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किसान आंदोलन : एनजीओपंथियों के उल्टे आरोप का सीधा जवाब

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किसान आंदोलन : एनजीओपंथियों के उल्टे आरोप का सीधा जवाब

एनजीओपंथियों ने ये झूठा आरोप लगाया है कि नवजनवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी मुद्दों पर बात नहीं करते और इनके सवालों का उत्तर नहीं देते. हालांकि इनके तमाम सवालों के उत्तर सिद्धांत और व्यवहार दोनों क्षेत्रों में हमलोगों द्वारा कई बार दिया जा चुका है लेकिन सियारों की तरह हर रात इन्हें हुआँ- हुआँ करने की आदत है. आइये एक बार फिर हम इनके द्वारा उठाये गए सभी सवालों का जवाब क्रमवार देने की कोशिश करते हैं. हालांकि हम इन एनजीओपंथियों के साथ अनावश्यक बहस नहीं करना चाहते क्योंकि इनकी ‘क्रांति’ का एक मात्र कार्यक्रम जन संघर्षों को बदनाम व गुमराह करना है. आगे कोशिश रहेगा है कि हम इनके लफ़्फ़ाज़ी की जाल में फंसकर अपना समय न बर्बाद करें क्योंकि कोई इन्हें सिरियसली नहीं लेता.

इनके द्वारा उठाये गए कुछ सवाल –

सवाल नम्बर-1 : धनी-पूंजीवादी किसान जिन्हें हमलोग सामंत कहते रहे हैं, उन सामंतों के साथ हम मोर्चा क्यों बनाये हुए हैं ?

उत्तर- पहली बात तो यह कि धनी किसान और सामंत में अंतर होता है. धनी किसान और कुलक में भी अंतर होता है. कुलकों का चरित्र विशुद्ध पूंजीवादी होता है. इन्हें किसान और सामंत में अंतर करने भी नहीं आता. कोई व्यक्ति सामंत है या किसान है इसकी पहचान मात्र उसकी जमीन के रकबे से नहीं होता बल्कि इस बात से होता है कि जमीन यानी उत्पादन के साधन से उसका रिश्ता कैसा है. किसान वह है जो खेती किसानी के काम में किसी न किसी प्रकार हिस्सा लेता है.

सामंत : आम तौर पर सामंत वह है जिनके पास काफी ज्यादा जमीन होता है व उत्पादन के उपकरण होते हैं लेकिन वह खुद श्रम नहीं करते. वे किसानों व मजदूरों (जिनमे बंधुआ, विभिन्न तरीके से बंधे मजदूर, भिन्न- भिन्न हद तक अन्यायपूर्ण शर्तों पर काम कर रहे मजदूर व अन्य उजरती मजदूर शामिल हैं) कि शोषण के बल पर अपनी ज़िंदगी बसर करते हैं. वे अपनी जमीन का एक हिस्सा या सारी जमीन अत्यंत ऊंची दरों पर किसानों को लीज पर दे देते हैं. बटाईदारों से उनके उपज का कम से कम 50% को लूट खसूट लेना उनके द्वारा किये गए शोषण का एक रूप है.

इसके अलावा वे सूदखोर, महाजन, जमाखोर, खान मालिक, ठेकेदार या कृषि व्यापारी का काम करते पाए जा सकते हैं अथवा अन्य व्यापारिक गतिविधियां भी चला सकते हैं. भूमि इनके द्वारा किये जाने वाले शोषण का आधार होती है. इनके जरिए वे कंगाल हुए किसानों को विभिन्न रूपों में दासता की बेड़ियों में जकड़े रहते हैं. उनसे अधिकतम सम्भव अधिशेष निचोड़ लेते हैं, जो सामंती लगान का बदला हुआ रूप ही होता है. भारत में आमतौर पर वह उच्च जातियों से आते हैं. सर्वाधिक पिछड़ी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं. दलितों तथा अन्य पिछड़ी जातियों का उत्पीड़न करने के लिए घृणास्पद जातिव्यवस्था को कायम रखते हैं. वे उत्पादन के विकास में बेड़ी बनकर भारत में साम्राज्यवादी नियंत्रण का मुख्य आधार बन जाते हैं.

धनी किसान : ये आम तौर पर खुद श्रम में भाग लेते हैं. इस अर्थ में वे किसानों के हिस्से हैं. आमतौर से यदि किसी किसान की आमदनी का 50% से ज्यादा हिस्सा शोषण से प्राप्त होता है तो उसे धनी किसान मानना चाहिए. धनी किसान अर्धसामंती शोषण के कमोबेश सभी रूपों का इस्तेमाल करते हैं पर उनके द्वारा किये जाने वाले शोषण का मुख्य रूप किराए पर खेतिहर मजदूर लगाना होता है. साथ ही साथ वे भूमि को लगान पर उठाते हो सकते हैं, रुपये उधार- ब्याज पर लगाते हो सकते हैं या व्यापार, वाणिज्य या छोटे व्यवसाय में लगाते हो सकते हैं.

