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कमजोर होते रुपये पर लोगों को बेवकूफ बनाते अर्थशास्त्री बने धर्मशास्त्री

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कमजोर होते रुपये पर लोगों को बेवकूफ बनाते अर्थशास्त्री बने धर्मशास्त्री
कमजोर होते रुपये पर लोगों को बेवकूफ बनाते अर्थशास्त्री बने धर्मशास्त्री
रविश कुमार

भारत की राजनीति में अगर उन मुद्दों की सूची बनाएं, जिन्हें जनता को बेवकूफ बनाने के लिए उठाया गया, गढ़ा किया और प्रचारित किया गया, उन सभी मुद्दों में रुपये की कमज़ोरी के मुद्दे को खास स्थान प्राप्त होगा. 28 अगस्त 2013 के दिन एक डॉलर का भाव करीब 68 रुपए तक पहुंच गया था, उस समय ऐसी राजनीति हुई कि रुपये की कमज़ोरी कोई मज़बूत नेता ही दूर कर सकता है. रुपये की कमज़ोरी को लेकर अनाप-शनाप दावे किए जाने लगे और जनता तालियां बजाने लगी.

यह मुद्दा इस बात का प्रमाण है कि कैसे इसके सहारे जनता को बेवकूफ बनाया गया. ऐसा नहीं है कि रुपये का गिरना बंद हो गया लेकिन जनता ने समझना ही बंद कर दिया. शायद वह और समझने के नाम पर दोबारा बेवकूफ नहीं बनना चाहती है. 2014 के घोषणापत्र में भारतीय जनता पार्टी ने लिखा है कि कांग्रेस पार्टी ने न केवल सरकार की, बल्कि भारत की भी मर्यादा गिराई है. यही कारण है कि रुपये के अवमूल्यन और बाकी देशों के हमारे ऊपर हावी होने देने जैसी ताजा कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है.

भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन

कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने पिछले पांच वर्षों में कई बड़े-बड़े घोटाले किए हैं. इन वर्षों में भारतीय मुद्रा का जितना अवमूल्यन हुआ है, उतना कभी नहीं हुआ. 14 अगस्त 2018 की रात हमने भारतीय रुपये के गिरने पर एक प्राइम टाइम किया. उस दिन भारत का रुपया ऐतिहासिक रुप से नीचे गिरा था. एक डॉलर का भाव 70 रुपये का हो गया था. दिसंबर 2021 में भारत सरकार ने राज्य सभा में बताया था कि 2018 में रुपये की कीमत में 9.2 प्रतिशत की गिरावट आई थी. 2018, 2019, 2020 और 2021 में लगातार रुपया कमज़ोर हुआ है. 2.3 प्रतिशत से लेकर 2.9 प्रतिशत तक कमज़ोर हुआ है.

चार साल से भारत का रुपया कमज़ोर होता जा रहा है लेकिन आज इतिहास में सबसे अधिक कमज़ोर हो गया. अगस्त 2018 के अंत में जब रुपया गिर कर 70 के नीचे पहुंचा तब हमने प्राइम टाइम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पुराना बयान दिखाया, जब वे मुख्यमंत्री थे. उस दिन कांग्रेस ने इसी तरह के बयान को लेकर टिप्पणी की थी. इसमें मुख्यमंत्री मोदी समझा रहे हैं कि रुपया कमज़ोर होता है तो व्यापारी बाज़ार में टिक नहीं पाता है लेकिन आज जब एक डॉलर की कीमत 77 रुपये से अधिक की हो गई है, आप किसी व्यापारी से पूछ कर देखिए, कोई नहीं कहेगा कि बाज़ार में दिक्कत हो रही है. तारीफ करने वालों में होड़ मच जाएगी.

मुद्रा अवमूल्यन का संबंध कमजोर और मजबूत सरकार से है ?

