(पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी प्रारम्भ करने के अवसर पर गांधी जी को आमंत्रित किया था. यूनिवर्सिटी की आधारशिला रखने के लिए वासरॉय लॉर्ड हार्डिंग्ज विशेषरूप से आए थे. उनके जीवन की सुरक्षा के लिए पुलिस ने विशेष रूप से इंतज़ाम कर रखा था. चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी और रास्ते के सारे मकानों पर सुरक्षा की दृष्टि से नज़र रखी जा रही थी. कह सकते हैं कि बनारस एक तरह से बंधक बना लिया गया था.
भारत भर से विशिष्ट व्यक्ति आए हुए थे. उनमें से कई लोगों ने अपना भाषण दिया. चार फ़रवरी 1916 को गांधी जी के भाषण की बारी थी, श्रोताओं में मुख्यत: अतिसंवेदनशील नौजवान थे. मंच पर सजे-संवरे और गहनों से लदे राजा-महाराजाओं का तारामंडल विराजमान था. महाराज दरभंगा अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान थे.
गांधी जी, जो कि एक छोटी और मोटी धोती, काठियाबाड़ी पहनावा और पगड़ी पहने हुए थे, बोलने के लिए उठे. वो अपने चारों ओर पुलिस की चौकसी और तामझाम से बहुत दुखी थे. श्रोताओं की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा कि ‘वह बिना किसी झिझक के विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे.’)

मैं यहां आने में हुई बहुत देरी के लिए सविनय क्षमा चाहता हूं. और आप क्षमा के लिए मेरी प्रार्थना सहज ही स्वीकार कर लेंगे जब मैं कहूं कि इस देरी के लिए मैं और कोई अन्य इंसानी एजेसी उत्तरदायी नहीं है. सही बात तो यह है कि इस तमाशे में मैं एक जानवर सरीखा हूं, और मुझे ‘पालने वाले’ अपनी दयालुता की वजह से जीवन के एक आवश्यक अध्याय, छोटी-सी भी दुर्घटना (हो जाने देने) की अवहेलना करते हैं. आज मेरे पालकों ने और मेरे वाहकों ने छोटी-छोटी दुर्घटनाएं जो हमारे आपके साथ होती रहती हैं, होने नहीं दिया. जिसकी वजह से यह देरी हुई.
दोस्तो! मिसेज़ बेसेंट जो कि अभी-अभी बैठी हैं, की अद्वितीय वक्तृत्व से प्रभावित होकर, प्रार्थनापूर्वक, कहता हूं आप भ्रम में न आएं कि हमारी यूनिवर्सिटी अभी तैयार माल बन चुकी है, और यह कि इस यूनिवर्सिटी जिसका अभी उदय होना है और अस्तित्व में आना बाक़ी है, में आनेवाले छात्र भी यहां आकर महान साम्राज्य के तैयार नागरिक की तरह जा चुके हैं.
इस प्रकार के किसी मुग़ालते में न रहें, और यदि आप, छात्र समुदाय जिसको आज शाम का सम्बोधन मुख़ातिब होगा, एक क्षण सोचें कि आध्यात्मिक जीवन जिसके लिए यह देश जाना जाता है और जिस मामले में इस देश का कोई शानी नहीं है, बस ज़ुबानी जमा-ख़र्च से प्रदान किया जाएगा, आप विश्वास करें, आप ग़लत हैं. आप कभी भी सिर्फ़ ज़बानी जमा-ख़र्च से पूरी दुनिया को भारत का संदेश नहीं दे पाएंगे. मैं ख़ुद वक्तव्य भाषणों और लेक्चरों से ऊब गया हूं.