पूंजीवाद परस्त धनी किसान आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. सघन खेती में लगे रहते हैं. बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए जमीन लीज पर लेते हैं. बाजार के लिए उत्पादन करते हैं. कुछ पॉकेटों में कृषि में विकृत पूंजीवादी संबंधों का विकास और कृषि में लगने वाली चीजों को खरीदने तथा अपने उत्पादों को बेचने के लिए बाजार पर धनी किसानों की बढ़ती निर्भरता, उन्हें बाजार को नियंत्रित कर रहे.

साम्राज्यवाद व बड़े दलाल पूंजीपति वर्ग के साथ बढ़ते टकराव की ओर ढकेलती जा रही है. इस तरह वे किसान जनता के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में खिंचे चले आ रहे हैं पर अपनी वर्गीय स्थिति के अनुसार बढ़ते राजकीय दमन के समक्ष उनमें समझौता करने की प्रवृत्ति पाई जाती है. आमतौर पर कृषि क्रांतिकारी संघर्षों में वो तटस्थ बने रहते हैं. एक वर्ग के रूप में उन्हें इंक़लाब का ढुलमुल संश्रयकारी माना जा सकता है. धनी किसानों का एक हिस्सा हमारे साथ आ जाता है.

इस आधार पर देखें तो भारत सरकार द्वारा पारित वर्तमान तीनों कृषि कानून साम्राज्यवाद परस्त व बड़े दलाल पूंजीपतियों के हित में हैं. पंजाब, हरियाणा सहित देश के किसी भी हिस्से में सामंत या अर्धसामंत इस आंदोलन में कत्तई शामिल नहीं हैं. धनी किसान भी पूरी तरह शामिल नहीं हैं लेकिन अपनी बर्बादी से डरकर धनी किसानों का एक बड़ा हिस्सा इस आंदोलन में शामिल है. पंजाब हरियाणा के धनी किसान भी दलित विरोधी हैं या बड़े पैमाने पर रहे हैं लेकिन साम्रज्यवाद से अपने हितों की टकराहट की वजह से बहुत हद तक वे इन कृषि कानूनों के खिलाफ हैं और इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि ये कृषि कानून न केवल धनी किसानों को नुकसान पहुंचाएगा बल्कि, छोटे-मध्यम- गरीब किसानों व मजदूर वर्ग को भी पहुंचाएगा.

मजदूर वर्ग को इसलिए कि इस कानून के लागू होने के बाद सरकारी राशन (कोटे) की दुकान बंद हो जाएंगे, जिन पर भोजन के लिए एक बहुत बड़ी गरीब व मजदूर आबादी निर्भर है क्योंकि उन्हें खराब अनाज ही सही लेकिन सस्ते दर पर कुछ अनाज मिल जाता है. बाकी इसके बारे में विस्तार से लिखा और जवाब दिया जा चुका है. धनी किसान भी जाति उत्पीड़न व दलित उत्पीड़न करते हैं. इनके साथ तात्कालिक मोर्चा बनाने का मतलब यह नहीं है कि इनके अंदर व्याप्त ब्राह्मणवादी मूल्यों व विचारों के खिलाफ लिखना या लड़ना बंद कर दिया जाए.

किसान आंदोलन का समर्थन करते हुए भी मनीष आज़ाद ने अपने लेखों में दलितों, मजदूरों और भूमिहीनों के सवालों को प्रखर ढंग से उठाया है लेकिन इन अहंकारियों को कौन समझाए की सर्वहारा क्रांति के उद्देश्य को ध्यान में रखकर कई बार हमें अपने विरोधी वर्गों के साथ भी मोर्चा बनाना पड़ता है लेकिन इस एकता का मतलब उनके सामने समर्पण करना नहीं होता बल्कि एकता और संघर्ष की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है. आज अगर भूमिहीनों, गरीब किसानों व मजदूरों का मुद्दा मजबूती से नहीं उठ पा रहा है तो इसके लिए धनी किसान नहीं बल्कि हम कम्युनिस्ट क्रांतिकारी जिम्मेदार हैं जिनका मजदूरों और छोटे- गरीब व भूमिहीन किसानों के बीच आधार बहुत कम है या फिर वो संशोधनवाद के शिकर हैं.

सवाल नंबर-2 : लाभकारी मूल्य की लड़ाई पूंजीपति किसानों (हमारी भाषा में सामंतों) की लड़ाई है तो फिर नवजनवादी क्रांतिकारी इसका समर्थन क्यों कर रहे हैं ?

उत्तर : लाभकारी मूल्य की या एमएसपी की लड़ाई सिर्फ धनी किसानों या सामंतों की लड़ाई नहीं है. भारत जैसे अर्धसामंती देश में छोटे से छोटा किसान अपनी मजबूरियों की वजह से फसल पैदा होते ही उसका कुछ हिस्सा बेच देता है, भले ही उसके पास साल भर खाने भर का अनाज न हो क्योंकि वो कर्ज व सूदखोरी के जाल में फंसा रहता है. सूदखोर लोग अपने पैसे के लिए उनके पीछे पड़े रहते हैं. इसके अलावा बीमारी, विवाह, शिक्षा कर्ज जैसी चीजों की वजह से मजबूर होकर अपने फसल को उन्हें पैदा होते ही जबकि उस समय फसल का दाम बहुत कम होता है, उन्हें अपनी फसल बेचनी पड़ती है. भले ही बाद में उन्हें महंगे दर पर खाने के लिए अनाज खरीदना पड़े.

