सही मायनों में यही तीन करोड़ लोग हैं जो न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था को डूबा रहे हैं बल्कि 135 करोड़ लोगो के जीवन में महंगाई लाकर खिलवाड़ भी कर रहे हैं. चूंकि इनमें से बहुत सारे लोग बड़े-बड़े सरकारी पदों और सरकारी नौकरियों पर नियुक्त हैं और पद की सुविधा के नाम पर जनता के कर के पैसों का अपनी विलासिता और भौतिक संसाधनों के दुरुपयोग करने के लिये करते हैं और लगभग 135 करोड़ लोगो का हक़ मारकर खुद खा जाते हैं.
पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
मारवाड़ी में एक कहावत है – ‘करमहीण खेती बावे जद या तो काळ पड़े या बैल मरे.’ अर्थात, जब भाग्यहीन खेती करता है तो या तो बैल मर जाता है या अकाल पड़ जाता है. (यानि वो खेती से फसल रुपी लाभ नहीं ले पाता). उपरोक्त कहावत बीजेपी पर बिल्कुल फिट बैठती है.
रॉयल सीक्रेट सर्विस के जमाने से लेकर बीजेपी के मोदीकाल तक बीजेपी को जब भी शासन मिला जनता में त्राहि-त्राहि ही मची है, चाहे वो प्राकृतिक आपदाओं के कारण से हो या महामारियों के कारण से अथवा अन्य दूसरे कारणों (दंगे/सांप्रदायिकता/धार्मिक उन्मांद इत्यादि) से. मोदी के पहले कार्यकाल में आपने सत्ता का कहर झेला था और अब मोदी के दूसरे कार्यकाल में कोरोना के साथ साथ प्राकृतिक आपदाओं का कहर भी झेलते रहिये.
पहले की नोटबंदी से नोटों की लूट, जिससे गरीबों की कमर गयी टूट. फिर पहनकर दसलखिया सूट, दी कार्पोरेट्स को जीएसटी में छूट. पैरों में पहन के 3 लाख के बूट, मध्यमवर्गीय को रहे हैं सिर्फ लूट, सरहद पर हो रहे है रोज जवान शूट, फिर भी बोले झूठ, झूठ और सिर्फ झूठ.
कोई समझ रहा है और कोई समझ नहीं पा रहा है. मोदी सरकार ने अपनी तरफ से बड़े से बड़े अर्थशास्त्री और नीति आयोग वाले प्लानर लगा रखे हैं, परन्तु अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं हो रहा. वो लगातार नीचे की तरफ उतरती जा रही है अर्थात भारत की अर्थव्यवस्था डूब रही है और मोदी सरकार आंकड़ों का खेल दिखा रही है – टैक्स कलेक्शन, इनफ्लेशन रेट, ग्रोथ रेट और न जाने क्या क्या !
महंगाई बढ़ती जा रही है और मोदी सरकार ये तक नहीं समझ पा रही कि महंगाई बढ़ क्यों रही है ? मंहगाई को छुपाने के लिये मोदी सरकार कोरोना की आड़ ले रही है, जबकि हकीकत तो ये है कि जो टैक्स क्लेक्शन बढ़ा है वो दरअसल कोरोना मरीजों द्वारा भरा गया है. अर्थात, महामारी काल में भी मोदी सरकार अस्पतालों से लेकर दवाओं तक पर लादे गये ‘जबरिया टैक्स’ के कारण राजस्व तो बढ़ गया मगर लोग अपनी इमरजेंसी सेविंग्स से भी खाली हो गये.
सरकारी बैंकों में भयंकर दबाव है क्योंकि बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ रहा है. बैंकों की इसी बुरी स्थिति को छुपाने के लिये ही मोदी सरकार बैंकों को आपस में मर्ज कर कर रही है. हालात तो यहां तक हो गये हैं कि बैंक अधिकारी अपना टार्गेट पूरा करने के लिये और दुसरों के ऋण चुकाने के लिये निजी लोन लेकर किस्ते भर रहे हैं ताकि बैंक की शाख और उनकी नौकरी दोनों बची रहे. (मेरी ये बात जो बैंक में नौकरी कर रहे हैं, वे और उनके घरवाले अच्छे से जानते हैं).
सरकारी खजाना खाली है इसीलिये मोदी केयर बनाकर जनता से भीख भी मांगी गयी और जबरिया गुंडा टैक्स भी वसूला गया. कुछ कार्पोरेट्स ने बड़ी रकम देकर राहत के नाम पर इन्वेस्ट भी किया ताकि धन की कमी से मोदी सरकार जो सरकारी उपक्रमों को बेच रही है, वे उन्हें आसानी से मिल जाये. (आप सब तो जानते ही है कि कोई भी अपने घर का सामान तभी बेचता है जब वो किसी भी तरह से धन का जुगाड़ नहीं कर पाता और उसके खाने पीने के लाले पड़ जाते है). इसका एक उदाहरण में मोदी सरकार की कलाकारी को यूं समझे – देश की 17000 एकड़ जमीन अम्बानी-अडानी को बिजलीघर लगाने के लिये फ्री में दे दी गयी.
