रूसी अनुभवसिद्ध आलोचकों और उनके विदेशी गुरूओं की समुचित आलोचना करने के बाद, लेनिन ने दार्शनिक और सैद्धांतिक संशोधनवाद के बारे में निम्नलिखित नतीजे निकाले हैं :
- “मार्क्सवाद के लिबास में मार्क्सवाद को और भी चतुराई से झुठलाना, भौतिकवाद-विरोधी सिद्धान्तों को और भी चतुराई से पेश करना अर्थ शास्त्र में, कार्यनीति के सवालों पर और दर्शन शास्त्र में आम तौर से आधुनिक संशोधनवाद की यह विशेषता है.” (उप., पृष्ठ 342-43)
- “माख और अवेनारियस की पूरी-पूरी विचारधारा भाववाद की तरफ़ बढ़ रही है.” (उप., पृष्ठ 370)
- “हमारे सभी माखवादी भाववाद के जाल में फंस गये हैं.” (उप., पृष्ठ 359)
- “अनुभवसिद्ध आलोचना के तमाम ज्ञान सम्बन्धी शास्त्रार्थ के पीछे दर्शन के क्षेत्र में पार्टियों के संघर्ष को न देखना असंभव है. यह संघर्ष ऐसा है जो छानबीन करने पर अंत में मौजूदा समाज के विरोधी वर्गों के रुझान और विचारधारा को ज़ाहिर करता है.” (उप., पृष्ठ 371)
- “अनुभवसिद्ध आलोचना की वस्तुगत, वर्गगत भूमिका पूरी तरह इस बात में है कि वह श्रद्धावादियों (प्रतिक्रियावादियों, जो श्रद्धा को विज्ञान से बढ़ कर मानते थे – सं.) की वफादारी से सेवा करती है यह सेवा भौतिकवाद के खिलाफ आम तौर से, और ऐतिहासिक भौतिकवाद के खिलाफ खास तौर से, श्रद्धावादियों के संघर्ष में प्रकट होती है.” (उप., पृष्ठ 371)
- “दार्शनिक भाववाद… धर्म सम्बन्धी अंधविश्वास तक पहुंचने के लिये एक सड़क है.” (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 13, पृष्ठ 304)
यह जानने के लिए कि हमारी पार्टी के इतिहास में लेनिन की पुस्तक ने कैसी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की और यह समझने के लिये कि स्तोलिपिन प्रतिक्रियावाद के दौर में संशोधनवादियों और गद्द़ारों की रंगबिरंगी जमात से लेनिन ने किस सैद्धान्तिक निधि की रक्षा की, हमें द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी उसूलों से संक्षेप में ही सही, परिचित हो जाना चाहिये.
यह सब इसलिये और भी जरूरी है कि द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद कम्युनिज्म का सैद्धांतिक आधार है, वह मार्क्सवादी पार्टी का सैद्धांतिक आधार है और इसलिये, हमारी पार्टी के हर सक्रिय सदस्य का कर्तव्य है कि वह इन उसूलों को जाने और इसलिये उनका अध्ययन करे.
तब, 1. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और 2. ऐतिहासिक भौतिकवाद हैं क्या ?
1. द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी का विश्व-दर्शन है. इसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इसलिये कहते हैं कि प्रकृति के घटना प्रवाह की तरफ़ इसका रुख, उसका अध्ययन करने और उसे समझने का इसका तरीका द्वंद्ववादी है. प्रकृति के घटना प्रवाह की व्याख्या करने, इस घटना प्रवाह के बारे में उसके विचार, उसके सिद्धांत भौतिकवादी हैं.
ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक जीवन में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के उसूलों को लागू करता है। वह सामाजिक जीवन के घटना प्रवाह में, समाज और उसके इतिहास के अध्ययन में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के उसूलों को लागू करता है.
मार्क्स और एंगेल्स जब अपने द्वंद्वात्मक तरीके का वर्णन करते हैं तो वे आम तौर से दार्शनिक हेगेल का हवाला देते हैं, जिसने द्वन्द्ववाद के मुख्य लक्षण बतलाये थे. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्ववाद हेगेल के द्वंद्ववाद से बिल्कुल मिलता-जुलता है. दरअसल, मार्क्स और एंगेल्स ने हेगेल के द्वंद्ववाद से उसका ’बुद्धिसंगत तत्व’ ही लिया था. उन्होंने हेगेल के भाववाद का छिलका अगल कर दिया था. उन्होंने द्वंद्ववाद को और आगे विकसित किया था, जिससे उसे एक आधुनिक वैज्ञानिक रूप मिले.
मार्क्स ने कहा था :
“मेरा द्वन्द्ववादी तरीका हेगेल के तरीके से भिन्न ही नहीं है, बल्कि उसका ठीक उल्टा है. हेगेल … विचार करने की प्रक्रिया को ’विचार’ के नाम पर एक स्वतंत्र विषय तक बना देता है। उसके लिये यही चिंतन वास्तविक संसार की प्रेरणा-शक्ति (उसका रचयिता) है. उसके लिये वास्तविक संसार सिर्फ़ ’विचार’ का बाहरी, घटना प्रवाह वाला रूप है. इसके विपरीत, मेरे लिये विचार इसके सिवा कुछ नहीं है कि भौतिक संसार ही इंसान के दिमाग में प्रतिबिम्बित हुआ है और विचार के रूपों में तब्दील हो गया है.” (कार्ल मार्क्स, पूंजी, खण्ड 1, पृष्ठ 30, जार्ज ऐलेन एण्ड अनविन लिमिटेड, 1938)
अपने भौतिकवाद का वर्णन करते हुए, मार्क्स और एंगेल्स अक्सर दार्शनिक फ़ायरबाख का हवाला देते हैं, जिसने भौतिकवाद को उसके उचित अधिकार दिलाये थे. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि मार्क्स और एंगेल्स का भौतिकवाद फ़ायरबाख के भौतिकवाद से बिल्कुल मिलता-जुलता है. दरअसल, मार्क्स और एंगेल्स ने फ़ायरबाख के भौतिकवाद से उसका ’आंतरिक तत्व’ निकाल लिया था. उन्होंने उसे भौतिकवाद के वैज्ञानिक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में विकसित किया. उन्होंने उसके भाववादी और धार्मिक-नैतिक लवाजमे को फेंक दिया. फ़ायरबाख बुनियादी तौर से भौतिकवादी था, लेकिन हम जानते हैं कि वह भौतिकवाद, इस नाम पर आपत्ति करता था. एंगेल्स ने कई बार कहा था कि भौतिकवादी “बुनियाद के बावजूद ’फायरबाख’ भाववाद की परम्परागत, बेड़ियों में जकड़ा रहा” और “फ़ायरबाख का असली भाववाद वैसे ही ज़ाहिर हो जाता है जैसे ही हम धर्म और नैतिकता के उसके दर्शन के नज़दीक पहुंचते हैं.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 373-375)
दियालेक्तिका (द्वंद्ववाद) शब्द ग्रीक धातु दियालेगो से बना है, जिसका अर्थ है चर्चा करना, वाद-विवाद करना। पुराने ज़माने में, द्वंद्ववाद वह कला थी जिससे विरोधी की दलीलों में असंगतियां दिखला कर और उन असंगतियों को दूर करके सत्य तक पहुंचा जा सकता था. पुराने ज़माने में, ऐसे दार्शनिक थे जो समझते थे कि चिन्तन की असंगतियां प्रकट करना और विरोधी विचारों का टकराना सच्चाई तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीक़ा है. चिन्तन का यह द्वंद्ववादी तरीका, जो बाद में के घटना प्रवाह पर भी लागू किया गया, विकसित होकर प्रकृति को जानने-पहचानने का द्वंद्ववादी तरीका बन गया. इस तरीके़ के अनुसार, प्रकृति का घटना प्रवाह सदा ही गतिशील है और सदा ही परिवर्तनशील है. इस तरीक़े के अनुसार, प्रकृति का विकास प्रकृति की असंगतियों के विकास का ही नतीजा है, प्रकृति के भीतर विरोधी शक्तियों के घात-प्रतिघात का ही नतीजा है.
तत्व रूप से, द्वंद्ववाद अधिभूतवाद (मेटाफ़िजिक्स) का ठीक उल्टा है.
मार्क्सीय द्वंद्वात्मक तरीके़ के मुख्य लक्षण ये हैं :
(क) अधिभूतवाद के खिलाफ, द्वंद्ववाद प्रकृति को वस्तुओं का आकस्मिक संग्रह नहीं मानता, उसे एक-दूसरे से विच्छिन्न, एक-दूसरे से अलग और स्वतंत्र घटना प्रवाह नहीं मानता. उसके अनुसार, प्रकृति एक सुसम्बद्ध और अविच्छिन्न इकाई है जिसमें वस्तुएं, घटना प्रवाह एक-दूसरे से आंतरिक रूप से सम्बंधित हैं, एक-दूसरे पर निर्भर हैं और एक-दूसरे की रूपरेखा निश्चित करती हैं.
इसलिये द्वंद्ववादी तरीके़ के अनुसार, प्रकृति के किसी भी घटना प्रवाह को अकेले लेकर, आसपास के घटना प्रवाह से अलग करके नहीं समझा जा सकता. कारण यह कि प्रकृति के क्षेत्र में कोई भी घटना प्रवाह आसपास की परिस्थितियों के संदर्भ में न देखा जाये, बल्कि उनसे अलग करके देखा जाये तो वह हमारे लिये अर्थहीन हो जाता है. इसी तरह, कोई भी घटना प्रवाह यदि अपने आसपास के घटना प्रवाह के अटूट संदर्भ में देखा जाये, आसपास के घटना प्रवाह से उसकी रूपरेखा निश्चित होती है, यह ध्यान में रख कर देखा जाये, तो वह समझा जा सकता है और उसकी व्याख्या की जा सकती है.
