Home गेस्ट ब्लॉग बैंकों का निजीकरण एक अमानवीय अपराध

बैंकों का निजीकरण एक अमानवीय अपराध

6 second read
0
0
341

बैंकों का निजीकरण एक अमानवीय अपराध

बैंकों का निजीकरण एक अमानवीय अपराध है. स्वतंत्रता के पूर्व जब देश में एक संगठित बैंकिंग प्रणाली नहीं थी तो भारत में सूदखोरी और महाजनी व्यवस्था अस्तित्व में थी. देश का एक बहुत बड़ा तबका जिसके पास जमीन जायजाद के नाम पर कुछ नहीं था. वह अपना जीवन यापन करने के लिए उन्हीं सूदखोरों से ऋण लिया करता था. ऋण का अत्यंत उच्च ब्याज दर होने के कारण वे उसका वहन नहीं कर पाते थे.

परिणामस्वरूप वे ऋण के जाल में फंस जाते थे, उसी ऋण के दरवाजे से वे निर्धनता के कोठरी में पहुंच जाते थे. जहां से निकलने के लिए उन्हें दशकों से भी अधिक समय लग जाता था. अधिकांश ऋणग्राही उसी दलदल में फंसकर मर जाता था. उनकी कई-कई पीढ़ियां सूदखोरों के घर बंधुवा मजदूरी करती थी.

जब देश आजाद हुआ तो देश के आर्थिक मनीषियों ने बैंकों का निजीकरण इसी उद्देश्य से किया था कि वित्तीय समावेशन जनसुलभ हो. वित्तीय समावेशन अर्थव्यवस्था की एक अवधारणा है, जिसके अंतर्गत समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को भी बैंकों से जोड़ना होता है. उनके खाते को खुलवाना,उनके लेन-देन को बढ़ावा देना आदि-आदि.

बैंकों के निजीकरण से हानियां :

  1. वित्तीय समावेशन के उद्देश्यों की पूर्ति न हो पाना.
  2. सरकारी योजनाओं के बेहतर प्रबंधन में बाधा उत्पन्न होना.
  3. सूदखोरी और महाजनी प्रथा को बढ़ावा मिलेगा.
  4. समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग बैंकों से कट जायेगा.
  5. ऋण अत्यंत उच्च दर से प्राप्त होगा.
  6. सरकारी ऋण पर पनपने वाले मध्यम,लघु और कुटीर उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे.
  7. असंगठित क्षेत्रों की संख्या में बहुत बेतहाशा वृद्धि हो जायेगी.
  8. सरकारी बैंकों में रोजगार के अवसर समाप्त हो जाएंगे.
  9. प्रतिभाओं का पलायन होगा.
  10. देश की आर्थिक संवृद्धि दर प्रभावित होगी.
  11. मुद्रा तरलता का व्यवस्थित नियमन नहीं हो पायेगा.
  12. भारत सरकार की अनेकानेक योजनाएं असफ़ल हो जाएंगी.
  13. बैंक उच्च आय वर्ग विशेष के धन का रखवाली करने वाला बन जायेगा.
  14. देशवासियों का आर्थिक शोषण निजी बैंकों के माध्यम से बढ़ेगा

बस एक बात हमको आज तक नहीं समझ में आयी कि शिक्षक जैसे एक छोटे से पद पर सेवा देने वाला हर व्यक्ति या किसी भी सामान्य पद पर सेवा देने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस तर्क और तथ्य को समझ लेता है तो आईएएस और ऐसी उच्च परीक्षाओं को उत्तीर्ण कर सेवा देने वाला व्यक्ति क्यों नहीं समझ पाता है ? मेरे दृष्टिकोण से यह साफ़ साफ़ है कि सरकार राष्ट्र के प्रति स्वयं के सभी दायित्वों से मुक्त होना चाहती है और बस वह धन वसूलने की एक संस्था बनना चाहती है.

यदि ऐसा हुआ तो जानिये, भारत में बहुत गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होंगी. भारत आर्थिक रूप से लंगड़ा होता जाएगा. किसी देश के आंदोलन में आर्थिक कारण एक अत्यंत महत्वपूर्ण कारक होता है. भारत भी उसी दौर से गुजरेगा जब देश के लोग संवैधानिक संस्थाओं में आस्था नहीं व्यक्त कर पाएंगे.

बैंकों के निजीकरण की अन्दरूनी कहानी

कोरोना महामारी में लॉकडाउन के बीच काम करना हो या हर घर बैंकिंग पहुंचाने के लिए जनधन खाते खोलना या फिर नोटबंदी के वक्त 24 घंटे काम कर लोगों को रुपए मुहैया कराना हो. सरकारी बैंकों में काम करने वाले कर्मचारियों की मेहनत की यह सिर्फ एक बानगी है. फिर भी, सरकार घड़ी के कांटे को उलटा चलाकर निजीकरण में लगी हुई है. इस फैसले की वजह क्या है, इसके फायदे व नुकसान क्या है, क्या है इसकी इनसाइड स्टोरी, जैसे सवालों पर वॉयस ऑफ बैंकिंग के फाउंडर अश्विनी राणा ने एक मीडिया चैनल को विस्तार से बताया है.