मोदी जी ने कहा था कि उनके खून में व्यापार है. मगर मैं कहता हूं इनके खून में व्यापार नहीं बल्कि कमीनापन है. मोदी मॉडल से देश बर्बाद हो रहा है और तो और मुगलों से भी ज्यादा मंदिरों को मोदी ने तोड़ा है. जबकि अब तो स्वतंत्र और लोकतंत्र है लेकिन भक्त गरियाते आज भी मुगलों और कांग्रेस को है जबकि मुग़ल हो या कांग्रेस दोनों के मॉडल से देश आबाद हुआ था. हां, कुछ कमियां रही है मगर सृजन करते वक्त उस पदार्थ का नाश तो होता ही है जिससे सृजन किया जाता है.
बहरहाल, भारत के लोगों को सपनों में जीने की आदत है. वे फिलमेरिया से ग्रसित हैं. उन्हें लगता है कि एक हीरो जैसे फिल्मों में सब गलत को अकेला ही ठीक कर देता है वैसे ही हकीकत में भी हो जायेगा. और इसलिये ही वे कुछ करते नहीं लेकिन कुछ होने की आशा दुसरों से करते हैं. इसी का फायदा नेता और कॉर्पोरेट्स उठाते हैं और देश को चुना लगाते हैं. मोदी सरकार भी इसका फायदा उठा रही है और जनता को चुना लगा रही है. मगर भले ही खुद की पीठ ठोककर शाबासी देने वाले और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनकर वाहवाही करने वाले मोदी से मैं कहना चाहता हूं कि ‘सारा हिसाब ज्यूं का त्यूं, फिर भी कुनबा डूबा क्यूं ?
स्विट्ज़रलैंड बैंकों ने जो डाटा शेयर किया है उसके अनुसार स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के पैसे में ऐतिहासिक बढ़ोतरी हुई है. पिछले 13 साल का रिकॉर्ड पैसा जमा हुआ है, जो बढ़कर 20,700 करोड़ रुपये हो गया है और ये आंकड़ा भी बैक ईयर 2020 तक का ही है.
भारत की वर्तमान आबादी लगभग 138 करोड़ है, जिनमें 10 करोड़ लोग अति निम्न या पिछड़ा वर्ग है जो गरीबी रेखा से भी बहुत नीचे है, जिन्हें महीने में मुश्किल से 20-25 टाइम ही खाने को मिलता है. उनके पास न तो रोजगार होता है और न ही किसी तरह की सुविधायें. इनमें से ज्यादातर लोग भीख मांगकर गुजारा करते हैं क्योंकि इनके लिये जो सरकारी राहत योजनायें बनायी जाती है वो सिर्फ कागजों में पूरी होती है. इन तक पहुंचने से पहले ही नेता से लेकर अफसर तक उस योजना को खा जाते हैं और इस तरह ये बहुत ही दयनीय स्थिति में जीते हैं.
इन दस करोड़ से ऊपर लगभग 100 करोड़ निम्नवर्गीय लोग हैं, जिनकी सुविधायें कम है लेकिन महीने में 15-20 दिन पूरा महीना में रोजगार होता है. इनमें मनरेगा मजदूरों से लेकर किसानों तक और दिहाड़ी मजदूरों से लेकर दलित वर्ग तक सभी शामिल हैं. (इनमें से बहुत से निम्नस्तर की सरकारी नौकरियों में भी है और इन्हें कमोबेश सरकारी योजनाओ का लाभ मिल ही जाता है, इससे ये भूखे तो नहीं सोते लेकिन खाने को मिल ही जायेगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती क्योंकि लॉक-डाउन में लगभग 20 करोड़ लोग बेरोजगार हो चुके है.
कुछ ने तालाबंदी की वजह से स्वेच्छा से अपना कारोबार बंद कर दिया और कुछ को निजी कम्पनीयों ने निकाल दिया ताकि तालाबंदी में कम्पनी का खर्च कम किया जा सके. बचे हुए लोगों का काम इसलिये भी चला गया क्योंकि तालाबंदी की वजह से वे कम्पनियां ही बंद हो गयी जहां वे काम करते थे.
