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दस्तावेज : अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा का सर्वनाश कैसे किया ?

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पं. सुन्दरलालपं. सुन्दरलाल (जन्म – 26 सितम्बर, 1886; मृत्यु – 8 मई, 1981)

पं. सुन्दरलाल महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी तथा गांधीवादी के रूप में विख्यात थे. ब्रिटिश शासन के जमाने में उन्होंने हलचल मचा देने वाली दो खण्डों में एक किताब लिखी थी ‘भारत में अंग्रेजी राज’, जिसे ब्रिटिश सरकार ने तुरंत जब्त कर लिया था. यहां हम उसी किताब के खण्ड – दो (पृष्ठ संख्या 1123  से 1163 तक) के एक अध्याय – ‘भारतीय शिक्षा का सर्वनाश’ हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, अंग्रेजों की साजिशों और उसके कार्यप्रणाली का बेहतरीन ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसका तुलनात्मक अध्ययन आज के मोदी सरकार की कार्यप्रणाली से की जा सकती है.

1947 की तथाकथित आजादी के बाद पं. सुन्दरलाल 1951 ई. में वे चीन जाने वाले भारतीय शिष्टमंडल के नेता भी थे. वहां से लौटकर उन्होंने चीन के संबंध में ‘आज का चीन’ प्रसिद्ध पुस्तक लिखी. अमरीकी साम्राज्यवाद के दबाव और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उकसावे पर सन् 62 ई. में जो भारत-चीन सीमा की लड़ाई हुई, उस लड़ाई को रोकने के लिए पं. सुन्दरलाल ने बहुत-कुछ कोशिशें की थीं. सन् 62 की लड़ाई के दस वर्षों के बाद, 4 नवंबर 1972 ई. के ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका में उन्होंने ‘भारत-चीन सीमा विवाद’ के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन किया था.

अंग्रेजों से पहले भारत में शिक्षा की अवस्था

अंग्रेजों के आगमन से पहले सार्वजनिक शिक्षा और विद्या प्रचार की दृष्टि से भारत संसार के अग्रतम देशों की श्रेणी में गिना जाता था. आज से केवल सवा सौ वर्ष पूर्व तक यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का प्रचार इतना अधिक न था जितना भारतवर्ष में, और न कहीं भी प्रतिशत आबादी के हिसाव से पढ़े लिखों की संख्या इतनी अधिक थी. उन दिनों जन सामान्य को शिक्षा देने के लिए इस देश में मुख्यकर चार प्रकार की संस्थाएं थीं. एक, असंख्य ब्राह्मण आचार्य अपने अपने घरों पर अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे. दूसरे, अनेक मुख्य मुख्य नगरों में उच्च संस्कृत साहित्य की शिक्षा के लिए ’टोल’ अथवा विद्यापीठ कायम थीं. तीसरे, उर्दू और फारसी की शिक्षा के लिए जगह जगह मकतब और मदरसे थे, जिनमें लाखों हिन्दू और मुसलमान बालक शिक्षा पाते थे. चौथे, इन सब के अतिरिक्त देश के प्रत्येक छोटे से छोटे ग्राम में ग्राम के समस्त बालकों की शिक्षा के लिए कम से कम एक पाठशाला होती थी. जिस समय तक कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आकर भारत की सहस्रों वर्षाें की पुरानी ग्राम पंचायतों को नष्ट नहीं कर डाला उस समय तक ग्राम के समस्त बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करना प्रत्येक ग्राम पंचायत अपना आवश्यक कर्तव्य समझती थी और सदैव उसका पालन करती थी.

इंग्लिस्तान की पार्लिमेंण्ट के प्रसिद्ध सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ’इण्डिया’ में लिखा है –

‘मैक्समूलर ने, सरकारी उल्लेखों के आधार पर और एक मिशनरी रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर अंग्रेजों का कब्जा होने से पहले वहां की शिक्षा की अवस्था के संबंध में लिखी गई थी, लिखा है कि उस समय बंगाल में 80,000 देशी पाठशालाएं थीं अर्थात् सूबे की आबादी के हर चार सौ मनुष्यों के पीछे एक पाठशाला मौजूद थी. इतिहास लेखक लडलो अपने ’ब्रिटिश भारत के इतिहास’’ में लिखता है कि – ’प्रत्येक ऐसे हिन्दू गांव में, जिसका कि पुराना संगठन अभी तक कायम है, मुझे विश्वास है कि आम तौर पर सब बच्चे लिखना पढ़ना और हिसाव करना जानते हैं, किन्तु जहां कहीं भी हमने ग्राम पंचायत का नाश कर दिया है, जैसे बंगाल में, वहां ग्राम पंचायत के साथ साथ गांव की पाठशाला भी लोप हो गई है.’[1]

प्राचीन भारतीय इतिहास के यूरोपियन विद्वानों में मैक्समूलर प्रमाणिक माना जाता है और लडलो एक प्रसिद्ध इतिहास लेखक था. जो बात जर्मन मैक्समूलर ने बंगाल के विषय में कही है उसी का समर्थन अंग्रेज लडले ने समस्त भारत के लिए किया है.

प्राचीन भारत के ग्रामवासियों की शिक्षा के संबंध में सन् 1823 की कम्पनी की एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा है-

‘शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्य देश में किसानों की अवस्था इतनी ऊंची नहीं है जितनी ब्रिटिश भारत के अनेक भागों में.’[2]

यह दशा तो उस समय शिक्षा के विस्तार की थी, अब रही शिक्षा देने की प्रणाली. इतिहास से पता चलता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में डॉक्टर एण्ड्ू वेल नामक एक प्रसिद्ध अंग्रेज शिक्षा प्रेमी ने इस देश से इंग्लिस्तान जाकर वहां पर अपने देश के बालकों को भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना प्रारम्भ किया. 3 जून सन् 1814 को कम्पनी के डाइरेक्टरों ने बंगाल के गवरनर जनरल के नाम एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा है –

’’शिक्षा की जो प्रणाली अत्यंत प्राचीन समय से भारत में वहां के आचार्यों के अधीन जारी है उसकी सबसे बड़ी प्रशंसा यही है कि रेवनेण्ड डॉक्टर वेल के अधीन, जो मद्रास में पादरी रह चुका है, वही प्रणाली इस देश (इंग्लिस्तान) में भी प्रचलित की गई है, अब हमारी राष्ट्रीय संस्थाओं में इसी प्रणाली के अनुसार शिक्षा दी जाती है, क्योंकि हमें विश्वास है कि इससे भाषा का सिखाना अत्यंत सरल और सीखना अत्यंत सुगम हो जाता है.

‘कहा जाता है कि हिन्दुओं की इस अत्यंत प्राचीन और लाभदायक संस्था को सल्तनतों के उलट फेर भी कोई हानि नहीं पहुंचा सके…’[3]

आज कल की पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में जिस चीज को ’म्यूचुअल टयूशन’ कहा जाता है वह पश्चिम के देशों ने भारत ही से सीखी थी.

कम्पनी के शासन में भारतीय शिक्षा का ह्रास

भारत के जिस जिस प्रान्त में कम्पनी का शासन जमता गया उस उस प्रान्त से ही यह सहस्रों वर्ष की पुरानी शिक्षा प्रणाली सदा के लिए मिटती चली गई. कम्पनी के शासन से पहले भारत में शिक्षा की अवस्था और कम्पनी का पदार्पण होते ही एक सिरे से उस शिक्षा के सर्वनाश, दोनों का कुछ अनुमान वेलारी जिले के अंग्रेज कलेक्टर ए0डी0 कैम्पबेल की सन् 1823 की एक रिपोर्ट से किया जा सकता है. कैम्पबेल लिखता है –

‘जिस व्यवस्था के अनुसार भारत की पाठशालाओं में बच्चों को लिखना सिखाया जाता है और जिस ढंग से कि ऊंचे दर्जे के विद्यार्थी नीचे दर्जे के विद्यार्थियों को शिक्षा देते हैं, और साथ साथ अपना ज्ञान भी पक्का करते रहते हैं, वह समस्त प्रणाली निःसंदेह प्रशंसनीय है, और इंग्लिस्तान में उसका जो अनुसरण किया गया है उसके सर्वथा योग्य है.’

