नदियों की लपलपाती जीभ
सूखे चट्टानों के तालु में सट गई है
आग ढोती हवाओं में
मनुष्य की घृणा का समायोजन
सिंफ़नी के नौवें सुर को
सर के बल खड़ा कर दिया है
हरेक उल्टी तस्वीर
शांत झील में पड़ रहे
देवदारु के अचल वृक्ष नहीं होते
आदमी
जब सिक्कों सा जम जाता है
ख़ून की लकीर पर
मसान यात्रियों की मानिंद
अकाल पड़ता है
दुर्भिक्ष की इस बेला में
तुम्हारे शहरी होने के सारे दिखावे
कुछ कपड़ों, मकानों और बाज़ारों में
सिमट कर रह जाती है
पीछे पीछे चलते हैं कुछ सड़े गले मुहावरे
मानवता वाद
ईश्वर वाद
अनीश्वर वाद
समाजवाद
पूंजीवाद
लोकतंत्र
आदि आदि
लंबी से लंबी जड़ों के
फैलने की भी एक सीमा होती है
जंगल के अंदर
और जंगल के बाहर भी
मिट्टी तय करती है यह सीमा
और मिट्टी को तय करती है
उसके अंदर की नमी
और नमी को तय करती है नदी
वह नदी
जो सूख चली है
अभ्यारह्न में
सबकी आंखों से ओझल
मैं देख रहा हूं
एक भूखी मां
अपने भूखे बच्चे की
भूख मिटाने के लिए
कोड़ती हुई बंजर ज़मीन
और धीरे धीरे खोते हुए
दोनों का वजूद
आश्वासन
नारों
तनी हुई मुठ्ठियों
जुलूस
और जंग के मैदानों के परे
पतझर की आदिम भाषा में लिखा हुआ
दुर्भिक्ष !
- सुब्रतो चटर्जी
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