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डॉन की तलाश 11 मुल्कों की सेबी और ’11 चौराहों की जनता’ कर रही है

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डॉन की तलाश 11 मुल्कों की सेबी और '11 चौराहों की जनता' कर रही है
डॉन की तलाश 11 मुल्कों की सेबी और ’11 चौराहों की जनता’ कर रही है
मनीष सिंह

प्रश्न- निम्न 3 ऑब्जर्वेशन का अध्ययन कीजिए –

  • ऑब्जर्वेशन 1- रतन टाटा 198 नम्बर के अमीर है, उनकी कम्पनियों में कुल 9.35 लाख लोग काम करते हैं.
  • ऑब्जर्वेशन 2- मुकेश अम्बानी विश्व के आठवें नम्बर के अमीर हैं. उनकी कम्पनी में 3.25 लाख लोग काम करते हैं.
  • ऑब्जर्वेशन 3-हफ्ते भर पहले तक अदानी दूसरे नम्बर के अमीर थे। समस्त धन्धे मिलाकर मात्र 0.23 लाख लोग काम करते थे।

उपरोक्तानुसार ऑब्जर्वेशन से उचित फाइंडिंग तथा उनका एक्सप्लेनेशन दीजिए एवम उचित सिद्धांत का प्रतिपादन कीजिए.

उत्तर :

फाइंडिंग – आप जितनी ज्यादा नौकरी देंगे, आपकी फोर्ब्स रैंकिंग गिरती जाएगी.

एक्सप्लेनेशन- खाक एक्सप्लेनेशन ?? सबै पैसा तनख़्वाह में बांट दोगे, तो तुम्हारे पास क्या बचेगा बे ? लुकाठी ???

सिद्धांत- फोर्ब्स रैंकिंग और पैदा की गई नौकरी की संख्या, एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती होते हैं.

और प्रश्नपत्र में जो न आया वह भी लिख देता हूं. इसका फायदा है कि आपकी सम्पत्ति जब हवा हो, तो भी नौकरी नहीं घटती. अतएव चौकीदार की नौकरी सुरक्षित है.

टुईं !!

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प. पू. (परम पूज्य) दाऊद जी इब्राहीम एक महान शख्स थे. उन्होंने ने 80 औऱ 90 के दशक में विश्व के स्मगलिंग, नारकोटिक्स, हथियार आपूर्ति, अवैध वसूली मनीलॉन्ड्रिंग के क्षेत्र में भारत का नाम ऊंचा किया. इनके अंतराष्ट्रीय कारोबार में 23 हजार से ज्यादा एम्प्लोयी कार्यरत थे. उन्होंने सैकड़ों शार्प शूटर, स्मगलर, मवाली, फ्रॉडियों और गुंडों को सीधे रोजगार दिया था. वे अनस्किल्ड यूथ की सीधी भर्ती करके, कम्पनी के खर्चे पर उसका सम्पूर्ण प्रशिक्षण करवाते थे. नेतृत्व को बढ़ावा देने की उनकी प्रवृत्ति से, अंडरवर्ल्ड में कई नए चेहरों को जीवन में बड़ा मकाम, गर्लफ्रेंड और धन मिला.

परन्तु सीधे रोजगार से ही उनके योगदान का असल मूल्यांकन सम्भव नहीं. अगर कोई दो टके का एक्टर, उनके ऊपर बनी फिल्मों में स्मगलर बनकर, दस बीस करोड़ कमा ले, तो उसे रोजगार कहेंगे कि नही कहेंगे ???

तो उनके कारण बहुत अप्रत्यक्ष रोजगार भी बने, जिसमें हीरो, हीरोइन, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, सिंगर, म्यूजिक कम्पनी, सिनेमा हॉल वालों, उसके सामने टिकट ब्लैक करने वालो, डुप्लीकेट सीडी बनाकर बेचने वालों को बड़ी भारी मात्रा में रोजगार मिला. उन्होंने खुद भी फिल्में, नेता और पत्रकारों को फाइनांस किया.

