उत्तराखंड के जि़ले चमोली के शहर जोशीमठ में ज़मीन धंसने के कारण हो रही तबाही की ख़बरें इन दिनों सभी संवेदनशील लोगों को सोचने के लिए मजबूर कर रही हैं कि हमारे आसपास हो रहा यह कैसा ‘विकास’ है, जिसने हज़ारों लोगों की जिंदगी ही दांव पर लगा दी है. यहां मकानों, खेतों, सड़कों में दरारें आ रही हैं, शहर नीचे धंस रहा है. 700 से ज़्यादा परिवारों की रिहाइश, उनका रोज़गार, उनके बच्चों की पढ़ाई आदि सब कुछ छिन गया है और बांकि़यों की बारी भी आने ही वाली है.
जोशीमठ, हिमालय की निचली ढलान पर उत्तराखंड राज्य के पूर्वी हिस्से में, समुद्र तट से लगभग 1875 मीटर की ऊंचाई पर, मलबे के ढेर पर बसा एक पहाड़ी शहर है. 8वीं सदी में ज्योतिर्मठ के नाम से अस्तित्व में आया यह शहर हिंदू और सिख धर्म-स्थानों का प्रवेश द्वार भी है. यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल ‘फूलों की घाटी’ जाने का रास्ता भी जोशीमठ में से होकर ही जाता है. इससे बिल्कुल ऊपर बसा हुआ ‘औली’ पर्यटकों की रुचि का केंद्र भी है.
इस प्रकार हिमालय के कुछ हिस्सों की यात्रा करने वाले पर्यटकों के लिए यह एक पर्यटन केंद्र भी बनता है. यही कारण है कि ऐसे कई महत्वपूर्ण स्थानों का प्रवेश द्वार होने के कारण धीरे-धीरे जोशीमठ रोज़गार का बड़ा केंद्र बन गया और लोगों ने यहां होटल और अन्य कई प्रकार की इमारतें बनानी शुरू कर दी. बड़ी संख्या में लोग यहां बसने लगे. साल 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यहां फ़ौज और इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस द्वारा एक पूरा फ़ौजी ढांचा विकसित किया गया, जिसके कारण आज लगभग 20 हज़ार के करीब लोग यहां बसते हैं और इतनी ही आबादी फ़ौज की है.
लगभग 6000 फुट की ऊंचाई पर बसा यह जोशीमठ किसी ठोस ज़मीन की बजाए बहुत ही कमजोर धरातल पर टिका हुआ है, जो हज़ारों साल पहले किसी समय यहां ग्लेशियरों के मलबे के इकट्ठा होने से बनी थी. बीते कुछ दिनों में यहां घरों और अन्य इमारतों के तेज़ी के साथ नीचे धंसने की ख़बरें आ रही हैं. 700 से भी ज़्यादा घरों में बसने वाले परिवारों को तुरंत अपने घर छोड़ देने के लिए कहा गया है. क्षेत्र को सरकार द्वारा ख़तरे वाला क्षेत्र घोषित कर दिया गया है.
अलग-अलग मीडिया चैनल जोशीमठ के धंसने के तकनीकी कारणों पर तो चर्चा कर रहे हैं, पर यहां की जनता का सब कुछ ही उजड़ रहा है, किसी भी समय उनके घर गिर सकते हैं. हज़ारों लोगों की जिंदगी दांव पर लगी है, पर जो इस सबके लिए दोषी है, उसके बारे में चर्चा लगभग गायब है.
मीडिया संस्थाओं द्वारा तो बस ज़्यादा आबादी को, आबाद इलाक़ों में निकासी का पानी खड़ा रहने, या यहां से गुज़रती नदियों के कारण पहाड़ों के प्राकृतिक क्षरण को (जो असल में हज़ारों सालों में होता है) मुख्य कारणों के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है और असल कारणों पर पर्दा डाला जा रहा है. सरकारी तंत्र और पूंजीवाद का सेवक मीडिया मिलकर यह तर्क दे रहे हैं कि जोशीमठ का संकट केवल और केवल यहां की जनता द्वारा रहने के लिए किया गया निर्माण है.