आगे चल कर कम्पनी के शासन में भारतीय शिक्षा की अवनति और उसके कारणों को बयान करते हुए कैम्पबेल लिखता है –

‘इस समय असंख्य मनुष्य ऐसे हैं जो अपने बच्चों को इस शिक्षा का लाभ नहीं पहंुचा सकते, … मुझे कहते हुए दुख होता है कि इसका कारण यह है कि समस्त देश धीरे धीरे निर्धन होता जा रहा है. हाल में जब से हिन्दोस्तान के बने हुए सूती कपड़ों की जगह इंग्लिस्तान के बने हुए कपड़ों को इस देश में प्रचलित किया गया है तब से यहां के कारीगरों के लिए जीविका निर्वाह के साधन बहुत कम हो गए हैं. हमने अपनी बहुत सी पलटनें अपने इलाकों से हटा कर उन देशी राजाओं के दूर दूर के इलाकों में भेज दी है, जिनके साथ हमने संधियां की हैं, हाल ही में इससे भी नाज की मांग पर बहुत बड़ा असर पड़ा है. देश का धन पुराने समय के देशी दरबारों और देशी कर्मचारियों के हाथों से निकल कर यूरोपियनों के हाथों में चला गया है. देशी दरबार और उनके कर्मचारी उस धन को भारत ही में उदारता के साथ व्यय किया करते थे, इसके विपरीत नए यूरोपियन कर्मचारियों को हमने कानून द्वारा आज्ञा दे दी है कि वे अस्थायी तौर पर भी इस धन को भारत में व्यय न करें. ये यूरोपियन कर्मचारी देश के धन को प्रति दिन ढो ढो कर बाहर ले जा रहे हैं, इसके कारण भी यह देश दरिद्र होता जा रहा है. सरकारी लगान जिस कड़ाई के साथ वसूल किया जाता है उसमें भी किसी तरह की ढिलाई नहीं की गई, जिससे प्रजा के इस कष्ट में कोई कमी हो सकती. मध्यम श्रेणी और निम्न श्रेणी के अधिकांश लोग अब इस योग्य नहीं रहे कि अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च बरदाश्त कर सकें, इसके विपरीत ज्योंहि उनके बच्चों के कोमल अंग थोड़ी बहुत मेहनत कर सकने में भी योग्य होते हैं, माता पिता को अपनी जिन्दगी की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए उन बच्चों से अब मेहनत मजदूरी करानी पड़ती है.’

अर्थात् उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत की प्राचीन सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के नाश का एक मुख्य कारण यह था कि प्राचीन भारतीय उद्योग धन्धों के सर्वनाश और कम्पनी की लूट तथा अत्याचारों के कारण देश उस समय तेजी के साथ निर्धन होता जा रहा था, और देश के उन करोड़ों नन्हें बालकों को जो पहले पाठशालाओं में जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे, अब अपना तथा अपने मां बाप का पेट भरने के लिए मेहनत मजदूरी में मां बाप का हाथ बटाना पड़ता था.

और आगे चल कर अपने से पहले की शिक्षा की अवस्था और अपने समय की शिक्षा की अवस्था की तुलना करते हुए कैम्पबेल लिखता है –

‘इस जिले के लगभग दस लाख आबादी में से इस समय सात हजार बच्चे भी शिक्षा नहीं पा रहे हैं, जिससे पूरी तरह जाहिर है कि शिक्षा में निर्धनता के कारण कितनी अवनति हुई है. बहुत से ग्रामों में, जहां पहले पाठशालाएं मौजूद थीं, वहां अब कोई पाठशाला नहीं है, और बहुत से अन्य ग्रामों में, जहां पहले बड़ी बड़ी पाठशालाएं थी वहां अब केवल अत्यंत धनाढय लोगों के थोड़े से बालक शिक्षा पाते है, दूसरे लोगों के बालक निर्धनता के कारण पाठशाला नहीं जा सकते.

‘इस जिले की अनेक पाठशालाओं की जिनमें देशी भाषाओं में लिखना, पढ़ना और हिसाब सिखाया जाता है, जैसा कि भारत में सदा से होता रहा है, इस समय यह दशा है. … विद्या … कभी किसी भी देश में राज दरबार की सहायता के बिना नहीं बढ़ी, और भारत के इस भाग में विज्ञान को देशी दरबारों की ओर से पहले जो सहायता और उत्तेजना दी जाती थी वह अंग्रेजी राज्य के आने के समय से, बहुत दिन हुए, बंद कर दी गई है.

‘इस जिले में अब घटते घटते शिक्षा संबंधी 533 संस्थाएं रह गई है और मुझे यह कहते लज्जा आती है कि इनमें से किसी एक को भी अब सरकार की ओर से किसी तरह की सहायता नहीं दी जाती.’

इसके बाद प्राचीन भारत में इन असंख्य पाठशालाओं के खर्च की व्यवस्था को वर्णन करते हुए कैम्पबेल लिखता है –

‘इसमें कोई संदेह नहीं कि पुराने समय में, विशेष कर हिन्दुओं के शासन काल में, विद्या प्रचार की सहायता के लिए बहुत बड़ी रकमें और बड़ी बड़ी जागीरें राज्य की ओर से बंधी हुई थी…

‘… पहले समय में राज्य की आमदनी का एक बहुत बड़ा हिस्सा विद्या प्रचार के उत्तेजना और उन्नति देने में खर्च किया जाता था. जिससे राज्य का भी मान बढ़ता था, किन्तु हमारे शासन में यहां तक अवनति हुई है कि राज्य की इस आमदनी द्वारा अब उलटा अज्ञान को उन्नति दी जाती है. पहले जो जबरदस्त सहायता राज्य की ओर से विज्ञान को दी जाती थी उसके बंद हो जाने के कारण अब विज्ञान केवल थोड़े से दानशील व्यक्तियों की अकस्मात् उदारता के सहारे ज्यों त्यों कर जीवित है. भारत के हतिहास में विद्या के इस तरह के पतन का दूसरा समय दिखा सकना कठिन है…’[4]

यह समस्त कहानी मद्रास प्रान्त की है. ठीक इसी तरह की कहानी, महाराष्ट्र तथा बम्बई प्रान्त के विषय में, एलफिसटन ने सन् 1824 की एक सरकारी रिपोर्ट में वर्णन की है, किन्तु उसे दोहराना व्यर्थ है.

एक और अंग्रेज विद्वान वॉल्टर हैमिल्टन ने सन् 1828 में सरकारी रिपोर्टों के आधार पर लिखा था –

‘भारतवासियों के अन्दर साहित्य और विज्ञान की दिन प्रति दिन अवनति होती जा रही है. विद्वानों की संख्या घटती जा रही है और जो लोग अभी तक विद्याध्ययन करते हैं उनमें भी अध्ययन के विषय वेहद कम होते जा रहे हैं. दर्शन विज्ञान का पढ़ना लोगों ने छोड़ ही दिया है, और सिवाय उन विद्याओं के, जिनका संबंध विशेष धार्मिक कर्मकाण्डों अथवा फलित के साथ है, और किसी भी विद्या का अब लोग अध्ययन नहीं करते. साहित्य की इस अवनति का मुख्य कारण यह मालूम होता है कि इससे पहले देशी राज्य में राजा लोग, सरदार लोग और धनाढय लोग सब विद्या प्रचार को उत्तेजना और सहायता दिया करते थे. वे देशी दरबार अब सदा के लिए मिट चुके और अब वह उत्तेजना और सहायता साहित्य को नहीं दी जाती.’[5]

सारांश यह कि जो कहानी कैम्पबेल ने मद्रास प्रान्त की बयान की है वही कहानी वास्तव में समस्त ब्रिटिश भारत की थी.

भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली और शिक्षा संस्थाओं के इस सर्वनाश के चार मुख्य कारण गिनाए जा सकते हैं –

  1. भारतीय उद्योग धन्धों के नाश तथा कम्पनी की लूट द्वारा देश की बढ़ती हुइ दरिद्रता.
  2. प्राचीन ग्राम पंचायतों का नाश और उस नाश द्वारा लाखों ग्राम पाठशालाओं का अंत.
  3. प्राचीन हिन्दू और मुसलमान नरेशों की ओर से शिक्षा संबंधी संस्थाओं को जो आर्थिक सहायता और जागीरें बंधी हुई थीं, कम्पनी के राज्य में उनका छिन जाना. और
  4. नए अंग्रेज शासकों की ओर से भारतवासियों की शिक्षा का विधिवत् विरोध.

अंग्रेज शासको की ओर से भारतवासियों की शिक्षा का विरोध

इस चौथे कारण को और अधिक विस्तार के साथ वर्णन करना आवश्यक है. सन् 1757 ले लेकर पूरे सौ वर्ष तक भारत के अंग्रेज शासकों में इस बात पर लगातार बहस होती रही कि भारतवासियों को शिक्षा देना अंग्रेजों की सत्ता के लिए हितकर है अथवा अहितकर. आरम्भ के दिनों में लगभग समस्त अंग्रेज शासक भारतवासियों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे.

जे. सी. मार्शमेन ने 15 जून सन् 1853 को पार्लिमेण्ट की सिलेक्ट कमेटी के सामने गवाही देते हुए बयान किया –

‘भारत में अंग्रेजी राज्य के कायम होने के बहुत दिनों बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार की भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा.’[6]

मार्शमेन बयान करता है कि सन् 1792 में जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए नया चारटर एक्ट पास होने का समय आया तो पार्लिमेण्ट के एक सदस्य विलवरफोर्स ने नए कानून में एक धारा इस तरह की जोड़नी चाही जिसका जाहिरा अभिप्राय थोड़े से भारतवासियों की शिक्षा का प्रबंध करना था. इस पर पार्लिमेण्ट के सदस्यों और कम्पनी के हिस्सेदारों ने विरोध किया और विलरफोर्स को अपनी तजवीज वापस ले लेनी पड़ी.