(ख) अधिभूतवाद के खिलाफ, द्वंद्ववाद का कहना है कि प्रकृति स्थिरता और गतिहीनता, ठहराव और अपरिवर्तनशीलता की दशा नहीं है. वह सतत गतिशीलता और परिवर्तनशीलता, सतत नवीनता और विकास की दशा है. वह ऐसी दशा है जिसमें कोई चीज हमेशा उगती और विकसित होती रहती है और कोई चीज हमेशा जर्जर होती और मरती रहती है.
इसलिये, द्वंद्ववादी तरीके़ की मांग है कि घटना प्रवाह पर इसी दृष्टि से विचार न किया जाये कि वह दूसरे से सम्बन्धित और उस पर निर्भर है, बल्कि इस दृष्टि से भी कि वह गतिशील है, बदलता है, विकसित होता है, जन्मता है और मरता है. द्वंद्वात्मक तरीके़ के अनुसार, सबसे ज्यादा महत्व उस चीज का नहीं है जो किसी खास समय टिकाऊ तो मालूम होती है लेकिन जिसका ह्रास शुरू हो चुका है. सबसे महत्व की चीज वह है जो उग रही है और विकसित हो रही है, भले ही किसी खास समय वह टिकाऊ न मालूम होती हो. द्वंद्ववादी तरीका उसी को अजेय मानता है जो उग रही हो और विकासमान हो.
एंगेल्स ने लिखा है :
“छोटी से छोटी चीज से लेकर बड़ी से बड़ी तक, बालू के कण से लेकर सूरज तक, प्रोस्टिटा (मूल जीवन सैल – सम्पादक) से लेकर मनुष्य तक, प्रकृति जन्म और निर्वाण की निरंतर दशा में है। वह एक चिरन्तन गतिशीलता, गति और परिवर्तन की अविराम दशा में है.” (एंगेल्स, प्रकृति-सम्बन्धी द्वंद्ववाद)
इसलिये, एंगेल्स का कहना है कि द्वंद्ववाद “वस्तुओं को और उनके गोचर प्रतिरूपों को तत्व रूप से एक-दूसरे से सम्बन्धित, उनके संयोग, उनकी गतिशीलता उनके जन्म और निर्वाण की दशा में देखता है.” (एंगेल्स डूयरिंग मत-खण्डन)
(ग) अधिभूतवाद के विपरीत, द्वंद्ववाद के लिये विकास का सिलसिला साधारण प्रगति का सिलसिला नहीं है. वह ऐसा सिलसिला नहीं है जिसमें परिमाण की तब्दीली से गुण में तब्दीली नहीं होती. वह ऐसा विकास है जो परिमाण में बहुत ही मामूली और क़रीब-क़रीब न दिखाई देने वाली तब्दीली से खुली, बुनियादी तब्दीली की तरफ़, गुण में तब्दीली की तरफ़ बढ़ जाता है. वह ऐसा विकास है जिसमें गुण में तब्दीली धीरे-धीरे नहीं होती, बल्कि तेज़ी से और सहसा होती है, वह एक दशा से दूसरी दशा तक छलांग का रूप लेती है. यह तब्दीली आकस्मिक नहीं होती, बल्कि परिमाण में प्रायः अस्पष्ट और धीरे-धीरे होने वाली तब्दीली के संचय का स्वाभाविक नतीजा होती है.
इसलिये, द्वंद्ववादी तरीके़ का कहना है कि विकास के सिलसिले को एक ही चक्र में घूमने वाली गति की तरह, जो पहले ही हो चुका है उसी के मामूली दुहराने की तरह, न समझना चाहिये. विकास के सिलसिले को आगे की तरफ़ और ऊपर की तरफ़ गति के रूप में समझना चाहिये. उसे पुरानी गुणात्मक दशा से एक नयी गुणात्मक दशा की तरफ़ आगे बढ़ने के रूप में समझना चाहिये. उसे ऐसा विकास समझना चाहिये जो साधारण से संश्लिष्ट की तरफ़, निम्न से उच्चतर की तरफ़ होता है.
एंगेल्स का कहना है :
“द्वंद्ववाद की कसौटी प्रकृति है। कहना पडे़गा कि आधुनिक प्रकृति विज्ञान ने इस कसौटी के लिये बहुत ही भरीपूरी सामग्री दी है, जो दिन पर दिन बढ़ती जाती है. इस तरह, आधुनिक प्रकृति-विज्ञान ने साबित कर दिया है कि आखिर तक छानबीन करने पर प्रकृति का क्रम द्वंद्ववादी है, न कि अधिभूतवादी. यह क्रम सदा के लिये समान और सदा ही दुहराये जाने वाले घेरे में नहीं होता, बल्कि उसके विकास का सच्चा इतिहास है. यहां पर सबसे पहले डारविन का जिक्र करना चाहिये, जिसने प्रकृति के बारे में अधिभूतवादी विचार पर करारी चोट की. उसने साबित किया कि आज का जीवित संसार, पौधे और पशु और फलतः मनुष्य भी, सभी ऐसे विकास क्रम की उपज हैं जिसकी प्रगति लाखों साल से होती आयी है.” (उप.)
द्वंद्वात्मक विकास परिमाण की तब्दीली से गुण की तब्दीली की तरफ़ बढ़ता है, यह बतलाते हुए एंगेल्स ने कहा है :
“भौतिक विज्ञान (फ़िजिक्स) में… हर तब्दीली परिमाण की गुण में तब्दीली है. यह तब्दीली गति के किसी रूप की परिमाण सम्बन्धी तब्दीली का नतीजा होती है. गति का यह रूप या तो किसी वस्तु में निहित होता है या बाहर से उसे दिया जाता है. मिसाल के लिये, पानी की गरमी का पहले उसकी तरलता पर कोई असर नहीं होता. लेकिन जैसे-जैसे द्रवित जल की गरमी बढ़ती या कम होती है, एक क्षण ऐसा आता है जब यह भीतरी दशा बदल जाती है और पानी या तो भाप बन जाता है या बरफ़ बन जाता है. … प्लैटिनम के तार को एक निश्चित अल्पतम करेण्ट की जरूरत होती है. हर धातु तापमान के किसी बिन्दु पर पहुंच कर गलने लगती है. हर एक द्रव पदार्थ एक बिन्दु पर पहुंच कर जमने लगता है और एक निश्चित दबाव पड़ने पर खौलने लगता है. और, हम प्राप्य साधनों से इन आवश्यक तापमानों तक पहुंच सकते हैं. इसी तरह, हरेक गैस का भी एक ऐसा विशेष बिन्दु होता है जहां जरूरी दबाव या ठण्डक पहुचाने से उसे हम द्रव पदार्थ में बदल सकते हैं. … भौतिक विज्ञान में जिन्हें हम ’काॅन्स्टेण्ट’ (स्थिर बिन्दु) (वह बिन्दु जहां एक दशा दूसरी में तब्दील हो जाती है – सम्पादक) कहते हैं, वे ज्यादातर ’नोडल पाॅइंट’ (चरम बिन्दु) के नाम हैं, जहां पर परिमाण की (तब्दीली – सम्पादक) गति की घटती या बढ़ती किसी वस्तु की दशा में गुणात्मक तब्दीली पैदा कर देती है और इसके फलस्वरूप जहां पर परिमाण गुण में बदल जाता है.” (प्रकृति सम्बन्धी द्वंद्ववाद)
आगे, रसायन विज्ञान (केमिट्री) की तरफ़ आकर एंगेल्स कहते हैं :
“रसायन के लिये कहा जा सकता है कि यह गुणात्मक तब्दीलियों का विज्ञान है. परिमाण सम्बन्धी बनावट की तब्दीली के फलस्वरूप, वस्तुओं में गुणात्मक तब्दीली होती है. हेगेल को इस बात का तभी पता था. … मिसाल के लिये, ’आॅक्सिजन’ लीजिये. अगर परमाणु (माॅलीक्यूल) में सहज दो के बदले तीन अणु (एटम) हों तो ’ओज़ोन’ बन जाता है. यह वस्तु अपनी गंध और प्रतिक्रिया में मामूली ‘ऑक्सीजन’ से निश्चित रूप से भिन्न होती है. और, इस बात का जिक्र ही क्या कि अलग-अलग तादाद में अगर ’ऑक्सीजन’ को ’नाइट्रोजन’ या गंधक से मिलाया जाये तो हर बार ऐसी चीज बनेगी जो गुण में उसे बनाने वाली सभी चीजों से भिन्न होगी.” (उप.)
अंत में, एंगेल्स ने इस सिलसिले में डूयरिंग की आलोचना की है. डूयरिंग ने पूरा जोर लगा कर हेगेल को डांट-फटकार बतलाई थी, लेकिन उसने चोरी-चोरी हेगेल का यह प्रसिद्ध विचार ले लिया था कि अचेतन संसार से चेतन की तरफ़ प्रगति, निर्जीव पदार्थों के संसार से सजीव पदार्थों के संसार की तरफ प्रगति, एक नयी दिशा की तरफ़ छलांग भरना है.