इस मामले के ज़रिए सरकारों का जनविरोधी चेहरा एक बार फिर नंगा हो गया है. लंबे समय से लगभग 14 महीनों से ही यहां के घरों में बड़ी-बड़ी दरारें आनी शुरू हो गई थीं, जिसके विरुद्ध जनता ने सरकार को अर्जियां लिखीं, प्रदर्शन किए लेकिन सरकार ने इसकी कोई ख़बर नहीं ली. यह तबाही अब दिनों-दिन तेज़ हो रही है, जिसके कारण सबसे पहले यहां की जनता को सुरक्षित जगह पहुंचाना और उनके लिए रिहायशी विकल्प मुहैया करवाना सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है.
पर अब भी भाजपा के मुख्यमंत्री द्वारा सिवाय झूठी बयानबाज़ी के और कुछ नहीं किया जा रहा. शुरू में वहां की भाजपा सरकार ने कहा कि जिन घरों में दरारें बढ़ गई हैं, वे वहां से चले जाएं और सरकार उन्हें 4000 रुपए प्रति माह के हिसाब से 6 माह का किराया दे देगी. भाजपा हुकूमत द्वारा मुसीबत में फंसे लोगों के साथ किए इस भद्दे मज़ाक़ ने लोगों का गुस्सा और बढ़ा दिया, जिससे मुख्यमंत्री को जोशीमठ जाने का दिखावा करना पड़ा और डेढ़ लाख़ मुआवज़े का ऐलान करना पड़ा.
परन्तु, अपना घर-बार, रोज़ी-रोटी, रोज़गार सब कुछ गंवा चुकी जनता के लिए यह भी एक भद्दा मज़ाक़ ही था, जिसके कारण इसे भी जनता ने ठुकरा दिया. असल में तो ऐसे संकट पर जनता के लिए पक्की रिहाइश, रोज़गार, दवा-इलाज, बच्चों की पढ़ाई आदि सारे प्रबंध करके देना सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है, पर उत्तराखंड की भाजपा सरकार यह ज़िम्मेवारी लेने से पूरी तरह बच रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने भी जनता की सुरक्षा के लिए तुरंत की जाने वाली ज़रूरी कार्रवाई के आदेश जारी करने की बजाय उल्टा इस मामले में सार्थक दख़ल देने के लिए की गई याचिका ही खारिज कर दी, जिससे इस न्याय व्यवस्था का चेहरा भी एक बार फिर नंगा हो गया.
यह तो स्पष्ट हो गया है कि यह मीडिया, अदालतें और सरकारें जनता के लिए कुछ करने लायक नहीं, सिवाय ऊल-जलूल दलीलें देकर जनता को भरमाने के. अब हम इस तबाही के असल कारणों पर एक नज़र डालते हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि जोशीमठ में मौजूदा आफ़त प्राकृतिक कम और ‘पूंजीवादी’ विकास की देन ज़्यादा है. वहीं पूंजीवादी विकास जिसके रथ पर मीडिया, अदालतें, सरकारें आदि सारे मिलकर सफ़र कर रहे हैं और जनता को कुचलते चले जा रहे हैं.
हैरानी की बात है कि 1939 में स्विट्ज़रलैंड के दो माहिरों – प्रोफे़सर हीम और प्रोफे़सर गानसर ने केंद्रीय हिमालय पर अपनी लिखी किताब में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि जोशीमठ, पहाड़ खिसकने के कारण इकट्ठे हुए मलबे के एक ढेर पर बसा है. यहां ज़मीन धंसने की घटनाएं 1970 के दशक के शुरू में ही दर्ज़ कर ली गई थी.