उनके द्वारा अंडरवर्ल्ड सोशल रिस्पांसिलिटी के तहत बहुत से नेताओं, पुलिसवालों, वकीलों को चन्दा दिया गया. इससे लोकतन्त्र को मजबूती मिली !

श्री दाऊद जी इब्राहीम ने दुबई, कराची, लन्दन, नैरोबी, सिंगापुर वगैरह में नारकोटिक्स के बिजनेस में धूम मचा दी थी. उनके द्वारा सप्लाई की गई कोकीन की गुणवत्ता विश्व में सर्वोत्तम मानी गयी थी.

एक भारतीय नागरिक, तमाम विदेशी स्मगलरों को पछाड़ कर, विश्व मे स्मगलिंग का सिरमौर बना, मगर विदेशी माइकेल कारलियोनि उर्फ गॉडफादर के वामपंथी चमचे, एक भारतीय स्मगलर पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते.

यह गुलाम मानसिकता का प्रतीक है.

भारत का व्यक्ति है. चाहे जो भी करे, अगर दो पैसा कमा ले, कुछ रोजगार और हमारी पार्टी के नेताओं को चन्दा दे दे तो उसकी प्रशंसा किया जाना ही देशभक्ति है. वैसे भी अगर तुम्हारे विलेज में दम है, तो तुम भी दाऊद बनके दिखा दो.

मगर ये फैशन, अमृतकाल में नया-नया ही आया है. काश, 80 के दशक में सोशल मीडिया होता तो राष्ट्रवादी भक्त समाज दाऊद जी के पक्ष जोरदार अभियान चलाता, इससे उन्हें एटलीस्ट पद्मश्री तो मिल ही जाती.

मगर मिली नहीं.

दाऊद जी के साथ हुए अन्याय के प्रतिकार के लिए, देश प्रेम के गर्व से भरी कृपया इस पोस्ट को इतना शेयर करें कि हर भारतीय तक पहुंच जाये.

हां, जिन्हें दाऊद जी के धर्म से दिक्कत हो, वह पोस्ट में हर जगह ‘छुटका जी राजन’ का नाम घुसेड़कर सकते हैं.

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‘डॉन की तलाश तो 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है !’

पिछले जमाने की फिल्मों में अमिताभ बच्चन सोने की स्मगलिंग करते थे, मगर डायरेक्टर उन्हें हीरो बनाकर पेश करता था.

स्टोरीलाइन- एक बेचारा, किस्मत का मारा. मां अंधी है, बाप गूंगा है, जो ईमानदार है, सो गरीब है. हमारा हीरो झुग्गी में रहता है, रोटी चुराकर खाता है, डॉक में मजदूरी करता है, वहां का गुंडा पैसे छीन लेता है. मरता क्या न करता- बेचारा स्मगलर बन गया.

अब उसके पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है, चश्मा है, कोट पैंट और तितली वाली टाई है. सुंदर-सी हीरोइन है. वो दान पुन्न भी कर रहा है. बिल्डिंग भी खरीद रहा है, जहां उसकी मां ने ईंटें उठाई थी.

अरे, अब थोड़ी मौज करने दो बेचारे को !! मगर नहीं.

जालिम-जलनखोर जमाने को चैन कहां. 10% इनाम के लालच में कोई धूर्त बदमाश, पुलिस को सूचना दे देता है. स्मगलिंग का सारा सोना पकड़ा जाता है. इन्फॉर्मर 10% कमा लेता है और डॉन की तलाश 11 मुल्कों की पुलिस कर रही है.

कथानक का प्रस्तुतिकरण ऐसा है कि स्मगलर से आपको बेइंतहा प्रेम है और धोखेबाज इन्फॉर्मर विलेन है, उस पर आपको क्रोध आता है.

वैसे ही हिंडनबर्ग पर बहुत से भारतीय क्रोधित हैं. वो धोखेबाज है, लालची है, शार्ट सेलर है, शेयर गिराकर मुनाफा कमाती है. पैसा कमाने के लिए रिपोर्ट जारी किया है.