एंगेल्स ने लिखा है:
“यह हेगेल की माप सम्बन्धी ’नोडल लाइन’ (चरम रेखा) ही है. किसी निश्चित चरम बिन्दु तक पहुंच कर सिर्फ़ परिमाण की घटती या बढ़ती से गुणात्मक छलांग पैदा हो जाती है. मिसाल के लिये, जब पानी को गरम करते हैं या ठण्डा करते हैं तो उसके खौलने और जमने के बिन्दु वे चरम बिन्दु हैं जहां पर – सहज दबाव पड़ने पर – एक पूर्ण नयी दशा की तरफ़ छलांग भरी जाती है और इसके फलस्वरूप, जहां परिमाण गुण में बदल जाता है.“ (एंगेल्स, डूयरिंग मत-खण्डन)
(घ) अधिभूतवाद के खिलाफ, द्वंद्ववाद का कहना है कि सभी वस्तुओं और प्रकृति के सभी घटना प्रवाहों में अंतर्विरोध निहित हैं. उन सभी का आस्ति पक्ष और नास्ति पक्ष होता है, भूत और भविष्य होता है, कुछ तत्व मरते और कुछ तत्व विकासमान होते हैं. इन विरोधी तत्वों का संघर्ष, पुराने और नये का संघर्ष मरणशील और अभ्युदयशील का संघर्ष, निर्वाणशील और विकासमान का संघर्ष विकास-क्रम की भीतरी विषय-वस्तु है, वह परिमाण में तब्दीलियों के गुण में तब्दीलियां बनने की भीतरी विषय-वस्तु है.
इसलिये, द्वंद्ववादी तरीके़ का कहना है कि निम्न से उच्चतर की तरफ़ विकास का सिलसिला घटना प्रवाह की शान्तिमय प्रगति का रूप नहीं लेता. वह वस्तुओं और घटना प्रवाह में निहित असंगतियों के प्रकट होने का रूप लेता है, वह उन विरोधी रुझानों के ’संघर्ष’ का रूप लेता है जो रुझान इन असंगतियों के आधार पर क्रियाशील होते हैं.
लेनिन का कहना है:
“अपने सही अर्थ में, द्वंद्ववाद वस्तुओं के मूल तत्व में ही असंगतियों का अध्ययन है.” (लेनिन, दर्शन सम्बन्धी नोटबुक, रूसी संस्करण, पृष्ठ 263)
और आगे :
“विकास विरोधी तत्वों का ’संघर्ष’ है.” (लेनिन ग्रन्थावली, रूसी संस्करण, खण्ड 13, पृष्ठ 301)
मार्क्सीय द्वंद्वात्मक प्रणाली के मुख्य लक्षण, संक्षेप में, ये हैं :
यह समझना आसान है कि द्वंद्वात्मक तरीके़ के उसूलों को सामाजिक जीवन और समाज के इतिहास के अध्ययन पर लागू करना कितना महत्वपूर्ण है और समाज के इतिहास और सर्वहारा वर्ग की पार्टी की अमली कार्यवाही पर उन्हें लागू करना कितने भारी महत्व की बात है.
अगर संसार में अलग-अलग घटना प्रवाह नहीं हैं, अगर सभी घटना प्रवाह परस्पर निर्भर और सम्बन्धित हैं, तो यह बात साफ़ है कि किसी समाज-व्यवस्था या इतिहास के किसी सामाजिक आन्दोलन का मूल्यांकन ’शाश्वत न्याय’ के विचार से और किसी पूर्व निश्चित धारणा के अनुसार न करना चाहिये, जैसा कि इतिहासकार बहुत बार करते हैं. यह मूल्यांकन उन परिस्थितियों के लिहाज से करना चाहिये जिन्होंने उस व्यवस्था को या उस सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया था और जिससे वे सम्बन्धित हैं.
आजकल की परिस्थितियों में गुलामी की प्रथा निरर्थक, मूर्खतापूर्ण और अस्वाभाविक होगी. लेकिन उन परिस्थितियों में, जब आदिम साम्यवादी व्यवस्था टूट रही थी, तब गुलामी की प्रथा बिल्कुल सार्थक और एक स्वाभाविक घटना प्रवाह थी. कारण यह कि उस समय वह आदिम साम्यवादी व्यवस्था से आगे बढ़ी हुई व्यवस्था थी.
जब ज़ारशाही और पूंजीवादी समाज 1905 के रूस में मौजूद थे, तब पूंजीवादी-जनवादी प्रजातंत्र की मांग एक बिल्कुल सार्थक, उचित और क्रांतिकारी मांग थी क्योंकि उस समय पूंजीवादी प्रजातंत्र एक आगे बढ़ा हुआ क़दम होता. लेकिन, अब सोवियत संघ की परिस्थितियों में पूंजीवादी-जनवादी प्रजातंत्र की मांग एक निरर्थक और क्रान्ति-विरोधी मांग होगी; क्योंकि सोवियत प्रजातंत्र के मुकाबिले में पूंजीवादी प्रजातंत्र पीछे की तरफ़ क़दम होगा.
सब कुछ परिस्थितियों पर, देश और काल पर निर्भर है.
यह बात साफ़ है कि सामाजिक घटना-प्रवाह की तरफ़ इस ऐतिहासिक रूख के बिना इतिहास-विज्ञान का अस्तित्व और विकास नामुमकिन है. यही रुख इतिहास-विज्ञान को इस बात से बचाता है कि वह केवल घटना-संग्रह और बेहद भद्दी भूलों की सूची न बन जाये.
और भी, अगर संसार सतत गतिशीलता और विकास की दशा में है, अगर प्राचीन का मरना और नवीन की बढ़ती विकास का नियम है, तो यह बात साफ़ है कि कोई भी समाज-व्यवस्था ’अजर-अमर’ नहीं है, व्यक्तिगत सम्पत्ति और शोषण के कोई भी ’अमर सिद्धांत’ नहीं हैं, कोई भी ऐसे ’शाश्वत विचार’ नहीं हैं जिनके अनुसार किसान जमींदार की, और मजदूर पूंजीपति की गुलामी करे.
इसलिये, समाजवादी व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था की जगह ले सकती है, ठीक जैसे एक समय पूंजीवादी व्यवस्था ने सामन्ती व्यवस्था की जगह ली थी.
इसलिये, हमें अपने दृष्टिकोण का आधार समाज के उन स्तरों को न बनाना चाहिये जो अब विकसित नहीं हो रहे हैं, भले ही वह इस समय एक प्रमुख शक्ति हों. हमें उन स्तरों को अपना आधार बनाना चाहिये जो विकसित हो रहे हैं और जिनके सामने भविष्य है, भले ही इस समय वे प्रमुख शक्ति न बन पाये हों.
1880 के लगभग, जब मार्क्सवादियों और लोकवादियों में संघर्ष हो रहा था तब रूस का सर्वहारा वर्ग आबादी का एक तुच्छ अल्पसंख्यक भाग था, और निजी मिल्कियत वाले किसान आबादी का भारी बहुसंख्यक हिस्सा थे. लेकिन, वर्ग रूप में सर्वहारा विकसित हो रहा था, जबकि वर्ग रूप में किसान टूट रहे थे। और, इसी वजह से कि वर्ग रूप में सर्वहारा विकसित हो रहा था, मार्क्सवादियों ने सर्वहारा को अपने दृष्टिकोण का आधार बनाया. और, इसमें उन्होंने भूल न की थी क्योंकि, जैसा हम जानते हैं, सर्वहारा वर्ग आगे चल कर एक नगण्य शक्ति से बढ़ कर प्रथम कोटि की ऐतिहासिक और राजनीतिक शक्ति बन गया.
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये, यह जरूरी है कि हमारी दृष्टि आगे की तरफ़ हो न कि पीछे की तरफ़.
और भी, अगर धीरे-धीरे होने वाली परिमाण की तब्दीली तेज़ी से और सहसा होने वाली गुण की तब्दीली बन जाती है और यह विकास का नियम है तो, यह बात साफ़ है कि पीड़ित वर्ग जब क्रांति करते हैं तो यह काम एकदम स्वाभाविक और लाज़िमी घटना होता है.
इसलिये, पूंजीवाद से समाजवाद की तरफ़ प्रगति और पूंजीवाद की गुलामी से मज़दूर वर्ग की मुक्ति धीमी-धीमी तब्दीली से, सुधारों से, नहीं हो सकती बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के गुण में ही तब्दीली से, क्रान्ति से ही हो सकती है.
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये, यह जरूरी है कि हम क्रान्तिकारी हों न कि सुधारवादी.
और भी, अगर विकास का सिलसिला भीतरी असंगतियों के उभर कर सामने आने से चलता है, इन असंगतियों के आधार पर विरोधी शक्तियों की टक्कर से होता है और इन असंगतियों को खत्म करके होता है, तो यह बात साफ़ है कि सर्वहारा का वर्ग-संघर्ष एक बिल्कुल स्वाभाविक और लाज़िमी घटना है.
इसलिये, हमें पूंजीवादी व्यवस्था की असंगतियों पर पर्दा न डालना चाहिये बल्कि उन्हें उभारना और प्रकट करना चाहिये. हमें वर्ग-संघर्ष को रोकना न चाहिये, बल्कि उसके परिणाम तक उसे ले जाना चाहिये.
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिए, जरूरी है कि हम बिना समझौते की सर्वहारा की वर्ग-नीति का पालन करें, हम मज़दूरों और पूंजीपतियों के हितों के सामंजस्य की सुधारवादी नीति का पालन न करें, हम समझौतावादियों की इस नीति का पालन न करें कि “पूंजीवाद बढ़ते-बढ़ते समाजवाद में बदल जायेगा.”
सामाजिक जीवन पर, समाज के इतिहास पर लागू किया जाने वाला मार्क्सीय द्वंद्वात्मक तरीक़ा यही है.
जहां तक मार्क्सवादी दार्शनिक भौतिकवाद का सम्बन्ध है, वह बुनियादी तौर से दार्शनिक भाववाद का ठीक उल्टा है.
2. मार्क्सीय दार्शनिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण इस प्रकार हैं :
(क) भाववाद के अनुसार, संसार एक ’निरपेक्ष विचार’, एक ’सर्व-व्यापी आत्मा’, ’चेतना’ का मूर्त स्वरूप है। इसके खिलाफ, मार्क्स के दार्शनिक भौतिकवाद का कहना है कि संसार अपने स्वभाव से ही भौतिक है, संसार के नाना घटना प्रवाह गतिशील भूत (पदार्थ) के विभिन्न रूप हैं. द्वंद्ववादी पद्धति ने घटना प्रवाहों का जो परस्पर सम्बन्ध और निर्भरता क़ायम की है, वह गतिशील भूत के विकास का नियम है. संसार भूत की गति के नियमों के अनुसार विकसित होता है और उसे ’विश्वव्यापी आत्मा’ की कोई जरूरत नहीं है.
