70 के दशक में नक्सलबाड़ी से आवाज समूचे देश में गूंजी थी – चुनाव का बहिष्कार करो. तब से हर गुजरते वक्त के साथ इस नारे की गूंज और गहरी होती चली गईं है और आज यह दिन के उजाले की इतना इतना साफ हो चुका है कि बिकी हुई मीडिया और सरकारी तंत्र भी इसे छिपा पाने में नाकाम हो गई है. गाहेबगाहे विरोध करने वाली सुप्रीम कोर्ट की भी घिग्घी बंध गई है और हलक से आवाज तक नहीं निकल पा रही है. इसी से पता चलता है कि चुनाव की निर्थकता को समझाने और समझने के लिए नक्सलबाड़ी से निकली आवाज कितनी सटीक है.
मौजूदा वक्त में होने वाली हर चुनाव खासकर गुजरात विधानसभा चुनाव ने तो इस चुनाव की विभत्स तस्वीर ला खड़ी की है, जिसका खुद मोदी का दलाल सुप्रीम तक ने थुक्का फजीहत किया और रातोंरात मुख्य चुनाव आयोग के पद पर तैनात किये मोदी के दल्ला को खूब खरीखोटी सुनाया. वाबजूद इसके चुनाव आयोग के नाम पर बूथ से लेकर काऊंटिंग तक हर चीज को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पद पर बैठा एक गुंडा मनमाफिक नियंत्रित किया और गुजरात चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए हर पैतरे आजमाये गये.
विरोधी उम्मीदवारों को फोन पर बकायदा प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनाव मैदान से हटने तक की धमकी भी दी गई, जिसकी रिकार्डिंग वायरल हो गई. इतना ही नहीं, चुनाव मैदान में भारी पड़ रहे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को धमकियां दी गई, सीबीआई, ईडी का खौफ दिखाया गया, जब इससे भी बात नहीं बनी तो परिवार समेत उसका अपहरण कर मारा पीटा गया और चुनाव से नामांकन रद्द करवाया. यह सब बकायदा पुलिसिया संरक्षण में अंजाम दिया गया.
गुजरात चुनाव के ठीक बाद हुए दो सीटों के उपचुनाव ने तो भारत में चुनावी राजनीति पर प्रश्नचिन्ह नहीं, पूर्णविराम लगा दिया. इसको इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष लालबहादुर सिंह ने चुनाव प्रक्रिया को भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये खौफनाक मानते हुए जो लिखा वह रौंगटे खड़ा कर देता है. लालबहादुर सिंह लिखते हैं –
हाल में हुए रामपुर उपचुनाव में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिये खौफनाक सन्देश छिपे हुए हैं. जाहिर है गोदी मीडिया में इस पर कोई खास चर्चा नहीं है, लेकिन विपक्षी दल भी इसको लेकर गम्भीर नहीं हैं, यह चिंता का विषय है. तमाम राजनीतिक विश्लेषक गुजरात, हिमाचल, दिल्ली MCD पर तो गहन चर्चा में लगे हैं, लेकिन रामपुर पर सन्नाटा पसरा हुआ है. गुजरात में भाजपा की रिकॉर्ड सीटों पर जीत की चर्चा तो हो रही है, लेकिन एक बड़ा इतिहास रामपुर में भी बना है.
1952 के बाद हुए 19 चुनावों में यह पहला मौका है जब रामपुर में कोई गैर-मुस्लिम उम्मीदवार जीता है. यह महत्वपूर्ण इसलिये है क्योंकि रामपुर कश्मीर के बाहर देश के उन चंद क्षेत्रों में है जहां मुस्लिम आबादी 50% से अधिक है, लगभग 65%. स्वाभाविक है वहां आमतौर पर विभिन्न दल मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करते रहे हैं और उनमें से ही कोई जीतता रहा. यहां तक कि UP में कोई मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा न करने वाली भाजपा को भी एक समय रामपुर से मुख्तार अब्बास नकवी को खड़ा करना पड़ा था.