भला है बुरा है जैसा भी है
मेरा स्मगलर मेरा देवता है !

मितरों, हिंदनबर्ग ने जो कमाया है, वह लीगल है. आप रिपोर्ट निकालने की मंशा पर सवाल नहीं कर सकते. वो मंशा, लीगल है, नैतिक है.

आप सिर्फ रिपोर्ट की सच्चाई झुठाई पर बहस कर सकते हैं, डिफेंड कर सकते है लेकिन जिसे ये करना है, वो तो खुदई डिफेंड कर नहीं पा रहा.

नतीजा- डॉन की तलाश 11 मुल्कों की सेबी कर रही है.

हां, मगर सत्य ये भी है कि डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है. इसलिए कि यह भारत है. यहां तो जाने कब से, एक और डॉन की तलाश ’11 चौराहों की जनता’ कर रही है.

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क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो ..

चुनावी राजनीति में पैसा महत्वपूर्ण है. राष्ट्रव्यापी विशाल राजनैतिक संगठन, मुफ्त के मोटिवेशन पर काम नहीं करते. प्रचार, मीटिंग, यात्रा, रैली.. बेहद महंगा है.

प्राइजिंग एस्ट्रोनॉमिकल है.

 

पुराने दौर में खर्च कम थे, और पैसा भी दो तरह के चन्दे से आता था. याने आम आदमी से, और उद्योगपति का भी.

दोनो चंदादाताओं में बहुत से कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट था. जैसे- जनता चीजें सस्ती चाहती है, उद्योग उसे महंगा करना चाहता है. सरकारों को दोनों ओर के हित में सन्तुलन रखना होता. फिर जनता वोट देती है, तो धनपतियों को सरेंडर भी नहीं कर सकते.

पंरतु कालक्रम में जनता से चंदा मिलना और मांगना दोनों बन्द हो गया. पार्टीगत राजनीति का पूरा खर्च उद्योगपति देते हैं सो सरकार की पॉलिसी उनके फायदे के लिए बनती है.

इन लोगों ने होशियारी से मीडिया ओनरशिप भी कब्जा कर ली. हिन्दू मुस्लिम में असल सवालों को भटकाकर, मुद्दे इग्नोर करके, कृत्रिम नरेटिव बनाकर अपनी सरकार को प्रोटेक्ट भी करने लगे.

तो अब सरकार जनमत से भी सुरक्षित है. मुकम्मल ध्यान कारपोरेट मुनाफे के लिए लगा सकती है.

कॉरपोरेट चन्दा, विपक्ष को न मिले, इसके लिए प्रावधान 2016-17 में बन गए. नगद, चेक को बैन करके इलेक्टोरल बांड शुरू करना मास्टरस्ट्रोक था.

बांड क्रय के लिए कम्पनी के बोर्ड रिजोल्यूशन की बाध्यता हटा देना, सुनिश्चित करता है कि कम्पनी का चेयरमैन जिसे चाहे, खुदमुख्तार, होकर पैसा दे. परिवार बेस्ड कम्पनियां इस पर्पज में सूटेबल हैं.

फिर बॉन्ड पर टैक्स छूट, उनकी गुप्तता सुनिश्चित कर, सरकार ने इंश्योर किया कि विपक्ष को कतई कोई पैसा न मिले. नतीजा, आप विपक्ष के किसी भी कार्यक्रम में पैसे की दुर्बलता साफ नजर आता है.

उसी समय इसके साथ यह भी सुनिश्चित किया कि विपक्ष से सहानुभूति रखने वाले घराने, व्यापारिक घराने कॉम्पटीशन से बाहर हो जाये. उनका विकास, कमाई रुक जाए. तो अब चन्दा देने को अकूत धन, मुट्ठी भर लोगो के पास है. सारे विपक्ष के दुश्मन हैं.