एंगेल्स ने लिखा है:
“प्रकृति के बारे में भौतिकवादी दर्शन का इसके सिवा कोई मतलब नहीं है कि प्रकृति जैसी है, बिना किसी बाहरी मिलावट के, वैसी ही समझी जाये.” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख़, अं. सं., मास्को, 1934, पृष्ठ 79)
प्राचीन दार्शनिक हिरैक्लाइटस का मत था कि “संसार को, अनेक की एकता को, किसी देवता या मनुष्य ने न रचा था बल्कि वह एक सजीव ज्योति थी, है और हमेशा रहेगी, जो नियमित रूप से जल उठती है और नियमित रूप से ही ठण्डी पड़ जाती है.” इस मत की चर्चा करते हुए, लेनिन ने टिप्पणी लिखी थी : “द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के मूल तत्वों की यह बहुत अच्छी व्याख्या है.” (लेनिन, दर्शन सम्बन्धी नोट बुक, रूसी संस्करण, पृष्ठ 318)
(ख) भाववाद का दावा है कि वास्तव में केवल हमारी चेतना की ही सत्ता है; भौतिक संसार, सत्ता, प्रकृति, केवल हमारी चेतना में, हमारे संवेदना में, विचारों और गोचरता में रहती है. इसके खिलाफ मार्क्सीय भौतिकवादी दर्शन का कहना है कि भूत, प्रकृति, सत्ता एक वस्तुगत सच्चाई है. उसका अस्तित्व हमारी चेतना से बाहर और स्वतंत्र होता है. मूल वस्तु भूत है क्योंकि वही संवेदना, विचारों और चेतना का स्त्रांत है. चेतना गौण है, उसी से उत्पन्न है क्योंकि वह भूत का प्रतिबिंब है, सत्ता का प्रतिबिम्ब है. विचार भूत की ही उपज है, ऐसा भूत जो अपने विकास में पूर्णता के ऊंचे स्तर तक, यानी दिमाग तक पहुंचगया है. दिमाग चिंतन करने की इन्द्रिय है. इसलिये चिंतन को भूत से अलग करना भाारी गलती करना है.
एंगेल्स ने लिखा है –
“चिंतन से सत्ता के सम्बन्ध का सवाल, प्रकृति से आत्मा के सम्बन्ध का सवाल, तमाम दर्शन का मुख्य सवाल है. … इस सवाल का दार्शनिकों ने जो जवाब दिया, उससे वे दो बडे़ दलों में बंट गये. जो कहते थे कि प्रकृति के मुकाबिले में आत्मा मूल है… वे भाववाद के दल में शामिल हुए. दूसरे लोग जो कहते थे कि प्रकृति मूल है, वे भौतिकवाद के विभिन्न स्कूलों में शामिल हैं.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 366-67)
और आगे:
“वह संसार जो भौतिक है, इन्द्रियों से जाना जाता है, जिसमें हम स्वयं हैं, एकमात्र सच्चाई है. हमारी चेतना और चिंतन, वे इन्द्रियों से जितने चाहे परे अतीन्द्रिय मालूम पडें, वे एक भौतिक, शारीरिक इन्द्रिय – दिमाग – की उपज है. भूत चेतना की उपज नहीं है, बल्कि चेतना ही खुद भूत की सबसे उंची उपज है.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., रू.सं., खण्ड 1 पृष्ठ 332)
भूत और चिंतन के सवाल पर, मार्क्स ने लिखा है :
“चिन्तनशील भूत से चिंतन को अलग करना असंभव है. तमाम परिवर्तनों की विषय-वस्तु भूत ही है.” (उप., पृष्ठ 335)
मार्क्सीय दार्शनिक भौतिकवाद का वर्णन करते हुए, लेनिन ने लिखा है :
“आम तौर से भौतिकवाद वस्तुगत रूप से वास्तविक सत्ता (भूत) को चेतना, संवेदना और अनुभव से स्वतंत्र मानता है. … चेतना सत्ता का ही प्रतिबिम्ब है, अधिक से अधिक वह सत्ता का लगभग सच्चा (पर्याप्त, बिल्कुल वैसा ही) प्रतिबिम्ब है.” (लेनिन, भौतिकवाद और अनुभव सिद्ध आलोचना, अं.सं., मास्को, 1947, पृष्ठ 337-38)
और आगे :
“भूत वह है जो हमारी इन्द्रियों पर आघात करके संवेदना पैदा करता है. भूत वह वस्तुगत सच्चाई है जो हमें संवेदना से मिलती है… भूत, प्रकृति, सत्ता, भौतिक जगत – मूल है; और आत्मा, चेतना, संवेदन, मानसिक जगत – गौण है.” (उप., पृष्ठ 145-146)
-“संसार का दृष्य इस बात का दृश्य है कि भूत में गति कैसे होती है और ‘भूत चिंतन’ कैसे करता है.” (उप. 367)
-“दिमाग चिंतन की इन्द्रिय है.” (उप. 152)
(ग) भाववाद इस बात को अस्वीकार करता है कि हम संसार और उसके नियमों को जान सकते हैं. उसे हमारे ज्ञान की प्रामाणिकता पर विश्वास नहीं है. वह वस्तुगत सच्चाई को स्वीकार नहीं करता, उसका कहना है कि संसार ’अज्ञेय वस्तुओं’ से भरा हुआ है, जिन्हें विज्ञान कभी नहीं जान सकता. भाववाद के खिलाफ़, मार्क्सीय भौतिकवाद का कहना है कि संसार और उसके नियम पूरी तरह से जाने जा सकते हैं. प्रकृति के नियमों का हमारा ज्ञान, जिसे हम प्रयोग और अभ्यास से परखते हैं, सच्चा ज्ञान है. उसकी प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई की सी है. संसार में ऐसी वस्तुएं नहीं हैंजो जानी न जा सकें. संसार में केवल ऐसी वस्तुएं हैं जो अभी तक जानी नहीं गयीं, लेकिन जो विज्ञान और अमल के प्रयत्नों से प्रकट की जायेंगी और जानी जायेंगी.
ऐंगेल्स ने काण्ट और दूसरे भाववादियों की इस धारणा की आलोचना की थी कि संसार अज्ञेय है और उसमें ऐसी ’अज्ञेय वस्तुएं’ हैं जो जानी नहीं जा सकतीं. एंगेल्स ने इस प्रसिद्ध भौतिकवादी धारणा का समर्थन किया था कि हमारा ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है. इस सिलसिले में, उन्होंने लिखा था :
“इस धारणा और इसी तरह की दूसरी दार्शनिक उड़ानों का सबसे ज़ोरदार खण्डन व्यवहार है, यानी प्रयोग और उद्योग है. किसी प्राकृतिक क्रम की अपनी समझ को अगर हम खुद उस क्रम को रच कर सही साबित कर दें, उसकी परिस्थितियों से उसे निकाल कर उसे जन्म दे दें और घाते में उससे अपना काम भी निकाल लें, तो उससे काण्ट की न समझ में आने वाली, ’अज्ञेय वस्तु’ का खात्मा हो जाता है. पौधों और पशुओं की देह में पैदा होने वाले रासायनिक पदार्थ ऐसी ही ’अज्ञेय वस्तुएं’ रहीं जब तक कि जैविक रसायन शास्त्र (ऑरगैनिक कैमिस्ट्री) ने उन्हें एक के बाद एक बनाना शुरू नहीं कर दिया. उसके बाद, वे ’अज्ञेय वस्तुएं’ हमारे लिये वस्तुएं बन गयीं ? मिसाल के लिये, मज़ीठ का रंग देने वाला पदार्थ ’अलीज़रीन’ होता है. उसे हम खेत में मज़ीठ की जड़ों में नहीं उगाते. अब उसे हम ज्यादा सस्ते और सीधे ढंग से बना लेते हैं. तीन सौ साल तक कोपरनिकस का सौर मण्डल एक कल्पना रहा. उसके पक्ष में सौ, हज़ार, या दस हज़ार बातें हो सकती थीं और विपक्ष में एक ही, फिर भी वह कल्पना ही रहा. लेकिन, जब लवेरियर ने सौर मण्डल से प्राप्त सामग्री के ज़रिये एक अज्ञात नक्षत्र के होने की ज़रूरत ही न निकाल ली बल्कि उस जगह का भी हिसाब लगा लिया जहां आकाश में इस नक्षत्र को ज़रूर ही होना था और जब गाले ने सचमुच वह नक्षत्र ढूंढ निकाला तब कोपरनिकस का सौर मण्डल सिद्ध हो गया.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खं. 1 पृ. 368)
लेनिन ने बुग्दानोव, बजारोव, यूश्केविच और माख के दूसरे अनुयायियों पर श्रद्धावादी होने का आरोप लगाया था. उन्होंने इस, प्रसिद्ध भौतिकवादी स्थापना का समर्थन किया कि प्रकृति के नियमों का हमारा विज्ञान सम्मत ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है और विज्ञान के नियम वस्तुगत सत्य जाहिर करते हैं. इस सिलसिले में, लेनिन ने लिखा था :
“आजकल का श्रद्धावाद विज्ञान को तो नहीं ठुकराता. वह सि़र्फ ’बढ़े-चढ़े दावों’ को ठुकराता है, यानी यह दावा कि विज्ञान वस्तुगत सच्चाई दे सकता है अगर वस्तुगत सच्चाई है (जैसा कि भौतिकवादी समझते हैं), अगर मनुष्य के ’अनुभव’ में, बाहरी संसार को प्रतिबिम्बित करते हुए, प्रकृति-विज्ञान ही हमें वस्तुगत सचाई दे सकता है, तो सभी श्रद्धावाद का पूरी तरह खण्डन हो जाता है.” (लेनिन, भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना, अं.सं., मास्को, 1947, पृष्ठ 123-24)
संक्षेप में, मार्क्सीय दार्शनिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण ये हैं.