मैं पिछले दो दिनों से जो लेक्चर यहां दिए गए हैं उनको अलहदा मानता हूं क्योंकि वो ज़रूरी हैं. लेकिन मैं आप को सलाह देने का साहस कर रहा हूं कि हम लोग भाषण देने के अपने ख़ज़ाने के आख़िर में पहुंच चुके हैं; यह पर्याप्त नहीं है कि हमारे कान तृप्त हो गए हैं, या कि हमारी आंखे तृप्त हुई हैं, लेकिन यह ज़रूरी है कि यह (भाषण) हमारे दिलों तक पहुंचे और हमारे हाथ और पैर भी चलायमान हो.
पिछले दो दिनों में हमको बताया गया है कि यह कितना महत्वपूर्ण है यदि हमें अपने भारतीय चरित्र की सरलता पर पकड़ बनाए रखनी है तो हमारे हाथ-पैर दिल से तालमेल बिठाकर चलायमान हों. लेकिन यह मात्र ऊपरी बातें हैं. मैं कहना चाहता हूं कि यह हमारे लिए घोर अपमान और शर्म की बात है कि आज की शाम इस महान विद्यालय की छाया में, इस पवित्र शहर में, अपने देशवासियों को मुझे एक ऐसी भाषा में सम्बोधन करने के लिए मजबूर किया गया है जो मेरे लिए विदेशी है.
मैं जानता हूं कि जो लोग पिछले दो दिनों से दिए जा रहे भाषणों को सुन रहे हैं, भाषणों के आधार पर उनकी जांच की जाए और यदि मुझे परीक्षक नियुक्त किया जाए तो ज़्यादातर फ़ेल हो जाएंगे. और क्यों ? क्योंकि (ये संदेश) उनके दिल तक नहीं पहुंच सके.
मैं महान कांग्रेस के दिसम्बर माह के अधिवेशनों में उपस्थित था. वह इसके मुक़ाबले कहीं बड़ी सभा थी, और आप यक़ीन करेंगे जब मैं कहूं कि मात्र वो भाषण ही बम्बई (अब मुम्बई) की विशाल जनसभा में लोगों के दिल को छू सके जो हिन्दुस्तानी में दिए गए थे. वो भी बम्बई (अब मुम्बई) में जहां बनारस की तरह नहीं कि हर एक हिंदी बोलता है. लेकिन एक तरफ़ बॉम्बे प्रेसिडेंसी की भाषाएं हैं और दूसरी तरफ़ हिन्दी है, उन भाषाओं के बीच में वैसी भेदकारी रेखा नहीं है जैसी कि अंग्रेज़ी और भारत की भाषा-बहनों के बीच है; और कांग्रेस के श्रोतागण हिंदी के वक्ताओं को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पा रहे थे.
मैं आशा करता हूं कि नौजवान जो यहां आएं वह अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर पाएंगे, ऐसा यह यूनिवर्सिटी सुनिश्चित करेगी. हमारी भाषाएं हमारा अक्स हैं और यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषाएं सर्वोत्तम विचार को व्यक्त करने में सक्षम नहीं हैं तो मान लीजिए कि जितना जल्दी हमारे अस्तित्व का सफ़ाया हो जाए उतना ही अच्छा है.
क्या कोई व्यक्ति है जो सपना देखता है कि अंग्रेजी कभी भारत की राष्ट्रभाषा बन पाएगी ? देश पर यह विकलांगता क्यों थोपी जाए ? ज़रा उस क्षण के बारे मैं सोचिए जब हमारे लड़कों को अंग्रेज़ लड़कों के साथ बराबर की दौड़ लगानी पड़े !
मुझे पूना (अब पुणे) के कुछ प्रोफ़ेसरों से अंतरंग वार्ता करने का अवसर मिला. उन्होंने दृढ़ता से बताया कि भारतीय नौजवान अंग्रेज़ी में ज्ञान प्राप्त करने के कारण अपनी क़ीमती ज़िन्दगी के छह: साल बरबाद कर देते हैं. हमारे स्कूल और कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की संख्या में अगर इससे गुणा कर दें तो आप जान जाएंगे कि कितने हज़ार वर्षों का देश को नुक़सान हुआ है.