1976 में गढ़वाल के कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अगुवाई में बनी एक कमेटी की सिफ़ारिशों में भी यह साफ़-साफ़ कहा गया था कि जोशीमठ और नज़दीक की घाटियों में कोई बड़ा निर्माण कार्य नहीं किया जाना चाहिए, इस क्षेत्र में छोटे-मोटे निर्माण के अलावा निर्माण के बड़े प्रोजेक्टों पर रोक लगानी चाहिए, इस क्षेत्र में धमाके बिल्कुल नहीं किए जाने चाहिए.
मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट के बाद भी माहिरों की कई रिपोर्टें आईं, जिनमें ऐसी चेतावनियां दी गई थी. पर सरकारों और निजी कंपनियों द्वारा यहां निरंतर पनबिजली प्रोजेक्टों, सड़कें आदि बनाने के लिए पहाड़ के हिस्सों को धमाके करके हटाया जाता रहा है और यह काम अभी भी जारी है. सब कुछ आंखों के सामने घटने के बावजूद सरकारें अपनी आंखें बंद रखती हैं बल्कि उल्टा सच्चाई पर पर्दा डाला जाता है.
फ़रवरी 2021 में तपोवन डैम के टूटने से हुई तबाही से सबक़ लेने की बजाए सरकार की चिंता उल्टा यह थी कि कहीं इस घटना के बहाने वहां के पनबिजली प्रोजेक्टों के विरुद्ध कोई माहौल ना बन जाए, या जनता इसके विरोध में ना आ जाए इसलिए इस हादसे में हुई मौतों की असल गिनती तक को छिपा दिया गया.
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि जोशीमठ एक पहाड़ की ढलान पर बसा ऐसा शहर है, जो किसी समय पहाड़ खिसकने के बाद जमा हुए मलबे पर बना है. यहां भूचाल आने की संभावना भी सबसे ज़्यादा है. बीते समय के दौरान चमोली, उत्तरकाशी, जोशीमठ आदि क्षेत्रों में भूचाल आए भी थे. अब ऐसे संवेदनशील क्षेत्र में आगे-पीछे डैम बना दिए गए हैं.
सच तो यह है कि इस क्षेत्र में किया गया पावर प्रोजेक्टों का निर्माण, सरहदी सड़कें आदि बनाने के लिए किए जाने वाले धमाके आज मलबे पर बसे इस शहर के धंसने के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. पिछले कुछ समय में निजी कंपनियों द्वारा अपने मुनाफ़े की ख़ातिर यहां बड़े निर्माण का काम हुआ है. निजी कंपनियों द्वारा किए जा रहे सड़कों के निर्माण, बड़े-बड़े सीमा सड़क प्रोजेक्टों के चलते बड़े स्तर पर पहाड़ों को तोड़ा गया है, जो अभी भी जारी है.
बद्रीनाथ जाने का रास्ता छोटा करने के लिए जोशीमठ के बिल्कुल नीचे से जो बाईपास निकाला जा रहा है, उसके लिए नीचे किए जा रहे धमाके जोशीमठ की ज़मीन को और कमजोर कर रहे हैं. यहां 1980 में एक निजी कंपनी द्वारा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाया गया था और 2006 में सरकारी कंपनी एनटीपीसी द्वारा भी यहां एक पनबिजली प्रोजेक्ट लगाया गया. पनबिजली प्रोजेक्ट के निर्माण के नाम पर बड़े स्तर पर पहाड़ों की तोड़फोड़ की गई.
इन बड़े-बड़े धमाकों के कारण भौगोलिक तौर पर अस्थिर और कमजोर जोशीमठ की हालत और बिगड़ती गई. बची-खुची कमी यहां बनाई गई सुरंगों ने पूरी कर दी, जो इस शहर के नीचे से गुज़रती हैं. तपोवन बांध के टूटने के समय भी सैकड़ों लोग इन सुरंगों में ही डूबकर मर गए थे और अब वहां की स्थानीय जनता का कहना है कि इन सुरंगों में से ही पानी निकलने की वजह से शहर के नीचे की ज़मीन का क्षरण हो रहा है.
