Home कविताएं विदाई बेला

विदाई बेला

0 second read
0
0
172

कुछ सूखे पत्ते बचे हैं
इस सूखे हुए दरख़्त पर
इसके पहले कि वे
उड़ जाएं आंधियों में
चलो चुन लाते हैं उन्हें
और ढंक लेते हैं
बची खुची लाज

साल
एक स्ट्रिप टीज़ की नर्तकी रही
अंतिम अधोवस्त्र उतरने का मुहूर्त
आधी रात का निविड़ अंधकार होगा
(सच बेलिबास उजाले में नहीं आता)
और मैं सबसे क़रीब से
तभी देख पाता हूं मुझे
जब दृष्टि बाधित रहता हूं

अपने ही शरीर को
स्पर्श कातर उंगलियों से टटोलते हुए
जब उतरता हूं
रक्त, अस्थि, मज्जा के
अभेद्य जंगल में
छू जाती है मुझे
एक शव वाहिनी गंगा

जी उठते हैं सारे दफ़्न हुए शव
बालू चर से निकल कर
समाते हुए गांव, शहरों में
शव
जो सवाल नहीं करते
शव
जो आंखें नहीं झपकते
जो दांए बाएं नहीं देखते
सीधी रेखा में चलते हुए
प्रकाश की तरह
लेकिन, परजीवी अंधेरों के

विदाई बेला का सुर
राग पहाड़ी है
ध्वनि और प्रतिध्वनि का अंतर्द्वंद्व
वही महीन रेशमी डोर है
जो मेरी लज्जा
और उन सूखे पत्तों को बांधे रखती है
अनंत काल तक

जिस समय
वो विशाल मैदानी नदी
लंबे, सफ़ेद नाखूनों वाली पंजों से
जकड़ लेती है ज़मीन
और सांझ गोते लगाती है
एक रक्त शून्य देह में
ठीक सागर में विलय के पहले

  • सुब्रतो चटर्जी

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles

Check Also

फ़ासिस्ट जिसे लोयागति नहीं दे सकते हैं, उसे वर्मागति दे देते हैं

जस्टिस वर्मा के उपर लगे इल्ज़ाम की आड़ में क्रिमिनल लोगों की सरकार ने पूरी न्यायपालिका पर …