जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज नोटबंदी बरसी है. मोदी का सबसे बड़ा फ्लॉप शो. रिज़र्ब बैंक की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी के दौरान 15 लाख 44 हजार करोड़ रुपए के नोट बंद किए गए थे, उनमें से 15 लाख 31 हजार करोड़ वापस आए हैं. सिर्फ 13 हजार करोड़ रुपये ही सिस्टम से बाहर हुआ है. सवाल यह है मोदी के वायदे का क्या हुआ ? काला धन बाहर हुआ या अंदर सफेद हो गया ? आतंकवाद रुका या बढ़ा ? आतंकवाद बढ़ा और मोदी की चंदा वसूली बढ़ी. गरीबी बढ़ी, बेकारी बढी, अर्थव्यवस्था चौपट हुई.
जिस तरह आपातकाल ने उत्तर भारत में कांग्रेस की कमर तोड़ी थी वैसे ही नोटबंदी ने भाजपा की पूरे देश में रीढ़ तोड़ दी है. आपातकाल के लाभ विपक्ष ने उठाए उसी तरह नोटबंदी से पैदा हुई तबाही का लाभ विपक्ष को मिलना तय है. नोटबंदी के मायने हैं – नो अपील, नो वकील और नो दलील. यही आपातकाल का मोटो था, जिसे सुप्रीम कोर्ट में उस जमाने के महान्यायवादी ने व्यक्त किया था.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार झूठ बोल रहे हैं. वे कह रहे हैं नोट बंदी का कुछ दिन तक ही बुरा असर रहेगा. सच यह है इसका बहुत ज्यादा दिनों, कई महीने और कई साल तक बुरा असर रहेगा. भारत की सारी दुनिया में इससे मट्टी पलीत हुई है. अब विदेशी पूंजी निवेश कम से कम भारत में निकट भविष्य में नहीं आएगा. सारी दुनिया जान गयी है भारत में इस समय ऐसा प्रधानमंत्री है जिसके पास स्नातक स्तर के ज्ञानधारी देशभक्त और नौकरशाह हैं.
सारी दुनिया में जितने प्रधानमंत्री हैं वे बेहतरीन शिक्षितों से विभिन्न पहलुओं पर सलाह करके नीति बनाते हैं. लेकिन मोदीजी ज्ञानी और विद्वानों से कोसों दूर रहते हैं. उनके पास नौकरशाह सलाहकार हैं. ये नौकरशाह सलाहकार अधिक से अधिक स्नातक हैं और इनकी कोई विशेष योग्यता नहीं है. इसके अलावा यह भी पता चला है कि नोट नीति बनाते समय कुछ ही लोगों से सलाह करके फैसला लिया गया. ये कुछ लोग कौन हैं यह भी सामने आना बाकी है. उनके काम करने की पद्धति वही है जो आपातकाल में श्रीमती गांधी की थी. वे चंडाल चौकड़ी से घिरी हुई थीं, सारे फैसले चंडाल चौकड़ी लेती थी. मंत्रीमंडल कागजी था, संविधान फालतू था.
मोदीजी भी चंडाल चौकड़ी से घिरे हैं और वही देश को संचालित कर रही है. नोट बंदी का फैसला इसी चंडाल चौकड़ी ने लिया है. अखबारों में अभी जो नाम आ रहे हैं वे सब गलत हैं, असली नाम कुछ और हैं. नोट बंदी का फैसला न तो रिजर्व बैंक ने लिया है और न मंत्रीमंडल ने विस्तार से बहस करके लिया है, यह फैसला मूलतः प्रधानमंत्री मोदी का है और उसे सारे देश पर थोप दिया गया है.
नियमानुसार यह फैसला संसद और रिजर्व बैंक को लेना था, लेकिन संसद को ठेंगे पर रखा गया. रिजर्व बैंक को रबड़ स्टैम्प की तरह इस्तेमाल किया गया. इस सबको नाम दिया गया ‘सीक्रेसी’ का.
जो नीति सारे देश पर लागू होनी है, उस पर सीक्रेसी की क्या जरूरत, यह बात हमारी समझ में नहीं आती. यह कैसी नीति है जिस पर रिजर्व बैंक बहस न करे, संसद बहस न करे, मंत्रीमंडल में बहस न हो, देश में बहस न हो और देश से कह दिया जाए कि तुम नीति का पालन करो. यही तो अधिनायकवाद है.