हमारे ख़िलाफ़ अभियोग है कि हम कोई पहल नहीं करते. हम कैसे कोई नई पहल कर सकते हैं जब हमें अपनी ज़िन्दगी के क़ीमती साल एक विदेशी ज़बान में प्रवीणता प्राप्त करने में लगानी पड़ती है ? हम इस प्रयास में भी असफल होते हैं. क्या कल और आज के वक्ताओं के लिए श्रोतागण पर हिगिनबॉथम जैसा ही प्रभाव छोड़ना सम्भव था ? यह पहले के वक्ताओं की ग़लती नहीं है कि वो श्रोताओं को बांधकर रख नहीं सके. उनके सम्बोधनों में हमारे लिए पर्याप्त से ज्यादा सारतत्व थे. लेकिन उनके सम्बोधन हमारे दिलों तक पहुंच नहीं सके.
मैंने यह कहते हुए सुना है कि आख़िरकार यह अंग्रेज़ी-शिक्षित भारत ही तो है जो नेतृत्व में है और भारत के लिए सबकुछ वही कर रहे हैं. यह बड़ा ही भयानक होगा यदि ऐसा न हो तो. जो एकमात्र शिक्षा हमें मिलती है वह अंग्रेज़ी शिक्षा है. अवश्य हमें इसके लिए कुछ कर दिखाना चहिए. लेकिन ज़रा सोचिए पिछले पचास साल से हम अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा पा रहे होते तो आज हाथ में क्या होता ?
आज स्वतंत्र भारत हमारे पास होता, हमारे पास अपने ही देश में विदेशियों की तरह नहीं बल्कि अपने शिक्षित लोग होते, अपनी भाषा में देश के दिल से बात करते हुए; वे लोग ग़रीबों में भी ग़रीब लोगों के बीच काम करते होते, और पिछले पचास साल में उनको जो हासिल होता वह देश के लिए गौरव की बात होती. आज हमारी पत्नियां भी हमारे सर्वोत्तम विचारों की भागीदार नहीं होतीं हैं. प्रोफ़ेसर बोस और प्रोफ़ेसर रे को देखिए और उनके अनमोल शोधों को देखिए. क्या यह शर्म की बात नहीं है कि उनके शोध आमजन की सम्पदा नहीं हैं ? अब मुझे दूसरे विषय पर आने दीजिए.
कांग्रेस ने स्वशासन के लिए संकल्प ले रखा है और मुझे कोई शुबहा नहीं है कि ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी और मुस्लिम लीग अपने दायित्वों को निभाते हुए कुछ ठोस सलाह के साथ आगे आएंगे. लेकिन एक बात जो मैं साफ़ साफ़ स्वीकार करना चाहता हूं कि मेरी ज्यादा रुचि इस बात में नहीं है कि वो क्या प्रस्तुत करेंगे, मैं उत्सुक हूं कि छात्र जगत क्या सृजन करते हैं या आमजनता क्या सृजन करती है.
कोई भी काग़ज़ी योगदान हमें कभी स्वशासन नहीं देगी. कितना भी भाषण हो जाए वो हमें स्वशासन के लिए योग्य नहीं बनाएंगे. सिर्फ हमारा व्यवहार ही हमें इसके लिए योग्य बनाएगी और हम किस तरह अपने को संचालित करने का प्रयास कर रहे हैं ?
मैं आज की शाम स्पष्टता के साथ सोचना चाहता हूं. मै कोई भाषण नहीं देना चाहता और यदि आज मुझे बेधड़क बोलते हुए पाएं तो प्रार्थना करिए, और मान लीजिए कि आप एक स्पष्ट रूप से सोचना वाले व्यक्ति से विचारों को साझा कर रहे हैं, और यदि आप सोचते हैं कि मैं अपने ऊपर थोपी गई शिष्टाचार की सीमाओं का उल्लंघन कर रहा हूं तो आप इस बेतकल्लुफ़ी के लिए मुझे माफ़ करेंगे.