अंतर्राष्ट्रीय हालात 2013 में भी थे और 2018 में भी लेकिन रुपये की कमज़ोरी को सरकार की कमज़ोरी से जोड़ दिया गया. मज़बूत सरकार के नाम पर झांसा दिया गया कि रुपया भी मज़बूत होगा जबकि रुपया 2013 के भाव से कहीं ज्यादा गिर गया है. इसे समझने के लिए आपको करेंसी कबड्‍डी दिखाना चाहता हूं. 2013 में एक तरफ एक डॉलर है. दूसरी तरफ 68 रुपये हैं. सबको हैरानी हुई कि इतने सारे रुपये मिलकर एक डॉलर का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं, यह तो शर्म की बात है.

उस समय शर्म करने की भी कितनी आज़ादी थी. 24 जून जुलाई 2013 को नरेंद्र मोदी ने ट्विट किया कि यूपीए सरकार और रुपये में कंपटीशन चल रहा है कि कौन किससे अधिक गिरेगा. 30 अगस्त 2013 को सुष्मा स्वराज ने लोकसभा में बयान दिया कि रुपये ने अपनी कीमत खो दी है. प्रधानमंत्री ने अपनी गरिमा खो दी है. उसके पहले तक हम नहीं जानते थे कि रुपये का कमज़ोर होना, प्रधानमंत्री का गरिमा खो देना था.

करेंसी कबड्डी में आप देख रहे हैं कि डॉलर डॉलर है. रुपया उसके बराबर पर नहीं आ पा रहा है. रुपए ने डालर का मुकाबला करने के लिए और रुपये बुला लिए हैं. 77 से अधिक रुपये अब मैदान में आ गए हैं और एक डॉलर को हराने के लिए करेंसी कबड्‍डी खेल रहे हैं. फाइनेंशियल टाइम्स ने लिखा है कि डॉलर बीस साल में इतना मज़बूत भी नहीं हुआ, भारत के अखबार लिख रहे हैं कि रुपया अपने इतिहास में इतना कमज़ोर नहीं हुआ. पिछले डेढ़ महीने में पाउंड, स्टर्लिन और युआन को भी बाहुबली डॉलर के सामने कमजोर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. कहां 2013 में 68 रुपए मिलकर एक डॉलर का मुकाबला कर रहे थे, आज 77 रुपये मिलकर एक डॉलर का मुकाबला कर रहे हैं.

1947 मे 1 रुपया बराबर 1 डॉलर का झूठा प्रचार

उस समय लोगों ने इस बयान पर सवाल उठाए थे और कहा था कि 1947 में एक रुपया एक डॉलर के बराबर हुआ करता था, इसका कोई डेटा नहीं है. ऐसी ऐसी बातें कही जा रही थीं जिनका कोई तुक नहीं था. इसलिए रुपये का गिरना केवल आज के हालात के असर का विषय नहीं है बल्कि इसके नाम पर इतनी बड़ी आबादी को किस तरह से बेवकूफ बनाया गया है, उसका विषय कहीं ज़्यादा बड़ा है. अगस्त 2017 में मनीकंट्रोल डॉट कॉम पर एक रिपोर्ट छपी है जिसमें इस बात को गलत बताया गया है कि 15 अगस्त 1947 के दिन एक डॉलर एक रुपये के बराबर था.

मनी कंट्रोल ने लिखा है कि एक तो भारतीय मुद्रा की कीमत ब्रिटिश पाउंड के आधार पर आंकी जाती थी. यह सिलसिला 1966 तक चला है. उसके बाद जब डॉलर स्टैंडर्ड बना है तब उसके मुकाबले भारतीय रुपये का अवमूल्यन किया जाने लगा. 1966 में एक डॉलर का भाव 4 रुपये 76 पैसे था. अवमूल्यन के बाद एक डॉलर 7 रुपये 50 पैसे का हो गया. इसलिए 1947 में एक डॉलर एक रुपये का बराबर हो ही नहीं सकता था. लेकिन तब नरेंद्र मोदी ने कह दिया कि देश आज़ाद हुआ तब एक डॉलर एक रुपये के बराबर था. आपसे अनुरोध है कि आप आज के डेट में फिर से ताली बजाएं.