नोट नीति के जरिए प्रधानमंत्री मोदी की जनता में पहली बार प्रशासनिक दक्षता परीक्षा हुई और वे इसमें बुरी तरह फेल हुए, जबकि प्रशासनिक दक्षता और ईमानदारी के दावे पर वे लोकसभा का चुनाव जीतकर आए थे. इस नीति के पहले उनकी नीतिगत तौर पर जनता में कोई परीक्षा नहीं हुई थी, यहां तक कि जिन जनधन खाता धारकों के करोड़ों खाते खुलवाने का वे दावा करते हैं, उसमें बैंक कर्मचारियों की बड़ी भूमिका थी, इसमें मोदीजी की प्रशासनिक क्षमता नजर नहीं आती, जिस तरह वे खाते खुले हैं, सारा देश जानता है, उनकी अक्षमता, मूर्खता और जनविरोधी भावनाओं को आम जनता में नंगा करके रख दिया है.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विमुद्रीकरण की नीति की सटीक आलोचना करते हुए तबाही के जिस मंजर का खाका पेश किया, वह हम सबके लिए चिन्ता की बात है. इसके विपरीत कल वित्तमंत्री अरूण जेटली के पूर्व पीएम मनमोहन सिंह पर हमला देखकर यह विश्वास हो गया है कि मोदी सरकार सभ्यता और लोकतंत्र की सभी सीमाएं लांघ चुकी है और असहिष्णुता के शिखर पर बैठी है.
जेटली के बयान का मर्म यह था कि मनमोहन सिंह को बोलने का कोई हक नहीं है क्योंकि उनके शासन में कालाधन आया, सबसे ज्यादा घोटाले हुए, वे महान पापी हैं ! जो महान पापी हैं उनको मोदीजी जैसे चरित्रवान, ईमानदार, बेदाग़ नए कपड़े पहने वाले नेता की नीति की आलोचना करने का कोई हक नहीं है. मोदी जी इतने महान हैं कि विगत सत्तर साल में इस तरह का चरित्रवान और पुण्यात्मा कोई पीएम नहीं बना है ! सच तो यह है उनसे बेहतर कोई पीएम न तो सोच सकता है और न बोल ही सकता है !!
मोदीजी महान हैं क्योंकि वे संविधान के बंधनों से मुक्त हैं ! हमेशा 125 करोड लोगों के बंधन में बंधे रहते हैं. 125 करोड लोगों की तरह ही सोचते हैं, हंसते हैं, गाते हैं ,खाते हैं, रोते हैं !!उनके मन और तन में 125 करोड़ मनुष्य वास करते हैं !करोड़ों जीव-जन्तु-पशु-पक्षी उनके हृदय में निवास करते हैं ! उनका मन मंदिर है और हृदय जंगल है. वे इस जंगल के बेताज बादशाह हैं. वे वैसे ही अक्लमंद हैं जैसे जंगल में पशु-पक्षी अक्लमंद होते हैं !
जिस तरह 125 करोड जनता कभी किसी अर्थशास्त्री से राय नहीं लेती, जो मन में आए काम करती है, मोदीजी भी ठीक वैसे ही काम करते हैं. यही वजह है मोदीजी महान हैं ! मोदीजी की आलोचना वही कर सकता है जो उनके जैसा महान हो ! मनमोहन चूंकि मोदी जैसे महान नहीं हैं इसलिए उनकी बातों को गंभीरता से दरकिनार करने की जरूरत है. रही बात संसद की तो संसद नक्षत्रों से भरी है उसमें मोदी जैसा सूर्य मिसफ़िट है. यही वजह मोदी जैसा सूर्य हमेशा संसद के बाहर ही चमकता है !!
नंगे का अर्थशास्त्र
नोटबंदी के बाद हम सबके अंदर के डरपोक और अज्ञानी मनुष्य को एकदम नंगा कर दिया है. कहने के लिए हम सब पढ़-लिखे, शिक्षित लोग हैं लेकिन हम सबमें सच को देखने के साहस का अभाव है. सच कोई आंकड़ा मात्र नहीं होता, सच तो जीवन की वास्तविकता है और जीवन की वास्तविकता या यथार्थ को तब ही समझ सकते हैं जब जनता के जीवन को अपने मन, सुख और वैभव को मोहपाश से मुक्त होकर नंगी आंखों से देखें.