मार्शमैन लिखता है –

‘उस अवसर पर कम्पनी के एक डाइरेक्टर ने कहा कि -’हम लोग अपनी इसी मूर्खता के कारण अमरीका हाथ से खो बैठे हैं, क्योंकि हमने उस देश में स्कूल और कॉलेज कायम हो जाने दिए, अब फिर भारत के विषय में हमारा उसी मूर्खता को दोहराना उचित नहीं है.’…  इसके बीस वर्ष बाद तक अर्थात् सन् 1813 तक भारतवासियों को शिक्षा देने के विरूद्ध ये ही भाव इंग्लिस्तान के शासकों के दिलों में कायम रहे.’[7]

सन् 1813 में विलायत के अन्दर सर जॉन मैलकम ने, जो उन विशेष अनुभवी नीतिज्ञों में से था जिन्होंने 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत के अंदर अंग्रेजी साम्राज्य को विस्तार दिया, पार्लिमेण्ट की तहकीकाती कमेटी के सामने गवाही देते हुए कहा –

‘… इस समय हमारा साम्राज्य इतनी दूर तक फैला हुआ है कि जो असाधारण ढंग की हुकूमत हमने देश में स्थापित की है उसके बने रहने के लिए केवल एक बात का हमें सहारा है, वह यह कि जो बड़ी बड़ी जातियां इस समय अंग्रेज सरकार के अधीन हैं वे सब एक दूसरे से अलग थलग हैं, और जातियों में भी फिर अनेक जातियां और उप-जातियां हैं. जब तक ये लोग इस तरह एक दूसरे से बटे रहेंगे, तब तक कोई भी बलवा हमारी सत्ता को नहीं हिला सकता. … जितना जितना लोगों में एकता पैदा होती जायगी और उनमें वह बल आता जायगा जिससे वे वर्तमान अंग्रेजी सरकार की अधीनता को अपने ऊपर से हटा कर फेंक सकें, उतना उतना ही हमारे लिए शासन करना कठिन होता जायगा.’

इसलिए –

‘मेरी राय है कि कोई इस तरह की शिक्षा, जिससे हमारी भारतीय प्रजा के इस समय के जाति पांति के भेद धीरे धीरे टूटने की सम्भावना हो, अथवा जिसके द्वारा उनके दिलों से यूरोपियनों का आदर कम हो, अंग्रेजी राज्य के राजनैतिक बल को नहीं बढ़ा सकती.’…[8]

जाहिर है कि सर जॉन मैलकम भारतवासियों को सदा के लिए जाति पांति तथा मत मतान्तरों के भेदों में फंसाए रखना, आपस में एक दूसरे से लड़ाए रखना और उन्हें अशिक्षित रखना अंग्रेजी राज्य की सलामती के लिए आवश्यक समझता था.

सन् 1813 में इंग्लिस्तान की पार्लिमेण्ट ने जो चारटर एक्ट पास किया, उसमें एक धारा यह भी थी कि – ‘ब्रिटिश भारत की आमदनी की बचत में से गवरनर जनरल को इस बात का अधिकार होगा कि प्रति वर्ष एक लाख रूपए तक साहित्य की उन्नति और पुनरूजीवन के लिए और विद्वान भारतवासियों के प्रोत्साहन के लिए काम में लाए.’’ किन्तु यह समझना भूल होगी कि यह एक लाख रूपए सालाना की रकम वास्तव में भारतवासियों की शिक्षा के लिए मंजूर की गई थी. इस मंजूरी के साथ साथ जो पत्र डाइरेक्टरों ने 3 जून सन् 1814 को गवरनर जनरल के नाम भेजा उसमें साफ लिखा है कि यह रकम ‘राजनैतिक दृष्टि से भारत के साथ अपने संबंध को मजबूत रखने के लिए’, ‘बनारस’ तथा एक दो अन्य स्थानों के ‘पंडितों को देने’ के लिए, ‘अपनी ओर विचारवान भारतवासियों के हृदय के भावों का पता लगाने’ के लिए, ‘प्राचीन संस्कृत साहित्य का अंग्रेजी में अनुवाद कराने के लिए,’ ‘संस्कृत पढ़ने की इच्छा रखने वाले अंग्रेजों की सहायता देने के लिए,’ ‘उस समय की रही सही भारतीय शिक्षा संस्थाओं का पता लगाने के लिए,’ और ‘अपने सामा्राज्य के स्थायित्व की दृष्टि से अंग्रेजों तथा भारतीय नेताओं में अधिक मेल जोल पैदा करने के उद्वेश्य से’ मंजूर की गई है. इसी पत्र में यह भी लिखा है कि इस रकम की मदद से कोई ‘सार्वजनिक कॉलेज ने खोले जायं.’[9]

भारतवासियों की शिक्षा की ओर अंग्रेज शासकों का विरोध इसके बहुत दिनों बाद तक बराबर जारी रही. सन् 1831 की जांच के समय सर जॉन मैलकम के बीस वर्ष पहले के विचारों को दोहराते हुए मेजर जनरल सर लिओनेल स्मिथ ने कहा –

‘शिक्षा का परिणाम यह होगा कि वे सब साम्प्रदायिक और धार्मिक पक्षपात, जिनके द्वारा हमने अभी तक मुल्क को वश में रक्खा है – और हिन्दू मुसलमानों को एक दूसरे से लड़ाए रक्खा है, इत्यादि -दूर हो जायंगे, शिक्षा का परिणाम यह होगा कि इन लोगों के दिमाग खुल जायंगे और उन्हें अपनी विशाल शक्ति का पता लग जायगा.’[10]

राज्य के हित में शिक्षा देने की आवश्यकता

किन्तु 18वीं शताब्दी के अंत से ही इस विषय में अंग्रेज शासकों के विचारों में अंतर पैदा होना शुरू हो गया. कारण यह था कि धीरे धीरे इंग्लिस्तान के नीतिज्ञों को भारत के अंदर दो विशेष कठिनाइयां अनुभव होने लगी –

  1. चंूकि शिक्षित भारतवासियों की संख्या दिन प्रति दिन घटती जा रही थी, इसलिए अंग्रेजों को अपने सरकारी महकमों और विशेष कर नई अदालतों के लिए योग्य हिन्दू और मुसलमान कर्मचारियों की कमी महसूस होने लगी, जिनके बिना कि उन महकमों और अदालतों का चल सकना सर्वथा असम्भव था. और
  2. उन्हें थोड़े से इस तरह के भारतवासियों की भी आवश्यकता अनुभव होने लगी जिनके द्वारा शेष भारतीय जनता के हृदय के भावों का पता लगता रहे और जिनके द्वारा वे जनता के भावों को अपनी ओर मोड़ कर रख सकें.

सन् 1830 की पार्लिमेण्टरी कमेटी की रिपोर्ट में इन दोनों आवश्यकताओं का बार बार जिक्र आता है और साफ लिखा है कि कलकत्ते का ’मुसलमानों का मदरसा’ और बनारस का ’हिन्दू संस्कृत कॉलेज’ दोनों अठारहवीं शताब्दी के अंत में ठीक इसी उद्देश्य से कायम किए गए थे. इसी उद्देश्य से सन् 1821 में पूना का डेकन कॉलज, सन् 1835 में कलकत्ते का मेडिकल कॉलेज और और सन् 1847 में रूड़की का इंजीनियरिंग कॉजेल कायम हुए.

डाइरेक्टरों ने 5 सितम्बर सन् 1827 के पत्र में गवरनर जनरल को लिखा कि इस शिक्षा का धन- ‘उच्च तथा मध्यम श्रेणी के उन भारतवासियों के ऊपर व्यय किया जाय, जिनमें से कि आपको अपने शासन के कार्याें के लिए सब से अधिक योग्य देशी एजेण्ट मिल सकते हैं, और जिनका अपने शेष देशवासियों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव है.’[11]

इसका मतलब यह है कि बिना योग्य भारतवासियों की सहायता के केवल अंग्रेजों के बल ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का चल सकना सर्वथा असम्भव था, और इसी लिए थोड़े बहुत भारतवासियों को किसी न किसी प्रकार की शिक्षा देना भारत के विदेशी शासकों के लिए अनिवार्य हो गया. इस काम के लिए सन् 1813 वाली एक लाख रूपए सालाना की मंजूरी को सन् 1833 में बढ़ा कर दस लाख सालाना कर दिया गया, क्योंकि इन बीस वर्ष के अंदर भारत का बहुत अधिक भाग विदेशी शासन के रंग में रंगा जा चुका था.

सन् 1757 से लेकर 1857 तक भारतवासियों की शिक्षा के विषय में अंग्रेज शासकों के सामने मुख्य प्रश्न केवल यह था कि भारतवासियों को शिक्षा देना साम्राज्य के स्थायित्व की दृष्टि से हितकर है अथवा अहितकर, और यदि हितकर अथवा आवश्यक है तो उन्हें किस प्रकार की शिक्षा देना उचित है.

उस समय अनेक अंग्रेज नीतिज्ञ भारतवासियों में ईसाई धर्म प्रचार के पक्षपाती थे. इन लोगों को ईसाई धर्म ग्रंथों का भारतीय भाषाओं में अनुभव कराने, इंग्लिस्तान से आने वाले पादरियों को सहायता देने और सरकार की ओर से मिशन स्कूलों की आर्थिक मदद करने की आवश्यकता अनुभव हो रही थी. यह भी एक कारण था कि जिससे अनेक अंग्रेज भारतवासियों को शिक्षा देने के पक्ष में हो गए. सन् 1813 के बाद की बहसों में इस विषय का बार बार जिक्र आता है.

