भारत में सशस्त्र संघर्ष के बल पर देश की वर्तमान अर्द्ध सामंती अर्द्ध औपनिवेशिक व्यवस्था को खत्म कर नवजनवादी क्रांति के जरिए देश में समाजवादी व्यवस्था लाने की कोशिश में जुटे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) पर अक्सर यह आरोप लगता रहता है कि उसे आर्थिक व सैन्य मदद, खासकर असलहों की आमदरफ्त विदेशी ताकतों, खासकर चीन से मिलता है.
वर्ष 2009 में केंद्रीय गृह सचिव जी. के. पिल्लई ने नई दिल्ली में साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन के एक समारोह में कहा – ‘चीनी लोग बड़े स्मगलर हैं, वे छोटे हथियारों के सौदागर हैं. मुझे यक़ीन है कि माओवादियों को भी वहां से हथियार मिलते हैं.’ लेकिन पिल्लई ने ये साफ़ नहीं किया उन्हें चीनी तस्करों से हथियार मिल रहे हैं या आधिकारिक एजेंसियों से.
तब के भारत के गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने भी कहा था कि माओवादियों को बांग्लादेश, म्यामांर और शायद नेपाल से हथियारों की मदद मिल रही है. उनका कहना था कि भारत की इन देशों से सीमाएं खुली हुई हैं. और ख़ासकर भारत नेपाल सीमा तो बिल्कुल खुली हुई है. ऐसे में हम आज से 14 साल पहले भाकपा माओवादी के दण्डकारण्य स्पेशल जोनल कमिटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी के उस इंटरव्यू को यहां अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत करते हैं, जिसे उन्होंने बीबीसी के संवाददाता अतुल संगर को दिया था.
सुरक्षाकर्मियों से हथियार-असलाहा मिलने की रिपोर्टों के बारे में आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?
हम अपने हथियार और गोला-बारूद मुख्य रूप से पुलिस और अर्धसैनिक बलों पर हमलों के ज़रिए हासिल करते हैं और यही हमारा अहम स्रोत है. ये सही है कि हम कुछ हथियार अलग-अलग लोगों से भी ख़रीदते हैं लेकिन ये कहना मुश्किल कि कब कहां से ख़रीदा होगा – या फिर सीआरपीएफ़, ग्रे हाउंड या कोबरा कमांडो ने दिया होगा.
क्या नियमित तौर पर गोला-बारूद की सुरक्षाकर्मी कोई सप्लाई देते हैं ?
नहीं, जैसे मैंने कहा, हथियारों और असलहे का मुख्यत: स्रोत तथाकथित सुरक्षाबलों पर हमारे हमले हैं. दंतेवाड़ा के हमले में हमने 75 हथियार और गोलियां हासिल की थी. कम संख्या में हथियार और गोला-बारूद हमें और लोगों से भी मिलता है. जिस तरह से व्यापारी से ख़रीद की जाती है वैसे ही हम असलहा-बारूद ख़रीदते हैं.
देखिए इस संदर्भ में प्रशासन में छोटे स्तर काम कर रहे जवान, पुलिकर्मियों, अधिकारियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है और उन्हें देशद्रोही के रूप में पेश किया जा रहा है. असली देशद्रोहियों और घोटाले करने वालों को तो कुछ कहा ही नहीं जा रहा है.
क्या सुरक्षा बलों में आपके समर्थक हैं ? ऐसी ख़बरें हैं कि माओवादी पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं.
घुसना क्या ? ये तो हमारा कर्तव्य है कि पुलिस, अर्धसैनिक बलों, सेना में काम करने वालों पर काम करें, क्रांति के लिए उनमें समर्थक बनाएं क्योंकि वो लोग भी ग़रीब परिवारों से हैं और मज़दूर-किसान के बेटे हैं.
कितना सहयोग-समर्थन आपको मिला है सुरक्षाकर्मियों से ?
संख्या तो नहीं बता सकता लेकिन अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से सहयोग समर्थन देते हैं. दंडकारण्य के बारे में बता सकता हूं – कुछ पुलिस जवान और एसपीओ थानों से फ़रार होकर गोला-बारूद और हथियार के साथ हमारे साथ मिले थे. इक्के-दुक्के ही सही कुछ लोगों ने तो हमें हथियार और गोलियां भी दी हैं.
इस इंटरव्यू से यह स्पष्ट है कि भाकपा माओवादी को हथियारों की आमदरफ्त का मुख्य जरिया सुरक्षाबलों पर हमले हैं, न कि किसी विदेशी ताकत या चीन वगैरह. वैसे भी माओवादी, मौजूदा चीन को सामाजिक साम्राज्यवाद के तौर पर देखते हैं और फिर चीन का भारत की वर्तमान फासिस्ट मोदी सत्ता के साथ जबरदस्त सांठगांठ है. ऐसे में चीन से मदद की बात करना ही बेकार है.