पर इस बार 75 साल का वह इतिहास बदल गया. भाजपा के आकाश सक्सेना ने सपा के आसिम रजा को भारी अंतर से हरा दिया. सक्सेना को 62% मिला जबकि आसिम रजा को मात्र 36% ! यह चमत्कार कैसे हुआ, इसकी कहानी रामपुर में मतदान के आंकड़े खुद ही बयान करते हैं. रामपुर में जहां इसी साल फरवरी 2022 में 56.65% वोट पड़ा था, इस बार मात्र 33.97% मतदान हुआ जबकि बगल के खतौली में 57% मतदान हुआ.
बहरहाल, इस कहानी का असल सच तब सामने आता है जब आप इस मतदान का break-up देखते हैं. मुस्लिम-बहुल शहरी क्षेत्र में कुल मतदान मात्र 28% हुआ, जबकि हिन्दू-बहुल ग्रामीण क्षेत्र में 46% !, फिर रामपुर शहर के अंदर जहां हिन्दू-बहुल केंद्रों पर मतदान 46% था, वहीं मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में मात्र 23% ! मुस्लिम-बहुल कई बूथ पर मतदान 4%, 5%, 7% तक ही रहा ! जबकि हिन्दू-बहुल क्षेत्र के बूथ पर अधिकतम मतदान 74% तक रहा और न्यूनतम 27%.
सच्चाई अब पूरी दुनिया के सामने उजागर हो चुकी है. वहां के मतदाताओं का आरोप है कि सरकारी मशीनरी और बलों का दुरुपयोग करते हुए बड़े पैमाने पर मुस्लिम मतदाताओं को मतदान से वंचित कर दिया गया. टीवी चैनल और सोशल मीडिया में ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं जिसमें मुस्लिम इलाकों के चौराहों पर उच्च-अधिकारियों के साथ भारी बल मौजूद है और लोग आरोप लगा रहे हैं कि उन्हें मतदान-केन्द्र तक जाने नहीं दिया जा रहा है.
भय और आतंक का ऐसा माहौल बनाया गया कि बुर्काधारी महिलाओं समेत तमाम मतदाताओं के लिए मतदान-केन्द्र तक पहुंचना असम्भव हो गया. शायद वहां इतने मुसलमानों को ही वोट देने दिया गया जितने से भाजपा की smooth victory में विघ्न-बाधा न पड़े !
विपक्ष के कद्दावर नेता आज़म खां को केंद्र कर पिछले सालों में जो हुआ है (जिस पर सर्वोच्च न्यायालय को भी टिप्पणी करनी पड़ी थी), और अंततः जिस तरह रामपुर को आज़ादी के बाद के 75 साल से जारी मुस्लिम प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया गया है और पहली बार वहां कमल खिला दिया गया है, उससे यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या हम रामपुर में भविष्य के ऐसे क्षेत्रों के चुनावों की झांकी देख रहे हैं ? क्या रामपुर आने वाले दिनों का चुनावों का नया template बनेगा ? क्या रामपुर संघ-भाजपा के लिए चुनाव के एक नए पैटर्न का टेस्टिंग ग्राउंड है, गुजरात मॉडल के आगे का UP संस्करण ?
क्या देश की कोई संवैधानिक/न्यायिक संस्था, सर्वोपरि चुनाव आयोग जनता और विपक्ष के आरोपों की जांच करवायेगा ? सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता सुलेमान मो. खान ने याचिका दाखिल किया कि रामपुर में हर सम्भव तरीके से मुस्लिम बहुल इलाके में लोगों को मतदान के अधिकार के प्रयोग से रोक दिया गया. बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कि कोई urgency नहीं है, उनसे स्थानीय न्यायालय में जाने को कहा है. रामपुर में जो हुआ है, उसके निहितार्थ बेहद खौफनाक हैं.
यह 2022 के UP विधानसभा चुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ अभूतपूर्व मुस्लिम ध्रुवीकरण का राजनीतिक प्रतिशोध और उसकी काट है. जाहिर है जहां इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी है वहां अगर यह हो सकता है तो अन्य जगहों पर क्या होगा ? इसका आख़िरी अंजाम यह होगा कि संसद-विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व खत्म हो जाएगा, क्योंकि खुद तो भाजपा उन्हें टिकट देगी नहीं, दूसरे दें तब भी वह उन्हें जीतने नहीं देगी.
