यह निबंध दलित लड़की ‘मुक्ताबाई’ द्वारा लिखा गया है, जो सावित्रीबाई और जोतीराव फुले द्वारा पुणे में स्थापित विद्यालय में पढ़ी थी. ग्यारह वर्षीय मुक्ता द्वारा लिखित ‘मंग महाराच्या दुखविसाई’ ‘मंग और महार की व्यथा’ (मंग और महार महाराष्ट्र की दो दलित जातियां हैं) शीर्षक निबंध अहमदाबाद में स्थित और जानी-मानी पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ में 1855 में प्रकाशित हुआ था. यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ ‘महात्मा फुले गौरव ग्रंथ’ (संप, हरि नरके, 2006, पृ. 747, 748) से अनुदित है – सम्पादक
इस यथार्थ को जब मैं स्वीकारती हूं कि ईश्वर ने मुझ जैसी अछूत कन्या, जिसका स्थान पशुओं से भी तुच्छ समझा जाता है, के हृदय को मेरे लोगों– महार और मंग की पीड़ा और कष्टों से भर दिया है. यह बात मेरे हृदय में तब सृष्टिकर्ता ने डाली, जब मैं उनका नाम स्मरण कर रही थी. वह शक्ति जो मैंने अब पाई है, उस शक्ति से मैं इस निबंध को लिखने का साहस कर रही हूं. वह सृष्टिकर्ता ही है, जिसने मंग, महार और ब्राह्मणों की भी रचना की है और वही मुझको लिखने के लिए बुद्धि से भर रहा है. वह मेरे श्रम का फलदायक परिणाम देगा.
अगर हम उन भक्षक ब्राह्मणों के तर्क का, जो अपने आपको अतिश्रेष्ठ समझते हैं, वेदों के आधार पर खंडन करें, तो वे कहते हैं कि वेद उनकी जागीर और अनन्य संपत्ति हैं. स्पष्टतया, अगर वेद केवल ब्राह्मणों के लिए हैं, तो वह स्पष्ट तौर पर हमारे लिए नहीं है.
अगर वेद केवल ब्राह्मणों की संपत्ति हैं, तो यह एक खुला रहस्य है कि हमारे पास वह पुस्तक नहीं है. हम बिना पुस्तक के हैं और बिना धर्म के हैं. अगर वेद केवल ब्राह्मणों के लिए हैं तो हम उनके अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य नहीं है. अगर केवल वेदों को देखने से हम नष्ट होने वाले पाप करते हैं (जो ब्राह्मणों का दावा है), तो क्या हमारे द्वारा उनका अनुसरण करना हमारे लिए परम् मूर्खता नहीं है ? मुसलमान अपना जीवन कुरान के अनुसार व्यतीत करते हैं. अंग्रेज लोग बाइबिल का अनुसरण करते हैं और ब्राह्मणों के पास उनके वेद हैं. क्योंकि, उनके पास अपने अच्छे या बुरे धर्म हैं; जिनका वे पालन करते हैं. वे कुछ हमसे अधिक प्रसन्न हैं. हम यानि जिनके पास कोई धर्म नहीं है. हे ईश्वर ! कृपा करके हमें यह बता दे कि हमारा धर्म क्या है ?
हे ईश्वर ! हमें अपना सच्चा धर्म सिखाना, ताकि हम सब अपना जीवन उसके अनुसार व्यतीत कर सकें. उस धर्म को पृथ्वी से लुप्त कर दीजिए, जहां केवल एक व्यक्ति के पास विशेष अधिकार है और अन्य सब उससे वंचित हैं. हम कभी भी गर्व से अपने मस्तिष्क में ऐसे (भेदभाव) धर्म के विचारों को प्रवेश न करने दें.
इन लोगों ने हमें, ग़रीब मंग (मांग) और महार को हमारी अपनी भूमि से दूर किया. उस भूमि पर अपना अधिकार जमाकर इन्होंने विशाल इमारतों का निर्माण किया. और केवल यही नहीं था; उन्होंने मंग और महार लोगों को तेल में लाल सीसा पीने के लिए मजबूर किया. हमारे लोगों को उन्होंने अपनी इमारतों की नींव में गाड़ दिया और हम ग़रीब लोगों की पीढ़ियों को बार-बार नष्ट किया. ब्राह्मणों ने हमें इतना गिरा दिया कि वे हम लोगों को गाय और भैंस से भी निचले स्तर का समझते हैं.
