हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
हालांकि भ्रष्टाचार किसी भी क्षेत्र में हो, अस्वीकार्य है लेकिन विश्वविद्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार तो इतना गंभीर मामला है कि इसे एकदम नाकाबिलेबर्दाश्त की श्रेणी में रखना चाहिए. लेकिन, स्थितियां ऐसी हैं कि हमारे बिहार के अधिकतर कॉलेज और विश्वविद्यालय नितांत निचले किस्म के भ्रष्टाचार की गंदी नाली बन चुके हैं और इन बजबजाती नालियों से ऐसा जहर निकल रहा है, जो हमारे नौजवान छात्रों की नसों में घुलकर उनका करियर और उनका संस्कार बर्बाद कर रहा है.
बदतर यह कि बरसों से इन बजबजाती नालियों की गन्दगी को हमने स्वीकार कर इनके साथ जीना सीख लिया है. शिक्षक संघ मुर्दा हो चुके हैं, छात्र संघ अस्तित्वहीन की तरह हतोत्साहित और उपेक्षित हैं।
किसको दोष दिया जाए ? क्या बिहार की राजनीतिक संस्कृति को, जिसे अपने नौनिहालों की शिक्षा से और शिक्षालयों की बर्बाद होती संस्कृति से अधिक मतलब नहीं ? क्या शिक्षकों को, जिन पर दोष मढकर निश्चिंत हो जाने की कला समाज ने और मीडिया ने सीख ली है और निश्चिंत हो चुका है. क्या सरकार को, जिसे सिर्फ आंकड़ेबाजी करनी है और बार बार यह बताना है कि सरकार शिक्षा पर बजट का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है.
सरकार तो दोषी है ही लेकिन सबसे बड़ी और विचित्र त्रासदी है कि हमारे बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका भ्रष्ट हो चुका है. बल्कि, बेहद भ्रष्ट हो चुका है. बेहद भ्रष्ट ही नहीं, अत्यंत निचले किस्म के गिरे हुए तरीके का भ्रष्टाचार करने में भी जिसे कोई लाज शरम बाकी नहीं रह गई.
त्रासदी यह कि बुद्धिजीवियों की इस अनैतिक जमात से ही निकल निकल कर बहुत सारे लोग कालेजों और विश्वविद्यालयों के प्रभावी पदों पर पहुंच रहे हैं और दीमक की तरह न केवल हमारी शैक्षणिक संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं बल्कि हमारी सभ्यता के आधार को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं. संस्कृति और सभ्यता को दीमक की तरह कुतर कुतर कर खोखली करने से क्या मिलता है उन्हें ?
चंद अनैतिक पैसे मिलते हैं. अक्सर बहुत सारे अनैतिक पैसे मिलते हैं. इन पैसों का वे क्या करते हैं ? वे बड़े शहरों में फ्लैट खरीदते हैं, गांव-शहर में जमीनों के प्लॉट्स खरीदते हैं, अपने बेटे बेटियों को दिल्ली से लेकर ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, अमेरिका तक पढ़ने भेजते हैं और…अगले किसी प्रभावी पद तक पहुंचने के लिए अच्छी खासी रकम का जुगाड करते हैं, जो कहा जाता है कि पहुंचने के लिए अघोषित शर्त की तरह बनती जा रही है.
वे खूब कमाते हैं, पता नहीं खुद ऐश कितनी करते हैं क्योंकि इनमें से अधिकतर डायबिटीज, हार्ट, ब्लड प्रेशर आदि के मरीज हो चुके होते हैं लेकिन उनके लोग खूब ऐश करते हैं. उनका बेटा नाकाबिल भी हो तो अच्छे शहर की अच्छी युनिवर्सिटी में पढ़ता है और कीमती एसयूवी पर फुर्र फुर्र करता रहता है.
वे जितना कमाते हैं उतना ही निर्धनों की नई पीढ़ी की नसों में जहर का संचार करते हैं. बिना जहर का संचार किए उनकी इतनी कमाई हो ही नहीं सकती. उन्हें ईश्वर से डर नहीं लगता. हां, कानून का डर जरूर लगता है, लेकिन वे अक्सर इस काबिल बने रहते हैं कि कानून उनकी जेब में रहता है. अगर कभी दुर्भाग्य से कोई शिकंजे में आ गया तो उसकी दुर्गति होना अलग बात है. अमूमन ऐसा होता नहीं. सब कुछ निर्विघ्न चलता रहता है.
किसे दोष दें ? इन मामलों में अक्सर निकम्मी साबित होती सरकार को ? मुर्दा हो चुके शिक्षक संघों को, जिन पर इन अंधेरों और अंधेरगर्दियों से जूझने की ऐतिहासिक जिम्मेवारी है और अतीत में जिन्होंने इन जिम्मेदारियों को जुझारूपन के साथ निभाया है ? छात्र संघों को, जिन्हें अस्तित्वहीन बनाए रखने की तमाम साजिशें चलती रही हैं और ये साजिशें सफल भी रही हैं ?
समाज को, जिसने यथास्थिति को जैसे स्वीकार कर लिया है और निश्चेष्ट है ? मीडिया को तो आजकल सनसनी चाहिए सिर्फ और विश्वविद्यालय नई पीढ़ी को शिक्षा और संस्कार देने के लिए होते हैं, सनसनी की यहां अधिक जगह नहीं. नो वन किल्ड एजुकेशन इन बिहार लेकिन, यह मर रहा है. आइए, हम सब इसके साक्षी बनें.
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