखिया से होते हुए राज्य के पास आ गयी है.

पुराने जमाने में कुछ समुदायों में वास्तव में औरतों को ऐसी कमर पेटिका पहनाई जाती थी, जिसकी चाभी सच में घर के मुखिया के पास या पितृसत्ता का बोझ लिये घर की बुजुर्ग औरतों के पास होती थी, ताकि औरतों की तथाकथित शुचिता बनी रहे. लेकिन इसके साथ ही फ़ासीवाद में औरतों में से ही कुछ ऐसी औरतों को भी तैयार किया जाता है, जो अपनी परंपरागत पारिवारिक भूमिका से आजाद होकर राज्य या फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक संगठन के प्रोजेक्ट में सक्रिय तरीके से शामिल होती हैं और दूसरे कौम के बारे में सार्वजनिक मंचों से ज़हर उगलती रहती है.

अभी हाल ही में हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में मुसलमानों के जनसंहार का खुलेआम आहवान करने वाली पूजा शकुन पाण्डेय उर्फ साध्वी अन्नपूर्णा एक औरत ही हैं जो संविधान को नज़रअंदाज़ करके गोडसे से सीखने का आहवान कर रही हैं. दरअसल इन औरतों का इस्तेमाल फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक विचारधारा को समाज में ज्यादा ग्राहय और ‘नैतिक’ बनाने के लिए किया जाता है.

यानी अन्नपूर्णा या प्रज्ञा ठाकुर जैसी औरतें परंपरागत पारिवारिक जिंदगी से आज़ाद होते हुए भी अपने समय के फ़ासीवादी/साम्प्रदायिक प्रोजेक्ट का महज एक पार्ट भर होती हैं. इसलिए आमतौर पर उनका राजनीतिक जीवन भी अपने पुरूष साथियों से काफी कम होता है. पुर्जा जैसे ही थोड़ा घिसता है उन्हें ‘रिप्लेस’ कर दिया जाता है. ठीक उसी तरह जैसे बम्बइया फिल्मों में हिरोइनों के यौवन का ‘तेज’ जैसे ही फीका पड़ता है उन्हें रिटायर कर दिया जाता है.

यहां अभी हम उन कौमों की औरतों की चर्चा नहीं कर रहे है जो राज्य प्रायोजित फ़ासीवाद के निशाने पर होते हैं, जैसे जर्मनी में यहूदी या भारत में मुस्लिम. इसके लिए अलग अध्ययन की ज़रूरत है. हालांकि वर्तमान फ़ासीवाद/साम्प्रदायिकता के अक्स में हम देख सकते हैं कि वहां स्थिति कितनी जटिल और भयावह होगी.

दरअसल आज का पूंजीवाद यानी साम्राज्यवाद अपने को बचाये रखने और अपना पुनरोत्पादन करने के लिए दुनिया भर की पिछड़ी प्रतिक्रियावादी मूल्यों का इस्तेमाल करता है, और उन्हें पालता पोसता है. पितृसत्ता उनके से एक है. इसलिए फ़ासीवाद साम्राज्यवाद की ही राजनीतिक अभिव्यक्ति है. लेकिन तस्वीर का एक दूसरा शानदार पहलू भी है.

हिटलर के फ़ासीवादी राज्य में सभी तथाकथित आर्यन औरतें फ़ासीवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा नहीं थी. अच्छी खासी सख्या में औरतें ‘प्रतिरोध आन्दोलन’ का हिस्सा थी और निरंतर हिटलर के फ़ासीवादी प्रोजेक्ट की कब्र खोद रही थी.

यहां यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि प्रायः ये वही औरतें थीं जो पितृसत्ता से भी लगातार लड़ रही थी यानी उन्होंने उस पुल को पहले ही काफी हद तक क्षतिग्रस्त कर दिया था, जिनसे होकर जहरीली फ़ासीवादी विचारधारा औरतों तक पहुंचती थी.

उनकी इस शानदार भूमिका पर आज अनेकों फिल्में और साहित्य मौजूद है. जर्मनी में ऐसी साहसी औरतें भी अच्छी खासी संख्या में थी, जो अपने नाजी पतियों, बेटों से छिपाकर यहूदियों को अपने घरों में शरण देती थी और पकड़े जाने पर अपनी जान भी न्योछावर कर देती थीं.

अपने देश में भी हम दंगों के दौरान ऐसी अनेक कहानियां पाते हैं, जहां औरतें जान पर खेल कर लोगों की मदद करती हैं और इस विराट फ़ासीवादी मशीन का पुर्जा बनने से इंकार कर देती हैं. अपने देश में नताशा नरवाल, देवांगना और सुधा भारद्वाज जैसी औरतें ऐसी ही बहादुर औरतें हैं.

औरत और फ़ासीवाद पर इतनी चर्चा के बाद अन्त में हमें स्टालिन की यह निर्णायक बात हमेशा याद रखनी होगी कि फ़ासीवाद के साथ बहस नहीं की जा सकती, उसे तो बस नष्ट किया जाना है.

  • मनीष आज़ाद

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