सन् 1853 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए अंतिम चारटर एक्ट पास होने के समय भारतवासियों की शिक्षा के प्रश्न पर अनेक योग्य और अनुभवी अंग्रेज नीतिज्ञों और विद्वानों की गवाहियां जमा की गई. इन गवाहियों में से नमूने के तौर पर दोनों पक्षों की एक एक या दो दो गवाहियां उद्धृत करना काफी है.

4 अगस्त सन् 1853 को मेजर रॉलेण्डशन ने, जो 17 वर्ष तक मद्रास प्रान्त के कमाण्डर-इन-चीफ के साथ फारसी अनुवादक रह चुका था और वहां की शिक्षा कमेटी का मंत्री रह चुका था, पार्लिमेण्ट की कमेटी के सामने इस प्रकार गवाही दी –

प्रश्न – आपने यह राय प्रकट की है कि भारतवासियों को शिक्षा देने का नतीजा यह होता है कि वे अंग्रेज सरकार के विरूद्ध हो जाते हैं, क्या आप यह समझाएंगे कि इसका कारण क्या है और सरकार की ओर उनकी शत्रुता किस ढंग की और कैसी होती है?

उत्तर – मेरा अनुभव यह है कि भारतवासियों को ज्यों ज्यों ब्रिटिश भारतीय इतिहास के भीतरी हाल का पता लगता है और आम तौर पर यूरोप के इतिहास का ज्ञान होता है, त्यों त्यों उनके चित्त में यह विचार उत्पन्न होता है कि भारत जैसे एक देश का मुट्ठी भर विदेशियों के कब्जे में होना एक बहुत बड़ा अन्याय है, इससे स्वाभावतः उनके चित्त में लगभग यह इच्छा उत्पन्न हो जाती है कि वे अपने देश को इस विदेशी शासन से स्वतंत्र करने में सहायक हों, और चूंकि इस विचार को देर करने वाली कोई बात नहीं होती और न उनमें आज्ञापालन का भाव ही पक्का होता है, इसलिए ब्रिटिश सरकार की ओर द्रोह का भाव इन लोगों में पैदा हो जाता है. … मैंने देखा है कि हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों में यह भाव मौजूद है और मुसलमानों में अधिक है. … विशेषकर जब ये लोग ब्रिटिश साम्राज्य के रहस्य को जान जाते हैं तो उनके हृदयों में असंतोष का भाव पैदा हो जाता है और आशा जग उठती है. …[12]

इसी प्रश्नोत्तर में यह भी साफ सुझाया गया कि यदि शिक्षा के साथ भारतवासियों के चित्तों में यह भय उत्पन्न करने का भी प्रयत्न किया जाय कि यदि अंग्रेज भारत से चले गए तो उत्तर की अन्य जातियां आकर भारत पर शासन करने लगेंगी, अथवा भारत में अराजकता फैल जायगी, तो इसका परिणाम कहां तक हित कर होगा.

अनेक अंग्रेजों के विचार मेजर रॉलेण्डशन के विचारों से मिलते हुए थे. किन्तु दूसरों के विचार इसके विपरीत थे. उनका ख्याल था कि अशिक्षित भारतवासी शिक्षित भारतवासियों की अपेक्षा विदेशीय शासन के लिए अधिक खतरनाक होते हैं, और भारतवासियों के केवल पश्चिमी शिक्षा देकर ही उन्हें राष्ट्रीयता के भावों से दूर रक्खा जा सकता है और विदेशी शासन के लिए उपयोगी यंत्र बनाया जा सकता है. प्रसिद्ध नीतिज्ञों में सर फ्रेडरिक हैलिडे की गवाही, जो बंगाल का पहला लेफ्टिनेण्ट गवरनर हुआ, और मार्शमैन की गवाही इसी अभिप्राय की थीं.

पूर्वी तथा पश्चिमी शिक्षा पर बहस

एक और महत्वपूर्ण प्रश्न जो 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से भारत के उन अंग्रेज शासकों के सामने उपस्थित था, जो भारतवासियों को शिक्षा देने के पक्ष में थे, वह यह था कि किस प्रकार की शिक्षा देना अधिक उपयोगी होगा. दो भिन्न भिन्न विचारों के लोग उस समय के अंग्रेजों में मिलते हैं. एक वे जो भारतवासियों को प्राचीन भारतीय साहित्य, भारतीय विज्ञान और संस्कृत, फारसी, अरबी तथा देशी भाषाएं पढ़ाने के पक्ष में थे, और दूसरे वे जो उन्हें अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी साहित्य तथा पश्चिमी विज्ञान की शिक्षा देना अपने लिए अधिक हितकर समझते थे. पहले विचार के लोगों को ’ओरियण्टलिस्ट’ और दूसरे विचार के लोगों को ’ऑक्सिडेण्टलिस्ट’ कहा जाता है, अनेक वर्षाें तक इन दोनों विचार के अंग्रेजों में खूब वाद विवाद होता रहा. इसी बहस के दिनों में सन् 1834 में भारत के अंदर लॉर्ड मैकाले का आगमन हुआ, मैकाले से पहले लगभग 12 वर्ष तक इस प्रश्न के ऊपर अत्यंत तीव्र वाद विवाद जारी रह चुका था. मैकाले के विचारों का प्रभाव इस प्रश्न पर निर्णायक साबित हुआ. मैकाले भारतवासियों को प्राचीन भारतीय साहित्य की शिक्षा देने के विरूद्ध और उन्हें अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी साहित्य तथा अंग्रेजी विज्ञान सिखाने के पक्ष में था. मैकाले का निर्णय भारतवासियों के लिए हितकर रहा हो अथवा अहितकर, किन्तु मैकाले का उद्देश्य केवल यह था कि उच्च श्रेणी के भारतवासियों में राष्ट्रीयता के भावों को उत्पन्न होने से रोका जाय और उन्हें अंग्रेजी सत्ता के चलाने के लिए उपयोगी यंत्र बनाया जाय. अपने पक्ष का समर्थन करते हुए मैकाले ने एक स्थान पर लिखा है-

‘हमें भारत में इस तरह की एक श्रेणी पैदा कर देने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे और उन करोड़ों भारतवासियों के बीच, जिन पर हम शासन करते हैं, समझाने बुझाने का काम करें, ये लोग ऐसे होने चाहिए जो कि केवल रक्त और रंग की दृष्टि से हिन्दोस्तानी हों, किन्तु जो अपनी रूचि, भाषा, भावों और विचारों की दृष्टि से अंग्रेज हों.’[13]

बेण्टिक का निर्णय

गवरनर जनरल लॉर्ड विलयिम बेण्टिक मैकाले का बड़ा दोस्त और उसके समान विचारों का था. मैकाले की इस रिपोर्ट के ऊपर 7 मार्च सन् 1835 को बेण्टिक ने आज्ञा दे दी कि – ‘जितना धन शिक्षा के लिए मंजूर किया जाय उसका सब से अच्छा उपयोग यही है कि उसे केवल अंग्रेजी शिक्षा के ऊपर खर्च किया जाय.’[14]

मैकाले के विचारों और उन पर लॉर्ड बेण्टिक के निर्णय के परिणाम को बयान करते हुए 5 जुलाई सन् 1853 को प्रसिद्ध इतिहास लेखक प्रोफेसर एच0 एच0 विलसन ने पार्लिमेण्ट की सिलेक्ट कमेटी के सामने बयान किया –

‘वास्तव में हमने अंग्रेजी पढ़े लिखों की एक पृथक जाति बना दी है, जिन्हें कि अपने देशवासियों के साथ या तो बिलकुल ही सहानुभूति नहीं है और यदि है तो बहुत ही कम.’[15]

अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी साहित्य की शिक्षा के साथ साथ जहां तक हो सके देशी भाषाओं को दबाना भी मैकाले और बेण्टिक दोनों का उद्देश्य था. इतिहास लेखक डॉक्टर डफ ने, इस विषय में बेण्टिक और मैकाले की नीति की सराहना करते हुए, तुलना के तौर यह दिखलाते हुए कि अब कभी प्राचीन रोम निवासी किसी देश को विजय करते थे तो उस देश की भाषा और साहित्य को यथाशक्ति दबा कर वहां के उच्च श्रेणी के लोगों में रोमन भाषा, रोमन साहित्य और रोमन आचार विचार के प्रचार का प्रयत्न करते थे, साथ ही यह दर्शाते हुए कि यह नीति रोमन साम्राज्य के लिए कितनी हितकर साबित हुई, अंत में लिखा है –

‘… मैं यह विचार प्रकट करने का साहस करता हूं कि भारत के अंदर अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी साहित्य को फैलाने और उसे उन्नति देने का लॉर्ड विलियम बेण्टिक का कानून … भारत के अंदर अंग्रेजी राज्य के अब तक के इतिहास में कुशल राजनीति की सब से जबरदस्त और अपूर्व चाल स्वीकार की जायगी.’[16]

डॉक्टर डफ ने अपने से पूर्व के एक दूसरे अंग्रेज विद्वान के विचारों का समर्थन करते हुए लिखा है कि भाषा का प्रभाव इतना जबरदस्त होता है कि जिस समय तक भारत के अंदर देशी नरेशों के साथ अंग्रेजों का पत्र व्यवहार फारसी भाषा में होता रहेगा, उस समय तक भारतवासियों की भक्ति और उनका प्रेम दिल्ली के सम्राट की ओर बराबर बना रहेगा. लॉर्ड बेण्टिक के समय तक देशी नरेशों के साथ कम्पनी का समस्त पत्र व्यवहार फारसी भाषा में हुआ करता था. बेण्टिक पहला गवरनर जनरल था, जिसने यह आज्ञा दे दी और नियम कर दिया कि भविष्य में समस्त पत्र व्यवहार फारसी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा में हुआ करे.

