किसी ने पूछा था कि भारत की आजादी, चीन की आजादी से दो वर्ष पहले मिल गई थी, फिर क्या वजह है कि चीन दुनिया को अपनी ऊंगलियों पर नचा रहा है और भारत दुनिया की ऊंगलियों पर नाच रहा है ? मैंने सीधा प्रतिप्रश्न किया और पूछा कि आजादी की कीमत क्या होती है ?
वह चुप हो गया. जवाब देते नहीं बना. मैंने बताया कि आजादी की कीमत खून (शहादत) में होती है. जो कौमें जितनी ज्यादा शहादत देती है, उसकी आजादी उतनी ही कीमती होती है. यानी, जितनी बड़ी कीमत, उतनी बड़ी आजादी. भारत की जनता ने अपनी आजादी में चंद हजार शहादतें दिया है, जबकि लगभग समान जनसंख्या होने के बावजूद चीन की जनता ने 10 करोड़ लोगों की शहादतें दी है.
आज दो दिनों से भारत की मीडिया में दहशतभरी खबर छाई हुई थी कि माओवादियों का सबसे मजबूत और आधुनिक हथियारों से लैस बटालियन को भारतीय दलाल शासक वर्गों की हजारों भारीभरकम भाड़े के फौज ने घेर लिया है. बस अब माओवादियों को अंतिम तौर पर खत्म कर दिया जायेगा क्योंकि इस बटालियन के साथ माओवादियों के बड़े सैद्धान्तिक नेताओं की मौजूदगी होती है.और बड़े सैद्धांतिक नेताओं के खात्मे का अर्थ है माओवादियों का खात्मा.
भारतीय मीडिया, जिसकी विश्वसनीयता न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लगभग शून्य है, लगातार खबरें बनाती रही कि बड़ी तादाद में बटालियन नम्बर एक के योद्धा मार गिराये गये हैं. कभी यह आंकड़ा 17 तो कभी यह आंकड़ा इससे भी ज्यादा बढ़ने का दावा किया जाता रहा, जो अंत में 12 पर जाकर टिका. पुलिसिया गिरोह की तरह माओवादी कभी भी अपने शहीदों की संख्या नहीं छिपाता है और उनको सम्मान के साथ सदैव याद करता है.
भारतीय गोदी मीडिया दिन भर खबरें बनाता रहा कि लुटेरी, हत्यारी और बलात्कारियों की डरपोक और कायर भाड़े के फौज जिसकी तादाद 3 से पांच हजार बताई जा रही थी, के बड़े बड़े नाम वाले सांपों (कोबरा बटालियन) की फलां फलां फलां नम्बर, एसटीएफ की फलां फलां कंपनी, डीआरजी की फलां फलां फलां टीम ने माओवादियों के बटालियन नम्बर एक के सैकडों माओवादियों को घेर लिया है. सैकड़ों माओवादी मार गिराये जायेंगे..अब तक 17 ढ़ेर…संख्या और बढ़ेगी…सुबह से रात हो गई… बलात्कारियों की हजारों फौज रात भर घेरा डाले हुए है…सुबह हो गई…माओवादियों की बटालियन नं. एक घिरा हुआ है…बलात्कारियों की फौज भागकर शहर आ रही है…गुप्त बात है…बलात्कारियों की फौज के सुरक्षा कारणों से हम जानकारी नहीं दे रहे हैं वरना माओवादियों बम से उड़ा देगा…दो बलात्कारी गुंडा माओवादी के कायराना आईईडी की चपेट में आ गया…उसका टांग उड़ गया…बलात्कारी सांप (कोबरा), एसटीएफ, डीआरजी 12 माओवादियों की लाशें टांगकर ला रहा है…जिसमें 5 महिला माओवादी है…ब्लां-ब्लां.