यह समझना आसान है कि सामाजिक जीवन के अध्ययन पर, समाज के इतिहास के अध्ययन पर, दार्शनिक भौतिकवाद के उसूलों को लागू करना कितने भारी महत्व की बात है और समाज के इतिहास और सर्वहारा वर्ग की पार्टी की अमली कार्यवाही पर उन्हें लागू करना कितने भारी महत्व की बात है.
अगर प्रकृति के घटना प्रवाह परस्पर सम्बन्धित और निर्भर हैं और यह प्रकृति के विकास का नियम है, तो उससे नतीजा निकलता है कि सामाजिक जीवन के घटना प्रवाहों का परस्पर सम्बन्ध और निर्भरता समाज के विकास का नियम है और आकस्मिक बात नहीं है.
इसलिये सामाजिक जीवन, समाज का इतिहास, ’आकस्मिक घटनाओं’ का संग्रह नहीं है. वह निश्चित नियमों के अनुसार समाज के विकास का इतिहास बन जाता है और सामाजिक इतिहास के अध्ययन का विज्ञान बन जाता है.
इसलिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी की अमली कार्यवाही का आधार ’महापुरुषों’ की शुभ कामनाओं को न बनाना चाहिये, ’बुद्धि’ की पुकार को न बनाना चाहिये, ’विश्वजनीन नैतिकता’ वगैरह को न बनाना चाहिये, बल्कि सामाजिक विकास के नियमों को और इन नियमों के अध्ययन को बनाना चाहिये.
और भी, अगर संसार जाना जा सकता है और प्रकृति के विकास के नियमों की हमारी जानकारी प्रामाणिक जानकारी है, जिसकी प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई जैसी है, तो उससे नतीजा निकलता है कि सामाजिक जीवन, सामाजिक विकास भी जाना जा सकता है और सामाजिक विकास के नियमों के बारे में विज्ञान की दी हुई सामग्री सच्ची सामग्री है जिसकी प्रामाणिकता वस्तुगत सच्चाई जैसी है.
इसलिये, समाज के इतिहास का विज्ञान, सामाजिक जीवन के पेचीदे घटना प्रवाह के बावजूद, उतना ही निश्चयात्मक विज्ञान हो सकता है जितना, मिसाल के लिये, प्राणि-शास्त्र (बायलाॅजी), और वह अमली उद्देश्य के लिये सामाजिक विकास के नियमों से लाभ उठा सकता है.
इसलिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी को अपनी अमली कार्यवाही में अनिश्चित उद्देश्यों से अपना रास्ता न निश्चित करना चाहिये बल्कि सामाजिक विकास के नियमों से, और इन नियमों से अमली नतीजे निकाल कर, निश्चित करना चाहिये.
इसलिये, समाजवाद मानव जाति के सुन्दर भविष्य के लिये एक सपना न रह कर विज्ञान बन जाता है.
इसलिये, विज्ञान और अमली कार्यवाही का सम्बन्ध, सिद्धांत और अमल का सम्बन्ध, उनकी एकता, सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिये ध्रुव नक्षत्र बन जानी चाहिये.
और भी, अगर प्रकृति, सत्ता, भौतिक संसार मूल है और चेतना, विचार गौण है। उससे उत्पन्न है, अगर भौतिक संसार ऐसी वस्तुगत सच्चाई है जो मनुष्यों की चेतना से स्वतंत्र है, जबकि चेतना इसी वस्तुगत सच्चाई का प्रतिबिम्ब है; तो नतीजा यह निकलता है कि समाज का भौतिक जीवन, उसकी सत्ता भी मूल है और उसका मानसिक जीवन गौण है, उससे उत्पन्न है, और समाज का भौतिक जीवन ऐसी वस्तुगत सच्चाई है जो मनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र है, जबकि समाज का मानसिक जीवन इस वस्तुगत सच्चाई का प्रतिबिम्ब है, सत्ता का प्रतिबिम्ब है.
इसलिये, समाज के मानसिक जीवन के निर्माण का स्रोत, सामाजिक विचारों, सामाजिक सिद्धांतों, राजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओं का स्रोत्र खुद विचारों, सिद्धांतों, मतों और राजनीतिक संस्थाओं में न ढूंढना चाहिये बल्कि समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों में, सामाजिक सत्ता में ढूंढ़ना चाहिये, जिनका प्रतिबिम्ब ये विचार, सिद्धांत, मत वगैरह हैं.
इसलिये, सामाजिक इतिहास के विभिन्न युगों में विभिन्न सामाजिक विचार, सिद्धांत, मत और राजनीतिक संस्थायें देखी जाती हैं. अगर गुलामी की प्रथा वाले समाज में कोई खास सामाजिक विचार, सिद्धांत, मत और राजनीतिक संस्थायें मिलती हैं, सामंतशाही में दूसरी मिलती हैं और पूंजीवाद में और भी दूसरी, तो इसका कारण विचारों, सिद्धांतों, मतों और राजनीतिक संस्थाओं की खुद उनकी ’प्रकृति’ उनके ’गुणों’ में नहीं है बल्कि इसका कारण सामाजिक विकास के विभिन्न युगों में, समाज के भौतिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में है.
समाज की जो भी सत्ता होती है, समाज के भौतिक जीवन की जो भी परिस्थितियां होती हैं, वैसे ही उस समाज के विचार, सिद्धांत, राजनीतिक मत और राजनीतिक संस्थायें होती हैं.
इस सिलसिले में, मार्क्स ने लिखा है:
“मनुष्य की चेतना उनकी सत्ता की नियामक नहीं है बल्कि इसके विपरीत, उनकी सामाजिक सत्ता उनकी चेतना की नियामक है.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 300)
इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये जरूरी है, हम निष्क्रिय सपने देखने वालों की जगह न ले लें. इसके लिये जरूरी है कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी अपनी कार्यवाही का आधार ’मानव विवेक के’ हवाई ’सिद्धांतों’ को न बनाये बल्कि समाज के भौतिक जीवन की ठोस परिस्थितियों को बनाये, जो कि सामाजिक विकास की नियामक शक्ति हैं; ’महापुरुषों’ की शुभ कामनाओं को न बनाये बल्कि समाज के भौतिक जीवन के विकास की सच्ची आवश्यकताओं को बनाये.
कल्पनावादियों, जिनमें लोकवादी शामिल हैं, अराजकवादियों और समाजवादी क्रांतिकारियों का पतन इसलिये भी हुआ कि वे सामाजिक विकास में समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों की प्रमुख भूमिका को नामंजूर करते थे. भाववाद की सतह तक उतर कर, वे अपनी अमली कार्यवाही का आधार समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को न बनाते थे बल्कि इन आवश्यकताओं से स्वतंत्र और उनके बावजूद ’आदर्श योजनाओं’ और ’व्यापक कार्यक्रम’ को बनाते थे, जो समाज के वास्तविक जीवन से दूर थे.
मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शक्ति और सजीवता इस बात में है कि उनकी अमली कार्यवाही का आधार समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताएं हैं. वह अपने को समाज के वास्तविक जीवन से कभी अलग नहीं करता.
लेकिन, मार्क्स के शब्दों से यह नतीजा नहीं निकलता कि समाज के जीवन में सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, राजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओं का कोई महत्व नहीं, और वे बदले में सामाजिक सत्ता, सामाजिक जीवन की भौतिक परिस्थितियों के विकास पर असर नहीं डालतीं. अभी तक हम सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, मतों और राजनीतिक संस्थाओं के स्रोत की बात कर रहे थे, उनका जन्म कैसे होता है – इसकी चर्चा कर रहे थे, समाज का मानसिक जीवन उसके भौतिक जीवन की परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब है, – इसकी चर्चा कर रहे थे. जहां तक सामाजिक विचारों, सिद्धांतों, मतों और राजनीतिक संस्थाओं के महत्व का सवाल है, इतिहास में उनकी भूमिका का सवाल है, वहां उसे अस्वीकार करना तो दूर, ऐतिहासिक भौतिकवाद सामाजिक जीवन में, समाज के इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका और उनके महत्व पर ज़ोर देता है.
सामाजिक विचार और सिद्धांत तरह-तरह के होते हैं. पुराने विचार और सिद्धांत होते हैं, जिनके दिन बीत चुके हैं और जो समाज की उन शक्तियों का हित साधते हैं जिनकी गति रुक गयी है. उनका महत्व इस बात में है कि वे समाज के विकास, उसकी प्रगति को रोकते हैं. फिर, नये और आगे बढे़ हुए विचार और सिद्धांत होते हैं, जो समाज की आगे बढ़ी हुई शक्तियों का हित साधते हैं. उनका महत्व इस बात में है कि वे समाज के विकास, उसकी प्रगति को आसान बनाते हैं. उनका महत्व उतना ही बढ़ जाता है जितना ही सही-सही वे समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को प्रकट करते हैं.