इतिहास से पता चलता है कि आयरलैण्ड के अंदर भी आइरिश भाषा को दबाने और यदि ‘सम्भव हो तो आइरिश लोगों को अंग्रेज बना डालने के लिए’17 वहां की अंग्रेज सरकार ने समय समय पर अनेक अनोखे कानून पास किए.

यद्यपि सन् 1835 के बाद से अंग्रेज शासकों का मुख्य लक्ष्य भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार की ओर ही रहा, तथापि ’ओरियण्टलिस्ट’ और ’ऑक्सिडेण्टलिस्ट’ दोनों दलों का थोड़ा बहुत विरोध इसके बीस वर्ष बाद तक भी जारी रहा. अंग्रेज शासक भारतवासियों को किसी प्रकार की भी शिक्षा देने में बराबर संकोच करते रहे. यहां तक कि लॉर्ड मैकाले की सन् 1835 की रिपोर्ट 29 वर्ष बाद सन् 1864 में पहली बार प्रकाशित की गई. किन्तु अंत में पल्ला अंग्रेजी शिक्षा के पक्षवालों का ही भारी रहा.

भारत के अंग्रेज शासकों की शिक्षा नीति और वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट कर देने के लिए, हम अंग्रेजी शिक्षा के एक प्रबल और मुख्य पक्षपाती लॉर्ड मैकाले के बहनोई सर चार्ल्स ट्रेवेलियन के उन विचारों को नीचे उद्धृत करते हैं, जो ट्रेवेलियन ने सन् 1853 की पार्लिमेण्टरी कमेटी के सामने पेश किए.

वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने सन् 1853 की पार्लिमेण्टरी कमेटी के सामने ‘भारत की भिन्न भिन्न शिक्षा प्रणालियों के राजनैतिक परिणाम’ शीर्षक एक पत्र लिख कर पेश किया. यह पत्र इतने महत्व का है और ब्रिटिश सरकार की शिक्षानीति का इतना स्पष्ट द्योतक है कि उसके कुछ अंशों का इस स्थान पर उद्धृत करना आवश्यक है. भारतवासियों को अरबी तथा संस्कृत पढ़ाने अथवा उनके प्राचीन विचारों और प्राचीन राष्ट्रीय साहित्य के जीवित रखने के विषय में सर चार्ल्स ट्रेवेलियन लिखता है कि इसका परिणाम यह होगा-

‘मुसलमानों को सदा यह बात याद आती रहेगी कि हम विधर्मी ईसाइयों ने मुसलमानों के अनेक सुन्दर से सुन्दर प्रदेश उनसे छीन कर अपने अधीन कर लिए हैं, और हिन्दुओं को सदा यह याद रहेगा कि अंग्रेज लोग इस प्रकार के अपवित्र राक्षस है, जिनके साथ किसी तरह का मेल जोल रखना लज्जाजनक और पाप है. हमारे बड़े से बड़े शत्रु भी इससे अधिक और कुछ इच्छा नहीं कर सकते कि हम इस तरह की विद्याओं का प्रचार करें जिनसे मानव स्वभाव के उग्र से उग्र भाव हमारे विरूद्ध भड़क उठें.

‘इसके विवरीत अंग्रेजी साहित्य का प्रभाव अंग्रेजी राज्य के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता है तो भारतीय युवक हमारे साहित्य द्वारा हमसे भली भांति परिचित हो जाते हैं, वे हमें विदेशी समझना लगभग बंद कर देते हैं. वे हमारे महापुरूषों का जिक्र उसी उत्साह के साथ करते है जिस उत्साह के साथ कि हम करते हैं. हमारी ही सी शिक्षा, हमारी ही सी रूचि और हमारे ही से रहन सहन के कारण इन लोगों में हिन्दोस्तानियत कम हो जाती है और अंग्रेजियत अधिक आ जाती है. … फिर बजय इसके कि वे हमारे तीव्र विरोधी हों, अथवा यदि हमारे अनुयायी भी हों तो उनके हृदय में हमारी ओर क्रोध भरा रहे, वे हमारे होशियार और उत्साही मददगार बन जाते हैं. … फिर वे हमें अपने देश से बाहर निकालने के प्रचण्ड उपाय सोचना बंद कर देते हैं…

‘… जब तक हिन्दोस्तानियों को अपनी स्वाधीनता के विषय में सोचने का मौका मिलता रहेगा, तब तक उनके सामने अपनी दशा सुधारने का एक मात्र उपाय यह रहेगा कि वे अंग्रेजों को तुरंत देश से निकाल कर बाहर कर दें. पुराने तर्ज के भारतीय देशभक्तों के सामने इसके सिवा और कोई उपाय नही है, … उनके राष्ट्रीय विचारों को दूसरी ओर मोड़ने का केवल एक ही उपाय है. यह यह कि उनके अंदर पाश्चात्य विचार पैदा कर दिए जायं. जो युवक हमारे स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ते हैं वे उस असम्य स्वेच्छाशासन को, जिसके अधीन उनके पूर्वज रहा करते थे, घृणा की दृष्टि से देखने लगते हैं, और फिर अपनी राष्ट्रीय संस्थाओं को अंग्रेजी ढंग पर डालने की आशा करने लगते हैं. … बजाय इसके कि उनके दिलों में यही विचार सब से उपर हो कि हम अंग्रेजों का निकाल कर समुद्र में फेंक दें, वे इसके विपरीत अब उन्नति का कोई ऐसा विचार तक नहीं कर सकते जो उनके उपर अंग्रेजी राज्य को रिबट लगा कर और भी अधिक पक्का न कर दे, और जिसके द्वारा वे अंग्रेजों की शिक्षा और अंग्रेजों की रक्षा पर सर्वथा निर्भर न हो जायं.

* * *

‘… हमारे पास उपाय केवल यह है कि इम भारतवासियों को यूरोपियन ढंग की उन्नति में लगा दें, … फिर पुराने ढंग पर भारत को स्वाधीन करने की इच्छा ही उनमें से जाती रहेगी और उनका लक्ष्य ही वह न रह जायगा. देश में अचानक राजक्रान्ति फिर असम्भव हो जायगी और हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत काल के लिए असंदिग्ध हो जायगा. … भारतवासी फिर हमारे विरूद्ध विद्रोह न करेंगे … फिर उनके राष्ट्र्ीय प्रयत्न यूरोपियन शिक्षा प्राप्त करने और उसे फैलाने तथा अपने यहां यूरोपियन संस्थाएं कायम करने में ही पूरी तरह लगे रहंेगे, जिससे हमें कोई हानि न हो पाएगी. शिक्षित भारतवासी … स्वभावतः हमसे चिपटे रहेंगे. … हमारी समस्त प्रजा में किसी भी श्रेणी के लोगों के लिए हमारा अस्तित्व इतना सर्वथ आवश्यक नहीं है जितना उन लोगों के लिए, जिनके विचार अंग्रेजी सांचे में ढाले गए हैं. ये लोग शुद्ध भारतीय राज्य के काम के ही नहीं रह जाते, यदि जल्दी से देश में स्वदेशी राज्य कायम हो जाय तो उन्हें उससे हर प्रकार का भय रहता है…

‘… मुझे आशा है कि थोड़े ही दिनों में भारतवासियों का संबंध हमारे साथ वैसा ही हो जायगा जैसा किसी समय हमारा रोमन लोगों के साथ था. रोमन विद्वान टैसीटस लिखता है कि जूलियस ऐग्रीकोला की (जो ईसा से 78 वर्ष बाद इंग्लिस्तान का रोमन गवरनर नियुक्त हुआ था और जिसने उस देश में रोमन साम्राज्य की नींवों को पक्का किया) यह नीति थी कि बड़े बड़े अंग्रेजों के लड़कों को रोमन साहित्य और रोमन विज्ञान की शिक्षा दी जाय और उनमें रोमन सम्यता के ऐश आराम की रूचि पैदा कर दी जाय. हम सब जानते हैं कि जूलियस ऐग्रीकोला की यह नीति कितनी सफल साबित हुई. यहां तक कि जो अंग्रेज पहले रोमन लोगों के कट्टर शत्रु थे वे शीघ्र ही उनके विश्वासपात्र और उनके वफादार मित्र बन गए, और उन अंग्रेजों के पूर्वजों ने जितने प्रयत्न अपने देश पर रोमन लोगों के हमले को रोकने के लिए किए थे उससे कहीं अधिक जोरदार प्रयत्न अब उनके वंशज रोमन लोगों को अपने यहां कायम रखने के लिए करने लगे. हमारे पास रोमन लोगों से कहीं अधिक बढ़ कर उपाय मौजूद है, इसलिए हमारे लिए यह शर्म की बात होगी यदि हम भी रोमन लोगों की तरह भारतवासियों के चित्तों में यह भय उत्पन्न न कर दें कि यदि हम जल्दी से देश से निकल गए तो तुम लोगों पर भयंकर आपत्ति आ जायगी…