कल शाम मैं विश्वनाथमंदिर गया था और जब मैं उन गलियों से गुज़र रहा था, ये वही विचार हैं जो मुझे महसूस हुआ. अगर कोई अजनबी ऊपर से इस महान मंदिर में टपक पड़े, हम हिंदू कैसे होते हैं वह मान ले तो क्या हमारी निंदा करना उसके लिए उचित नहीं है ? क्या यह महान मंदिर हमारे चरित्र का अक्स नहीं है ?
मैं एक हिंदू की तरह स्वतंत्र हो बोलता हूं. क्या हमारे मंदिर की गलियां ऐसी ही गंदी होनी चाहिए ? आसपास के मकान बस किसी तरह बना दिए गए हैं. गलियां टेढ़ी-मेढ़ी और संकरी हैं. अगर हमारे मंदिर भी खुलेपन और साफ़-सफ़ाई के उदाहरण नहीं हैं तो हमारा स्वशासन कैसा हो सकता है ? क्या अंग्रेज़ अपनी मर्ज़ी से या विवश कर दिए जाने पर अपने साज-सामान के साथ भारत छोड़ देंगे तब हमारे मंदिर पवित्रता, स्वच्छता और शांति का घर बनेंगे ?
मैं कांग्रेस अध्यक्ष से पूरी तरह सहमत हूं कि इसके पहले हम स्वशासन की बात सोचें, हमें बहुत मेहनत करनी होगी. हर शहर के दो हिस्से होतेहै, एक कैंटूनमेंट और शहर ख़ास. शहर ज़्यादातर बजबजाते विवर हैं. लेकिन हम लोग शहरी जीवन के आदी नहीं हैं. यदि हम शहरी जीवन चाहते हैं तो (वहां) गांव की बेपरवाह ज़िन्दगी खड़ी नहीं कर सकते.
यह सोच कर धैर्य जवाब दे जाता है कि लोग मुम्बई गलियों में ऊंची ऊंची इमारतों में रहने वाले लोगों के थूके जाने के भय के साथ चलते हैं. मैं बहुत रेल यात्रा करता हूं. मैं तीसरे दर्जे के यात्रियों की तकलीफ़ों को देखता हूं. लेकिन चाहे जो भी हो सारी कमियों के बावजूद रेलवे प्रशासन की इसके लिए निन्दा नहीं की जा सकती.
हमें स्वच्छता का प्रारंभिक नियम-कानून ही नहीं मालूम है. हम डिब्बे में फ़र्श पर कहीं भी थूक देते हैं, बिना यह विचार किए कि इसका इस्तेमाल अक्सर सोने के लिए किया जाता हैं. हम इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं सोचने की ज़हमत नहीं उठाते, नतीजा यह होता है कि कम्पार्टमेंट में इतनी गन्दगी होती है कि बयान नहीं किया जा सकता.
तथाकथित उच्च वर्ग के यात्री अपने कम भाग्यशाली सहयात्रियों पर रोब गांठते हैं. उनमें मैं छात्र समुदाय को भी देखा है; कभी कभी उनका व्यवहार अच्छा नहीं होता. वो अंग्रेज़ी बोल सकते हैं, वो नॉरफ़ॉक जैकेट पहने रहते हैं, और, इसलिए वो घुसने और बैठने का स्थान बनाने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती करना अपना हक़ समझते हैं.
मैं अपने विषय को पूरी तरह से बदल देता हूं. और चूंकि आप ने मुझे अपने समक्ष बोलने का सौभाग्य प्रदान किया है, मैं अपने हृदय को पूरी तरह से खोलकर रख देता हूं. निश्चित तौर पर स्वशासन की ओर अग्रसर होने के लिए इन चीज़ों को दुरुस्त करना पड़ेगा. मैं आप के समक्ष दूसरा दृश्य प्रस्तुत करता हूं.