राणा ने देश के बैंकिंग इतिहास, नीतियों में परिवर्तन, बैंकों का नेशनलाइजेशन और अब प्राइवेटाइजेशन का देश और आम आदमी के असर के बारे विश्लेषण किया है. वे कहते हैं जनधन अकाउंट, मुद्रा लोन, प्रधान मंत्री बीमा योजना, अटल पेंशन योजना सभी योजनाओं का क्रियान्वयन इन बैंकों ने उत्साह से किया है.

सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके दिखाया. देश के सरकारी तन्त्र की कोई भी इकाई (सेना को छोड़कर) 36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती, जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया. इसके बाद भी इनका प्राइवेटाइजेशन या विलय की जाने की वजह खोजने के लिए पहले हमें इतिहास की ओर झांकना होगा.

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से दुनिया भर में शुरू हुआ बैंकों का नेशनलाइजेशन

19 जुलाई, 2021 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 52 वर्ष पूरे हो जाएंगे. इसकी शुरूआत दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही हो गई थी. विदेशों में दूसरे विश्वयुद्ध में बर्बाद हुई अर्थव्यवस्थाओं को फिर से खड़ा करने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की मांग बढ़ी. इसके चलते यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया. लिहाजा, बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ और भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गई. फिर, 1955 में इम्पीरियल बैंक का सरकारीकरण कर ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ बनाया गया.

काला बाजारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे बैंक

आर्थिक तौर पर सरकार को लग रहा था कि कमर्शियल या प्राइवेट बैंक सामाजिक उत्थान की प्रक्रिया में सहायक नहीं हो रहे थे. बताते हैं आजादी के बाद देश के 14 बड़े बैंकों के पास देश की लगभग 80 फीसदी पूंजी थी. इनमें जमा पैसा उन्हीं सेक्टरों में निवेश किया जा रहा था, जहां लाभ के ज्यादा अवसर थे. वहीं सरकार की मंशा कृषि, लघु उद्योग और निर्यात में निवेश करने की थी.

दूसरी तरफ एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे, जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपए डूब गए. उधर, कुछ बैंक काला बाजारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे इसलिए सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके.

ऐसे हुआ बैंकों का नेशनलाइजेशन

19 जुलाई, 1969 को एक आर्डिनेंस जारी करके सरकार ने देश के 14 बड़े निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. जिस आर्डिनेंस के जरिए ऐसा किया गया वह ‘बैंकिंग कम्पनीज आर्डिनेंस’ कहलाया. बाद में इसी नाम से विधेयक भी पारित हुआ और कानून बन गया. राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई. शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए.

आंकड़ों के मुताबिक़ जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थी. 2021 के आते आते यह आंकड़ा लगभग 85 हजार का हो गया. 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर चला जिसमें और छह निजी बैंकों को सरकारी कब्जे में लिया गया.

फिर से प्राइवेटाइजेशन की प्रोसेस यहां से हुई शुरू

1991 के आर्थिक संकट के उपरान्त बैंकिंग क्षेत्र के सुधार के दृष्टि से जून 1991 में एम. नरसिंहम की अध्यक्षता में नरसिंहम् समिति अथवा वित्तीय क्षेत्रीय सुधार समिति की स्थापना की गई. इसके बाद नरसिंहम समिति द्वितीय की स्थापना 1998 में हुई. इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये व्यापक स्वायत्तता प्रस्तावित की गई थी. समिति ने बड़े भारतीय बैंकों के विलय के लिए भी सिफारिश की थी. इसी समिति ने नए निजी बैंकों को खोलने का सुझाव दिया जिसके आधार पर 1993 में सरकार ने इसकी अनुमति प्रदान की.

भारतीय रिजर्व बैंक की देखरेख में बैंक के बोर्ड को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने की सलाह भी नरसिंहम् समिति ने दी थी. नरसिंहम् समिति की सिफारशों पर कार्यवाही करते हुए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले 2008 में स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र, 2010 में स्टेट बैंक ऑफ इंदौर का विलय किया था.

मोदी सरकार के समय यानी 2017 में पांच एसोसिएट बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया में विलय किया था. इसके बाद 2019 में तीन बैंकों, बैंक ऑफ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय तथा 1 अप्रैल, 2020 से 6 बैंक सिंडीकेट बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक का विलय कर दिया है. इसके बाद वर्तमान में सरकारी क्षेत्र के 12 बैंक रह गए हैं.