नये सामाजिक विचार और सिद्धांत तभी पैदा होते हैं जब समाज के भौतिक जीवन का विकास समाज के सामने नये काम पेश कर चुका होता है. लेकिन, एक बार पैदा हो जाने पर वह बहुत ही समर्थ शक्ति बन जाते हैं. यह शक्ति उन नये कामों को पूरा करने में मदद देती है जिन्हें समाज के भौतिक जीवन के विकास ने पेश किया था. वह ऐसी शक्ति है जो समाज की प्रगति में मदद देती है. ठीक यहीं पर नये विचारों, नये सिद्धांतों, नये राजनीतिक मतों और नयी राजनीतिक संस्थाओं का भारी संगठन करने वाला, बटोरने वाला और तब्दीली करने वाला मूल्य प्रकट होता है. नये सामाजिक विचार ठीक इसीलिये पैदा होते हैं कि वे समाज के लिये जरूरी हैं, इसलिये कि अगर वह संगठित करने, बटोरने और तब्दील करने का काम न करें तो समाज के भौतिक जीवन के विकास के लिये जरूरी काम पूरे करना नामुमकिन हो जाये. नये सामाजिक विचार और सिद्धांत उन नये कामों से पैदा होते हैं जिन्हें समाज के भौतिक जीवन का विकास पेश करता है. फिर, वे अपना रास्ता बना लेते हैं, वे आम जनता की सम्पत्ति बन जाते हैं, समाज की गतिहीन शक्तियों के खिलाफ़ उसे बटोरते और संगठित करते हैं और इस तरह, समाज के भौतिक जीवन को रोकने वाली इन शक्तियों को परास्त करने में मदद देते हैं.
इस तरह, सामाजिक विचार, सिद्धांत और राजनीतिक संस्थाएं समाज के भौतिक जीवन के विकास, सामाजिक सत्ता के विकास के जरूरी कामों के आधार पर पैदा होते हैं. उसके बाद वे खुद सामाजिक सत्ता पर, समाज के भौतिक जीवन पर असर डालते हैं. वे ऐसी परिस्थितियां तैयार करते हैं जो समाज के भौतिक जीवन के लिये जरूरी कामों को पूरी तरह करने के लिये और समाज के भौतिक जीवन का अगला विकास मुमकिन बनाने के लिये आवश्यक होते हैं.
इस सिलसिले में, मार्क्स ने लिखा है :
“जनता के हृदय में घर कर लेने पर, सिद्धांत एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं.” (हेगेल के दर्शन की आलोचना)
इसलिये, समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों पर असर डालने के लिये और उनके विकास और सुधार की गति को तेज़ करने के लिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी को ऐसे सामाजिक सिद्धांत का भरोसा करना चाहिये जो सही तौर पर समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को ज़ाहिर करता हो और इसलिये, जो इस योग्य हो कि विशाल जनता को गतिशील बना सके और सर्वहारा पार्टी की भारी फ़ौज के रूप में उन्हें बटोर सके और संगठित कर सके. यह ऐसी फौज होगी जो प्रतिक्रियावादी शक्तियों का ध्वंस करने के लिये और समाज की प्रगतिशील शक्तियों का रास्ता साफ़ करने के लिये तैयार हो.
’अर्थवादियों’ और मेन्शेविकों का पतन इसलिये भी हुआ कि वे प्रगतिशील सिद्धांत, प्रगतिशील विचारों को बटोरने वाली, संगठित करने वाली और तब्दीली करने वाली भूमिका को नामंजूर करते थे. घटिया भौतिकवाद की सतह पर आकर, उन्होंने इन चीजों की भूमिका नहीं के बराबर कर दी थी और इस तरह पार्टी को निष्क्रिय और निठल्ली बनी रहने के लिये छोड़ दिया था.
मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शक्ति और सजीवता इस बात में है कि वह प्रगतिशील सिद्धांत का सहारा लेता है, ऐसे सिद्धांत का जो समाज के भौतिक जीवन के विकास की आवश्यकताओं को सही तौर पर प्रतिबिम्बित करता है. वह सिद्धांत को उचित सतह तक उठाता है और अपना कर्तव्य समझता है कि इस सिद्धांत में जो बटोरने, संगठित करने और तब्दील करने की ताक़त है, उसे रत्ती-रत्ती इस्तेमाल कर ले. सामाजिक सत्ता और सामाजिक चेतना का सम्बन्ध क्या है, भौतिक जीवन के विकास की परिस्थितियों और समाज के मानसिक जीवन के विकास का सम्बन्ध क्या है, इस सवाल का यही जवाब ऐतिहासिक भौतिकवाद देता है.
3. ऐतिहासिक भौतिकवाद
अब एक सवाल का जवाब देना बाक़ी रह गया है : ऐतिहासिक भौतिकवाद के दृष्टिकोण से ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों’ का क्या मतलब है, जो आखिरी छानबीन में समाज का रूप, उसके विचार, मत, राजनीतिक संस्थायें वगै़रह निश्चित करती हैं.
आखिर, यह ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ हैं क्या, उनके विशेष लक्षण क्या हैं ?
इसमें कोई सन्देह नहीं कि ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ – इस धारणा में प्रकृति शामिल है जो समाज को घेरे हुए है, भौगोलिक परिस्थितियां शामिल हैं जो समाज के भौतिक जीवन के लिए एक लाज़िमी और सदा रहने वाली शर्त हैं और जो अवश्य ही समाज के विकास पर असर डालती हैं.
सामाजिक विकास में भौगोलिक परिस्थिति कौन सा पार्ट अदा करती है ? क्या भौगोलिक परिस्थिति वह मुख्य शक्ति है जो समाज के रूप को, मनुष्य की समाज-व्यवस्था के रूप को, एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था की ओर प्रगति को निश्चित करती है ?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में कहता है – नहीं.
निस्संदेह, भौगोलिक परिस्थितियां सामाजिक विकास के लिये एक लाज़िमी और हमेशा रहने वाली शक्ति हैं और अवश्य ही सामाजिक विकास पर असर डालती हैं, उस विकास की गति तेज़ करती हैं, या उसे रोकती हैं. लेकिन, उनका असर नियामक नहीं है. कारण यह कि समाज के परिवर्तन और विकास, भौगोलिक परिस्थितियों के परिवर्तन और विकास से निस्बतन कहीं ज्यादा तेज होते हैं. तीन हज़ार साल की अवधि में, तीन विभिन्न समाज-व्यवस्थायें यूरोप में एक के बाद एक आ चुकी हैं : आदिम साम्यवादी व्यवस्था, ग़ुलामी की व्यवस्था और सामन्ती व्यवस्था. यूरोप के पूर्वी हिस्से में, सोवियत संघ में चार व्यवस्थायें एक के बाद एक आ चुकी हैं. लेकिन, इसी अवधि में, यूरोप की भौगोलिक परिस्थितियां या तो बदली ही नहीं हैं या इतनी कम बदली हैं कि भूगोल ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया है, और यह बिल्कुल स्वाभाविक है. भौगोलिक परिस्थिति में महत्वपूर्ण तब्दीली के लिये लाखों वर्ष चाहिये, जबकि मानव समाज की व्यवस्था में बहुत ही महत्वपूर्ण तब्दीलियों के लिये भी कुछ शताब्दियां या एक-दो हज़ार साल काफ़ी होते हैं.
इससे नतीजा यह निकलता है कि भौगोलिक परिस्थितियां सामाजिक विकास का मुख्य कारण, उसका नियामक नहीं कही जा सकतीं. जो वस्तु स्वयं लाखों साल तक अपरिवर्तित रहे, वह उस चीज के विकास का मुख्य कारण नहीं हो सकती जिसमें कुछ शताब्दियों में ही बुनियादी तब्दीली हो.
और भी, इसमें सन्देह नहीं कि ’समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियां’ – इस धारणा में जनसंख्या की बढ़ती भी शामिल है, आबादी का कमोवेश घना होना भी शामिल है, क्योंकि इंसान समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों का जरूरी तत्व है और बिना एक निश्चित अल्पतम जनसंख्या के समाज का भौतिक जीवन हो ही नहीं सकता. तब क्या जनसंख्या की बढ़ती वह मुख्य शक्ति नहीं है जो मनुष्य की समाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती है ?
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस सवाल के जवाब में भी कहता है – नहीं.
अवश्य ही, जनसंख्या की बढ़ती समाज के विकास पर असर डालती है, समाज के विकास की गति को तेज़ करने या रोकने में मदद देती है. लेकिन, वह सामाजिक विकास की मुख्य शक्ति नहीं हो सकती और सामाजिक विकास पर उसका असर नियामक नहीं हो सकता. कारण यह कि सिर्फ जनसंख्या की वृद्धि से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि किसी समाज-व्यवस्था के बदले कोई, विशेष नयी समाज-व्यवस्था ही क्यों आती है और कोई दूसरी क्यों नहीं आती; आदिम साम्यवादी व्यवस्था के बदले ठीक गुलामी की व्यवस्था ही क्यों आती है, गुलामी की व्यवस्था के बदले सामंती व्यवस्था और सामंती व्यवस्था के बदले पूंजीवादी व्यवस्था ही क्यों आती है, कोई दूसरी क्यों नहीं आती ?
अगर जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक विकास की नियामक शक्ति हो तो जनसंख्या के अधिक घने होने से वैसी ही ऊंचे स्तर की समाज-व्यवस्था भी पैदा हो जाये. लेकिन, हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता. चीन की आबादी अमरीका से चार गुना ज्यादा घनी है, फिर भी सामाजिक विकास-क्रम में अमरीका चीन से ऊपर है. कारण यह कि चीन में अर्द्ध-सामन्ती व्यवस्था अब भी चालू है जब कि अमरीका बहुत पहले पूंजीवाद के उच्चतम विकास की मंजिल तक पहुंच गया है. बेल्जियम की आबादी अमरीका से 19 गुना घनी है और सोवियत संघ से 26 गुना घनी है. फिर भी, अमरीका सामाजिक विकास-क्रम में बेल्जियम से ऊपर है. जहां तक सोवियत संघ का सवाल है, बेल्जियम हमारे देश से एक ऐतिहासिक युग पीछे है; क्योंकि बेल्जियम में पूंजीवादी व्यवस्था चालू है जब कि सोवियत संघ ने पहले ही पूंजीवादी व्यवस्था खत्म कर दी है और समाजवादी व्यवस्था क़ायम कर ली है.