मुद्रा के अवमूल्यन के बहाने लोगों को बेवकूफ बनाते अर्थशास्त्री बने धर्मशास्त्री

जब भी कोई कहे कि जनता को बेवकूफ बनाना संभव नहीं है तब आप उदाहरण के तौर पर रुपये की कमज़ोरी का मुद्दा उसके सामने रख सकते हैं. उस समय लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए ऐसे ऐसे धर्मशास्त्री अर्थशास्त्री बनकर घूमने लगे, जो लोगों से पेट फुलाने के लिए कहते थे और लोग दिमाग़ में हवा भर लेते थे. कथित रुप से एक संत ने ज्ञान दिया कि यह सोच कर ही अच्छा लगता है कि जब मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो एक डॉलर 40 रुपये का हो जाएगा. जौन बतिया कहतानी, रउआ लोगिन के बुझाता ता कि ना. मेरी बात समझ तो आ ही रही होगी.

अगर आप उन साधु संतों को खोज रहे हैं जो कहा करते थे कि एक डॉलर 40 रुपये के बराबर हो जाएगा, तो अब वे नहीं मिलेंगे. उन्हें पता है कि जिस जनता को उन्होंने बेवकूफ बनाया है, उसे अब समझदार बनाना असंभव हो गया है. इसलिए वे मौज में कह रहे हैं कि हां कहा था तब, क्या कर लोगे अब. दिसंबर 2021 में राज्य सभा में जब कांग्रेस ने सरकार से पूछा कि रुपये को मज़बूत बनाने के लिए सरकार क्या कर रही है, तब सरकार ने रिज़र्व बैंक पर जवाबदेही डाल दी.

भारतीय रुपये की विनिमय दर व्यापाक रूप से मांग और आपूर्ति के बाजार बल द्वारा निर्धारित की जाती है. भारतीय रिजर्व बैंक केवल विदेशी मुद्रा बाजार में अत्यधिक अस्थिरता को नियंत्रित करने तथा विनिमय दर के किसी भी विनिर्दिष्ट स्तर को लक्षित किए बिना व्यवस्थित स्थिति को बनाए रखने में हस्तक्षेप करती है. फिर 2013 में कैसे कहा गया कि सरकार की वजह से रुपया कमज़ोर है ? तब तो यह भी कहा गया कि भ्रष्टाचार के कारण भी रुपया कमज़ोर हो रहा है. अब तो फर्जी दावे किए जाते हैं कि भ्रष्टाचार बंद हो चुका है, फिर भी इसे सही मान लें तब क्यों रुपया इतना कमज़ोर हो रहा है ?

भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता कितनी है इसे लेकर आर्टिकल 14 नाम की न्यूज़ वेबसाइट पर सोमेश झा ने विस्तार से रिपोर्टिंग की है. आप उसे पढ़ सकते हैं. बहरहाल विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाज़ार से पैसा निकालने में लगे हैं. भारत का विदेशी मुद्रा का रिज़र्व फिलहाल तो काफी है लेकिन 600 बिलियन डॉलर से थोड़ा कम हो गया है. विदेशी मुद्रा के भंडार में लगातार आठ दिनों से गिरावट देखी जा रही है. अमरीका सहित कई देशों के केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ा रहे हैं. इसका भी असर पड़ रहा है. रिजर्व बैंक ने ब्याज दर में वृद्धि की तो एक कारण यह भी था कि इससे रुपए का गिरना रोका जाएगा, लेकिन वह तो होता नहीं दिख रहा.

मज़बूत सरकार का मतलब मज़बूत रुपया नहीं बुलडोज़र होता है

वैसे अब मज़बूत सरकार का मतलब मज़बूत रुपया नहीं होता है, बुलडोज़र होता है. ग़रीब लोगों के घरों पर बुलडोज़र चला कर सरकारें अब मज़बूत बनने लगी हैं. अतिक्रमण के नियमित अभियानों का कवरेज़ करने कथित रुप से बड़े-बड़े ऐंकर कवरेज़ करने उतर रहे हैं. यह उनका चुनाव हो सकता है लेकिन यह बदलाव साफ है कि मज़बूत सरकार की सूची के आइटम बदल गए हैं. क्या आप कभी नहीं सोचेंगे कि बुलडोज़र का कवरेज़, लाउडस्पीकर का कवरेज़ क्यों बढ़ाया जा रहा है ? अच्छी बात है. 2013 में तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी कहा करते थे कि रुपया इतना कमज़ोर हो गया है कि सब्ज़ी वाला भी उसकी बात कर रहा है, क्या 2022 में वह बात करना ही भूल जाए, इसलिए ये बुलडोज़र बनाम लाउडस्पीकर का कवरेज बढ़ाया जा रहा है ? ये मेरा सवाल है.

