Home लघुकथा धर्मान्ध यानी चलता फिरता आत्मघाती बम

धर्मान्ध यानी चलता फिरता आत्मघाती बम

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मैट्रो में सीट हथियाने में कामयाब एक सज्जन भरी भीड़ में अपने मोबाइल पर जोर-शोर से माता की भेंटे सुन रहे थे. जैसे कि ज्यादातर होता है उनका यह भजन किसी फिल्मी गीत की पैरोडी था, जिसे वे परम मुदित भाव से सुने जा रहे थे. उन्हें आस पास की जरा भी चिंता नही थी. विवश लोग इधर उधर देख रहे थे.

दो-एक मिनट बाद दूसरे किसी और सज्जन ने जेब से एक इयरफोन निकाला और विनम्रतापूर्वक उनकी तरफ बढ़ाया –

‘क्या है…’ भक्ति में व्यवधान से विचलित वो बोले.

‘ये ले लीजिए, इसे लगा कर सुनिए अच्छा लगेगा.’

‘आपको क्या मैं कंगला दिखता हूं ? ये साठ हजार का फोन है. समझे तो क्या मैं मामूली इयरफोन नहीं खरीद सकता ?’ सज्जन ने बात को व्यक्तिगत समझ लिया था. शायद भावनाएं आहत हो गई थीं.

‘नहीं भाईसाहब, ये हम आपके लिए नहीं अपने लिए कह रहे हैं. यहां कई लोग हैं जो शायद अभी भजन ना सुनना चाह रहे हों.’ दूसरे सज्जन ने धीरे से निवेदन किया.

‘क्या जमाना आ गया है. लोग अब भगवान के भजन भी नहीं सुनना चाह रहे. बताओ भला तभी तो दुनिया डूब रही है. तुम्हें तो थैंक्यू होना चाहिए कि मैं अपने फोन से सबको सुबह-सुबह भजन सुना रहा हूं, उल्टे आप मेरी इंसल्ट कर रहे हो !’

‘ये हिंदुस्तान है कि पाकिस्तान ? बताओ भला ? यहां भजन और भेंटे नहीं बजेगीं तो कहां बजेगीं ? अब क्या हिंदू भजन भी नहीं सुने…? अभी नमाज होती तो कोई कुछ नहीं बोलता.’

हर जेनुइन भक्त की तरह वो सज्जन भी अब मसले को हिंदू-मुसलमान दिशा में मोड़ने में कामयाब हो रहे थे.

‘भाईसाहब जिसे भजन सुनने की इच्छा होगी वो सुन लेगा. मेरा जब मन होगा में भी सुन लूंगा. अभी तो आप मेहरबानी से इसे लगाकर सुनिए.’

‘नही लगाऊंगा, बिलकुल नहीं लगाऊंगा. मैं वाल्यूम और तेज कर देता हूं, देखता हूं क्या करते हैं आप ? साले- सेक्युलर, नक्सली कहीं के !’ कहते हुए उन्होंने वाल्यूम को और बढ़ाया पर वाल्यूम था कि पहले से ही फुल था, सो बदस्तूर बजता रहा.

पूरे वाल्यूम पर तीन भेंटें सुनकर वे अपना स्टेशन आने पर ही उतरे. डिब्बे में सन्नाटा छाया था. मुझे लगा ये मैट्रो नहीं यही हमारा देश हैं.

  • अशरत परमानंद

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ROHIT SHARMA

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