‘ये विचार मैंने केवल अपने दिमाग से सोच कर ही नहीं निकाले, वरन स्वयं अनुभव करके और देख भाल कर मुझे इन नतीजों पर पहुंचना पड़ा. मैंने कई वर्ष हिन्दोस्तान के ऐसे हिस्सों में व्यतीत किए जहां हमारा राज्य अभी नया नया जमा था, जहंा पर कि हमने लोगों के भावों को दूसरी ओर मोड़ने की अभी कोई कोशिश भी नहीं की थी, और जहां पर कि उनके राष्ट्रीय विचारों में अभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ था. उन प्रान्तों में छोटे और बढ़े, धनी और दरिद्र सब लोगों के सामने केवल अपनी राजनैतिक दशा सुधारने की ही एक मात्र चिन्ता थी. उच्च श्रेणी के लोगों के दिलों में यह आशा बनी हुई थी कि हम फिर से अपने प्राचीन प्रभुत्व को प्राप्त कर लें, और भिन्न श्रेणी के लोगों में यह आशा बनी हुई थी कि यदि देशी राज्य फिर से स्थापित हो गया तो धन और वैभव प्राप्त करने के मार्ग हमारे लिए फिर से खुल जायंगे. जिन समझदार भारतवासियों को औरों की अपेक्षा हमसे अधिक प्रेम या उन्हें भी अपनी कौम की पतित अवस्था को सुधारने का इसके सिवा और कोई उपाय न सूझता था कि अंग्रेजों को तुरंत देश से निकाल कर बाहर कर दिया जाय. इसके बाद मैं कुछ वर्ष बंगाल में रहा. वहां मैंने शिक्षित भारतवासियों में बिलकुल दूसरी ही तरह के विचार देखे. अंग्रेजों के गले काटने का विचार करने के स्थान पर, वे लोग अंग्रेजों के साथ जूरी बन कर अदालतों में बैठने अथवा बंेच मैजिस्ट्रेट बनने की आकांक्षाएं कर रहे थे. …’[17]

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन के पूर्वाेंक्त पत्र के विषय में पार्लिमेण्ट की कमेटी के सदस्यों और ट्रेवलियन में कई दिन तक प्रश्नोत्तर होता रहा, जिसमें ट्रेवेलियन ने और अधिक स्पष्टता के साथ अपने विचारों को दोहराया ओर उनका समर्थन किया. इस प्रश्नोत्तर ही में 23 जून सन् 1853 को ट्रेवेलियन ने कमेटी के सामने बयान किया –

‘अपने यहां की शुद्ध स्वदेशी पद्धति के अनुसार मुसलमान लोग हमें ’काफिर’ समझते हैं, जिन्होंने कि इसलाम की कई सर्वाेंत्तम बादशाहतें मुसलमानों से छीन ले हैं, … उसी प्राचीन स्वदेशी विचार के अनुसार हिन्दू हमें ‘म्लेच्छ’ समझते हैं, अर्थात् इस तरह के अपवित्र विधर्मी जिनके साथ किसी तरह का भी सामाजिक संबंध नहीं रक्खा जा सकता, और वे सबके सब मिल कर अर्थात् हिन्दू और मुसलमान दोनों, हमें इस तरह के आक्रमक विदेशी समझते हैं जिन्होंने उनका देश उनसे छीन लिया है और उनके लिए धन तथा मान प्राप्त करने के समस्त मार्ग बंद कर दिए हैं. यूरोपियन शिक्षा देने का परिणाम यह होता है कि भारतवासियों के विचार एक बिलकुल दूसरी ही ओर मुड़ जाते हैं. पाश्चात्य शिक्षा पाए हुए युवक स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करना बंद कर देते हैं, … वे हमें फिर अपने शत्रु और राज्यापहारी नहीं समझते, बल्कि हमें अपने मित्र, अपने मददगार और बलवान तथा उपकारशील मनुष्य समझने लगते हैं, … वे यह भी समझने लगते हैं कि हम भारतवासी अपने देश के पुनरूजीवन के लिए जो कुछ इच्छा भी कर सकते हैं वह धीरे धीरे अंग्रेजों ही के संरक्षण में सम्भव हो सकती है. यदि राज्यक्रान्ति के पुराने देशी विचार कायम रहे तो सम्भव है, कभी न कभी एक दिन के अंदर हमारा अस्तित्व भारत से मिट जाय. वास्तव में जो लोग इस ढंग से भारत की उन्नति की आशा कर रहे हैं वे इस लक्ष्य को सामने रख कर हमारे विरूद्ध लगातार षड्यंत्र और योजनाएं रचते रहते हैं. इसके विपरीत नई और उन्नत पद्धति के अनुसार विचार करने वाले भारतवासी यह समझते हैं कि हमारा उद्देश्य अत्यंत धीरे धीरे पूरा होगा और हमें अंतिम लक्ष्य तक पहुंचते पहंुचते सम्भव है युग बीत जायं.’

जांच कमेटी के अध्यक्ष ने ट्रेवेलियन से और अधिक स्पष्ट शब्दों में पूछा कि आप की तजवीज का अंतिम लक्ष्य भारत तथा इंग्लिस्तान के राजनैतिक संबंध को तोड़ना है अथवा उसे सदा के लिए कायम रखना है? इस पर ट्रेवेलियन ने फिर उत्तर दिया –

‘… मुझे विश्वास है कि भारतवासियों को शिक्षा देने … का अंतिम परिणाम वह होगा कि भारत तथा इंग्लिस्तान का पृथक हो सकना दीर्ध तथा अनंत काल के लिए टल जायगा, … इसके विपरीत मेरा विचार है कि यदि इसके विरूद्ध नीति का अनुसरण किया गया … तो नतीजा यह होगा कि किसी भी समय हम भारत से निकाले जो सकते हैं, और निस्संदेह बहुत जल्दी और बड़ी दिक्कत के साथ निकाल दिए जायंगे…

‘मैं एक ऐसा रास्ता बता रहा हूं जो हमारे राज्य के स्थायित्व के लिए सबसे अधिक हितकर होगा. अनेक वर्षाें तक खूब अच्छी तरह सोच समझ कर मैंने ये विचार कायम किए हैं. मुझे विश्वास है कि मैं इस विषय को पूरी तरह समझता हूं. … मैं एक परिचित उदाहरण आपके सामने पेश करता हूं. मैं बारह वर्ष भारत में रहा. इनमें से पहले 6 वर्ष मैंने उत्तरीय भारत में गुजारें. मेरा मुख्य स्थान दिल्ली था. शेष छः वर्ष मैंने कलकत्ते में व्यतीत किए. जहां पर मैंने पहले छः वर्ष गुजारे वहां पर पुराने शुद्ध देशी विचारों का राज्य था, वहां पर लगातार युद्ध और युद्धों की ही अफवाहें सुनने में आती थी. उत्तरीय भारत में भारतवासियों की देशभक्ति केवल एक ही रूप धारण करती थी. वे हमारे विरूद्ध साजिशें कर रहे थे, हमारे विरूद्ध विविध शक्तियों को मिलाने की तजवीजें सोच रहे थे, इत्यादि. इसके बाद मैं कलकत्ते आया. वहां मैंने बिलकुल दूसरी ही हालत देखी. वहां पर लोगों का लक्ष्य था – स्वतंत्र अखबार निकालना, म्युनिसिपैल्टियां कायम करना, अंग्रेजी शिक्षा फैलाना, अधिकाधिक हिन्दोस्तानियों को सरकारी नौकरियां दिलवाना, और इसी तरह की और अनेक बातें.’

इस पर फिर लॉर्ड मॉण्टीगल ने ट्रेवेलियन से पूछा –

‘अब अनुमान कीजिए कि इन दोनों में से एक मार्ग का अनुसरण किया जाय, पहला यह कि भारतवासियों को शिक्षा देने और नौकरियां देने का विचार छोड़ दिया जाय, और दूसरा यह कि उन्हें अधिक शिक्षा दी जाय और उचित अहतियात के साथ उन्हें अधिकाधिक नौकरियां दी जाय. आपकी राय में इन दोनों मार्गाें में से किस मार्ग पर चलने से हिन्दोस्तान तथा इंग्लिस्तान का संबंध अधिक से अधिक काल तक कायम रह सकता है.’