इन तमाम खबरों के बीच जो सच छनकर आ रही है वह यह है कि माओवादियों की बटालियन को बलात्कारियों की फौज ने घेरा जरुर होगा लेकिन वे वहां से निकल गये होंगे. अपनी खीज मिटाने के लिए बलात्कारियों की फौज ने पांच आदिवासी ग्रामीण महिलाओं को पकड़ा, रातभर सामूहिकता से बलात्कार किया, सात और लोगों को मिलाकर सभी को मार दिया और उनको माओवादी बता कर टांग कर शहर ले आया गोदी मीडिया को दिखाने और इनाम की राशि लेने.
लेकिन इसमें सवाल खड़ा तब हो गया जब इन बलात्कारी पुलिसिया गुंडों ने इन मारे गए माओवादियों के हाथ से बरामद हथियारों की प्रदर्शनी लगाया. इन हथियारों में एक भी ऑटोमेटिक आधुनिक हथियार नहीं था, जिसके बल पर कहा जा सके कि यह मुठभेड़ माओवादियों के सबसे आधुनिक हथियारों और तकनीकों से लैस बटालियन नम्बर एक से हुआ था.
बस्तर के बलात्कारी पुलिसिया गुंडों के आईजी सुंदरराज पी ने बताया कि मुठभेड़ स्थल से एक SLR राइफल, 12 बोर बंदूक, 2 सिंगल शॉट बंदूक, एक BGL लॉन्चर, 1 देशी बंदूक (भरमार) के साथ विस्फोटक, नक्सल साहित्य और नक्सली सामग्री बरामद की गई है. तो सवाल उन गोदी मीडिया ने ही उठा दिया कि माओवादियों के सबसे आधुनिक हथियारों से लैस माओवादी जो बलात्कारी गुंडों को आये दिन बम से उड़ाते रहता है, देशी भरमार बंदूक से लैस रहता है ? देशी भरमार बंदूक ही सबसे आधुनिक हथियार हुआ ?
गोदी पत्रकारों के सवालों पर बगले झांक रहे बलात्कारी गिरोह के सरगनाओं ने नया ‘थ्योरी’ दिया कि माओवादियों के बड़े लीडर जब घिर जाते हैं तब बचे हुए माओवादी अपने नेता से आधुनिक हथियार छीनकर ले भागते हैं और उन्हें मौत के हवाले कर जाते हैं. इतनी नीचता केवल गुंडों में होती है, माओवादी क्रांतिकारियों में नहीं, यह छोटी सी बात ये बलात्कारी गुंडे क्या जाने !
बहरहाल, जिस घटना को आधार बनाकर यह बलात्कारी सरगना इस थ्योरी को गढ़ा है, उस घटना का पर्दाफाश पहले ही हो चुका है. विगत दिनों माओवादियों के उड़ीसा प्रभारी समेत पांच माओवादियों को मारने का दावा इस बलात्कारी गिरोह ने किया. जब उस माओवादी के हाथ से बरामद हथियार पर पूछा गया तो यह गिरोह कोई भी आधुनिक हथियार दिखाने में असमर्थ हो गया. जिसके बाद यह घिसीपिटी थ्योरी दी गई कि माओवादी अपने नेता से हथियार छीनकर ले भागे और उनको इस बलात्कारी गिरोह के हवाले कर दिया.
लेकिन जल्दी ही इस बात से पर्दा उठ गया और यह साबित हो गया कि माओवादी नेता बीमार थे और वे एक महिला सहयोगी के साथ निहत्थे इलाज के लिए जा रहे थे. इस बलात्कारी गुंडों ने उन दोनों के साथ साथ तीन और ग्रामीण को पकड़ा और गोली मार दिया. खबर फैला दिया कि ‘मुठभेड़ में पांच माओवादी ढ़ेर. उसका हथियार छीनकर ले भागे माओवादी.’