वहीं, पेंगुइन प्रकाशन से हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में प्रकाशित किताब ‘उसका नाम वासु नहीं’ में वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी ने नक्सलियों के संगठन के ढांचे और उसकी आर्थिक-सामरिक व्यवस्था के बारे में भी विस्तारपूर्वक लिखा है.
माओवादियों के एक नेता राजन्ना के हवाले से इस किताब में लिखा गया है कि नक्सलियों के पास पहली एके 47 बंदूक 1987 में आई थी. तब ये बंदूक डेढ़ लाख में आती थी लेकिन अब पांच लाख तक में आती है. लेखक के मुताबिक राजन्ना का कहना है, हम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से हथियार नहीं ख़रीद सकते. कश्मीर और नॉर्थ ईस्ट के संगठन हमारा छोटा बजट देखकर घबरा जाते हैं. उनका कहना है कि वे आईईडी और आरडीएक्स आदि का भी प्रयोग नहीं करते.
गोला बारूद के सवाल पर राजन्ना ने कहा, ‘हमारा गोला बारूद पुलिस से हमारे पास बिचौलियों के द्वारा आता है. पुलिस बहुत लालची है. इस तरह के सौदे हर पुलिस स्टेशन में किए जाते हैं. बहुत से पुलिस वाले, ऊपर से नीचे तक, इसमें लगे हैं. यूं भी भारत में कोई एके 47 के लिए गोलियां नहीं बनाता. वे इंपोर्ट ही करनी होती हैं….हम अपनी ज़रुरतों का चौथाई हिस्सा ही ख़रीदते हैं. बाक़ी तो पुलिस से लूटा जाता है. इस किताब में बताया गया है कि नक्सली किस तरह हथियारों की अपनी फ़ैक्ट्री चलाते हैं और अपनी ज़रुरत का 80 प्रतिशत हथियार ख़ुद ही बनाते हैं.
माओवादियों के इन तथ्यों पर पूरी तरह भरोसा किया जा सकता है क्योंकि माओवादियों के बटालियन अमूमन उसी हथियारों से लैस होते हैं, जो सीआरपीएफ या डीआरजी के जवान इस्तेमाल करते हैं. इन हथियारों में एके-47, एक्स-95, यूबीआरएल, चीनी पिस्टल, एलएमजी, यूबीजीएल, इंसास और एसएलआर राइफल शामिल हैं. नक्सलियों के पास पश्चिम जर्मनी में निर्मित हेक्लर व कोच जी3 बेटल राइफल भी बताई गई हैं. चीन में निर्मित हथियार भी छत्तीसगढ़ के जंगलों में पहुंच रहे हैं. बुलेटप्रूफ जैकेट और संचार सिस्टम के मामले में भी नक्सली बहुत आगे हैं क्योंकि वे इन सरकारी जवानों को मारकर या छीनकर हासिल करते हैं.
सीआरपीएफ के पूर्व आईजी वीपीएस पवार के अनुसार, नक्सलियों के पास मौजूदा समय में घातक हथियार हैं, यह बात साबित हो चुकी है. इन्हीं के दम पर वे सुरक्षा बलों को घेर लेते हैं. घात लगाकर हमला करने के जितने भी मामले सामने आए हैं, उनमें एके-47 और रॉकेट लॉन्चर का इस्तेमाल किया गया है. पवार के अनुसार, नक्सलियों के पास ऐसे घातक हथियार पहुंचने के तीन रास्ते हैं –
- पहला, नक्सली जब किसी बड़े हमले के द्वारा सुरक्षा बलों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं, तो वे उनके हथियार, बुलेटप्रूफ जैकेट और संचार उपकरण लूट लेते हैं. शवों के पास कुछ भी नहीं छोड़ा जाता. बीजापुर के हमले में शहीद हुए जवानों के शरीर पर बुलेटप्रूफ जैकेटें तक नहीं थी. उनके हथियार भी नहीं मिले. गत वर्ष डीआरजी के 17 जवानों को मार दिया गया था. घटनास्थल से स्वचालित राइफलें, गोला बारुद और संचार सिस्टम को नक्सली ले गए थे. इस तरह करीब डेढ़ दशक में हजारों एके-47 राइफलें नक्सलियों के पास पहुंच चुकी हैं.