हम सबमें एक बड़ा वर्ग है जो मान चुका है कि मोदीजी अच्छा कर रहे हैं, कालेधन पर छापा मार रहे हैं, कालाधन सरकार के पास आएगा तो सरकार सड़क बनाएगी, स्कूल खोलेगी, कारखाने खोलेगी, बैंकों से घरों के लिए सस्ता कर्ज मिलेगा, महंगाई कम हो जाएगी, हर चीज सस्ती होगी, सब ईमानदार हो जाएंगे, चारों ओर ईमानदारी का ही माहौल होगा, इत्यादि बातों को आम जनता के बहुत बड़े हिस्से के दिलो-दिमाग में बैठा दिया गया है. अब जनता इंतजार कर रही है कि कालेधन की मुहिम कब पूरी होती है ! फिर हम सब ईमानदारी के समुद्र में तैरेंगे !! ये सारी बातें फार्मूला फिल्म की तरह आम जनता के बीच में संप्रेषित करके उनको मोदी-अफीम के नशे में डुबो दिया गया है.
तकरीबन इसी तरह का नशा एक जमाने में नव्य-आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू करते समय सारे मीडिया ने हम सबके मन में उतारा था. वह नशा कुछ कम हो रहा था कि अचानक मोदी अफीम के नशे में जनता को फिर से डुबो दिया है. हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं जो नीति जनता के विवेक का अपहरण करके लागू की जाती है, वह कभी भी जनहित में नहीं हो सकती. जनता के विवेक को दफ्न करके मोदीजी जिस नीति को लागू कर रहे हैं वह सारे देश के लिए समग्रता में विध्वंसक साबित होगी.
फिदेल कास्त्रो ने ऐसे ही नशीले माहौल को मद्देनजर रखकर कहा था – ‘हममें से जो विद्वान नहीं हैं उनको भी साहस की खुराक चाहिए. दुनिया में जो कुछ हो रहा है उसे अधिकाधिक जान लेने की कोशिश के बावजूद कभी-कभी हमारे पास यह जानने के लिए समय नहीं होता कि हम जिस अद्वितीय इतिहास प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, उसके बारे में क्या नए तथ्य और विचार उभरकर सामने आ रहे हैं और हमारे सामने खड़ा अनिश्चित भविष्य कैसा होगा ?’
कालेधन को बाहर निकालने के प्रयास पहले भी विभिन्न सरकारों ने किए हैं, मोदीजी इस मामले में नया कुछ नहीं कर रहे. उन्होंने जो नया काम किया है वह है नोटबंदी. नोटबंदी से कालेधन वालों पर कोई खास असर नहीं होगा. यही वजह है कि उन्होंने नोटबंदी के 20 दिन बाद अचानक स्वैच्छिक आय घोषणा योजना-2 की घोषणा की है, उसके लिए आयकर कानून में कुछ संशोधन सुझाए हैं. ये संशोधन लागू हो जाने पर भी कालेधन पर कोई अंकुश नहीं लगेगा और कालाधन बाहर नहीं आएगा.
इस प्रसंग में महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था कम से कम कालेधन से नहीं चल रही. कालाधन समानान्तर अर्थव्यवस्था जरूर है लेकिन देश की मूल अर्थव्यवस्था नहीं है. मोदी सरकार आने के बाद सबसे बड़ी समस्या यह हुई है कि मूल अर्थव्यवस्था पंगु हो गयी है. कहीं पर कोई परिणाम नजर नहीं आ रहे. बेकारी और विकास में कोई परिवर्तन नहीं आया. इससे ध्यान हटाने के लिए मोदी सरकार ने नोट नीति की घोषणा की और 500 और 1000 के नोट अमान्य घोषित कर दिए.
अब समस्या यह है वे इस नोटबंदी पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही, कालेधन के समर्थक आदि के तमगे लगा रहे हैं. हम जानना चाहते हैं यह कौन सा अर्थशास्त्र है जिसमें सवाल नहीं खड़े कर सकते ?
मोदीजी ने जो नोट नीति बनायी है उस पर समानता के आधार पर विभिन्न मतों के अनुसार सवाल उठाने की इजाजत सरकार दे, नीति पर बहस की बजाय सरकार और मीडिया मिलकर नोट नीति के खिलाफ सवाल खड़े करने वालों को अपमानित कर रहे हैं, सवाल उठाने को ही देशद्रोह और कालेधन की हिमायती कह रहे हैं. यह तो देश की प्रतिभा और जनतांत्रिक मतभिन्नता का अपमान है, यह तानाशाही है और अल्पविवेक का शासन है.
मोदीजी को मालूम होना चाहिए भारत में अर्थशास्त्र की बड़े पैमाने पर पढायी होती है और हमारे यहां सभी किस्म के मत पढाए जाते हैं, विभिन्न किस्म के मतों का अध्ययन करके आने वाले लोगों की यह पहली जिम्मेदारी बनती है कि वे नोट नीति पर खुलकर बोलें. विभिन्न राजनीतिक दलों की भी यह जिम्मेदारी है वे अपने मतों को खुलकर व्यक्त करें. मीडिया और सरकार दोनों मिलकर मतविभन्नता का गला घोंटकर खत्म कर देना चाहते हैं. यह पारदर्शिता का हनन है.
मोदी-मीडिया मिलकर प्रचार कर रहे हैं कि नीति के मामले में हर हालत में अनुशासन पैदा करने की जरूरत है, नीति से विचलन और मत-भिन्नता मोदी के लेखे अनुशासनहीनता है, यह देशद्रोह है, कालेधन की सेवा है. इस तरह के तर्क बुनियादी तौर पर फासिस्ट तर्क हैं. किसी भी नीति पर बहस के लिए अनुशासन की शर्त लगाना गलत ही नहीं अ-लोकतांत्रिक भी है. पारदर्शिता और खुलेपन के लिए अनुशासन की विदाई करना पहली जरूरत है.
सरकार ने जो नीति जारी की है तो उससे संबंधित सूचनाएं भी जारी करे, नीति पर विभिन्न दृष्टियों से बहस हो,विभिन्न विचारों की रोशऩी में नीति को परखा जाए, विभिन्न कसौटियों पर कसा जाए, यह किए बिना नोट नीति को सीधे लागू करना तानाशाही है. सब जानते हैं मीडिया पर सरकार का संपूर्ण वर्चस्व है और वह इस वर्चस्व का खुला दुरूपयोग कर रही है. नोट नीति लागू करते समय सरकार की शर्त है हमारी बात मानो, नहीं मानोगे तो देशद्रोही कहलाओगे. यह बुनियादी नजरिया लोकतंत्र विरोधी है.
नोटबंदी के काले दिन
मैंने नोटबंदी के लागू किए जाने के दिन लिखा था कि भारत की अर्थव्यवस्था आत्म ध्वंस की ओर चली जाएगी. जिस गरीब के पास एक दो हजार या पांच सौ के नोट हैं और उसके पास आई कार्ड नहीं है, वह अपने नोट कैसे बैंक जाकर बदलेंगे ? अधिकांश गरीबों के पास बैंक खाता नहीं है, आई कार्ड नहीं हैं. इस तरह के लोगों की संख्या करोडों में है. मोदी सरकार की नीति से ये गरीब सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे. पहले से ही दस और पांच के जाली सिक्कों से बाजार आक्रांत है, ऐसे में इस फैसले से जनता सीधे प्रभावित होगी.
क्या 100 और 50 रूपये में जाली नोट नहीं है ? मनमोहन राज में 40 हजार तक एटीएम से पैसा निकाल सकते थे, अब मात्र 2 हजार रूपये रोज निकाल सकेंगे. बैंक से प्रति सप्ताह मात्र 20 हजार निकाल सकेंगे. एटीएम से रोज दो हजार से ज्यादा नोट निकाल नहीं पाएंगे. मोदीजी के 500 और 1000 की करेंसी बंद करने से काले धन वाले लाभान्वित होंगे,यह कदम महंगा जुआ है.
नोट संस्कृति को कांग्रेस कल्चर से बाहर निकालने की दिशा में यह रद्दी प्रयास है, संदेह है इससे आतंकी और कालेधन धन वाले थमेंगे. काले धन वाले और आतंकी लोग नोटों की गड्डियां या अटैचियों में नोट भरकर नहीं चलते मोदीजी. नौ दिन चले अढ़ाई कोस. दावा किया था यह कर दूंगा, वह कर दूंगा, भुस भर दूंगा. वह सब गया भाड़ में ! 500 और 1000 के नोटों के चलन पर रोक लगाकर मोदीजी ने अपनी अल्पबुद्धि और 6 इंच की छाती का परिचय दिया है.
नोटबंदी की असलियत
‘भाइयों बहनों, मैंने सिर्फ़ देश से 50 दिन मांगे हैं. 50 दिन. 30 दिसंबर तक मुझे मौक़ा दीजिए मेरे भाइयों बहनों. अगर 30 दिसंबर के बाद कोई कमी रह जाए, कोई मेरी ग़लती निकल जाए, कोई मेरा ग़लत इरादा निकल जाए. आप जिस चौराहे पर मुझे खड़ा करेंगे, मैं खड़ा होकर…देश जो सज़ा करेगा वो सज़ा भुगतने को तैयार हूं.’
