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हर जिंदादिल इंसान को मजहब नहीं, सच के साथ खड़े हो जाना चाहिए

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पिछले 100 सालों में दुनिया तेजी से बदली है. 1920 कि दुनिया और 2020 कि दुनिया मे जमीन आसमान का फर्क है. इस दौरान दुनिया के तमाम धर्मों ने अपनी आस्थाओं में बदलाव किए हैं. चर्च ने गेलिलियो से माफी मांगी, यहूदियों ने ईसाइयों के साथ बुरे दौर की यादें भुला दीं, ब्राह्मणधर्म ने भी फौरी तौर पर ही सही लेकिन बलि प्रथा और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में लिखी जातिवादी/नारीविरोधी बातों से खुद को अलग कर लिया.

लेकिन इस्लामिक मानसिकता में थोड़ा भी फेरबदल नहीं हुआ. सौ साल पहले भी वे खिलाफत को बचाने की खातिर ब्रिटेन का विरोध करने सड़कों पर थे, आज सौ साल बाद भी पैगम्बर के नाम पर मुसलमान सड़कों पर हैं.

अल्लाह ने कायनात बनाने से पहले ही जिसकी रूह को अपने नूर से बना डाला था और जिसे वह एक लाख चौबीस हजार में सबसे अव्वल मानता है, उसकी तौहीन शैतान के बहकावे में आये हुए कुछ ‘काफरीन’ कर देते हैं और उनको सबक सिखाने की खातिर कुछ ‘मोमिनीन’ सर तन से जुदा करने पर उतारू हो जाते हैं. फर्श पर होने वाला यह सब तमाशा अर्श पर बैठा वह रब्बुलालमिन देख रहा है और करता कुछ नहीं.

अल्लाह का पूरा निजाम तहस-नहस हो रहा है. उसकी मख़लूकें एक दूसरे की खून की प्यासी हैं. उसके सबसे प्यारे नबी की इज्जत दांव पर है लेकिन उसे कोई परवाह नहीं. कड़वा सच तो यह है कि ऐसा कोई खुदा है ही नहीं और जो नहीं है उसके नाम पर लड़ों मरो मारो काटो तबाह हो जाओ या तबाह कर दो, यही तो मजहबों की ज़िद है और इसी ज़िद में आस्थाओं की जीत भी छुपी हुई है.

गाय के नाम पर या कार्टून के नाम आहत होने वाली भावनाएं असल में बीमार मानसिकता की कुंठित आस्थाएं होती हैं, जिन्हें हम पीढ़ी दर पीढ़ी आंख बंद किये ढोते चले आ रहे हैं और इसी को धर्म कह कर इतरा भी रहे हैं. धर्म की इस युगों पुरानी अफीम में नफरतों का नशा होता है और नफरतों का यह नशा समय के साथ बढ़ता चला जाता है, जिसका परिणाम सिर्फ तबाही ही होती है.

शताब्दियों पुरानी यह सड़ी गली आस्थाएऔ नफरतों पर सवार होकर ही आज यहां तक पहुंचीं हैं और आज तबाहियों की नई दास्तानें लिख रही है. जब तक आस्थाओं के विषाणु इंसानी दिमागों में जिंदा रहेंगे, ये तबाही आगे भी यूंही बदस्तूर जारी रहेगी.

फर्ज कीजिये कि कल किसी कम्युनिटी की आस्था मच्छरों में बस जाए और वह मांग करे कि ऑलआउट कछुआ छाप ऑडोमास से हमारी भावनाएं आहत होती हैं इसलिए इन सब पर रोक लगे, मलेरिया के टीके बन्द हों, नालियों की सफाई बन्द हो और डेंगू की रोकथाम के लिए किये जाने वाले सारे उपाय बन्द हो, तब क्या हो ?

आस्था के नाम पर किसी को भी मनमानी करने की छूट देने का मतलब मानवता को तबाही की ओर ले जाने की छूट देना ही है. आज कार्टून से जिनकी भावनाएं आहत हो रही हैं, कल तस्वीरों से भावनाएं आहत होंगीं और परसों आपके और मेरे जिंदा रहने से.

इसलिए हर जिंदादिल इंसान को सच के साथ खड़े हो जाना चाहिए. जिनकी आस्थाएं आहत होती हैं, होने दें. जिनका मजहब मरता है, मरे बस इंसानियत नहीं मरनी चाहिए.

  • शकील प्रेम

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