इससे यह नतीजा निकलता है कि जनसंख्या की बढ़ती सामाजिक विकास की मुख्य शक्ति, ऐसी शक्ति जो समाज का रूप, समाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती हो, न है और न हो सकती है.
(क) तब समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों के व्यूह में वह मुख्य शक्ति कौन सी है जो समाज का रूप, समाज-व्यवस्था का रूप निश्चित करती है, जो एक से दूसरी व्यवस्था की ओर समाज की प्रगति निश्चित करती है.
ऐतिहासिक भौतिकवाद का कहना है कि यह शक्ति मानव जीवन के लिये आवश्यक ज़िन्दगी के साधनों को हासिल करने का तऱीका है, यह भौतिक मूल्यों की पैदावार का तरीक़ा है – खाना, कपड़ा, जूते, घर, ईंधन, पैदावार के साधन वगैरह – जो सामाजिक जीवन और विकास के लिये अनिवार्य हैं.
जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि लोगों के पास खाना, कपड़ा, जूते, रहने की जगह, ईंधन वगैरह हों. इन भौतिक मूल्यों को हासिल करने के लिये, यह ज़रूरी है कि लोग उन्हें पैदा करें. उन्हें पैदा करने के लिये ज़रूरी है कि लोगों के पास पैदावार के साधन हों, जिनसे कि खाना-कपड़ा, जूते, रहने की जगह ईंधन वगैरह पैदा किये जाते हों. यह जरूरी है कि लोग इन साधनों को पैदा कर सकें और उन्हें काम में ला सकें.
पैदावार के औज़ार, जिनसे भौतिक मूल्य पैदा किये जाते हैं, वे लोग जो पैदावार के औज़ारों को काम में लाते हैं और एक निश्चित पैदावार के अनुभव और श्रम-कौशल से भौतिक मूल्यों की पैदावार करते जाते हैं – ये सब तत्व कुल मिलाकर समाज की उत्पादक शक्तियां हैं.
लेकिन, उत्पादक शक्तियां पैदावार का सिर्फ़ एक पहलू हैं, पैदावार के तरीके़ का सिर्फ़ एक पहलू हैं. यह ऐसा पहलू है जो मनुष्यों के और प्रकृति की वस्तुओं और शक्तियों के सम्बन्ध को प्रकट करता है. इन वस्तुओं और शक्तियों को इन्सान भौतिक मूल्य पैदा करने के लिये काम में लाते हैं. पैदावार का दूसरा पहलू, पैदावार के तरीके़ का दूसरा पहलू उत्पादन-क्रम में मनुष्यों का आपसी सम्बन्ध है, मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्ध हैं. भौतिक मूल्यों को पैदा करने के लिये मनुष्य जब प्रकृति से संघर्ष करते हैं और प्रकृति को काम में लाते हैं तो वे एक-दूसरे से अलग-थलग रह कर, व्यक्तिगत रूप से अलग रहकर नहीं करते बल्कि मिलकर, गुटों में, समाजों में ऐसा करते हैं. इसलिये, उत्पादन सभी समय और सभी परिस्थितियों में सामाजिक उत्पादन होता है. भौतिक मूल्यों की पैदावार में उत्पादन के भीतर मनुष्य आपस में एक या दूसरी तरह के सम्बन्ध क़ायम करते हैं, वे एक या दूसरी तरह के उत्पादन-सम्बन्ध क़ायम करते हैं. ये संबंध इस तरह के लोगों में, जो शोषण से मुक्त हैं, सहयोग और परस्पर सहायता के संबंध हो सकते हैं. वे प्रभुत्व और पराधीनता के संबंध हो सकते हैं, और अंत में उत्पादन-सम्बन्धों के एक रूप से दूसरे रूप की तरफ़ बढ़ने की दशा के हो सकते हैं. लेकिन, उत्पादन-सम्बन्धों का जो भी रूप हो, वे हमेशा और हर व्यवस्था में पैदावार का वैसा ही ज़रूरी हिस्सा होते हैं, जैसा कि समाज की उत्पादक शक्तियां.
मार्क्स ने लिखा था :
“पैदावार में इंसान प्रकृति पर ही नहीं बल्कि एक-दूसरे पर भी अपना प्रभाव डालते हैं. किसी निश्चित तरीके़ से सहयोग करके ही और अपनी कार्यवाही की परस्पर अदला-बदली करके ही, वह पैदावार कर सकते हैं. पैदावार करने के लिये, वे एक-दूसरे से निश्चित सम्पर्क और सम्बन्ध स्थापित करते हैं और इन सामाजिक सम्पर्क और सम्बन्धों के भीतर ही प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है, उनकी पैदावार होती है.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं. सं., मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 211)
नतीजा यह कि पैदावार में, पैदावार के तरीके़ में, दोनों चीजें शामिल हैं – समाज की उत्पादक शक्तियां और मनुष्यों के उत्पादक-सम्बन्ध. इस तरह, पैदावार, पैदावार का तरीक़ा, भौतिक मूल्यों के उत्पादन-क्रम में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों की एकता का मूर्त रूप है.
(ख) पैदावार का पहला लक्षण यह है कि वह ज्यादा समय के लिये किसी एक जगह स्थिर नहीं रहती. वह हमेशा परिवर्तन और विकास की दशा में रहती है. इसके सिवा, पैदावार के तरीके़ में तब्दीली होने से लाज़िमी तौर पर समूची समाज-व्यवस्था में, सामाजिक विचारों, राजनीतिक मतों और राजनीतिक संस्थाओं में तब्दीली होती है; समूची सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की फिर से रचना होती है. विकास की विभिन्न मंजिलों में लोग पैदावार के विभिन्न तरीके़ इस्तेमाल करते हैं, या मोटे रूप में कहें, विभिन्न तरह की जिन्दगी बसर करते हैं. आदिम कम्यून में, पैदावार का एक तरीक़ा होता है, गुलामी की प्रथा में पैदावार का दूसरा तरीक़ा होता है, सामन्तशाही में पैदावार का तीसरा तरीक़ा होता है, इत्यादि. और, इसी के अनुकूल मनुष्यों की समाज-व्यवस्था, मनुष्यों का मानसिक जीवन उनके मत और राजनीतिक संस्थायें भी बदलती हैं.
किसी समाज के पैदावार का तरीक़ा जैसा होता है, मुख्य रूप से वैसा ही वह समाज होता है, वैसे ही उसके विचार और सिद्धांत, उसके राजनीतिक मत और संस्थायें होती हैं. या, मोटे रूप में कहें – इंसान की जैसी जिन्दगी होती है, वैसे ही उसके विचार होते हैं.
इसका अर्थ यह है कि सामाजिक विकास का इतिहास सबसे पहले पैदावार के विकास का इतिहास है, पैदावार के उन तरीक़ों का इतिहास है जो शताब्दियों के दौरान में एक के बाद एक आते हैं, उत्पादक शक्तियों और मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धों के विकास का इतिहास है.
इसलिये, सामाजिक विकास का इतिहास साथ ही खुद भौतिक मूल्य पैदा करने वालों का भी इतिहास है, उस श्रमिक जनता का इतिहास है जो उत्पादन-क्रम की मुख्य शक्ति है और जो समाज की जिन्दगी के लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों की पैदावार जारी रखती है.
इसलिये, अगर इतिहास के विज्ञान को सचमुच विज्ञान बनना है तो वह सामाजिक विकास के इतिहास को घटाकर राजाओं और सेनापतियों की कार्यवाही, ’विजेताओं’ और दूसरे राज्यों को ’पराधीन करने वालों’ का इतिहास नहीं बनाया जा सकता.
इतिहास-विज्ञान को सबसे पहले भौतिक मूल्य पैदा करने वालों के इतिहास, श्रमिक जनता के इतिहास, जन-साधारण के इतिहास की तरफ़ ध्यान देना होगा. इसलिये, समाज के इतिहास के नियमों का अध्ययन करने के लिये इंसान के दिमागों में, समाज के मतों और विचारों में सूत्र न खोजना चाहिये बल्कि पैदावार के तरीके में ढूंढना चाहिये, जो किसी विशेष ऐतिहासिक युग में समाज के अन्दर चालू हों. वह सूत्र समाज के आर्थिक जीवन में ढूंढना चाहिये.
इसलिये, इतिहास-विज्ञान का मुख्य काम यह है कि पैदावार के नियमों, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों के विकास के नियमों, समाज के आर्थिक विकास के नियमों का अध्ययन करे और उन्हें जाहिर करे.
इसलिये, सर्वहारा वर्ग की पार्टी को अगर सच्ची पार्टी बनना है तो उसे सबसे पहले पैदावार के विकास के नियमों का, समाज के आर्थिक विकास के नियमों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये. इसलिये नीति में ग़लती न करने के लिये, यह जरूरी है कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी अपने प्रोग्राम का मसौदा बनाने में और अमली कार्यवाही में भी सबसे पहले पैदावार के विकास के नियमों के आधार पर, समाज के आर्थिक विकास के नियमों के आधार पर आगे बढे़.