उपरोक्त 110 करोड़ लोगों से ऊपर लगभग 20 करोड़ मध्यमवर्गीय लोग हैं, जिनके पास रोजगार है और साधारण सुविधायें भी है. थोड़ी बहुत सेविंग भी कर लेते हैं लेकिन इनके लिये किसी भी प्रकार की कोई सरकारी योजना नहीं होती. सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिये पैसा और मेहनत दोनों लगाने पड़ते हैं, इस कारण इस वर्ग के बहुत कम लोग सरकारी नौकरियों में होते हैं. ज्यादातर लोग या तो प्राइवेट नौकरी में होते हैं या छोटा-मोटा कारोबार करके अपना जीवन व्यतीत करते हैं.
इन 130 करोड़ से ऊपर 5 करोड़ लोग उच्च मध्यम वर्गीय हैं. इनके पास अच्छा रोजगार होता है और सुविधा संपन्न भी होते हैं लेकिन धन संचय के मामले में ये जीरो होते हैं क्योंकि इनकी सुविधायें ईएमआई पर टिकी होती है. अतः इनका कमाया ज्यादातर धन ईएमआई चुकाने में खर्च होता है लेकिन फिर भी ये महंगा और आडंबरयुक्त जीवन जीते हैं और जेवरात इत्यादि में या जमीन संबंधी चीज़ों में अपना इन्वेस्ट करके रखते हैं, जिसमें ये जरूरत या बिना जरूरत के भी फायदा देखकर क्रय-विक्रय करते रहते हैं, जिससे इनका बैंक बैलेंस भी ठीक रहता है.
ये लोग शेयर बाजार से भी फायदा उठाते हैं, जिससे इनके धन का आवागमन चलता रहता है लेकिन इनके पास भी इतना धन नहीं होता कि वे विदेशों के किसी बैंक में काले धन के रूप में जमा करके रख सके). कभी-कभी जैकपॉट जैसी स्थिति में किसी कारण से बहुत-सा धन आ भी जाये तो ये वही स्वर्ण धातु या जमीन में इन्वेस्ट कर देते हैं अथवा जो अतृप्त वांछा होती है उसे पूर्ण कर लेते है, जैसे बड़ा मकान/कोठी/बंगला/गाडी इत्यादि.
स्पष्ट है कि भारत की 135 करोड़ की आबादी के पास कोई काला धन नहीं है. शेष बचे 3 करोड़ धनकुबेर लोगों के पास अकूत सम्पदा होती है और काला धन इनका ही है. इनमें संवैधानिक पदों पर बैठे नेता और बड़े प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा कॉर्पोरेट्स भी शामिल है अर्थात, वे बिजनेस टायकून जो अनेक प्रकार के काम करते हैं.
सरकारी स्कीमों पर भी यही काम करते हैं और इसके लिये अधिकारी वर्ग और नेताओं को तगड़ी रिश्वत देते हैं ताकि वे सरकारी योजनाओ का टेंडर हासिल कर सके. फिर उस योजनाओं पर काम करके अनाप-शनाप पैसा बनाते हैं. यही वो वर्ग है जो बैंकों से लम्बे-चौड़े कर्ज लेता है लेकिन चुकाता नहीं है क्योंकि वो पैसा धीरे धीरे काले धन के रूप में विदेशी बैंकों (स्विस बैंक चूंकि सबसे सेफ है इसलिये ज्यादातर स्विस बैंकों में होता है) जमा होता रहता है या फिर टैक्सहेवन कंट्रीज के रास्ते वो काला धन सफ़ेद होकर देश में आता है लेकिन राजस्व का फायदा सरकारी खजानो में वृद्धि नहीं करता क्योंकि टैक्सहेवन देशों में फर्जी कम्पनियां बनाकर ये पूरा राजस्व डकार जाते है और बैंकों से लिया कर्ज एनपीए के रूप में बढ़ता चला जाता है.
अर्थात, सही मायनों में यही तीन करोड़ लोग हैं जो न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था को डूबा रहे हैं बल्कि 135 करोड़ लोगो के जीवन में महंगाई लाकर खिलवाड़ भी कर रहे हैं. चूंकि इनमें से बहुत सारे लोग बड़े-बड़े सरकारी पदों और सरकारी नौकरियों पर नियुक्त हैं और पद की सुविधा के नाम पर जनता के कर के पैसों का अपनी विलासिता और भौतिक संसाधनों के दुरुपयोग करने के लिये करते हैं और लगभग 135 करोड़ लोगो का हक़ मारकर खुद खा जाते हैं.
अगर यही काला धन जनता के विकास के लिये उपयोग हो तो 135 करोड़ लोगों की जिंदगी न सिर्फ सुधर जायेगी बल्कि सुविधा संपन्न भी हो जायेगी, कोई भी गरीब या गरीबी रेखा से नीचे नहीं रहेगा.
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