राहुल अकेले पॉलिटिशियन हैं, जिन्होंने घुटने टेक कर भीख मांगने की जगह, रीढ़ सीधी रखकर सीधा अटैक किया है. वे लगातार व्यापारिक मोनोपॉली के विरुद्ध बोलते रहे. ‘सूट बूट की सरकार’, ‘फेयर एंड लवली योजना’ से ‘हम दो हमारे दो’ तक, राहुल का हमला खुलकर आता गया.

अडानी पर उनका हमला तो एकदम सीधा रहा है. पर ये हमले शाब्दिक रहे हैं. किसी देश में विपक्ष किसी कम्पनी के पीछे खुलकर पड़ ही जाए, तो चूलें हिल जाती हैं. फिर हिंडनबर्ग जैसा एक धक्का, रेत का महल गिरा जाता है.

तो शाब्दिक हमला भी कम डिवेस्टटिंग नहीं.  लेकिन जनमत को पूंजी के चंगुल से बाहर लाना, लोकतंत्र का जरूरी तकाजा बन चला है. राहुल ही है, जो जहरीली पूंजी का फन पूरा ही कुचलने का माद्दा रखते हैं.

उन्हें बताना होगा कि लोकतंत्र में व्यापारी चाहे जितना बड़ा हो जाये, सरकारों और राजनीतिक दलों से बड़ा नहीं हो सकता. उसे व्यवस्था से खिलवाड़ करने लायक ताकत, कभी मिलनी नहीं चाहिए. मिल जाये तो खेलने का साहस नहीं करना चाहिए.

कांग्रेस स्टेट्स के इनके काम धंधों की तत्काल जांच की जाए. एक लेबर इंस्पेक्टर या पॉल्यूशन चेकर घुसेगा तो 100 पन्ने का आरोप पत्र रेडी करके दे देगा. वे हिमाचल में मनमौजी से बंद किये सीमेंट प्लांट राज्य सरकार अधिग्रहण भी करे.

शुरू तो करें, तो आधे देश में यह होने लगेगा.

यही समय है. भलामानुस राहुल, प्रेम की दुकान वाला राहुल, डेमोक्रेटिक राहुल तो हम जीवन भर देखते रहेंगे, अभी तो माफ न करने वाला राहुल चाहिए. थोड़ा जहरीला राहुल चाहिए.

मैं नहीं, दिनकर कहते हैं – क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो. उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो.

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यह 1944 का जर्मनी था, और था उसका मेहनतकश नेता. जून की 6 तारीख जब मुंह अंधेरे ही अमेरिकी, कनाडियन और ब्रिटेन के फौजी, दो हजार शिप, फिग्रेट, डिस्ट्रॉयर्स, में सवार होकर नारमण्डी के तट पर पहुंचे, उनका स्वागत गोलियों की बौछार से हुआ.

1942 तक हिटलर की ताकत अपने उरूज पर थी. पूरा यूरोप मुट्ठी में था, आधा रूस कदमों में. ब्लित्कृग़ज़, याने तेज अचानक हमले की नीति से दुनिया स्तब्ध थी. सभ्य दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य…

हिटलर इसका बादशाह था. वो नाजी पार्टी का मुखिया भी था, सरकार का प्रमुख था, सेना का प्रमुख था, विदेश नीति का प्रमुख था… अथाह ताकत-अथाह जिम्मेदारी.

सफलता के साथ समस्या भी आती है. इतिहास में इतना लंबा समुद्र तट किसी के पास नहीं था. रशिया की अब तक हुई जीत ने विशाल भूभाग उनके कदमों में दे दिया था. दर्जन भर देश ऐसे थे, जो कहने को आजाद थे, मगर हिटलर की कठपुतली सरकारें थी. उनका भी हर निर्णय हिटलर से होकर गुजरता.