ट्रेवेलियन ने उत्तर दिया –

‘निस्संदेह शिक्षा को बढ़ाने और भारतवासियों को अधिकाधिक नौकरियां देने से, मुझे इस बात में किसी प्रकार का जरा सा भी संदेह नहीं है.’[18]

सर चार्ल्स ट्रेवेलियन अथवा उस विचार के अन्य अंग्रेज शासकों के बयानों से अधिक प्रमाण उद्धृत करने की आवश्यकता नहीं है. निस्संदेह ठीक यही विचार बेण्टिक तथा मैकॉले जैसों के थे. भारत के अदंर वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का एक मात्र उद्देश्य राजनैतिक था और वह उद्देश्य यह था कि भारत के ऊपर इंग्लिस्तान के राजनैतिक प्रभुत्व के अनंत काल तक के लिए कायम रक्खा जाय.

गदर और उसके बाद

सन् 1853 की तहकीकात के बाद कम्पनी के डाइरेक्टरों ने 19 जुलाई सन् 1854 को गवरनर जनरल लॉर्ड डलहौजी के नाम वह प्रसिद्ध पत्र भेजा जो सन् 1854 के ‘ऐजूकेशन डिसपैच’ के नाम से प्रसिद्ध है, और जिसे ’वुड्स डिसपैच’ भी कहते हैं, क्योंकि सर चार्ल्स वुड उस समय कम्पनी के ’बोर्ड ऑफ कंट्रोल’ का प्रेसीडेंट था, बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसीडेंट का पद आजकल के भारत मंत्री के पद के समान था.

उस पत्र में डाइरेक्टरों ने अपनी भारत हितैषिता की काफी डींग हांकी है. किन्तु पत्र में यह भी लिखा है कि शिक्षा की इस नई योजना का उद्देश्य ‘शासन के हर महकमें के लिए आपको विश्वसनीय और होशियार नौकर दिलवाना है’ और इसका एक उद्देश्य इस बात को ‘पक्का कर लेना है कि इंग्लिस्तान के उद्योग धंधों के लिए जिन अनेक पदार्थाें की आवश्यकता होती है और जिनकी इंग्लिस्तान की हर श्रेणी के लोगों में खूब खपत होती है वे सब पदार्थ अधिक परिमाण में और अधिक निश्चिन्तता के साथ सदा इंग्लिस्तान पहंुचते रहें, और इसके साथ ही इंग्लिस्तान के बने हुए माल के लिए भारत में लगभग अनंत मांग बनी रहे.’[19]

सन् 1757 से लेकर 1854 तक लगभग 100 वर्ष के अनुभव और परामर्श के बाद इंग्लिस्तान के नीतिज्ञों को इस बात का विश्वास हुआ कि थोड़े से भारतवासियों को अंग्रेजी शिक्षा देना इस देश में अंग्रेजी साम्राज्य को कायम रखने के लिए आवश्यक है. किन्तु इस पर भी ये लोग इतने बड़े प्रयोग के लिए एकाएक साहस न कर सके. ट्रेवेलियन ने अपने पत्र और बयान दोनों में उन्हें साफ आगाह कर दिया था कि अशिक्षित अथवा अंग्रेजी शिक्षा से वंचित भारतवासियों के दिलों में अपनी पराधीनता के विरूद्ध गहरा असंतोष भीतर ही भीतर भड़कता रहता था, जिसका विदेशी शासकों को पता तक नहीं चल सकता था. यह स्थिति अंग्रेजों के लिए अत्यंत खतरनाक थी. ट्रेवेलियन के बयान में दिल्ली और उत्तरीय भारत के अंदर सन् 1857 से दस वर्ष पूर्व की गदर की गुप्त तैयारियों और सम्भावनाओं की ओर साफ संकेत मिलता है. ट्रेवेलियन की आशंकाएं बहुत शीघ्र सच्ची साबित हुई. सन् 1857 के गदर ने एक बार इस देश के अंदर ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को बुरी तरह हिला दिया.

अंग्रेज शासकों को अब ट्रेवेलियन, मैकॉले जैसों की नीतिज्ञता और दूरदर्शिता में कोई संदेह न रहा. उनका बताया हुआ उपाय ही इस देश में अंग्रेजी राज्य को चिरस्थायी करने का एक मात्र उपाय था. लॉर्ड कैनिंग उस समय भारत का गवरनर जनरल था. ठीक गदर के वर्ष अर्थात् सन् 1857 में कलकत्ते, बम्बई और मद्रास में सरकारी विश्वविद्यालय कायम करने के लिए कानून पास किया गया. सन् 1859 में इंग्लिस्तान के प्रधान मंत्री ने सन् 1854 के पत्र को फिर से दोहरा कर पक्का किया.

सन् 1854 का यह प्रसिद्ध डिसपैच ही भारत की वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली और अंग्रेज शासकों की शिक्षा नीति दोनों का उद्गम स्थान है. ब्रिटिश सरकार का वर्तमान शिक्षा-विभाग इसी पत्र का परिणाम है.

दिल्ली कॉलेज के शुरू के विद्यार्थी, सर चार्ल्स ट्रेवेलियन के पटु शिष्य और प्रथम अफगान युद्ध में अंग्रेजों के परम सहायक, पंडित मोहनलाल से लेकर आज तक के अधिकांश अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए भारतवासियों के जीवन, उनके रहन सहन और उनके चरित्र से स्पष्ट है कि लॉर्ड मैकॉले और सर चार्ल्स ट्रेवेलियन जैसों की नीति कितनी दूरदर्शिता की थी. सारांश यह कि लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व तक जो देश संसार के शिक्षित देशों की अग्रतम श्रेणी में गिना जाता था, वह डेढ सौ वर्ष के विदेशी शासन के बाद अब संसार के सभ्य कहलाने वाले देशों में, शिक्षा की दृष्टि से, सबसे अधिक पिछड़ा हुआ है. जिस देश में लगभग प्रत्येक मनुष्य लिखना पढ़ना और हिसाब करना जानता था, वहां अब लगभग 94 प्रतिशत अशिक्षित हैं और थोड़े से अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोग अपने शेष देशवासियों के सुख दुख की ओर से उदासीन, सच्ची राष्ट्रीयता के भावों से कोसों दूर, विदेशी सत्ता के निर्लज्ज पृष्ठपोषक बने हुए हैं.

सन्दर्भ –

1.“Max Mullar, on the strength of official documents and a missionary report concerning education in Bengal prior to the British occupation, assests that there were then 80,000 native schools in Bengal, or one for every 400 of the population. Ludlow, in his ‘History of British India,’ says that ‘ in every Hindoo village which has retained its old form I am assured that the children generally or able to read, write, and cipher, but where we have swept away the village system as in Bengal there the village school has also disappeared.’ “- Keair Hardie in his work on India, p.5.

2. “ … the peasantry of few other countries would bear a comparison as to their state of education with those of many parts of British India.” – Report of the Select Committee on the Affairs of the East India Company, vol i. p. 409, published 1832.

3. “The mode of instruction that from time immemorial has been practiced under these masters has received the highest tribute of praise by its adoption in this country, under the direction of the Reverend Dr. Bell, formerly chaplain in Madras, and it is now become the mode by which education is conducted in our national establishments, from a conviction of the facility it affords in the acquision of language by simplifying the process of instruction.

“This venerable and benevolent institution of the Hindoos is represented to have withstood the shock of revolutions … “ – Letter from the Court of Directors to the Governor General in Council of Bengal, dated 3rd, 1814.

4. “The economy with which children are taught to write in the native schools and the system by which the more advanced scholars are caused to teach the less advanced, and at the same time to confirm their own knowledge, is certainly admirable, and well deserved the imitation it has received in England…

“ … there are multitudes who can not even avail themselves of the advantages of the system ….

“ I am sorry to state, that this is ascribable to the gradual but general impoverishment of the country. The means of the manufacturing classes have been of late years greatly diminished by the introduction of our own English manufactures in lieu of the Indian cotton fabrics. The removal of many of our troops from our own territories to the distant frontiers of our newly subsidized allics has also, of late years affected the demand for grain; the transfer of the capital of the country from the native government and their officers, who liaberally expended it in India, to Europeans, restricted by law from employing it even termorarily in India, and daily draining it from the land, has ikewise tended to this effect, which has not been alleviated by a less rigid enforcement of the revenue due to the state. The greater part of the middling and lower classes of the people are now unable to defray the expenses incident upon the education of their offspring, which their necessities require the assistance of their children as soon as their tender limbs are capable of the smallest labour.

“ … of nearly a million of souts in this District, not 7,000 are now at school, a proportion which exhibits but too strongly the result above stated. In many villages where formerly there were schools, there are now none, and in may others where there were large schools, now only a few children of the most opulent are taught, others being unable from proverty to attend…

“Such is the state in this District of the various schools in which reading, writing and arithmetic are taught in the vernacular dilects of the country, as has been always usual in India,.. learning … has never flourished in any country except under the encouragement of the ruling power, and the countenance and support once given to science in this part of India has long been withheld.

            “Of the 533 institution for education now existing in this district, I am ashamed to say, not now derives any support from the state,….