ये शब्द भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हैं. आठ नवंबर, 2016 को रात आठ बजे नोटबंदी की घोषणा करके 500 और 1000 के नोट के चलन को रोकने के ठीक पांच दिन बाद वे गोआ में एक एयरपोर्ट के शिलान्यास पर नोटबंदी के बारे में बोल रहे थे. अब रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के दौरान बैंकिंग सिस्टम में वापस लौटे नोटों के बारे में पूरी जानकारी सामने रख दी है. इसके मुताबिक पांच सौ और हज़ार के 99.3 फ़ीसदी नोट बैंकों में लौट आए हैं.
आरबीआई के मुताबिक़ नोटबंदी के समय देश भर में 500 और 1000 रुपए के कुल 15 लाख 41 हज़ार करोड़ रुपए के नोट चलन में थे. इनमें 15 लाख 31 हज़ार करोड़ के नोट अब सिस्टम में वापस में आ गए हैं, यानी यही कोई 10 हज़ार करोड़ रुपए के नोट सिस्टम में वापस नहीं आ पाए. इससे काले धन पर अंकुश लगाने की बात सच नहीं साबित हुई.
नोटबंदी लगाए जाने के दो सप्ताह बाद तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में नोटबंदी का बचाव करते हुए कहा था, ‘सरकार ने ये क़दम उत्तर पूर्व और कश्मीर में भारत के ख़िलाफ़ आतंकवाद को बढ़ावा देने में इस्तेमाल हो रहे चार लाख से पांच लाख करोड़ रुपए तक को चलन से बाहर करने के लिए उठाया है.’
रोहतगी सरकार का पक्ष ही रख रहे थे लेकिन उन चार लाख से पांच लाख करोड़ रुपए तक के नोट बैंकिंग सिस्टम में वापस आ गए.
15 अगस्त, 2017 को अपने भाषण में पीएम मोदी ने कहा था कि तीन लाख करोड़ रुपए जो कभी बैंकिंग सिस्टम में नहीं आता था, वह आया है. प्रधानमंत्री के इस बयान को याद दिलाते हुए पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने पूछा है कि किसने झूठ बोला था ?
नरेन्द्र मोदी जाली करेंसी रोक नहीं पाए, तेजी से बढ़ रहा है नकली नोटों की संख्या
दैनिक जागरण अपने खबर में लिखता है कि देश में नकली भारतीय करेंसी नोटों (FICN) का चलन साल 2016 की नोटबंदी के बाद भी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है. नेशनल क्राइम कंट्रोल ब्यूरो (NCRB) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2016 में 500 और 1000 रुपये के नोटों के बंद होने के बाद से देश भर में कुल 245.33 करोड़ रुपये के नकली नोटों को जब्त किया गया है.
आरबीआई की 2021-22 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले वर्ष की तुलना में 10 रुपये, 20 रुपये, 200 रुपये, 500 रुपये और 2,000 रुपये के मूल्यवर्ग में पकड़े गए नकली नोटों में क्रमशः 16.4 प्रतिशत, 16.5 प्रतिशत, 11.7 प्रतिशत, 101.9 प्रतिशत और 54.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020 में 92.17 करोड़ रुपये के अंकित मूल्य के साथ जाली नोटों की सबसे अधिक राशि जब्त की गई थी, जबकि साल 2016 के दौरान सबसे कम 15.92 करोड़ रुपये के अंकित मूल्य को जब्त किया गया था. साल 2021 के दौरान देश में कुल 20.39 करोड़ रुपये के नकली नोटों को जब्त किया गया. साल 2019 में 34.79 करोड़ रुपये, 2018 में 26.35 करोड़ रुपये और 2017 में 55.71 करोड़ रुपये जब्त किए गए.
देश में नकली नकली नोटों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. आरबीआइ ने मई 2022 में अपने वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि बैंकिंग प्रणाली द्वारा पता लगाए गए 500 मूल्यवर्ग के नकली नोटों की संख्या पिछले वर्ष की तुलना में वित्त वर्ष 2021-22 में दोगुनी से अधिक होकर 79,669 हो गई. सिस्टम में पाए गए 2,000 मूल्यवर्ग के नकली नोटों की संख्या साल 2021-22 के दौरान 13,604 थी, जो पिछले वित्तीय वर्ष से 54.6 प्रतिशत अधिक थी.