क्या यह मुसलमानों को राजनीतिक अधिकार-विहीन, दोयम दर्जे के नागरिक में बदलने के सावरकर-गोलवलकर के हिन्दू राष्ट्र की अघोषित शुरुआत है ? क्या यह दूसरे तरीकों से NRC लागू करने का ड्रेस रिहर्सल है ? आखिर इसका अंत कहां होगा ? समाज और राष्ट्र को दो तरह के नागरिकों में बांटने के, 20 करोड़ अल्पसंख्यकों को राजनीतिक-नागरिक अधिकार से वंचित करने के इस खतरनाक खेल का अंजाम क्या होगा ?
कहना न होगा, हमारी राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहार्द के लिए इसके परिणाम विनाशकारी साबित होंगे. कश्मीरी जनता को निष्पक्ष मतदान और अपनी पसंद की सरकार चुनने के राजनीतिक अधिकार से वंचित करने का जो अंजाम हुआ है, उसे हमें भूलना नहीं चाहिए.
मतदाता सूची से विरोधी जनाधार के मतदाताओं के नाम काटने, EVM की गड़बड़ी, खराबी आदि के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करने जैसी आशंकाओं से तो लोग पहले से ही जूझ रहे थे, क्या अब आने वाले दिनों में रामपुर की तरह ही दलितों व समाज के अन्य कमजोर तबकों समेत विपक्ष के साथ खड़े अन्य मतदाताओं को भी रोका जाएगा ?
आखिर सारी संवैधानिक व्यवस्था, कानूनी प्रक्रिया को ताक पर रखकर जब चुनाव होगा, लोकतन्त्र और चुनाव की जो न्यूनतम मूल बात है free and fair मतदान का अधिकार, उससे ही जब नागरिकों को वंचित कर दिया जाएगा, खेल के नियम ही बदल दिए जाएंगे तो पुराने ढंग से विपक्ष के मैदान में रहने का अर्थ ही क्या रह जायेगा ?
लालबहादुर सिंह का यह विश्लेषण भारतीय चुनाव व्यवस्था पर भरोसा करने वाले उन राजनीतिकबाजों के राजनीतिक चिंतन पर करारा तमाचा है जो हथियारबंद क्रांति के जरिये सत्ता पर कब्जा करने की लड़ाई को चुनाव के दलदल में ले जाकर भारत की क्रांतिकारी जनता के साथ गद्दारी कर दलाल पूंजीवादी व्यवस्था को मजबूती देने में जुट गया और भारतीय क्रांति की धार को भोथरा करने का दुश्चक्र रचा. इसके साथ ही चारु मजुमदार के नेतृत्व में ‘चुनाव बहिष्कार’ का लगाया नारा आज अपने असली अर्थ में राजनीतिक नारा बन गया है.
इस तथाकथित क्रांति और चारु मजुमदार की बात करनेवाले डरपोक राजनीतिक बाजों से तो कहीं ज्यादा बेहतर हिन्दुत्व की राजनीति करनेवाले वे फासिस्ट ताकतें हैं जो खुलेआम भारतीय संविधान और उसके बनाये ढ़ांचों को नकारते हुए ‘हथियार के बल पर सत्ता कब्जा’ करने की बात खुलेआम करते हैं और ऐसा करते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाते. अभी ही तपस्वी छावनी के ‘संत’ परमहंस ने खुलेआम कहा है कि ‘अगर 7 नवंबर 2023 के पहले भारत हिंदू राष्ट्र घोषित नहीं हुआ तो मैं आमरण अनशन करूंगा. और अगर फिर भी हिंदू राष्ट्र नहीं बना तो हम सब हथियार के बल से हिंदू राष्ट्र घोषित कर आएंगे.’
Read Also –
रेणु का चुनावी अनुभव : बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है, बदलाव चुनाव से नहीं बंदूक से होगा
चारु मजुमदार के शहादत दिवस पर उनके दो सैद्धांतिक लेख
फासिस्ट चुनाव के जरिए आता है, पर उसे युद्ध के जरिये ही खत्म कर सकते हैं
संसदीय चुनावों में भागीदारी का सवाल
संसदीय चुनाव और शर्मिला इरोम का 90 वोट
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, 1925-1967
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]