- दूसरा, सामान्य तौर पर लूटपाट, जैसे किसी गनमैन से हथियार छीनना, पुलिस कर्मी के साथ छीना-झपटी और थाने के शस्त्रगृह में लूटपाट आदि शामिल है. माइनिंग साइट से भी कई बार हथियार छीनने की घटनाएं सामने आई हैं. साल 2013 में जब नक्सलियों ने कांग्रेस पार्टी की परिवर्तन रैली पर हमला किया तो उस दौरान पार्टी के राज्य प्रमुख नंद कुमार पटेल, पूर्व विपक्षी नेता महेंद्र कर्मा और पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल सहित 29 लोग मारे गए थे. उस वक्त भी नक्सलियों ने सुरक्षाकर्मियों के हथियार लूटे थे. संचार उपकरण के जरिए नक्सली कुछ समय तक सुरक्षा बलों की मूवमेंट और संदेश ट्रैप करने का प्रयास करते हैं.
- तीसरा, नक्सलियों ने अब स्वचालित राइफलें खरीदनी शुरू कर दी हैं. इसके लिए खर्च में कटौती की जा रही है. उत्तर पूर्व के आतंकी समूहों से हथियार खरीदे गए हैं, जांच एजेंसियों के पास इसके पुख्ता सबूत हैं. वहां से नक्सलियों को चीन में निर्मित हथियार भी मिल जाते हैं. सुकमा में तैनात सुरक्षा बल के एक अधिकारी ने बताया, नक्सली अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं. उन्होंने माइनिंग और बड़े निर्माण स्थलों को निशाना बनाया है. कई जगहों पर नक्सली लूटपाट न कर यह सौदा करते हैं कि वह व्यवसायी उनके लिए हथियारों के डीलर को पैसा दे देगा. इन सब कारणों के चलते नक्सली हथियारों के मामले में सुरक्षा बलों से किसी भी तरह कम नहीं हैं.
इस तरह यह दिन की उजाले की तरह साफ है कि माओवादियों को हथियारों की आपूर्ति का कोई भी माध्यम विदेशी या कम से कम चीन तो कतई नहीं है. माओवादियों का हथियार आपूर्ति पूरी तरह सुरक्षाकर्मियों पर हमलों और खुद के फैक्ट्री में निर्मित हथियारों से होता है.
इससे एक और चीज साफ होती है, वह यह कि भारत सरकार जिस हद तक अपने सुरक्षाकर्मियों को आधुनिक हथियारों और युद्ध सामग्रियों से लैस करके माओवादियों के इलाके में भेजेगी, माओवादी भी उसी हद तक आधुनिक हथियारों और युद्ध सामग्रियों से लैस होता जायेगा. अगर भारत सरकार टैंकों और हेलीकॉप्टर को भी माओवादियों से लड़ने भेजेगा तो जल्दी ही माओवादी भी उसे छीनकर खुद को टैंकों और हेलीकॉप्टर से लैस कर लेगा.
यही कारण है कि पूर्व आईजी एसएस संधू कहते हैं कि सुरक्षा बलों की हर टीम के साथ एक छोटी पार्टी रहनी चाहिए. बड़ा हमला होने की स्थिति में कम से कम वह पार्टी हथियार आदि की लूट को रोक सकती है, भले यह पार्टी दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर रहे. संधु का यह कहना शासक वर्ग की इसी हताशा को परिलक्षित करता है कि माओवादियों से अपने हथियार बचाओ ! ठीक यही चीज यूक्रेन और फिलिस्तीन युद्ध में नाटो और इजरायल की भी चिंता है कि अपने हथियार बचाओ.
माओवादियों के खिलाफ मुखर रही कांग्रेसी सरकार के विपरीत भारत की मोदी सरकार मुखर से ज्यादा आक्रामक रही है. जैसे सीधे पेड़ काटने के बजाय उसके आसपास के जंगलों की सफाई किया जाता है ताकि पेड़ को आसानी से काटा जा सके. ठीक उसी तरह, भाजपा की मोदी सरकार सीधे माओवादियों पर हमला करने के तमाम जनवादी, प्रगतिशील ताकतों को खत्म करने की योजना पर काम कर रही है ताकि जब माओवादियों पर सीधा हमला किया जाये तब विरोध करने जनवादी ताकतें सामने नहीं आ सके.
उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि देश में सशस्त्र क्रांति कर सत्ता पर काबिज होने और मजदूरों-किसानों की सरकार बनाने के लिए हर दिन शहादत दे रहे भाकपा माओवादी को बाहर से कोई हथियार या धन की आमदरफ्त नहीं होती है. वैसे भी क्रांति कभी आयात नहीं की जाती, वहां की जनता को खुद करना होता है.जहां तक चीन का सवाल है चीन में अब माओवादी नहीं है बल्कि यूं कहें तो चीन में माओ की नीतियों के विरोधी सत्ता पर काबिज है, तो वह भला माओ समर्थक को सहायता क्यों देंगे ! इसलिए माओवादियों पर लगाएं जा रहे आरोप पूर्णता फर्जी है.
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