यह सच है कि पिछले वर्ष में 300 के करीब माओवादी योद्धा पुलिसिया गुंडों के साथ मुठभेड़ में शहीद हुए हैं. इनमें से बड़ी संख्या ऐसी है जिसमें घायलों और पकड़ लिये गये योद्धा थे, जिसे इस पुलिसिया गुंडों ने बेरहमी से क्रूरतापूर्वक यातनाएं देकर शहीद किया है. महिला योद्धाओं के साथ बलात्कार तक को अंजाम दिया है.
कहना न होगा हिन्दू राष्ट्र बनाने का घोषणा करने वाले मोदी शाह का गिरोह न किसी कानून और संविधान को मानता है और न ही किसी मानवाधिकार को. हत्यारों का किसी भी मानवीय मूल्यों से शून्य यह नृशंस गिरोह केवल कॉरपोरेट घरानों के इशारे पर औरतों, आदिवासियों, किसानों, मजदूरों, युवाओं को खत्म करना जानता है. जो इसके विरोध में सवाल उठाता है, उसे नृशंसता पूर्वक खत्म करता है.
अभी हाल ही में इस गिरोह ने जब 10 माओवादी योद्धाओं को शहीद कर दिया था, तब वह जश्न मनाते हुए रायफलें लहराते हुए नाच रहा था. इस बेशर्म गिरोह को इतना भी दिमाग नहीं है कि वह जिस आदिवासी गीत पर नागपुरी डांस कर रहा है, उसका मतलब क्या है.
उस आदिवासी गीत के बोल है – ‘आदिवासी जंगल का रखवाला है.’ जबकि यह गुंडे जिन आदिवासी योद्धाओं के लाशों पर डांस कर रहा है, असलियत में वे ही आदिवासी योद्धा जंगल का रखवाला थे और हत्यारों का यह गिरोह ही वास्तव में कॉरपोरेट घरानों के इशारे पर जंगलों को उजाड़ने वाला है. इससे एक चीज तो साबित हो जाता है कि हत्यारों बलात्कारियों के इस गिरोह के पास मानवीय मूल्य तो नहीं ही है, दिमाग नाम की भी कोई चीज नहीं है. ये केवल और केवल खून के प्यासे जॉम्बीज है.
अब आते हैं उन सवाल पर जो हमने उपर उठाये हैं, यानी आज़ादी की कीमत के सवाल पर. भारत की 1947 की आज़ादी पर वामपंथी और दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों (आरएसएस) दोनों ने ही सवाल खड़े किए हैं. तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘यह आज़ादी झूठी है’ का नारा बुलंद किया था, तो वहीं दूसरी ओर दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों (आरएसएस) ने भी भारत की आज़ादी को मानने से साफ़ इंकार कर दिया. इतना ही नहीं दोनों ने ही इस आज़ादी का विरोध करते हुए हथियार उठा लिये.
कम्युनिस्टों ने समाजवादी क्रांति का नारा देते हुए ‘चीन के रास्ता’ का अनुसरण करते हुए सशस्त्र विद्रोह का रास्ता अपनाया और तेलंगाना किसान आंदोलन को नेतृत्व दिया, जिसमें हज़ारों की तादाद में सशस्त्र गुरिल्ला आर्मी को तैयार कर सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की लड़ाई छेड़ दिये. जबकि दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों (आरएसएस) ने ‘रामराज्य’ और मनुस्मृति आधारित ब्राह्मणवादी राज्य स्थापित करने की लड़ाई के लिए गांधी को ही मार डाला.
इन दोनों के सशस्त्र विद्रोह का अंत भी अजीब तरीक़े से हुआ. कम्युनिस्ट आंदोलन सशस्त्र विद्रोह को वापस लेते हुए अपने हज़ारों कॉमरेड्स को नेहरू-पटेल की फौज के सामने पेश कर उनकी हत्या करवा दिया और नेहरू की सरकार में साझेदार बन गये. तो वहीं दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों (आरएसएस) गांधी की हत्या का कलंक अपने माथे चिपकाकर हत्यारे को नेहरू-पटेल के हवाले कर दिया, जिसने उसे फांसी पर लटका दिया और देश की जनता के बीच बदनामी का चादर ओढ़ लिया.