अगर प्रधानमंत्री रुपये को लेकर अपनी कही गई बातों पर प्रेस कांफ्रेंस करते तो शायद सफाई आ जाती है और बार-बार उनके पुराने बयान दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. आज लोग भले बात नहीं कर रहे हैं, महंगाई के सपोर्टर बन गए हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि लू बनकर चल रही महंगाई से उनकी कमाई जल कर सूख गई है. कमज़ोर रुपया का मतलब है कि तेल आयात महंगा होगा और पेट्रोल और डीज़ल के दाम फिर से बढ़ने लगेंगे.

सस्ता रुपया मंहगा तेल

6 अप्रैल से पेट्रोल और डीज़ल के दाम नहीं बढ़े हैं लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार हो पेट्रोल 100 रुपया लीटर से महंगा ही बिक रहा है. इसे लेकर विपक्ष दलों की राज्य सरकारों के टैक्स का मुद्दा बनाया गया, हमने तब भी कहा था और अब भी पूछ रहा हूं कि उससे केवल डिबेट हुआ, पेट्रोल का दाम कम नहीं हुआ. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 112.94 डॉलर प्रति बैरल है. क्या कच्चे तेल के आयात के कारण रुपया कमज़ोर हो रहा है ?

सभी को पता था कि कच्चे तेल का भाव किस रेंज में रहेगा फिर यह ऐतिहासिक गिरावट क्यों आई है ? राज्यों से कहा जा रहा है कि वे कोयले का आयात करें, क्या राज्यों के पास इतना स्कोप है ? कमज़ोर होते रुपये के साथ कोई राज्य सरकार कोयले का आयात कैसे करेगी ? कहीं इसकी हालत भी वैक्सीन के आयात जैसी न हो जाए.

मंहगाई मतलब ज्यादा दाम कम सामान

बड़ी बड़ी बातों से अलग हट कर आम आदमी को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि बहुत सारी ज़रूरी चीज़ों का आयात होता है. दवा से लेकर खाने के तेल तक. इनकी कीमत बढ़ेगी तो उसके जीवन पर क्या असर पड़ेगा ? बढ़ती महंगाई का एक और मतलब है, ज़्यादा दाम में कम सामान. साबुन से लेकर बिस्कुट तक का वज़न घटाया जा रहा है ताकि उसी दाम में कम सामान देने का जुगाड़ निकाला जा सके. ज़्यादा पैसा देने के बजाए, अगर सामान ही कम दिया जाए तो शायद आपको पता नहीं चलेगा ? ऐसा है क्या ?

सुशील महापात्रा ने परचून के एक दुकानदार से बात की. उन्होंने बताया कि पारले जी का सौ ग्राम का बिस्कुट पांच रुपये में मिलता था, आज भी पांच रुपये में ही मिलता है लेकिन पैकेट में 100 ग्राम बिस्कुट की जगह 58 ग्राम ही है. 42 ग्राम बिस्कुट कम हो गया है. पांच किलो आटे के पैकेट का दाम 160 रुपये से बढ़कर 180 रुपया हो गया है. खुला चावल भी दस रुपये से लेकर बीस रुपए महंगा हो गया है.

उद्योगपति से लेकर छोटे व्यापारी अब कोई नहीं बोलता लेकिन दुकानदार ने जिस अंदाज़ में सुशील से बात कही है, उससे अंदाज़ा मिलता है कि लोग चुप रहने की कितनी बड़ी कीमत चुका रहे हैं. वो ज्यादा कीमत चुकाते रहें या और ज्यादा चुकाएं इसलिए भी हो सकता है कि लाउडस्पीकर से लेकर ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का कवरेज़ और डिबेट बढ़ाया जा रहा है. आप मेरी बात मान लीजिए, अगर ये मुद्दे न होते तो जनता तकलीफ बर्दाश्त नहीं कर पाती.