उदारीकरण के बाद फिर से छाने लगे प्राइवेट बैंक

1994 में फिर से प्राइवेट बैंकों का युग प्रारम्भ हुआ. आज देश में 8 न्यू प्राइवेट जनरेशन बैंक, 14 ओल्ड जनरेशन प्राइवेट बैंक, 11 स्माल फाइनेंस बैंक और 43 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक काम कर रहे हैं. 2018 में सरकार ने इण्डिया पोस्ट पेमेंट बैंक की स्थापना की जिसका मकसद पोस्ट ऑफिस के नेटवर्क का इस्तेमाल करके बेंकिंग को गांव-गांव तक पहुंचना था. इसके साथ साथ और कई प्राइवेट पेमेंट बैंकों की भी शुरुआत हुई. वहीं, 52 वर्षों के बाद आज सरकारी बैंकों की संख्या घटकर 12 रह गई है.

12 में चार और बैंकों को भी बेचने की तैयारी

सरकार ने बाकि बचे बैंकों में से 4 बैंकों को निजी हाथों में सौपने पर योजना बना ली है. बैंकों के निजीकरण को अमली जामा पहनाने के लिय नीति आयोग ने इन बैंकों को चिन्हित भी किया है और 2 बैंकों के निजीकरण की प्रक्रिया चल रही है. वित सचिव टीवी सोमनाथन ने कहा है कि सरकार भविष्य में ज्यादातर सरकारी बैंकों का निजीकरण करेगी. बैंकों के निजीकरण से जहां सरकार को पैसा तो मिल जाएगा लेकिन इन बैंकों का कंट्रोल निजी हाथों में चला जाएगा क्योंकि सरकार की मंशा इन बैंकों में 51% हिस्सेदारी बेचने की योजना है.

बैंकों के प्राइवेटाइजेशन पर सरकार का तर्क

सरकार का कहना है कि आज के समय में छोटे छोटे बैंकों की आवश्यकता नहीं है बल्कि 6 से 7 बड़े बैंकों की आवश्यकता है. दरअसल, ज्यादा बैंक होने से आपस में ही प्रतिस्पर्धा के कारण टिक नहीं पा रहे हैं और एनपीए से निपटने में भी नाकाम हो रहे हैं. सरकार के लिए भी इन बैंकों को पूंजी जुटाने में भी दिक्कत हो रही है.

आम आदमी को ऐसे इफेक्ट करेगा बैंक प्राइवेटाइजेशन

राणा बताते हैं कि निजीकरण के बाद सरकार की विभिन्न योजनाओं को निजी बैंक लागू करने में प्राथमिकता नहीं देंगे. वहीं, ग्राहकों के लिए भी ज्यादा सर्विस चार्जेस की मार पड़ेगी और अभी एमएसएमई, कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों को आसानी से मिल रहे ऋण में भी मुश्किल होगी.

निजी बैंकों के प्रबंधन घाटे में चल रही ब्रांचों को बंद करेंगे, जिससे नए रोजगार के अवसर भी कम हो जाएंगे. वैसे भी, निजी बैंकों में ज्यादातर कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं. निजी बैंकों में ट्रेड युनियन बनाने का अधिकार नहीं है. कुल मिलकर निजीकरण से सरकार, ग्राहक और कर्मचारियों को नुकसान ही होगा.

राणा कहते हैं कि पहले से निजी क्षेत्र में चल रहे बैंकों के इतिहास और उनकी कार्य प्रणाली के कारण, आए दिन कुछ न कुछ गड़बड़ियां और घोटालों को देखते हुए सरकार का सरकारी क्षेत्र के बैंकों को निजी हाथों में सोंपना उचित नहीं रहेगा. बैंकों के विलय के कारण बैंकों की शाखाओं को बंद किया जा रहा है, कर्मचारियों की संख्या को भी कम करने के लिय बैंक विशेष सेवानिवृति योजना पर विचार कर रहे हैं.

यानी कुल मिलकार पेपर पर तो बैंकों का विलय हो गया है लेकिन बैंक अलग-अलग संस्कृति, प्रौद्योगिक प्लेटफार्म एवं मानव संसाधन के एकीकरण की समस्या से जूझ रहे हैं. सरकारी क्षेत्र के बैंकों में सुधार के लिए निजीकरण को छोडकर अन्य तरीकों पर विचार करने की आवश्यकता है.

राणा के मुताबिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ. पूर्व की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरुपयोग किया. जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बेठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया. बैंक यूनियंस के जो नेता बोर्ड में शामिल हुए उन्होंने भी बैंक कर्मचारियों का ध्यान न करते हुए बोर्ड मेम्बेर्स की साजिश में शामिल हो गए.

सूर्यप्रताप सिंह

Read Also –

 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

चूहा और चूहादानी

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था. एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी…