आज चुनाव आयोग की ओर से चुनावी परिणाम की औपचारिक घोषणा लगभग कर दी गई है. पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा ने लगभग 4 राज्यों में बुलडोजर की सरकार बना लेगा, इसके साथ ही चुनाव आयोग की ‘निष्पक्षता’ की भी घोषणा कर दी जायेगी. ‘चुनाव’ में भाजपा की यह जीत कोई आकस्मिक या अप्रत्याशित नहीं है. चुनाव की घोषणा के पहले ही इस परिणाम की संभावना दीख रही थी. जिस तरह चुनाव घोषणा होने से पहले ही प्रधानमंत्री कार्यालय के बहाने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा चुनाव आयोग को बुलाकर निर्देश दिया गया, उसकी जमीनी झलक खूब दीखी. यह पूरे 70 साल के इतिहास में पहली बार हुआ था, जब चुनाव आयोग को प्रधानमंत्री कार्यालय बुलाया गया था.
चूंकि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करना उसके दूरगामी लक्ष्य के लिए बेहद जरूरी था, इसीलिए अन्य चार राज्यों में चुनाव के लिए एक चरण निर्धारित किया गया था, वहीं उत्तर प्रदेश में आठ चरणों में चुनाव तिथियां घोषित की गई, जो भाजपा के लिए चुनाव जितने हेतु बेहद जरूरी था ताकि अपनी शक्तियों को एक साथ सभी इलाकों में बांटने के बजाय एक साथ संगठित कर हमला कर सके.
इसके साथ ही चुनाव आयोग ने जिस तरह भाजपा के सभाओं में खाली कुर्सियां दीखी, और अखिलेश यादव की सभाओं में भीड़ उमरी, उसकी काट के लिए चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश में चुनावी सभाओं को ही प्रतिबंधित कर दिया ताकि समाजवादी पार्टियों समेत अन्य दलों को चुनाव प्रचार करने के लिए व्यापक मंच न मिल सके. मायावती को पूरी तरह अपने में समाहित कर चुकी भाजपा ने मायावती और उसकी पार्टी को विपक्षी पार्टियों के खिलाफ खड़ा कर दिया.
उत्तर प्रदेश में आठ चरणों में निपटाये जा रहे चुनावों के दौरान ईवीएम की हेराफेरी उतनी नहीं की गई, जितनी उम्मीद की गई थी. दरअसल भाजपा के लिए चुनाव बूथ पर ईवीएम की हेराफेरी करना बदनामी भरा और बेहद जोखिम से भरा तरीका था, इसलिए चुनाव आयोग की मदद से इसके लिए जो तरीका अपनाया गया वह था – सभी चरणों के चुनावों के बीत जाने के बाद असली चुनाव में शामिल होना, जो बड़े पैमाने पर किया गया.
इस सबके बाद भाजपा ने जिस तरीके को अपनाया वह था चुनाव के हर चरणों में लगभग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनावी मौजूदगी, चाहे वह मीडिया के माध्यम से हो अथवा अपनी भौतिक उपस्थिति देकर, जो इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री पद पर बैठे लोगों के लिए संभव नहीं था. यहां तक राहुल गांधी तक को इसी कारण पिछले चुनाव में चुनाव आयोग ने बैन कर दिया था.
इस सब के आलावे, जैसा कि अखिलेश यादव कहते हैं कि मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट के मुख्य सचिव ज़िलाधिकारियों को मौखिक निर्देश दे रहे हैं कि जहां बीजेपी का उम्मीदवार हार रहा हो या अंतर पांच हज़ार से कम हो, वहां धीमी गति से गिनती कराएं ताकि ईवीएम को ठीक तरीके से सलटाया जा सके या मतपत्रों को गायब किया जा सके. इसको उत्तर प्रदेश चुनाव में बड़े पैमाने पर देखा गया है. इसीलिए यह कहा गया कि असली चुनाव तो अंतिम चरण के चुनाव की नौटंकी के बाद 7 मार्च की शाम से लेकर आज की गिनती तक ही हुई है. बांकी सब महज एक ढकोसला था.
बड़े पैमाने पर चुनाव में चल रहे इस गोरखधंधे के खिलाफ कोई विरोध न करे इसलिए बकायदा इस बात की घोषणा कर दी गई कि जो कोई विरोध करेगा, उसे सीधे मौके पर ही गोली मार दी जायेगी. फासिस्ट विरोध से इसी तरह निपटता है और जनता को भी फासिस्टों से ठीक इसी तरह निपटना होगा, और कोई रास्ता नहीं. बहरहाल, वरिष्ठ पत्रकार रविश कुमार इस असली चुनाव के गोरखधंधा के बारे में बताते हैं –
लोकतंत्र की चोरी को लेकर अखिलेश चुप रह जाते तो इतने एक्शन नहीं लिए जाते. मतगणना शुरू होने से पहले बनारस, सोनभद्र, बरेली और संत कबीरनगर में अलग अलग मामलों में अधिकारियों को निलंबित किए जाने, हटाए जाने और मुकदमा दर्ज करने की ख़बर आई है. इन सभी घटनाओं ने दस मार्च की गिनती को लेकर लोगों के भरोसे को झकझोर दिया है.
मेरा सवाल है कि जिन चीज़ों को सपा के कार्यकर्ताओं ने उजागर किया है, उसे मतगणना से जुड़े अधिकारियों ने क्यों नहीं पकड़ा ? ये अधिकारी क्या कर रहे हैं ? क्या प्रशासन रात भर नहीं जाग रहा, क्या वह नज़र नहीं रख रहा कि कहीं कोई चूक न हो जाए ? तब फिर यह शक क्यों नहीं किया जाए कि अधिकारी कुछ गड़बड़ कर सकते हैं ? चुनाव आयोग ने किसी को हटाया, किसी को निलंबित किया ठीक है लेकिन उसे इन सभी को बर्खास्त करना चाहिए. ऐसी हरकतों से आयोग की साख कमज़ोर होती है इसलिए इसकी सज़ा निलंबन और तबादले जितनी नरम नहीं होनी चाहिए.
अखिलेश यादव के लिए प्रेस कांफ्रेंस कर सवाल उठाना आसान नहीं था. उन्हें पता होगा कि गोदी मीडिया का तंत्र हमला कर देगा. वही हुआ भी. अखिलेश ने ईवीएम पर सवाल नहीं उठाए थे बल्कि प्रशासन की लापरवाही और मिलीभगत का आरोप लगाया था. अखिलेश यादव का आरोप था कि मुख्यमंत्री के मुख्य सचिव ज़िलाधिकारियों को मौखिक निर्देश दे रहे हैं कि जहां बीजेपी का उम्मीदवार हार रहा हो या अंतर पांच हज़ार से कम हो, वहां धीमी गति से गिनती कराएं. अखिलेश ने कहा कि इसके पुख्ता सबूत हैं.
बिहार में धीमी मतगणना और बाद की कुछ सीटों पर परिणाम पलटने के आरोप आज तक लगाए जाते हैं. इस संदर्भ में आयोग को आगे आना चाहिए और पूरी सूची देनी चाहिए कि कहां कहां पर ईवीएम पहले से ज्यादा है औऱ कहां कहां पर कितना समय लगेगा, बल्कि आयोग को इसका विज्ञापन अखबारों में छपवाना चाहिए ताकि लोग संदेह न करें.
अखिलेश यादव की प्रेस कांफ्रेंस के बाद गोदी मीडिया ऐंकर चिल्लाने लगे कि हार रहे हैं इसलिए ईवीएम का रोना रहे हैं जबकि अखिलेश ने आरोप कुछ और लगाए थे. आख़िर आयोग ने गड़बड़ी पाई तभी तो कार्रवाई हुई है. मतगणना से संबंधित किसी भी प्रक्रिया में चूक क्यों होनी चाहिए, खासकर ऐसे माहौल में जब चुनाव आयोग की भूमिका भी मुद्दे का रूप ले चुका है.
बड़ी चूक बनारस में हुई है. अखिलेश यादव ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि चुनाव आयोग का निर्देश है कि किसी कारणवश ईवीएम को दूसरी जगह पर ले जाया जाता है तो उसकी सूचना सभी दलों को देनी है. सभी सहमत होंगे तभी व्यापक सुरक्षा में ईवीएम को दूसरी जगह पर ले जाया जाएगा. इसकी सूचना नही दी गई.
ज़िलाधिकारी ने भी माना कि ईवीएम को 9 तारीख की सुबह ट्रेनिंग के लिए निकालना था. एडीएम ने जिलाधिकारी को बिना जानकारी दिए 8 तारीख की शाम को निकाल दिया जिसे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता ने पकड़ा और बवाल हुआ. एक शाम पहले ट्रक में भर कर ईवीएम कैसे निकाली जा सकती है ? क्यों नहीं संदेह करना चाहिए कि इरादा कुछ गलत करने का था ? आज एडीएम आपूर्ति नलिनी कांत सिंह को चुनाव आयोग ने संस्पेंड कर दिया है.
सोनभद्र के एसडीएम को हटाया गया है. यहां सपा कार्यकर्ताओं ने दो ट्रक पकड़े जिसमें बैलेट पेपर थे. अधिकारी ने कहा कि सादी पर्चियां थी. इनका इस्तेमाल नहीं हुआ था. फिर खबर आई कि एस डी एम को हटा दिया गया. जिस तरह से बैलेट पेपर को लेकर अफ़वाह उड़ी है, उसे देखते हुए आयोग को आगे आकर भरोसा देना चाहिए कि गड़बड़ी नहीं होगी.
चुनाव के दौरान भी बैलेट पेपर को लेकर कई ख़बरें आती रहीं जिसे लोगों ने ध्यान नहीं दिया लेकिन अब तो हर ऐसी आशंका से भगदड़ मचने लग जाएगी इसलिए आयोग को बैलेट पेपर की गिनती को लेकर और अधिक पारदर्शिता बरतनी चाहिए, नई व्यवस्था बनानी चाहिए ताकि नतीजे के साथ साथ आशंकाएं भी उसी समय ख़त्म हो जाएं.
संत कबीरनगर में एक सरकारी कर्मचारी के खिलाफ मुकदमा दायर हुआ है. उसे निलंबित भी किया गया है. ज़िलाधिकारी का दिव्या मित्तल ने ट्विट कि है खलीलाबाद के लेखपाल नागेंद्र सिंह के पास से ईवीएम मशीन में लगाई जाने वाली दो पर्ची मिली है. सपा के कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि बैलेट पेपर के साथ मुहर थी. सवाल है कि ये सब सपा के कार्यकर्ता क्यों पकड़ रहे हैं ? क्या सपा चुनाव आयोग है तो चुनाव आयोग कहां है और क्या है ?
बरेली में कूड़े की गाड़ी में तीन संदूक मिले. सपा वालों ने हंगामा किया कि बैलेट पेपर हैं लेकिन प्रशासन ने कहा कि बैलेट पेपर नहीं हैं बल्कि मतगणना में इस्तेमाल किए गए कुछ दस्तावेज औऱ सामग्री थी तो क्या कोई भी पेपर कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाएगा ? सपा के कार्यकर्ता हंगामा न करते तो रिटर्निंग अफसर एसडीएम बहेड़ी पारुल तरार को नहीं हटाया जाता. उन्हें हटाया ही गया कि गड़बड़ी हुई है.
आयोग के द्वारा सख्त कदम उठाए जाने के बाद अब नहीं कहा जा सकता है कि सपा के कार्यकर्ताओ की मुस्तैदी हार के डर के कारण थी. किसे मालूम कि कहां-कहां क्या हो रहा है. लोकतंत्र में भरोसा कमाने की ज़िम्मेदारी संस्थाओं की होती है. चुनाव के दौरान भी आयोग को लेकर सवाल उठते ही रहे.
अच्छी बात है कि आयोग ने तुरंत एक्शन भी लिया लेकिन इन घटनाओं ने लोगों के विश्वास को हिला दिया है. नतीजे आने के बाद तक इसी को लेकर बहस चलती रहेगी कि दस मार्च को जो आया वो जनता का फैसला था या किसी और का.
अशफ़ाक़ अहमद इस ‘असली चुनाव’ को और करीने से लिखते हैं –
हाल फिलहाल एक नया फैशन चल निकला है कि किसी भी संदेहास्पद घटना, या चुनाव परिणाम को प्रभावित करने वाली किसी धांधली की तरफ अगर विपक्ष का कोई बयान आता है तो सोशल मीडिया के तथाकथित बुद्धिजीवियों के हिसाब से विक्टिम कार्ड खेलना और रंडी रोना हो जाता है. यानि इनके हिसाब से जो आंख के सामने पड़ी मक्खी निगलने से इनकार कर रहा है, वह विक्टिम कार्ड खेल रहा है या पहले से रंडी रोना कर रहा है. बहादुरी तभी होती जब वह चुपचाप वह मक्खी निगल लेता.
अभी रिजल्ट का कुछ पता नहीं है लेकिन इन बुद्धिजीवियों ने जान लिया है कि भाजपा जीत गयी है और अब विपक्ष में कोई कुछ बोलेगा तो बस पहले से बहानेबाजी तैयार कर रहा है. यानि जो भी सामने दिख रहा है, वह चुपचाप एक्सेप्ट कर लीजिये.
कल वाराणसी में ईवीएम से भरा ट्रक पकड़ा गया, एक्सक्यूज दिया गया कि ट्रेनिंग के लिये ले जाई जा रही थी. ट्रेनिंग के लिये ट्रक भर के ले जाई जा रही थीं ? फिर तो उससे सम्बंधित कागज भी होंगे, इशू करने वाले अधिकारी भी होंगे, तो भागने की क्या जरूरत थी ?
बरेली में कचरे की गाड़ी में ईवीएम पकड़ी गईं, एक्सक्यूज पता नहीं चला लेकिन ऐसी क्या जरूरत हो सकती है कि कचरे की गाड़ी में ईवीएम ढोई जायें ? सोनभद्र में पोस्टल बैलेट ले जाते एसडीम पकड़े गये, एक्सक्यूज दिया गया कि बचे हुए बैलेट ले जा रहे थे, क्यों इतनी आफत मची है बचे हुओं को ढोने की? क्या उन पर आगे मनमाफिक मोहर लगा कर उन्हें काउंटिंग में शामिल नहीं कराया जा सकता ? पूरा प्रशासन, सुरक्षा में लगी सीआरपीएफ, काउंटिंग में लगने वाले कर्मचारी और चुनाव आयोग पर भाजपा का कंट्रोल नहीं है ?
ईवीएम हैक हो सकती है, नहीं हो सकती, वह मैटर बिलकुल अलग है लेकिन उन्हें दूसरी ओरिजिनल ईवीएम से किसी न किसी मोड़ पर रिप्लेस तो किया जा सकता है जबकि प्रशासनिक भागीदारी सत्ता के पक्ष में हो. जो ईवीएम चुनाव में यूज होती है, वह लोकल एजेंट्स के सामने सील होती है और उसी सील के साथ काउंटिंग के समय उसे खोला जाता है लेकिन वहां कौन देखने वाला होता है कि यह वही सील और साईन है.
मतलब मैंने भी यह एजेंट की भूमिका निभाई है, और अपने बूथ की ईवीएम अपने सामने सील कराई है लेकिन काउंटिंग में देखने के लिये तो मैं नहीं था. बाकी फिगर नोट सबने कर रखी होती है, जिससे अगर आगे उन ईवीएम को मैनीपुलेटेड ईवीएम से रिप्लेस करना हो तो उनका इस्तेमाल हो सकता है. इसे प्रशासन ही तो रोक सकता है जो अगर सत्ता के हाथ खड़ा हो जाये तो दूसरा तरीका क्या है ऐसा न होने देने का ?