एल्प्स की सुरम्य वादियों के बीच उसके महल में हिटलर 5 जून की रात देर तक लोगों से मिलता रहा. पार्टी, पॉलिटिक्स, कूटनीति और युद्ध के मसलों पर फैसले देता रहा. उसे नींद की समस्या थी, तो रात 3 बजे दवा लेकर सोने गया. इस वक्त मित्रराष्ट्रों की सेनाएं अपने शिप्स में चढ़ रही थी.

चैन से सोते, सर्वशक्तिमान हिटलर के बिस्तर से 1000 किलोमीटर दूर, नारमण्डी के तट पर मित्रराष्ट्रों की सेना सुबह की पहली रोशनी के साथ पहुंच गई.

उनका स्वागत गोलियों की बौछार से हुआ. रोमेल ने तट की तगड़ी मोर्चाबंदी की थी. बंकर, तोपें, मशीनगन, लैंडमाइंस लगवाए थे. तट पर तैनात जर्मनों ने पहले ही घण्टे में दस हजार से ज्यादा एलाइड फौजियों को मार गिराया.

समुद्र लाशों से भर गया, लेकिन एलाई फौजों का आना कम न हुआ. बीच के ऊपर आकर उन्होंने जर्मन्स को काबू में किया. भारी कीमत देकर, बारह बजे तक कुछ किलोमीटर समुद्र तट वे सुरक्षित कर चुके थे।

साल भर पहले रोमेल ने कुछ पैंजर डिवीजन मांगी थी, मगर हिटलर ने मना कर दिया था. इस वक्त नारमण्डी में तत्काल टैंक और एयर कवर चाहिए था. रोमेल ने पेरिस में तैनात टैंक रेजिमेंट को, नारमण्डी तट पर भेजने की आज्ञा मांगी. आज्ञा दे कौन ?? सोते हुए सर्वशक्तिमान को उठाये कौन ?

यूं तो सुबह सात बजे ही हमले की खबर हिटलर के महल तक में पहुंच गयी, पर अभी सिचुएशन का पूरा अंदाजा न था. आखिर हिम्मत करके दस बजे हिटलर को उठाया गया. ग्यारह बजे तक उसने जनरलों की मीटिंग ली, 12 बजे तक फैसले लिए…

दोपहर बाद तक उन पर अमल शुरू हुआ, लेकिन अब तक मित्रराष्ट्र एज ले चुके थे. पूरे इलाके पर हजार से ऊपर बमवर्षक उड़ रहे थे. जर्मन टैंक या फौजी अगर निकलकर तट की ओर जाते तो सड़कों पर ही खत्म हो जाते.

रात का इंतजार करना पड़ा.

साल भर पहले रोमेल ने अपनी ब्रीफिंग में हिटलर से कहा था- जब कभी हमला होगा, पहले 24 घण्टे में फैसला हो जाएगा. वो गलत था. फैसला 12 घण्टे में हो गया.

रात होते होते मित्रराष्ट्रों में पैर जमाने लायक जमीन जीत ली थी. अब इन पर हजारों हजार सैनिक उतर रहे थे. 6 जून को एक छोटा-सा तट जो जर्मनी हारा, 11 माह बाद 30 अप्रेल 1945 को वे बर्लिन में विदेशी बूट गूंज रहे थे.

हिटलर ने आत्महत्या कर ली.

तेज, अतिविस्तार, और फिर सब कुछ अपनी मुट्ठी में बन्द रखना, आपको ताकत औऱ महानता का अहसास कराता है लेकिन अतिकेन्द्रित व्यवस्था में ही स्वयं के विनाश का बारूद छुपा होता है.

एक क्षण में जो अविजित दिखता है, अगले ही पल एक मजबूत प्रहार से बिखर जाता है. यह इतिहास में एकाधिक बार हुआ है. लेकिन अहंकार और अतिमहत्वकांक्षा के शिकार लीडर वही वही चीजें दोहराते हैं. दुनिया अपनी मुट्ठी में कैद कर, अठारह-अठारह घण्टे जागकर जो खड़ा करते हैं, छह घण्टे की नींद के बाद..उसे बिखरा हुआ पाते हैं.

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