क्या उन्होंने पेशवा बाजीराव के राज्य में हमें गधों से भी नीचा न समझा ? अगर आप एक लंगड़े गधे पर वार करते हैं, तो उसका मालिक बदला लेता है. पर कौन वहां था महार और मंग के ऊपर नियमित कोड़ों की मार पर आपत्ति उठाने के लिए ? बाजीराव के राज्य में यदि कोई मंग और महार संयोग से किसी व्यायामशाला के सामने से गुज़र जाता था, तो वह उसके सिर को काटकर वहीं बल्ला और गेंद खेलते थे. उसका सिर गेंद और पेशवाओं की तलवार उनका बल्ला होता था.
जब केवल उनके दरवाजों से गुज़रने के लिए हमें दंड मिलता था, तो शिक्षा पाने का या सीखने की स्वतंत्रता का प्रश्न कहां था ? जब कोई मंग या महार किसी प्रकार से पढ़ना या लिखना सीख जाता था और यदि बाजीराव को इस बात का पता चलता तो वह कहता था कि एक मंग और महार को शिक्षित करना किसी ब्राह्मण की नौकरी को छीन लेना है. वह हमेशा कहता था, ‘उन्होंने शिक्षित होने का साहस कैसे किया ? क्या यह अछूत इस बात की आशा रखते हैं कि हम अपने शासकीय कार्यों को उन्हें सौंपकर स्वयं उनके दाढ़ी बनाने का सामान लेकर, उनकी विधवाओं के सिर मूंडें ?’ और इस टिप्पणी के साथ वह उन्हें दंड देते थे.
क्या ये ब्राह्मण हमारे सीखने पर प्रतिबंध लगाकर संतुष्ट थे ? बिलकुल नहीं. बाजीराव काशी गए और वहां उनकी एक घृणित ढंग से मृत्यु हुई. पर यहां पर महार भी मंगों से जो कि उनके समान ही अछूत हैं, दूर भागते हैं. वह कुछ ब्राह्मणवादी गुणों को प्राप्त कर अपने आपको मंग से बेहतर समझते हैं और मंग की परछाई भी उन्हें दूषित कर देती है ! क्या यह पत्थर दिल ब्राह्मण, जो अपने पवित्र वस्त्रों में गर्व के साथ इधर-उधर घूमकर अपनी श्रेष्ठता की घोषणा करते हैं, कभी हमारे प्रति जो अछूत कहलाने का कष्ट उठाते हैं ? ज़रा-सा दयाभाव रखते हैं ? हमें कोई नौकरी नहीं देता क्योंकि, हम अछूत हैं. बिना नौकरी का अर्थ है, बिना रुपए-पैसे के होना. यही वज़ह है कि हमें निर्धनता में पिसने का दुःख झेलना पड़ता है.
हे विद्वान पंडितो ! अपने स्वार्थी पुजारी-कपट को समाप्त कर दो और अपने खोखले ज्ञान की बेकार बातों को बंद करो और सुनो जो मैं कहने जा रही हूं. जब हमारी स्त्रियां बच्चों को जन्म देती हैं, तो उनके सिर पर छत भी नहीं होती. किस प्रकार वह वर्षा और ठंड में दुःख उठाती हैं ! कृपया अपने स्वयं के अनुभव से इस बात को समझो. जन्म देते समय यदि वे किसी बीमारी का शिकार हो जाती हैं, तो उनके पास डॉक्टर या दवाइयों के लिए पैसे कहां से आएंगे ? क्या आपमें से कभी कोई डॉक्टर इतना मानवीय हुआ कि उसने ऐसे लोगों का निःशुल्क इलाज किया हो ?