कालांतर में दोनों ही धड़े अपने अपने तरीकों से लड़ाई को फिर से शुरू किया. कम्युनिस्टों ने समाजवाद का सपना आंखों में संजोये चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओ को अपना आदर्श मानते हुए नवजनवादी क्रान्ति का नारा देते हुए चारु मजुमदार के नेतृत्व में 1967 में नक्सलबाड़ी सशस्त्र आंदोलन को खड़ा करते हुए सत्ता से दूर होती गई. तो वहीं दक्षिणपंथी आरएसएस ने रामराज्य और मनुस्मृति की ब्राह्मणवादी अवधारणा के सपनों के साथ हजारों संगठनों का निर्माण कर सत्ता से गलबहियां करते हुए धूर्तता और कपट के सहारे सत्ता पर पहुंच बनाने लगी.
नेहरुबियन आजादी के कर्णधारों ने अपनी गलतियों और सॉफ्ट हिन्दुत्व की ताकतों के सामने झुकते हुए उसने कम्युनिस्ट क्रांतिकारी अर्थात नक्सलबाड़ी आंदोलन के महासचिव समेत 20 हजार से अधिक युवाओं की हत्या करके 1972 तक उसे हासिये पर धकेल दिया. तो वहीं इस दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी ताकतों ने जनता के आक्रोश का फायदा उठाकर 1974 के जेपी आंदोलन के सहारे कांग्रेस को सत्ता से हटाकर देश की सत्ता में अपनी पहुंच बना ली.
लेकिन कांग्रेस ने जल्दी ही वापसी कर नेहरुबियन आजादी को वापस ले आया लेकिन दोनों ही उसके विरोधी अपने अपने तरीकों से एट बार फिर सत्ता के खिलाफ तैयारी में जुट गये. कालान्तर में इसका परिणाम जो निकलकर आया, वह यह कि कांग्रेस के कर्णधार हासिये पर धकेल दिये गये हैं और कभी हासिये पर धकेल दिये गये दोनों ही धड़े (वामपंथी और दक्षिणपंथी) अपनी अपनी जमीन तैयार कर कर लिये.
वामपंथी कम्युनिस्ट धड़े ने देश के विभिन्न सशस्त्र समूहों को मिलाकर सीपीआई (माओवादी) की की स्थापना कर देशभर में अपनी जनताना सरकार को स्थापित कर लिया है, तो वहीं दक्षिणपंथी आरएसएस ने 2014 में मोदी-शाह के नेतृत्व में देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया है. इतना ही नहीं देश की तमाम नेहरुबियन संवैधानिक संस्थाओं पर अपने समर्थकों को घुसाकर लगभग सत्ता पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है.
यह बिडंबना ही कही जायेगी कि कभी 1947 की आजादी की बात करने वाले नेहरुबियन मध्यमार्गी के कर्णधार आज यह कहने के लिए विवश हैं कि ‘आज चुनाव कोई मायने नहीं रखता. आरएसएस ने देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा कर लिया है. चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक, ईडी, सीबीआई से लेकर अन्य तमाम संस्थाएं आरएसएस के इशारे पर विरोधियों को खत्म कर रही है.’
खैर, नेहरुबियन समाजवाद के कर्णधार अपनी गलतियों से चाहे आज जिस.स्थिति में हो लेकिन इसका फायदा दोनों ही समूहों ने जमकर उठाया. लेकिन असली लड़ाई तो अब हो रही है इन दोनों परस्पर विरोधी समूहों के बीच. अर्थात, वामपंथी आंदोलन के सशस्त्र समूह सीपीआई (माओवादी) बनाम भारत की सत्ता और संस्थानों पर कब्जा जमाये आरएसएस के गुंडों के बीच. यह संयोग की ही बात है कि आरएसएस गुंडों को भारतीय पुलिस और सेनाओं का भी सहयोग मिल रहा है.
