हिमांशु कुमार, गांधीवादी चिन्तक
दो साल पहले मैं हरदा जिले के खरदना गांव वालों के एक सत्याग्रह में शामिल होने गया था. गांव वालों के साथ करीब अट्ठारह घंटे पानी में खड़ा रहा. गांव वाले तो पिछले चौदह दिन से पानी में ही खड़े थे. कारण यह था कि पहले तो गांव वालों से बात किये बिना ही सरकारी अफसरों और नेताओं ने इंदिरा सागर नाम का एक बड़ा बांध बना दिया, फिर इस साल लोगों को ज़मीन के बदले ज़मीन दिए बिना ही सरकार ने बांध में पानी भर दिया.
लोगों के खेत और फसल डूब गयी. ज़मीन डूब गयी तो अब लोग क्या करें ? बच्चों को क्या खिलाएं ? लोगों ने कहा इस से तो अच्छा है कि सरकार हमारी ज़मीन के साथ साथ हमें भी डूबा दे सरकार की इस मनमर्जी के खिलाफ लोग पानी में जाकर खड़े हो गये.
देश भर में किसानों के इस विरोध प्रदर्शन के तरीके पर बड़ा आकर्षण पैदा हुआ. चारों ओर सरकार की आलोचना होने लगी. सरकार घबरा गयी लेकिन सरकार में बैठे लोग खुद को बहुत ताकतवर मानते हैं इसलिए सरकार ने पानी में खड़े महिलाओं और पुरुषों को ताकत का इस्तेमाल कर के निकालने का फैसला किया.
सरकार ने पानी में क़ानून की एक सौ चवालीस धारा लागू कर दी. शायद भारत में पहली बार पानी में यह धारा लागू की गयी थी. अगले दिन सुबह – सुबह पांच बजे लोगों पर पुलिस ने हमला शुरू किया. छोटे – छोटे बच्चों के साथ घरों में सोयी हुई महिलाओं और बूढों को पुलिस ने घरों के दरवाज़े तोड़ कर बाहर खींच कर निकालना शुरू किया. इसके बाद पानी में खड़े लोगों को बाहर निकालने के लिये पुलिस ने पानी में खड़े लोगों पर हमला किया. पुलिस के हमलों से बचने के लिये लोग ओर ज्यादा गहरे पानी में चले गये.
पुलिस ने मोटर बोटों में बैठ कर लोगों के चारों तरफ घेरा डाल दिया. इसके बाद पुलिस कमांडो ने पानी में घुस कर सभी सत्याग्रहियों को खींच कर बाहर निकाला. लोगों ने हालांकि कोई अपराध नहीं किया था. लोग तो अपने ही खेतों में खड़े थे. सरकार ने उनके खेत में बिना बताये पानी भर दिया था. किसानों की मेहनत से लगाई गयी सोयाबीन की फसल डूब गयी.
एक किसान मुझे रोते हुए बता रहा था कि भाई जी मैंने बीस हज़ार रुपया क़र्ज़ लेकर सोयाबीन की फसल बोई थी. अब मैं क़र्ज़ कहां से चुकाऊंगा ? अपने बच्चों को क्या खिलाऊंगा ?
सरकार ने लोगों के विरोध को कुचलने के लिये पूरे गांव को उजाड़ने की तैयारी कर ली. गांव की बिजली काट दी गयी. पीने के पानी के हैण्ड पम्प उखाड़ने की कोशिश की जाने लगी. सत्याग्रह करने वाले गांव वालों के घरों को तोड़ने के लिये सरकारी बुलडोज़र गांव में आ गये.
मुझे यह सब देख कर दो साल पहले बस्तर में अपने आश्रम को उजाड़े जाने के दृश्य याद आने लगे. तब भी सरकार ने पहले बिजली काटी थी, फिर पीने के पानी के हैंडपंप उखाड़े थे और फिर सरकारी बुलडोजरों ने आश्रम में बने घरों को कुचल दिया था क्योंकि हम सरकार द्वारा दंतेवाड़ा जिले के सिंगारम गांव में की गयी उन्नीस आदिवासियों की हत्या का मामला अदालत में ले गए थे.
अब जब गांव वालों के साथ-साथ जब पुलिस वाले मुझे घसीट रहे थे, बच्चे रो रहे थे. किसान औरतें और पुरुष नारे लगा रहे थे. मैं उत्साह और आशा के भावों से भरा हुआ था क्योंकि इन गांवों के कमज़ोर से दिखने वाले लोगों ने शक्तिशाली राज्य को इतना झकझोर दिया था कि किसी की परवाह ना करने वाला राज्य इन पर हमला करने पर आमादा हो गया था.
शायद कुछ ही वर्षों में इसी तरह से हम इस देश में करोड़ों गरीबों से उनकी ज़मीने ऐसे ही पीट पीट कर छीन लेगे. गरीब इसी तरह से विरोध करेंगे और हम ऐसे ही पुलिस से गरीबों को पिटवा कर उनकी ज़मीने छीन लेंगे. गरीबों से ज़मीनें छीन कर हम अपने लिये हाइवे, शापिंग माल, हवाई अड्डे, बांध, बिजलीघर, फैक्ट्री बनायेंगे और अपना विकास करेंगे.
हम ताकतवर हैं इसलिए हम अपनी मर्जी चलाएंगे ? ये गांव वाले कमज़ोर हैं इसलिए इनकी बात सुनी भी नहीं जायेगी ? सही वो माना जाएगा जो ताकतवर है ? तर्क की कोई ज़रुरत नहीं है ? बातचीत की कोई गुंजाइश ही नहीं है ? और इस पर तुर्रा यह कि हम दावा भी कर रहे हैं कि अब हम अधिक सभ्य हो रहे हैं ! अब हम अधिक लोकतान्त्रिक हो रहे हैं ! और अब हमारा समाज अधिक अहिंसक बन रहा है ! हम किसे धोखा दे रहे हैं ? खुद को ही ना ?