हालांकि साल 2020-21 में इसमें गिरावट दर्ज की गई थी, जिसके बाद बैंकिंग क्षेत्र में पाए गए सभी मूल्यवर्ग के नकली नोटों की कुल संख्या पिछले वित्त वर्ष में 2,08,625 से बढ़कर 2,30,971 हो गई. मालूम हो कि साल 2019-20 के दौरान FICN की संख्या 2,96,695 थी.
जाली नोटों पर अंकुश लगा पाने में भी सरकार कामयाब नहीं हो पाई है. रिजर्व बैंक के मुताबिक 2017-18 के दौरान जाली नोटों को पकड़े जाने का सिलसिला जारी है. इस दौरान 500 के 9,892 नोट और 2000 के 17,929 नोट पकड़े गए हैं. यानी जाली नोटों का सिस्टम में आने का चलन बना हुआ है.
कैशलेस इकॉनमी का सच
नोटबंदी की घोषणा करने के बाद अपने पहले मन की बात में 27 नवंबर, 2016 को नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी को ‘कैशलेस इकॉनमी’ के लिए ज़रूरी क़दम बताया था. लेकिन नोटबंदी के दो साल बाद रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक लोगों के पास मौजूदा समय में सबसे ज़्यादा नकदी है.
नौ दिसंबर, 2016 को रिजर्व बैंक के मुताबिक आम लोगों के पास 7.8 लाख करोड़ रुपए थे, जो जून, 2018 तक बढ़कर 18.5 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गए हैं. मोटे तौर पर आम लोगों के पास नकदी नोटबंदी के समय से दोगुनी हो चुकी है. इतना ही नहीं रिजर्व बैंक के आंकड़ों से आम लोगों के पास पैसा राष्ट्रीय आमदनी का 2.8 फ़ीसदी तक बढ़ा है, जो बीते छह साल में सबसे ज्यादा आंका जा रहा है.
नोटबंदी का जीडीपी पर असर
नोटबंदी से देश की आर्थिक विकास दर की गति पर असर पड़ा है, 2015-1016 के दौरान जीडीपी की ग्रोथ रेट 8.01 फ़ीसदी के आसपास थी, जो 2016-2017 के दौरान 7.11 फ़ीसदी रह गई और इसके बाद जीडीपी की ग्रोथ रेट 6.1 फ़ीसदी पर आ गई.
इसको लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए पी. चिदंबरम ने ट्वीट किया, ‘भारतीय अर्थव्यवस्था को ग्रोथ के टर्म में 1.5 फ़ीसदी का नुकसान हुआ है. इससे एक साल में 2.5 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है. 100 से ज़्यादा लोगों की जानें गई हैं. इतना ही नहीं 15 करोड़ दिहाड़ी मज़दूरों के काम धंधे बंद हुए हैं. हज़ारों उद्योग धंधे बंद हो गए. लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं.’
वैसे नोटबंदी की वजह के चलते 100 ज़्यादा लोगों की मौत हुई हो, ये बात दावे से नहीं कही जा सकती, लेकिन नोटबंदी के दौरान बैंक के सामने लगे कतारों में अलग-अलग वजहों से इतनी मौतें हुई हैं और यही वजह है कि विपक्ष इन मौतों के लिए नोटबंदी को ज़िम्मेदार ठहराता रहा है.
रिजर्व बैंक के आंकड़ें जारी करने से पहले ही वित्त मामलों की पार्लियामेंटरी स्टैंडिंग कमेटी की उस रिपोर्ट को भी भारतीय जनता पार्टी ने कमेटी के अंदर अपने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए सार्वजनिक नहीं होने दिया है, जिसमें नोटबंदी पर सवाल उठाए गए हैं. 31 अगस्त को कमेटी के कार्यकाल का आख़िरी दिन है और मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इस कमेटी की रिपोर्ट में बताया गया है कि नोटबंदी के चलते देश की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ एक फ़ीसदी कम हुई है.
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (सीएमईआई) के कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्विस (सीपीएचएस) के आंकड़ों के मुताबिक 2016-2017 के अंतिम तिमाही में क़रीब 15 लाख नौकरियां गई हैं. भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी संगठन भारतीय मजदूर संघ ने भी नोटबंदी पर ये कहा है, ‘असंगठित क्षेत्र की ढाई लाख यूनिटें बंद हो गईं और रियल एस्टेट सेक्टर पर बहुत बुरा असर पड़ा है. बड़ी तादाद में लोगों ने नौकरियां गंवाई हैं.’