जैसा कि आरएसएस का एजेंट मोदी ने घोषणा किया है कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन वामपंथी है. और इसीलिए उसका गुंडा सरगना अमित शाह ने पिछले साल घोषणा किया था कि वह 31 मार्च 2026 तक देश से ही सीपीआई (माओवादी) को खत्म कर देगा. यही कारण है कि सीपीआई (माओवादी) के सबसे मजबूत दुर्ग दण्डकारण्य में माओवादियों के खिलाफ लाखों की तादाद में अपने गुंडों समेत पुलिसिया गुंडों को हत्या और बलात्कार करने का खुला छुट दे दिया है.
जैसा कि मैंने कहा है माओवादी बनाम संघ की यह लड़ाई दो विपरीत दिशा में जाने वाले लोगों के बीच लड़ी जाने वाली असली लड़ाई है. यह पूर्ण युद्ध है एक दूसरे को खत्म कर देने की. यह युद्ध अत्यंत ही भयावह व क्रूर होगी. हजारों, लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की जाने जायेगी. अगर हम 1949 में हुई चीनी क्रांतियों के हवाले से समझना चाहे तो 1949 में चीन की आबादी 44 करोड़ थी, जिसमें तकरीबन 10 करोड़ लोगों ने अपनी जानें गंवाई. अभी भारत की आबादी 144 करोड़ है. इस हिसाब से अगर हम शुद्ध गणितीय हिसाब ही लगा लें तो 144 ÷ 44 = 3.25 यानी, 10 x 3.2 = 32.5 यानी, तकरीबन साढ़े 32 करोड़ लोगों की जाने जायेगी.
इतनी जानें जाने के बाद ही भारत के मेहनतकश लोगों को चीन जैसी आजादी मिल सकेगी. जहां वह सचमुच का विश्व गुरु बन सकेगा. अन्यथा, संघियों के के जीत जाने और सीपीआई (माओवादी) के हार जाने की सूरत में भारत की जनता फिर से संघियों के मानवता विरोधी घृणास्पद ब्राह्मणवादी मनुस्मृति के तहत घृणित जीवन व्यतीत करेगी, जहां 3 प्रतिशत ब्राह्मण राज करेंगे और 90 प्रतिशत लोग शुद्र बनकर उनकी सेवा करेंगे. जहां न तो उसे पढ़ने की आजादी मिलेगी और न ही जीने की. औरतें फिर से उसी पुरानी बेड़ियों में जकड़ दी जायेगी जहां सती होना उसका नसीब होगा.
माओवादियों और संघियों के बीच चल रहे इस जीवन मौत का संघर्ष यह तय करेगा कि भारत की जनता का भविष्य क्या होगा. अगर माओवादी जीतते हैं तो चीन जैसा स्वर्णिम भविष्य बनेगा और अगर संघी जीतता है तो भारत का भविष्य क्या होगा उपर बता चुके हैं. आज़ादी सदैव अपना क़ीमत वसूलती है. और वह कीमत खून से दी जाती है. भारत की जनता के लिए यह कीमत साढ़े तीस करोड़ लोगों की मौत है.
सवाल है क्या भारत की मेहनतकश जनता अपने उज्जवल भविष्य के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहादत के रूप में यह कीमत चुकायेगी या मोदी-शाह जैसे संघी गुंडों के जाल में फंसकर घृणित तरीक़े से तिल तिल मरते हुए मनुस्मृति की दासत्व को क़बूल करेगी ?? दोनों ही स्थिति में साढ़े तीस करोड़ लोगों की मौत निश्चित है, चयन आपका है.
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माओवादी कौन हैं और वह क्यों लड़ रहे हैं ? क्या है उनकी जीत की गारंटी ?
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