आटे का ही भाव लीजिए. अप्रैल में आटे का अखिल भारतीय भाव 32 रुपये 38 पैसे प्रति किलो हो गया. गेहूं के निर्यात पर वाहवाही लूटने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करने वाले नेताओं से अब पूछिए कि आटा इतना क्यों महंगा हुआ है ? आप तो कह रहे थे कि भारत दुनिया को खिलाने के लिए तैयार है लेकिन इसका दाम बढ़ेगा तब क्या भारत के लोग ही खाने की स्थिति में होंगे ? क्या भारतीय और महंगा आटा ख़रीदने के लिए तैयार हैं ?

किसानों को लाभ के नाम पर कोटा कटौती का खेल

चलिए यह सुनकर राहत हुई कि लोग भले न बोल पा रहे हैं लेकिन ख़रीदने के पहले सोच समझ रहे हैं. लेकिन पोर्ट ब्लेयर के लोग 59 रुपए किलो आटा कैसे ख़रीद रहे होंगे ? क्या सोचते होंगे और क्या समझते होंगे ? उनकी आवाज़ तो दिल्ली तक कभी आती ही नहीं. भारत सरकार के आंकड़े के अनुसार मुंबई के लोग 49 रुपये किलो आटा ख़रीद रहे हैं. लेकिन कुछ दिन पहले हंगामा मचा था कि गेहूं का निर्यात हो रहा है, किसान अमीर हो रहे हैं, अब आंटे का दाम बढ़ने से उनकी अमीरी बढ़ जाएगी या जिस रास्ते आई थी, उसी रास्ते लौट जाएगी. क्या हम ठीक से जानते भी हैं कि निर्यात के इस खेल में किसानों को कितना फायदा हुआ और दूसरों को कितना ?

5 मई के इंडियन एक्सप्रेस में हरकिशन शर्मा की एक रिपोर्ट छपी है कि इस साल गेहूं की खरीद काफी कम हुई है, इसलिए केंद्र सरकार अपने कोटे से जो गेहूं राज्यों को देती है, उसमें कटौती की गई है. इस खबर में लिखा है कि प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के तहत सितंबर तक गेहूं के कोटे में कमी की गई है. इसके बदले उन्हें चावल दिया जाएगा. इस खबर में कहा गया है कि बिहार, केरल और यूपी को प्रधानमंत्री कल्याण अन्न योजना के तहत गेहूं नहीं मिलेगा. बाकी कुछ अन्य राज्यों का भी कोटा कम कर दिया गया है.

गोदी मीडिया के डिबेट में मग्न लोग

ऐसा नहीं है कि लोग गोदी मीडिया नहीं देखते, करोड़ों लोग देखते हैं, जहां ज्यादातर एक समुदाय के खिलाफ चलने वाले डिबेट चलते रहते हैं, लेकिन, जब कई महीनों से सैलरी नहीं मिलती है, तो हमें ज़रूर याद करते हैं. ये और बात है कि कवरेज़ के दिन भी गोदी मीडिया देख रहे होते हैं. पूर्वी दिल्ली में पढ़ाने वाले शिक्षकों ने हमें याद किया है कि पांच महीने से सैलरी नहीं मिल रही है. बात तो सही है कि उनका घर कैसे चलता होगा ? इस महंगाई में पांच महीने सैलरी न मिले, और अखबार में पढ़ना पड़े कि भारत विश्व गुरु बन गया है, ऐसे शिक्षकों पर क्या बीतती होगी, कम से कम वही शिक्षक आपस में मिल कर इतना समझ लें तो गनीमत है.