देश के तमाम हिस्सों में सरकारी क्रय केंद्रों के अभाव व भ्रष्टाचार की वजह से उन्हें सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यदि लोगों को शिक्षा नहीं मिल पा रही है तो शिक्षा व्यवस्था को ही खत्म कर दिया जाए बल्कि हमारी तात्कालिक मांग ये होनी चाहिए कि सरकारी क्रय केंद्र पर्याप्त मात्रा में हों और छोटे से छोटे किसान की फसल को भी सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाए. न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की सरकार द्वारा गारंटी हो. भूमिहीन किसानों की असली व मुख्य लड़ाई क्रांतिकारी भूमि सुधार की लड़ाई ही है, जिससे ये एनजीओपंथी गरीब व छोटे किसानों को भ्रमित कर रहे हैं और जाने- अनजाने साम्राज्यवादियों, दलाल पूंजीपतियों व सामंतों- अर्धसमन्तों के साथ खड़े हो जा रहे हैं.

सवाल नम्बर-3 : नवजनवादी क्रांतिकारी तर्क व प्रयोग से भागते हैं ?

उत्तर : ये एनजीओपंथी मार्क्सवादी लफ्फाजी करते हुए ‘तर्क और प्रयोग’ की बात करते हैं जबकि इनके पास समाजवादी’ क्रांति के लिए कोई तर्कसंगत तर्क नहीं है और प्रयोग की तो बात ही छोड़ दीजिए क्योंकि मजदूरों के बीच तो कहीं दिखाई ही नहीं देते. बल्कि मजदूरों के बीच भी इनसे ज्यादा काम व आधार नव जनवादी क्रांतिकारियों का ही है. अभी हाल ही में झारखंड में सरकार द्वारा ‘मजदूर संगठन समिति’ पर लगाया गया प्रतिबंध सबके सामने है. हर कोई जानता है कि अपने आंदोलनों में हजारों-हजार मजदूरों को खड़ा करने वाला मजदूर संगठन समिति नव जनवादी क्रांतिकारियों का ही मजदूर संगठन है. हाल ही में दिल्ली में पुलिस यातना झेलने वाले मजदूर नेता नौदीप कौर और शिवकुमार भी नवजनवादी कम्युनिस्ट क्रांतिकारी ही हैं.

ये एनजीओपंथी अपने को बहुत ही बेशर्मी से बोल्शेविक क्रांतिकारी कहते हैं जबकि इनके पास बोल्शेविकों का न कोई विचार है, न सांगठनिक ढांचा है और न ही कार्यशैली. इनके विद्वान ‘बोल्शेविक’ पिछले 3-4 दशक से लखनऊ, दिल्ली और इलाहाबाद, गोरखपुर घूमते रहते हैं और अपने को लेनिन का भी गुरु समझते हैं. राज्य मशीनरी सब कुछ जानते हुए भी इनका दमन नहीं करती.

राज्यसत्ता दखल का इनके पास दूर-दूर तक कोई कार्यक्रम व राणनीति-कार्यनीति होना तो दूर कोई सोच तक नहीं है सिवाय इसके की सारे किसान पहले अपनी जमीन छिनवाकर कंगाल हो जाएं, फिर इनकी क्रांति होगी. अरे ‘विद्वान क्रांतिकारियों’ सर्वहाराकरण और कंगालीकारण में फर्क होता है. मजदूर अकेले कोई लड़ाई नहीं जीत सकता. उसे किसानों सहित अन्य मेहनतकशों को अपने साथ लेना ही होगा. माओ ने कहा है कि क्रांति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी होता है दोस्त और दुश्मन की सही पहचान. गरीब व छोटे किसानों की लफ्फाजी तो करते हो लेकिन तुम्हारे पास इन किसानों के लिए कोई कार्यक्रम हो तो बताओ.

जहां तक गिरफ्तारी और दमन की बात है तो तुम्हारे अलावा दुनिया का कौन-सा वो कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन है जिसने गिरफ्तारी व दमन न झेला हो ? क्रांति कोई गिटार बजाना या कविता लिखना मात्र नहीं है. माओ के शब्दों में कहें तो ‘क्रांति एक रक्तरंजित युद्ध है जिसमें एक वर्ग दूसरे वर्ग को तबाह कर देना चाहता है.’ जिसे तुम विभ्रमग्रस्त पत्रिका कहते हो, उसने इतना तो किया ही है कि एक-एक करके तुम्हारे सभी साथी तुम्हारे रास्ते को छोड़ते चले गए. और आखिरी बात जो तुमने कही है कि ‘जनता को थोड़े दिनों के लिए भी बेवकूफ बनाने के लिए बुद्धि चाहिए’ तो ये तुम्हीं कर सकते हो, हम तो जनता से सीखते हैं. जनता को प्यार करते हैं और उसका सम्मान करते हैं.

  • रितेश विद्यार्थी

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