मंग और महार बच्चों ने कभी भी शिकायत दर्ज करने का साहस नहीं किया. यद्यपि ब्राह्मण बच्चे उन पर पत्थर फेंकते या गंभीर रूप से चोट पहुंचाते. वे चुपचाप कष्ट भुगतते हैं. क्योंकि, वे जानते थे कि उन्हें ब्राह्मणों के घर जाकर बचे-खुचे भोजन के लिए भीख मांगनी थी. हे ईश्वर! हाय, यह कैसी व्यथा है ? यदि मैं इस अन्याय के विषय में और लिखूंगी; तो फूट-फूटकर रो पड़ूंगी. ऐसे अत्याचारों के कारण कृपालु ईश्वर ने हमें यह उदार ब्रिटिश सरकार दान में दी. चलिए, हम देखें इस सरकार की देखरेख में हमारे दुःख कैसे कम हुए ?
इससे पूर्व, गोखले, आप्टे, त्रिम्काजी, अंधाला, पंसारा, काले, बेहरे आदि (सब ब्राह्मणों के कुलनाम) जो अपनी वीरता अपने घरों के चूहों को मारकर दिखाते थे; हमारे ऊपर बिना किसी कारण के अत्याचार करते थे. उन्होंने हमारी गर्भवती स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा. अब यह सब बंद हो गया है. अब क़िलों और हवेलियों की नींव के लिए मानव बलिदान भी रुक गया है. अब हमें कोई जीवित गाड़ता नहीं है. अब हमारी जनसंख्या बढ़ रही है. इससे पूर्व यदि कोई महार या मंग अच्छे वस्त्र पहनता था, तो कहते थे कि केवल ब्राह्मणों को ऐसे वस्त्र पहनने चाहिए. यदि हम अच्छे कपड़े पहने हुए दिख जाते थे, तो हमारे ऊपर इन वस्त्रों की चोरी का आरोप लगता था. जब अछूत लोग अपने शरीर पर वस्त्र डालते, तो उनको पेड़ों से बांधकर दण्ड दिया जाता. उन्हें अपना धर्म प्रदूषित होने का भय था.
किन्तु, ब्रिटिश राज्य में जिसके पास पैसा है; अच्छे कपड़े मोल लेकर पहन सकता है. इससे पूर्व, उच्च जाति के प्रति किसी भी प्रकार के दुराचार का दण्ड था, दोषी अछूत का सिर काटना– अब यह बंद हो गया है. छुआछूत की प्रथा बहुत स्थानों में समाप्त हो गई है. अब हम बाज़ार भी आ-जा सकते हैं. इस लेख के लिखते समय भी मैं स्तंभित हूं कि ब्राह्मण पहले हमें कचरा समझते थे. जैसा मैंने ऊपर लिखा है– अब हमें हमारे कष्टों से मुक्त करना चाहते हैं.
यद्यपि सब ब्राह्मण नहीं. जो शैतान से प्रभावित हैं, वो अभी भी हमसे घृणा करते हैं. वे इन ब्राह्मणों को निशाना बना रहे हैं और जाति बहिष्कृत कर रहे हैं; जो हमें स्वतंत्र करने का प्रयत्न कर रहे हैं. कुछ महान आत्माओं ने महार और मंग के लिए विद्यालयों को शुरू किया है, और ऐसे विद्यालयों को दयालु ब्रिटिश सरकार ने समर्थन किया है. आह ! महार और मंग लोगों ! तुम निर्धन और बीमार हो. केवल ज्ञान की औषधि तुम्हें निरोगी और स्वस्थ कर सकती है.
यह (ज्ञान) तुम्हें तुम्हारी निराधार आस्था और अंधविश्वास से तुम्हें दूर ले जाएगा. तुम धर्मी और नेक बन जाओगे. यह ज्ञान तुम्हारे शोषण को समाप्त कर देगा. लोग जो तुमसे पशुओं के समान व्यवहार करते थे, अब कभी ऐसा व्यवहार करने का साहस नहीं करेंगे. तो कृपया, कड़ी मेहनत करो और पढ़ो. शिक्षा प्राप्त करो और अच्छे मनुष्य बनो. परन्तु, मैं इसको भी साबित भी नहीं कर सकती हूं. उदाहरण के लिए, अच्छी शिक्षा प्राप्त करने वाले भी हमें अपने दुष्कर्मों से आश्चर्य चकित कर देते हैं.
- स्रोत – ‘महात्मा फुले गौरव ग्रंथ’, संप, हरि नरके, 2006, पृ. 747-748, मराठी से हिंदी अनुवाद : शेखर पवार, संपादन : डॉ. सिद्धार्थ
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