“There is no doubt, that in former times, especially under the Hindoo Governments, very large grants, both in money and in land, were issued for the support of learning…

“ … Considerable alienations of revenue, which formely did hounour to the state by upholding and encouraging learning, have deteriorated under our rule into the means of supporting ignorance; which science, deserted by the powerful aid she formerly received from Government, has often been reduced to beg her scanty and uncertain meal from the change benevolence of charitable individuals; and it would be difficult to point out any period in the history of India when she stood more in need … “- The Report of A.D. Campbell Collector of Bellary, dated 17th August, 1823, from the Report of the Select Committee etc, vol, i, published 1832.

5. Walter Hamilton in 1828, ibid, vol, i,p.203.

6. “On that occasion, one of the Directors stated that we had just lost America from our folly, in having allowed the establishment of schools and colleges, and that it would not do for us to repeat the same act of folly in regard to India; … for twenty years after that period, down to the year 1813, the same feeling of opposition to the education of the natives continued to prevail among the ruling authorities in this country.” – J.c. Marshman, 15th, 1853, ibid.

7. “…. In the present extended state of our Empire, our security for preserving a power of so extraordinary a nature as that we have established, rests upon the general division of the freat communities under the Government, and their sub-division into various castes and tribes; while they continue divided in this manner, no insurrection is bkely to shake the stability of our power…

“ … we shall always find it difficult to rule in proportion as it (the Indian community) obtain upon and possesses the power of throwing off that subjection in which it is now places to the British Government.”

“ …. I do not think that the communicaton of any knowledge, which tended gradually to do away the subsisting distinctions among our native subjects or to diminish that respect which they entertain for Europeans, could be said to add to the political strength of the English Government, …. “- Sir John, Malcolm, before the Parliamentary Committee of 1813.

8. Affairs of the East India Company, published 1832, vol i. pp. 446, 447.

9. “The effect of education will be to do away with all the prejudices of sects and religions by which we have hitherto kept the country – the Musalmans against Hindoos, and so on; the effect of education will be to expand their minds, and show them their vast power.” – Major General Sir Lionel Smith, K.C.B. the enquiry of 1831.

10. “ … with the superior and middle classes of the natives, from whom the native agent whom you have occasion to employee, in the functions of Government are most filthy drawn, and whose influence on the rest of their countrymen in the most extensive. “- Letter frok the Court of Directors to the Governor General in Council, date 5th September, 1827, ibid, p. 490.

11. Sixth Report from the Select Committee on Indian Territories, 1853, pp. 155-57.

12. “ We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons Indian in blood and color, but English in taste, in opinions, words and intellect,” – Macaulav’s Minute of 1835.

13. “ … all the funds appropriated for the purposes of education would be best employed on English education alone.” – Lord Bentick’s Resolution, dated 7th March, 1835.

14. “  … we created a separate caste of English scholars, who had no longer any sympathy, or very little sympathy with their countrymen;” – Prof, H.H. Wilson, before the Select committee of the House of Lords, 5th July, 1863.

15. “  …. I venture to hazard the option, that Lord William Bentink’s double Act for the encouragement and diffusion of the English language and English literature in the East, … the grandest master – stroke of sound policy that has yet characterized the administration of the British Government in India.”—Dr. Duff, in the Lords’ Committee’s Second Report on Indian Territories, 1853, p. 409.

16. “ . for the purpose of changing Irishmen into Englishmen, if that were possible.” – Professor H. Holman in his English National Education, p. 50.

17. “ … would be permetually reminding the Mohammadans that we are infidel usurpers of some of the fairest realms of the faithful, and the Hindoos, that we are unclean beasts, with whom it is a sin and a shame to have any friendly intercourse. Our bitterest enemies could not desire more that we should propagate systems of learning which excite the strongest feelings of human nature against ourselves.

“ The spirit of English Literature, on the other hand, can not but be favourable to the English connection. Familiarly acquainted with us by means of our literature, the Indian youth almost cease to regard us as foreingnes. They speak of our great men with the same enthusiasm as we do. Educated in the same way, interested in the same objects, engaged in the same pursuits with ourselves, they become more English than Hindoos, … and from violent opponents, or rullen conformists, they are converted into jealous and intelligent co-operators with us.. they cease to think of violent remedies…

“ … As long as the natives are left to brood over their fromer independence, their sole specific for improving their condition is, the immediate and total expulsion of the English. A native patriot of the old school has no notion of anything beyond this; … It is only by the infusion of European ideas, that new direction can be given to the national views. The youngmen brought up at our seminaries turn with contempt from the barborous despolism under which their ancestors grossed to the prospect of improving their national institutions on the English model… so far from having the idea of driving the English into the sea uppermost in their minds they have no notion of any improvement but such as rivels their connection with the English, and makes them dependent on English protection and instruction.

“ The only means at our disposal … is, to set the natives on a process of European improvement, to which they are already sufficiently inclined. They will then cease to desire and aim at independence on the old Indian footing. A sudden change will then be impossible; and a long continuance of our present connection with India will even be assured to us. .. The natives will not rise against us. .. The national activity will be fully and harmlessly employed in acquiring and diffusing Europian knowledge, and naturalising European institutions. The enducated classes, … will naturally cling to us. .. There is no class of our subjects to whom we are to thoroughly necessary as those whose opinions have been cast in the English mold; they are spoiled for a purely native regime; they have everything to fear from the premature establishment of a native Government.

“ .. The Indian will, I hope, soon stand in the same position towards us in which we once stood towards the Romans, Tacitus informs us, that it was the policy of Julius Agricola to instruct the sons of the leading men among the Britons in the literature and science of Rome and to give them a taste for the refinements of Roman civilization. We all know how well this plan answered. From being obstinate enemies, the Britons soon became attached and confiding friends; and they made more strenuous efforts to retain the Romans, than their ancestors had done to resist their invasion. It will be a shame to us if, with our greatly superior advantages, we also do not make our premature departure be dreaded as calamity…

“ These views were not worked our by reflection, but were forced on me by actual observation and experience. I passed some years in parts of India, where owing to the comparative novelty of our rule and to the absence of any attempt to alter the current of native feeling, the national habits of thinking remained unchaged. There high and low, rich and poor, had only one idea of improving their political condition, The upper classes lived upon the prospect of regaining their former pre-eminence; and the lower, upon that of having the evenues to wealth and distinction reopened to them by the reestablishment of a natives had no notion that there was any remedy for the existing depressed state of their nation except the sudden and absolute expulsion of the English. After that, I resided for some years in Bengal, and there I found quite another set of ideas prevalent among the educated natives. Instead of thinking of cutting the throats of the English, they were aspiring to sit with them on the grand jury or on the bench of magistrates … “ – A paper on The political tendency of the different system of educations in use in India, by Sir Charles, E. Trevelyan, submitted to the Parliamentary Committee of 1853.

18. “ According to the unmitigated native system the Mohammadans regard us as Kafirs, as infidel usurpers of some of the finest realms of Islam, … According to the same original native views, the Hindoos regard us as Mlechchas, that is, impure outcasts with whom no communion ought to be held; and they all of them, both Hindoo and Mohammadan, regard us as asurping foreigners, who have taken their country from them, and exclude them from the avenues to wealth and distinction. The effect of a training in European learning is to give an entirely new turn to the native mind. The young men educated in this may cease to strive after independence .. They cease to regard us as enemies and usurpers, and they look upon us as friends and patrons, and powerful beneficent persons, under whose protection all they have most at heart for the regeneration of their country will gradually be worked out. According to the original native view of political change, we might be swept off the face of India in a day, and , as a matter of fact, whose who look for the improvement of India according to this model are continually meditating on plots and conspiracies with that object; whereas, according to new and improved system, the object must be worked out by very gradual steps, and ages may elapse before the ultimate end will be attained.

“ .. Now my belief is, that the ultimate result of the policy of improving and educating India will be, to postpone the separation for a long indefinite period… Whereas I conceive that the result of the opposite policy.. may lead to a separation at any time, and must lead to it at a much earlier period and under much more disadvantageous circumstances …

“ I am recommending the course which, according to my most deliberative view which I have held for a great many years, founded, I believe, on a full knowledge of the subject, will be most conductive to the continuance of our dominion .. I may mention as a familiar illustration, that I was 12 years in India, and that the first six years were spent up the country, with Delhi for my headquarters, and the other six at Calcutta.the first six years represent the old regime of pure native ideas, and there were continual wars and remours of wars. The only form which native paltiotism assumed up the country was plotting against us and meditating combinations against us and so forth. Then I came to Calcutta: and there I found quite a new stae of things. The object there was to have a free press, to have municipal institutions to promote English education and the employments of the Natives, and various things of that sort.

“6724, Lord Monteagle of Brandon. Then, supposing one of two courses to be taken, either the abandonment of the education and employment of the Natives, or an extension, of education, or an extension, with due precaution , of the employment of the Natives, which of those two courses, in your judgement, will lend to the longest possible continuance of the connection of India with England?

“ Decidely the extension of eduction and the employment of the Natives; I entertains no doubt whatever upon the question.” – Sir Charles E. Trevelyan, before the Parliamentary Committee of 1853.

19. “ … enabling you to obtain the servifes of intelligent and trustworthy pensons in every department of Government;” – Para 72 and

“ … secure to us a larger and more certain supply of many articles necessary for our manufactures and extensively consumed by all classes of our population as well as an almost in exhaustible demand for the produce of Biritsh labour.” – Para 4, The Education Despatch of 1854.

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