महामहिम महाराजा, जो कल हमारे सम्बोधनों की अध्यक्षता कर रहे थे, ने भारत की ग़रीबी के बारे में बोला था. अन्य वक्ताओं ने इसको बहुत महत्व दिया. लेकिन जहां वायसरॉय द्वारा आधारशिला रखने का कार्यक्रम चल रहा था उस पंडाल में हमने क्या देखा ? एक भव्य तमाशा, गहनों की प्रदर्शनी, जो कि पेरिस से आए हुए महान ज़ौहरी की आंखों के लिए एक शानदार दावत सरीखा था.
मैं शानदार रूप से अलंकृत अभिजात्यों की तुलना लाखों ग़रीबों से करता हूं. और मैं अपने को इन अभिजात्यों से कहते हुए पाता हूं, ‘भारत का उद्धार तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि आप अपने गहनों को उतार न डालें और भारतवासियों की भलाई के लिए एक ट्रस्ट में रख दें.’
मुझे पूरा विश्वास है कि यह राजा या लॉर्ड हारडिंग्ज की इच्छा नहीं है कि उनके प्रति अपनी स्वामिभक्ति दिखाने के लिये हम अपने गहनों की पेटी छान डालें और सिर से पांव के अंगूठे तक लद कर आएं. मैं अपनी ज़िन्दगी के ख़तरे को उठाते हुए प्रतिज्ञा करता हूं कि किंग जॉर्ज से मैं ऐसा एक संदेश लाऊं जिसमें वो ख़ुद क़ुबूल करेंगे कि वो ऐसा कुछ नहीं चाहते.
सर, मैं जब भी भारत के किसी भी शहर में, चाहे वे ब्रिटिश इंडिया हो या हमारे महान राजाओं द्वारा शासित हो, किसी महल बनने की बात सुनता हूं, तो मुझे तुरंत ईर्ष्या होती है और तत्काल मैं कह उठता हूं, ‘ओह, यह वह धन है जो किसानों से आया है.’
जनसंख्या का पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा भाग किसान हैं और मिस्टर हिगिन्बॉथम ने कल रात अपनी मनोहर भाषा में कहा कि वो लोग ऐसे आदमी हैं जो एक घास उगाने की जगह में दो घास उगाते हैं. लेकिन हममें स्वशासन की आत्मा ही नहीं बचेगी यदि उनसे उनके श्रम का पूरा फल छीन लें या छीन लेने दें. हमारा उद्धार सिर्फ किसान ही कर सकते हैं. न तो वक़ील, न तो डॉक्टर, न ही धनी ज़मीनदार यह कर सकते हैं.
अब अंत में लेकिन यह कोई छोटी बात भी नहीं है, यह मेरा महति कर्तव्य भी है कि मैं उसका संदर्भ दूं जिसके कारण हमारे मन पिछले दो तीन दिनों से उद्वेलित हैं. जब वायसरॉय बनारस की सड़कों से गुजर रहे थे तो यह हमारे लिए चिंताजनक समय था. कई जगहों पर जासूस तैनात थे. हम लोग भयभीत थे. ‘यह अविश्वास क्यों ?’ क्या यह अच्छा नहीं होता कि लॉर्ड हेडिंग्ज मरे जीवन के बजाए मर ही जाते ? लेकिन एक सम्प्रभु राष्ट्र के प्रतिनिधि नहीं (मर सकते). (शायद) हमारे ऊपर जासूस लादना उन्हें आवश्यक लगता हो ?
हम उफन सकते हैं, हम चिढ़ सकते हैं, हम रोष व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि आज भारत ने अपनी अधीरता से अराजक लोगों की सेना खड़ी कर ली है. मैं ख़ुद अराजक हूं. लेकिन दूसरी तरह का. लेकिन हम लोगों के बीच एक अराजक वर्ग है, और अगर मैं उन तक पहुंच सकता तो कहता कि भारत में उनकी अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं है, अगर भारत को जीतना है. यह भय का चिह्न है. यदि हम ईश्वर में विश्वास रखते हैं और उससे डरते हैं तो हमें किसी से नहीं डरना चाहिए, महाराजाओं से भी नहीं, वायसरायों से भी नहीं, जासूसों से भी नहीं, न तो किंग जॉर्ज से भी.