एक MBBS डॉक्टर ने मैसेज किया. ध्यान से सुनिएगा, बहुत दिलचस्प है. इससे पता चलता है कि एक पत्रकार से जनता बात करते हुए, कितने संबंधों का हवाला देती है. तो उस MBBS डाक्टर ने जो लिखा कि वह बीजेपी का समर्थक है लेकिन मैं नीट पीजी की बात नहीं करूंगा तो मोदी सर तक बात नहीं जाएगी. मुझे इस बात पर हैरानी तो नहीं हुई लेकिन अजीब ज़रूर लगी.

MBBS के छात्र ट्विटर पर खूब प्रदर्शन कर रहे हैं, स्वास्थ्य मंत्री को टैग कर रहे हैं, उसके बाद धूप में बाहर आकर भी प्रदर्शन किया. यानी ऑनलाइन और ऑफलाइन प्रदर्शन के बाद भी इनकी मांग नहीं सुनी गई और 21 मई का दिन नज़दीक आता जा रहा है. उस दिन नीट पीजी की परीक्षा होनी है. कई छात्र मुझे लिख रहे हैं, जिन्हें पढ़ कर लग रहा है कि मीडिया को लेकर या तो मासूम हैं या जानबूझ कर मासूम बन रहे हैं. क्या उन्हें वाकई नहीं पता कि देश में मीडिया का क्या हाल हो चुका है ? उन्होंने किस गोदी मीडिया पर जनता से जुड़े मुद्दे पर बहस देखी है जो मीडिया को याद दिला रहे हैं कि जनता की बात करनी चाहिए, वो भी मीडिया के नाम पर मुझे याद दिला रहे हैं ? और लिख रहे हैं कि बीजेपी का समर्थक हूं. प्राइम टाइम में उठाने से मीदी सर सुन लेंगे.

कई डाक्टर छात्रों ने अपने मैसेज में लिखा है कि कोविड के समय डाक्टरों ने जान लगाकर काम किया लेकिन क्या उन्हें पता नहीं कि कोविड के बाद कई राज्यों में डाक्टरों को काम से हटा भी दिया गया है ? छात्रों की इस मांग में दम तो है कि जब पिछली नीट पीजी परीक्षा की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है तो नई परीक्षा कैसे हो सकती है ? दोनों परीक्षा में अंतराल तो होना ही चाहिए. उनका कहना है कि ऐसा कुछ नियम भी है.

इसी मांग को लेकर MBBS के छात्र तरह-तरह से प्रदर्शन कर रहे हैं, उन्होंने ही बताया है कि कई सांसदों ने सरकार को भी पत्र लिखा है. सरकार को भी इन छात्रों की बात को सुन कर अंतिम जवाब दे देना चाहिए. अगर डाक्टरों को लगता है कि प्राइम टाइम में उठाने से सरकार सुन लेगी तो सरकार को सुन लेना चाहिए. मैं वैसे भी अपने काम का क्रेडिट नहीं लेता और न मीम बनाकर वायरल कराता हूं. अफसोस कि उस छात्र को कहना पड़ा कि वह बीजेपी का सपोर्टर है, प्राइम टाइम में उठाने से मोदी सर सुन लेंगे, तो उनकी और उन जैसे छात्रों की राजनीतिक समझ पर कुछ कहने का मेरा थोड़ा तो हक बनता ही है.

बढ़ती गर्मी घटता पानी

गर्मी बहुत ज़्यादा है. पानी संकट का कवरेज इतना कम है कि लोगों को पता भी नहीं चल रहा होगा कि कहां कहां के लोग परेशान हैं. इसका मतलब यह नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं. कुछ जगहों पर हालत इतनी खराब है कि दो बाल्टी पानी से काम चलाने को कहा जा रहा है. ख़बरें तो यह भी छप रही हैं कि प्लेटफार्म के टिकट महंगे हो रहे हैं. ट्रेन की यात्रा महंगी हो रही है. महंगाई ऐसे महंगाई हो रही है जैसे उसके साथ-साथ कमाई में भी बढ़ती हो रही है. कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे कि अगर हर चीज़ महंगी हो जाए तब फिर सबके लिए सस्ती हो जाएगी जैसे 1947 की तरह एक डॉलर बराबर एक रुपया हो जाएगा. जो कभी था, न होगा. आप जो भी सोच रहे हैं, ठीक ही सोच रहे होंगे.

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