नक्सल और आतंकवाद पर क़ाबू
नोटबंदी की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के अंदर नक्सलियों और देश के बाहर से फंडिंग पाने वाली आतंकी हरकतों पर नोटबंदी से अंकुश लगने की बात कही थी. लेकिन जिस तरह से बीते मंगलवार को पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया है, उन पर नक्सलियों से संबंध रखने के आरोप लगे हैं और अर्बन नक्सल की बात को प्रचारित किया जा रहा है उससे सवाल ये उठता है कि क्या नोटबंदी के बाद भी नक्सल समर्थक इतने मज़बूत हो गए हैं.
नोटबंदी से भारत प्रशासित कश्मीर में चरमपंथी हमलों पर अंकुश भी नहीं लगा है. राज्य सभा सांसद नरेश अग्रवाल के पूछे एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री हसंराज गंगाराम अहीर ने सदन में बताया था कि जनवरी से जुलाई, 2017 के बीच कश्मीर में 184 आतंकवादी हमले हुए, जो 2016 में इसी दौरान हुए 155 आतंकवादी हमले की तुलना में कहीं ज़्यादा थे.
गृह मंत्रालय की 2017 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक जम्मू कश्मीर में 342 चरमपंथी हमले हुए, जो 2016 में हुए 322 हमले से ज्यादा थे. इतना ही नहीं, 2016 में जहां केवल 15 लोगों की मौत हुई थी, 2017 में 40 आम लोगों इन हमलों में मारे गए थे. कश्मीर में चरमपंथी हमले 2018 की शुरुआत से भी जारी हैं.
नोटबंदी से रिजर्व बैंक का बढ़ा ख़र्चा
बीबीसी की एक खबर के अनुसार नोटबंदी से फ़ायदे से उलट इसे लागू करने में रिजर्व बैंक को हज़ारों करोड़ का नुकसान अलग उठाना पड़ा. नए नोटों की प्रिटिंग के लिए रिजर्व बैंक को 7,965 करोड़ रुपए ख़र्च करने पड़े. इसके अलावा नकदी की किल्लत नहीं हो इसके लिए ज़्यादा नोट बाज़ार में जारी करने के चलते 17,426 करोड़ रुपए का ब्याज़ भी चुकाना पड़ा. इसके अलावा देश भर के एटीएम को नए नोटों के मुताबिक कैलिब्रेट करने में भी करोड़ों रुपए का ख़र्च सिस्टम को उठाना पड़ा है.
ऐसे में नोटबंदी को लेकर सरकार केवल एक फ़ायदा गिना सकती है, 2017-2018 के इकॉनामिक सर्वे के मुताबिक नोटबंदी के बाद देश भर में टैक्स भरने वाले लोगों की संख्या में 18 लाख की बढ़ोत्तरी हुई है. बहरहाल, पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने सात नवंबर, 2017 को भारतीय संसद में कहा था कि ये एक आर्गेनाइज्ड लूट (संगठित लूट) है, लीगलाइज्ड प्लंडर (क़ानूनी डाका) है.
मोदी सरकार के नोटबंदी पर सभी दावों की कलई खोलने वाली बिजनेस स्टैंडर्ड की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है, अखबार ने लिखा है –
भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र (सीएमआईई) के सर्वेक्षण के मुताबिक उत्पादन गिरने के चलते कम मजदूर शहरी इलाकों में बने कारखानों का रुख कर रहे हैं. नोटबंदी के बाद काम में लगे या काम तलाश रहे लोगों की संख्या काफी कम हुई है. श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) में एक फीसदी की गिरावट का यह मतलब है कि बड़ी श्रमशक्ति वाले देश में गहरा रोजगार संकट पैदा हो चुका है.
पिछले साल जनवरी से अक्टूबर की अवधि में औसत एलपीआर 46.9 फीसदी रहा था लेकिन नोटबंदी के ऐलान वाले महीने नवंबर में यह तीव्र गिरावट के साथ 44.8 फीसदी पर आ गयी. जनवरी-अप्रैल 2017 में औसत एलपीआर कमोबेश 44.3 फीसदी पर रहा जबकि 2016 की समान अवधि के 46.9 फीसदी की तुलना में यह काफी कम था. एलपीआर में तीव्र गिरावट के साथ ही वर्ष 2017 के पहले आठ महीनों में करीब 20 लाख लोगों के बेरोजगार होने का भी अनुमान है.