मैं उन अराजक लोगों का सम्मान करता हूं कि वे अपने देश को प्यार करते हैं. अपने देश के लिए बहादुरी से मर जाने की तत्परता के लिए मैं उनका सम्मान करता हूं. लेकिन मैं पूछता हूं – क्या हत्या करना सम्माननीय है ? क्या हत्यारे का ख़ंजर सम्मान जनक मृत्यु का उपयुक्त शगुन है ? मैं इससे इनकार करता हूं. किसी भी धर्मग्रंथ में ऐसे तरीक़ों के लिए कोई स्थान नहीं है.
यदि मैं पाता हूं कि भारत के उद्धार के लिए अंग्रेज़ों को चले जाना जाना चाहिए तो इनको बाहर भगा देना चाहिए, मैं यह घोषणा करते हुए हिचकूंगा नहीं कि उनको जाना पड़ेगा, और मैं आशा करता हूं कि अपने इस विश्वास की रक्षा में मैं मृत्यु के लिए तत्पर रहूंगा. मेरे विचार से वह मेरे लिए एक सम्माननीय मौत होगी. बम फेंकने वाला गुप्त योजना तैयार करता है, वह सामने आने में डरता है, और जब पकड़ा जाता है तो वह दिग्भ्रमित व्यक्ति अपने उत्साह के लिए हर्ज़ाना भरता है.
मुझे बताया गया है, ‘अगर हमने ऐसा नहीं किया होता, यदि कुछ लोगों ने बम नहीं फेंका होता, आज़ादी के आन्दोलन के सिलसिले में हमको जो मिला वह नहीं मिला होता.’ (मि. बेसेंट कहती हैं: कृपया रोक दें) यही बात मैंने बंगाल में कही थी जब मि. लॉयन सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. मेरा विचार है मैं जो कह रहा हूं वह ज़रूरी है. यदि मुझे रोक देने के लिए कहा जाता है तो मैं आज्ञा का पालन करूंगा. (अध्यक्ष की ओर मुड़ते हुए) मैं आपके आदेशों का इंतज़ार कर रहा हूं. यदि आप सोचते हैं मैं जो कह रहा हूं, उससे मैं देश और साम्राज्य की सेवा नहीं कर रहा हूं तो मैं निश्चित तौर पर रोक दूंगा. (जारी रखें का शोर)
(चेयरमैन कहते हैं: आप कृपया अपना अभिप्राय स्पष्ट करें) मैं तो बस…(एकऔर रुकावट). मेरे दोस्तों, कृपया रुकावट पर रोष न व्यक्त करें. यदि मि. बेसेंट आज इस शाम को सलाह देती हैं कि मुझे बात रोक देनी चाहिए तो वह ऐसा इसलिए कह रही हैं क्योंकि वो भारत को बहुत अच्छी तरह प्यार करती हैं, वो समझती हैं कि आप नौजवानों के समक्ष स्पष्ट बात करके मैं ग़लती कर रहा हूं. फिर भी मैं बस इतना कहता हूं. मैं भारत में दोनों पक्षों के बीच अविश्वास के वातावरण को साफ़ कर देना चाहता हूं.
यदि हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचना है; हमें ऐसा साम्राज्य चाहिए जो आपसी प्यार और विश्वास पर आधारित हो. क्या यह बेहतर नहीं है कि हम इस कॉलेज की छाया में बात करें, न कि हम अपने घरों में ग़ैर ज़िम्मेदारी से बात करें ? मैं समझता हूं यह ज़्यादा बेहतर है कि ये बातें खुल कर करें. मैं ऐसा पहले भी कर चुका हूं जिसके परिणाम बहुत अच्छे थे. मैं जानता हूं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो छात्र नहीं जानते.