जनता ने रिसकर ऊपर आ रहे इस पानी में बांध की गार होने का भी दावा किया है, पर इन सब चेतावनियों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया और जनता के विरोध के बावजूद यहां सरकार और निजी कंपनियों द्वारा निर्माण के नाम पर तबाही का काम जारी रहा. ये हैं वे असल कारक, जो जोशीमठ की तबाही का कारण हैं.
पर मीडिया चैनलों को वहां बसने वाली जनता या उनके लिए छोटे-मोटे रोज़गार का ज़रिया बने होटलों आदि का निर्माण ही इस तबाही का कारण लगते हैं और इतने बड़े-बड़े पनबिजली प्रोजेक्ट, सड़कें बनाने के नाम पर शहरों के बिल्कुल नीचे किए जा रहे धमाके, जोशीमठ के बिल्कुल नीचे बनाई गईं सुरंगें, सारे नियमों का उल्लंघन करके बनाए किए डैम नज़र नहीं आते.
यह कहानी अकेले जोशीमठ की नहीं है. इससे 80 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग में भी 50 से ज़्यादा घरों में दरारें बढ़ जाने की ख़बरें आ रही हैं. उत्तराखंड के चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जैसे जि़लों के अनेकों ऐसे गांव हैं, जो इसी प्रकार ख़तरे में हैं. टिहरी में भी घरों में दरारें आनी शुरू हो गई हैं. वहां भी नीचे सुरंग बनाई गई है. एक ओर तो चंद्रमा पर प्लाट काटे जा रहे हैं, पर दूसरी ओर सरकारों के पास खतरे में पड़ी इस छोटी-सी आबादी को बसाने के लिए कोई प्रबंध ही नहीं है.
सच तो यह है कि मानव जीवन और इसके आसपास के वातावरण की क़ीमत पर इस क्षेत्र का किया जा रहा औद्योगिकीकरण आज जनता की तबाही का कारण बन गया है. विकास के नाम पर पूंजीपतियों की कभी ना ख़त्म होने वाली मुनाफ़े की हवस, और इस मुनाफ़े की पूर्ति के लिए प्राकृतिक धन का बड़े स्तर पर उजाड़ा ही ऐसी त्रासदियों का असल कारण है.
इसी हवस का एक ताज़ा उदाहरण पंजाब का है, जहां ज़ीरा इलाके़ में शराब फै़क्टरी से पानी और ज़मीन की हुई तबाही की मार वहां की स्थानीय आबादी झेल रही है. पर ऐसा भी नहीं है कि जनता सिर्फ़ शोषण ही झेलती जाएगी. जोशीमठ में जनता ने प्रशासन और पनबिजली प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनी के विरुद्ध रोष प्रदर्शन किए, शहर बंद किया, चक्का जाम किया.
जोशीमठ बचाओ संघर्ष कमेटी के बैनर तले लड़ रही जनता ने आबादी को दोबारा बसाने का तुरंत प्रबंध करने, सरकारी ऊर्जा कंपनी एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही सुरंग के निर्माण को रोकने, बद्रीनाथ के लिए हेलांग और मारवाड़ी के बीच बद्रीनाथ के लिए बाईपास सड़क के निर्माण को रोकने, और तपोवन-विष्णुगढ़ हाइडल प्रोजेक्ट को जोशीमठ की इस तबाही का असल दोषी करार देने की माँगों पर संघर्ष छेड़ा हुआ है.
और केवल जोशीमठ ही नहीं, हर ओर इस पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध जनता का गुस्सा फूट रहा है और संगठित हो रहा है. वह दिन अब बहुत दूर नहीं, जब इन्हीं दुःखों की मारी जनता की संगठित ताक़त इस जनविरोधी पूंजीवादी व्यवस्था को मिट्टी में मिला देगी.
- अमन संतनगर (मुक्ति संग्राम)
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