आखिर कई लाख ईवीएम गायब दर्ज हैं, क्यों गायब हैं और कहां गायब हैं ? क्या यह खेलने की चीज है ? ड्राईंग रूम में सजाने की चीज है ? किस मकसद से इतने बड़े पैमाने पर ईवीएम गायब की गई होंगी ? फिर गौर कीजिये कि अगर जायज वजहों से यह मतगणना से पहले रिजर्व ईवीएम आवारा होकर हर राज्य में ऐसे ही नाचती फिरती हैं तो अक्सर यह भाजपा शासित राज्यों में ही क्यों पकड़ी जाती हैं ? बाकी राज्यों में क्यों नहीं पकड़ी जातीं ?
चुनाव यूपी में हो रहे हैं, आलरेडी इतनी बड़ी पुलिस फोर्स है, एक विशाल पीएसी बल है, केंद्र से सीआरपीएफ भेजी जाती है लेकिन यूपी चुनाव में गुजरात पुलिस घुसा दी जाती है, क्यों भला ? पुलिस की कमी थी, या अपने नियंत्रण वाली पुलिस पर भाजपा को भरोसा नहीं था ?
मुख्य सचिव अधिकारियों को बाकायदा फोन करके कह रहा है कि जहां भाजपा नजदीकी अंतर से हार रही हो, वह सीटें वे मैनेज कर दें, अखिलेश प्रेस कांफ्रेंस करके सीधे-सीधे यह इल्जाम लगा रहे हैं और चुनाव आयोग को कह रहे हैं कि वह चाहे तो वे सबूत उपलब्ध करा दें. आपको लगता है कि उस चुनाव आयोग की इतनी हिम्मत है कि वह सबूत लेकर मुख्य सचिव के खिलाफ कोई कार्रवाई करे ? नहीं करेगा और अपने जानते बूझते ऐसा होने भी देगा, क्या यह आपके लिये नार्मल बात है ? और अगर इस पर सवाल उठाया जाये तो वह विक्टिमहुड है, रंडी रोना है ? बहादुरी तब ही है जब चुपचाप ऐसा होने दिया जाये ?
अधिकारी कैसे मैनेज करेंगे ? इन्हीं बैलट पेपर का इस्तेमाल करके, साढ़े आठ तक जो गिन गये, वो गिन गये, बाद वालों का नंबर ही न आने दिया जायेगा. चुनाव में कई प्रत्याशी होते हैं, कमजोर या शुरु से ही हार रहे प्रत्याशी अपने एजेंट्स के साथ चले जाते हैं. अंत में उनमें से भी ढेरों वोट अधिकारी भाजपाई प्रत्याशी के खाते में काउंट करा देते हैं. दो हजार वोट तक की हेराफेरी बड़े आराम से अधिकारी/कर्मचारी करा सकते हैं यह प्रयोग हाल ही में गुजरात और बिहार में दोहराया गया था. अब अगर ऐसी आशंकाओं को बताया जाये, उनसे बचने की तरकीबें शेयर की जायें तो वह विक्टिम कार्ड खेलना है, रंडी रोना है ?
अजीब मूर्खों का और सैडिस्टिक प्लेजर लेने वाला देश बना दिया है भाजपा ने. यहां अपने सामने लोकतंत्र की अर्थी उठते देखते रहो तो आप कूल हो, बुद्धिजीवी हो और अगर किसी भी अनियमितता/सामने दिखती खुली धांधली के खिलाफ बोलोगे तो मतलब आपने मान लिया है कि हार गये हैं, इसलिये विक्टिम कार्ड खेल रहे हैं, रंडी रोना कर रहे हैं.
चुनाव आयोग की इस असली चुनाव के बाद हमें भारत में नक्सलवाद के जनक चारू मजूमदार द्वारा किया गया घोषणा कि – चुनाव एक ढ़ोंग है, इसका बहिष्कार करो, को याद रखना चाहिए क्योंकि जैसा कि सर्वहारा के चौथे महान शिक्षक स्टालिन कहते हैं – ‘फासिस्ट के साथ बहस नहीं की जाती, उसको केवल खत्म किया जाता है.’ भाजपा और उसके जरखरीद गुलामों से बहस नहीं किया जा सकता है, उसके कुतर्कों का जवाब नहीं दिया जा सकता, चुनाव के नाम पर तो कतई नहीं.
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