मैं, इसलिए, अब विचार अपने लोगों की तरफ़ मोड़ता हूं. मेरे लिए मेरा देश इतना प्यारा है कि मैं अपने विचार आप से बांट लेता हूं और आप को स्पष्ट करता हूं कि भारत में अराजकता के लिए कोई जगह नहीं है. आइए हम अपने शासकों से स्पष्ट रूप से और खुलकर जो कहना चाहते हैं कहें, और उसके परिणाम का सामना करें यदि जो हमको कहना है उनको पसन्द नहीं है. लेकिन हमें अपमान नहीं करना चाहिए.
मैं एक दिन सिविल सर्विस जिसको बहुत ज्यादा बुरा-भला कहा गया है, के सदस्य से बात कर रहा था. उस सर्विस के सदस्यों से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन जिस तरह से वह सदस्य मुझसे बात कर रहा था मैं प्रशंसा किए बिना न रह सका. उसने कहा: ‘मि. गांधी , क्या आप एक क्षण के लिए सोच सकते हैं कि हम सब, सिविल सर्वेंट्स बहुत बुरे लोग हैं इस लिहाज़ से कि जिन पर हम शासन करने आए हैं उन लोगों को दबाकर रखते हैं ? मैंने कहा ‘नहीं अगर आपको मौक़ा मिले तो इस सबसे ज्यादा अपमानित सेवा की प्रशंसा में भी कुछ शब्द कहें.’ और मैं यहां वह बात करता हूं.
हां भारतीय सिविल सर्विसेज़ के सदस्य निश्चित तौर पर मनमानी करने वाले हैं; वो अन्यायी हैं, अक्सर विचारशून्य. कई और विशेषणों का प्रयोग किया जा सकता है. मैं इन सब बातों को स्वीकार करता हूं, मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि भारत में कुछ साल रहने के बाद उनमें से कुछ बदनाम भी हो चुके हैं. लेकिन यह क्या प्रकट करता है ? यहां आने के पूर्व वो सज्जन थे, अगर वो नैतिकता का कुछ अंश खो दिए हैं तो यह हमारी निन्दा है.
बस अपने से सोचिए, एक आदमी जो कल अच्छा था आज मेरे सम्पर्क में आने से बुरा बन गया है तो उसकी अवनति के लिए वो ज़िम्मेदार है या मैं हूं ? उनके भारत आने पर चाटुकारिता और झूठ का जो वातावरण उनको घेर लेता है, उनको भ्रष्ट बनाता है, यही हमको भी (भ्रष्ट बना देता है). कभी कभी आरोप अपने ऊपर ले लेना अच्छा होता है.
अगर हमें स्वशासन प्राप्त करना हैं तो हमें इसे (छीन) लेना पड़ेगा. हमें वो कभी स्वशासन नहीं देंगे. ब्रिटिश साम्राज्य और ब्रिटिश राष्ट्र के इतिहास पर नज़र डाल लें; स्वतंत्रता से प्यार भले हो लेकिन ये उनको स्वतंत्रता नहीं देंगे जो इसे स्वयम् नहीं लेंगे. अगर आप सबक़ लेना चाहते हैं तो बोअर युद्ध से ले सकते हैं. जो लोग कुछ ही साल पहले कभी उस साम्राज्य के दुश्मन थे अब दोस्त बन गए हैं…
(इस बिंदु पर क्रम-भंग हुआ और मंच छोड़ने की हरकत हुई. भाषण यहीं एकाएक ख़त्म हो गया.)
- महात्मा गांधी का 4 फ़रवरी 1916 को बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया गया भाषण
Mahatma, pp. 179-84, Edn. 1960
Source: This speech is taken from selected works of Mahatma Gandhi Volume-Six
The Voice of Truth Part-I Some famous speeches page 3 – 13
अनुवाद- Bibhas Kumar Srivastav
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