सीएमआईई के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्याधिकारी महेश व्यास कहते हैं, ‘जनवरी-अप्रैल 2017 में करीब 15 लाख लोगों की नौकरी चली गई. उसके बाद मई-अगस्त अवधि में करीब पांच लाख अन्य लोग भी बेरोजगार हो गए. इस तरह वर्ष 2017 के पहले आठ महीनों में ही 20 लाख लोग नौकरी गंवा चुके हैं.’
एमएसएमई क्षेत्र को भारत में सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता माना जाता है. वर्ष 2013 में हुई छठी आर्थिक गणना के मुताबिक कुल 13.13 करोड़ लोग देश भर में फैली 5.85 करोड़ इकाइयों में नियुक्त थे. देश के कुल श्रमिकों में से 74.83 फीसदी पुरुष थे जबकि महिलाओं का प्रतिशत 25.17 था. सर्वाधिक 3.03 करोड़ लोग विनिर्माण क्षेत्र में कार्यरत थे जिसके बाद खुदरा कारोबार में 2.71 करोड़ और पशुपालन एवं दुग्ध उत्पादन क्षेत्र में 1.94 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था.’
‘देश भर में सक्रिय औद्योगिक एवं कारोबारी इकाइयों में से 3.48 करोड़ प्रतिष्ठान (59.48 फीसदी) ग्रामीण इलाकों में थे जबकि 2.37 इकाइयां शहरी इलाकों में थी. इनमें से बड़ी तादाद में इकाइयां उत्तर प्रदेश (11.43 फीसदी), महाराष्ट्र (10.49 फीसदी), पश्चिम बंगाल (10.10 फीसदी), तमिलनाडु (8.60 फीसदी) और आंध्र प्रदेश (7.25 फीसदी) में मौजूद थीं.
भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों को देखने से भी रोजगार का परिदृश्य निराशाजनक नजर आता है. ये आंकड़े बताते हैं कि एमएसएमई क्षेत्र की हालत नोटबंदी अवधि खत्म होने के बाद भी नहीं सुधर पाई है. नवंबर 2016 के बाद से ही कर्ज आवंटन की रफ्तार सुस्त पड़ी हुई है. नवंबर 2016 में कर्ज वृद्धि 3.35 फीसदी ही रही थी जबकि नवंबर 2015 में यह 4.85 फीसदी था. इसी तरह दिसंबर 2016 में कर्ज वृद्धि नकारात्मक 1.73 फीसदी हो गई जो दिसंबर 2015 में 4.46 फीसदी रही थी.
नोटबंदी और नकटा राजा
नाक की ओट में परमात्मा वाली कहानी मोदीजी और उनकी भक्तमंडली पर सटीक लागू होती है. एक राजा था. उसकी नाक कटी थी. वह अपने नकटे रूप को यह कहकर वैध ठहराता कि परमात्मा नाक की ओट में रहता है, जिसे भगवान देखना है वो अपनी नाक कटवा दे तुरंत भगवान दिख जाएगा. राजा की सलाह पर उसके राज्य में हजारों लोगों ने नाक कटवा ली. जिसने नाक कटवाई वह यही कहता कि उसे भगवान दिखाई दे रहे हैं.
एक दिन एक बुद्धिजीवी ने तय किया कि इस फ्रॉड को उजागर किया जाय. वह राज दरबार गया. उसने सबके सामने राजा से कहा – मुझे भगवान के दर्शन कराओ. राजा ने कहा वह तो नाक की ओट में रहता है, तुम पहले नाक कटवाओ तब तुमको वह दिखेगा. उसने नाक कटवा ली. नाक कटवाने के बाद बुद्धिजीवी ने कहा मुझे तो भगवान नहीं दीख रहा. राजा ने उसे पास बुलाकर कहा कि – देखो अब तो तुम्हारी नाक कट गयी है, काहे सच बोल रहे हो. तुम भी कहो, परमात्मा नाक की ओट में रहता है. देखते ही देखते पूरा राज्य नकटों से भर गया.
मोदीजी आज कम से कम नोटबंदी की बरसी पर एक बयान तो जारी कर दो कि नोटबंदी से बैंकों, जनता ने क्या गंवाया और संघियों और दलालों ने क्या कमाया. प्लीज़ कभी अपने महान कुकृत्य भी याद कर लिया करो. क्यों पूरे देश को नकटा बनाने पर तुले हुए हो !
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