करोड़ों लोगों की ज़मीनें ताकत के दम पर छीनना, लोगों पर बर्बर हमले करना, फिर उनसे बात भी ना करना, उनकी तरफ देखने की ज़हमत भी ना करना, कब तक इसे ही हम राज करने का तरीका बनाये रख पायेंगे ? क्या हमारी यह छीन झपट और क्रूरता करोड़ों गरीबों के दिलों में कभी कोई क्रोध पैदा नहीं कर पायेगा ?
क्या हमें लगता है कि ये गरीब ऐसे ही अपनी ज़मीने सौंप कर चुपचाप मर जायेगे और रिक्शे वाले या मजदूर बन जायेंगे ? या ये लोग भीख मांग कर जी लेंगे और इनकी बीबी और बेटियां वेश्या बन कर परिवार का पेट पाल ही लेंगी ? और इन लोगों की गरीबी के कारण हमें सस्ते मजदूर मिलते रहेंगे ?
दुनिया में हर इंसान जब पैदा होता है तो ज़मीन, पानी, हवा, धुप, खाना, कपडा और मकान पर उसका हक जन्मजात और बराबर का होता है और किसी भी इंसान को उसके इस कुदरती हक से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि इनके बिना वह मर जाएगा. इसलिए अगर कोई व्यक्ति या सरकार किसी भी मनुष्य से उसके यह अधिकार छीनती है तो छीनने का यह काम प्रकृति के विरुद्ध है, समाज के विरुद्ध है, संविधान के विरुद्ध है और सभ्यता के विरुद्ध है.
हम रोज़ लाखों लोगों से उनकी ज़मीनें, आवास, भोजन और पानी का हक छीन रहे हैं और इसे ही हम विकास कह रहे हैं, सभ्यता कह रहे हैं, लोकतंत्र कह रहे हैं. यदि किसी व्यक्ति के पास अनाज, कपड़ा, मकान, कपडा, दूध, दही खरीद कर एकत्रित करने की शक्ति आ जाती है तो हम उसे विकसित व्यक्ति कहते हैं, भले ही वह व्यक्ति अनाज का एक दाना भी ना उगाता हो, मकान ना बना सकता हो, खदान से सोना ना खोद सकता हो, गाय ना चराता हो. अर्थात वह संपत्ति का निर्माण तो ना करता हो परन्तु उसके पास संपत्ति को एकत्र करने की क्षमता होने से ही हम उसे विकसित व्यक्ति कहते हैं.
बिना उत्पादन किये ही उत्पाद को एकत्र कर सकने की क्षमता प्राप्त कर लेना किसी गलत आर्थिक प्रणाली के द्वारा ही संभव है. और ऐसी अन्यायपूर्ण आर्थिक प्रणाली समाज में लागू होना किसी राजनैतिक प्रणाली के संरक्षण के बिना संभव नहीं है और यह सब सरकारी बंदूकों के बिना होना भी संभव नहीं है.
इस प्रकार के बिना कुछ भी पैदा किये अमीर व्यक्तियों के समूह द्वारा, गरीब किसान और मजदूरों के उत्पादन पर कब्ज़ा कर लेने को जायज़ मानने वाली राजनैतिक प्रणाली गरीब उत्पादकों की अपनी प्रणाली तो नहीं ही हो सकती. इस प्रकार की अव्यवहारिक, अवैज्ञानिक और अतार्किक और शोषणकारी आर्थिक और राजनैतिक प्रणाली मात्र हथियारों के दम पर ही टिकी रह सकती है और चल सकती है.
इसलिए अधिक विकसित वर्गों को अधिक हथियारों, अधिक सैनिकों और अधिक जेलों की आवश्यकता पड़ती है, ताकि इस कृत्रिम और अवैज्ञानिक राजनैतिक प्रणाली पर प्रश्न खड़े करने वालों को और इस प्रणाली को बदलने की कोशिश करने वालों को कुचला जा सके.
इसीलिये आज अमरीकी जेलों में सबसे ज़्यादा लोग बंद हैं और वो सभी गरीब हैं. भारत भी अब इसी रास्ते पर चल रहा है. भारत की जेलें भी गरीबों से भरी हुई हैं. बिना मेहनत के हर चीज़ का मालिक बन बैठे हुए अमीर वर्ग के लोग अपनी इस लूट की पोल खुल जाने से डरते हैं और इसलिए यह लोग इस प्रणाली को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली सिद्ध करने की कोशिश करते हैं.
इस नकली लुटेरी प्रणाली को यह लुटेरा वर्ग लोकतंत्र कहता है. इस प्रणाली को पवित्र सिद्ध करने की कोशिश करता है. इस फर्ज़ी लोकतंत्र को ये अमीर शोषक वर्ग के लोग, धार्मिक नेताओं, बनाए हुए नकली महापुरुषों, फ़िल्मी सितारों, मशहूर खिलाड़ियों और सारे पवित्र प्रतीकों की मदद से महान कहलवाता है.
सारी दुनिया में अब यह लुटेरी प्रणाली सवालों के घेरे में आ रही है. इस प्रणाली के कारण समाज में हिंसा बढ़ रही है लेकिन हम इस हिंसा का कारण नहीं समझ रहे और इस हिंसा को पुलिस के दम पर कुचलने की असफल कोशिश कर रहे हैं. देखना यह है कि गरीब मेहनती किसान और मजदूर की यह लूट अब और कितने दिन तक हथियारों के दम पर चल पायेगी ?
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