(ग) पैदावार का दूसरा लक्षण यह है कि उसकी तब्दीली और विकास हमेशा उत्पादक शक्तियों की तब्दीली और विकास से शुरू होता है और, सबसे पहले, पैदावार के साधनों में तब्दीली और विकास से शुरू होता है. इसलिये, उत्पादक शक्तियां पैदावार का सबसे गतिशील और क्रांतिकारी तत्व हैं. पहले समाज की उत्पादक शक्तियां बदलतीं और विकसित होती हैं और उसके बाद, इन्हीं तब्दीलियांे पर निर्भर और इन्हीं के अनुकूल, मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्ध, उनके आर्थिक सम्बन्ध बदलते हैं. लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि उत्पादन-सम्बन्धों का असर उत्पादक शक्तियों के विकास पर नहीं पड़ता और ये उत्पादक शक्तियां उत्पादन-सम्बंधों पर निर्भर नहीं हैं. उत्पादन-सम्बन्धों का विकास उत्पादक शक्तियों के विकास पर निर्भर जरूर है, लेकिन वे खुद अपनी बार उत्पादक शक्तियों के विकास पर असर डालते हैं, उनकी गति को तेज़ करते हैं या रोकते हैं. इस सिलसिले में, इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि पैदावार के सम्बन्ध बहुत दिनों तक उत्पादक शक्तियों की बढ़ती से पीछे और उनसे विरोध की दशा में नहीं रह सकते. कारण यह कि उत्पादक शक्तियां पूरी तरह से तभी बढ़ सकती हैं जब उत्पादन के सम्बन्ध उनके रूप से, उनकी दशा से मेल खाते हों और उन्हें पूरी तरह विकसित होने का मौका देते हों. इसलिये, पैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के विकास के चाहे जितने पीछे रहें, उन्हें आगे-पीछे उत्पादक शक्यिों के विकास की सतह के अनुकूल, उत्पादक शक्तियों के रूप के अनुकूल बनना ही पडे़गा – और दरअसल वे उसके अनुकूल बन जाते हैं. ऐसा न हो तो पैदावार की व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों और पैदावार के सम्बन्धों की एकता बुनियादी तौर से टूट जाये, समूची पैदावार में तोड़-फोड़ हो जाये, पैदावार में संकट आ जाये, उत्पादक शक्तियों का नाश हो जाये.
इस बात की मिसाल, जबकि पैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के रूप के अनुकूल नहीं होते, उनसे टक्कर लेते हैं, पूंजीवादी देशों का आर्थिक संकट है. वहां पैदावार के साधनों की निजी पूंजीवादी मिल्कियत उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप, उत्पादक शक्तियों के रूप की खुल्लमखुल्ला विरोधी है. इससे आर्थिक संकट पैदा होते हैं, जिनसे उत्पादक शक्तियों का नाश होता है. और भी, यह विरोध खुद सामाजिक क्रांति का आर्थिक आधार बन जाता है. इस क्रांति का उद्देश्य होता है, पैदावार के मौजूदा सम्बन्धों को खत्म करना और पैदावार के ऐसे नये सम्बन्ध रचना जो उत्पादक शक्यिों के रूप के अनुकूल हों.
इसके विपरीत, इस बात की मिसाल, जहां पैदावार के सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के रूप के पूरी तरह अनुकूल हैं, सोवियत संघ की समाजवादी राष्टंीय आर्थिक व्यवस्था है. यहां पर पैदावार के साधनों की सामाजिक मिल्कियत उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप के पूरी तरह अनुकूल है और इस वजह से, यहां आर्थिक संकट और उत्पादक शक्तियों के विनाश का नाम नहीं है.
नतीजा यह कि उत्पादक शक्तियां न सिर्फ़ पैदावार का सबसे गतिशील और क्रान्तिकारी तत्व हैं, बल्कि पैदावार के विकास का नियामक तत्व भी हैं. जैसी उत्पादक शक्तियां होती हैं, वैसे ही पैदावार के सम्बन्ध होते हैं.
उत्पादक शक्तियों की दशा क्या है, इससे इस बात का पता चलता है कि मनुष्य अपने लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों को पैदावार के किन साधनों से उत्पन्न करते हैं.
पैदावार के साधनों की दशा क्या है, इससे एक दूसरी बात का पता चलता है कि पैदावार के साधनों (जमीन, जंगल, जलाशय, खानें, कच्चा माल, पैदावार के साधन, पैदावार की जगह, यातायात और समाचार भेजने के साधन वगैरह) का मालिक कौन है; पैदावार के साधन किसके अधिकार में हैं, पूरे समाज के अधिकार में हैं या अलग-थलग लोगों, गुटों या वर्गों के हाथ में है, जो उन्हें दूसरे लोगों, गुटों या वर्गो का शोषण करने के लिये इस्तेमाल करते हैं ?
पुराने ज़माने से लेकर आज तक उत्पादक शक्तियों के विकास की एक मोटी रूपरेखा यह है. भोंडे़ पत्थर के औज़ारों से लोग धनुष-बाण की तरफ़ बढे़ और उसके साथ ही, शिकारियों की जिन्दगी छोड़ कर पशुपालन और आदिम चारागाहों की तरफ़ बढ़े. लोग पत्थर के औज़ार छोड़ कर धातुओं के औज़ार (लोहे की कुल्हाड़ी, लोहे का फाल लगा हुआ लकड़ी का हल वगैरह) की तरफ़ बढे़ और उसके साथ ही जोतने, बोने और खेती की तरफ़ बढे़. इसके बाद, सामान तैयार करने के लिये धातु के औज़ारों में और सुधार हुआ, लोहार की धौंकनी काम में लायी जाने लगी, मिट्टी का बर्तन बनना शुरू हुआ, उसके साथ ही दस्तकारी का विकास हुआ, दस्तकारी खेती से जुदा हुई, दस्तकारी के स्वतंत्र उद्योग विकसित हुए और आगे चल कर कारख़ाने कायम हुए. दस्तकारी से औज़ार छोड़ कर लोग मशीनों की तरफ़ आये और दस्तकारी और कारखानों की पैदावार मशीनों के उद्योग-धंधों में बदल गयी. इसके बाद, लोग मशीनों की व्यवस्था की तरफ बढ़े और आधुनिक, बड़े पैमाने पर मशीनों से चलने वाले उद्योग-धंधे क़ायम हुए.
मानव इतिहास के दौर में समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास की यह मोटी और अपूर्ण रूपरेखा है. इससे साफ हो जायेगा कि पैदावार के साधनों का विकास और उनमें सुधार उन लोगों ने किया जिनका पैदावार से संबंध था, यह विकास और सुधार उनसे स्वतंत्र नहीं हुआ. यह काम मनुष्यों से स्वतंत्र नहीं हुआ. नतीजा यह कि पैदावार के साधनों की तब्दीली और विकास के साथ उत्पादक शक्तियों के सबसे महत्वपूर्ण तत्व इंसानों में तब्दीली और विकास हुए, उनके पैदावार के अनुभव, उनके श्रम-कौशल, पैदावार के औज़ारों को इस्तेमाल करने की उनकी योग्यता में तब्दीली और विकास हुआ.
इतिहास के दौर में, समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास और परिवर्तन के अनुकूल, मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्ध, उनके आर्थिक सम्बन्ध भी बदले और विकसित हुए.
इतिहास में उत्पादन-सम्बन्धों के पांच मुख्य रूप मिलते हैं : आदिम साम्यवादी, गुलामी की प्रथा, सामन्ती, पूंजीवादी और समाजवादी.
आदिम साम्यवादी व्यवस्था में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों पर सामाजिक मिल्कियत होती है. यह बात उस समय की उत्पादक शक्तियों के रूप से मुख्यतः मेल खाती है. पत्थर के औज़ारों से और आगे चल कर तीर-कमान से लोग अलग-थलग रह कर प्रकृति की शक्तियों और हिंसक जंतुओं का मुक़ाबिला न कर सकते थे. जंगल से फल इकट्ठे करने के लिये, मछली पकड़ने के लिये, किसी तरह की रहने की जगह बनाने के लिये मनुष्यों को मिलकर काम करने पर मजबूर होना पड़ा वर्ना वे भूख से मरते या हिंसक जंतुओं या पड़ोसी समाजों के शिकार होते. एक साथ मेहनत करने से पैदावार के साधनों पर और पैदावार की उपज पर भी मिली-जुली मिल्कियत हुई. यहां अभी पैदावार के साधनों की निजी मिल्कियत का भाव पैदा न हुआ था. लोगों के पास निजी मिल्कियत के नाम पर सिर्फ़ पैदावार के कुछ औज़ार होते थे, जो साथ ही हिंसक जंतुओं से रक्षा करने के साधन का काम देते थे. यहां अभी न शोषण था, न वर्ग थे.
गुलामी की प्रथा वाली व्यवस्था में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह थी कि पैदावार के साधनों का मालिक गुुलामों का स्वामी होता था. पैदावार में काम करने वाले यानी गुलाम पर भी उसका अधिकार होता था, जिसे वह खरीद या बेच सकता था या जान से मार सकता था, मानो वह जानवर हो.
इस तरह के उत्पादन-सम्बन्ध उस समय की उत्पादक-शक्तियों की दशा के मुख्यतः अनुकूल थे. पत्थर के औजारों के बदले अब लोगों के हाथ में धातु के औजारों के बदले, अब लोगों के हाथ में धातु के औजार थे. शिकारी की गयी-बीती और आदिम गिरस्थी के बदले जो न जोतना-बोना जानता था, न चारागाह रखना जानता था, अब चारागाह, खेती, दस्तकारी सामने आयी और पैदावार की इन शाखाओं में मेहनत का बंटावारा हुआ. अब व्यक्तियों और समाजों के बीच में उपज की अदला-बदली मुमकिन हुई. मुट्ठी भर लोगों के हाथ में दौलत का इकट्ठा होना, अल्पसंख्यक लोगों के हाथ में पैदावार के साधनों का सचमुच केन्द्रित हो जाना और बहुसंख्यक लोगों का थोड़े से लोगों द्वारा पराधीन बनाया जाना और बहुसंख्यक लोगों का दासों में तब्दील होना – यह सब मुमकिन हुआ.
अब उत्पादन-क्रम में समाज के सभी लोग मिलजुलकर और आजादी से मेहनत न करते थे. यहां अब गुलामों की बेगार चालू हो गयी, जिन्हें उनके खुद मेहनत न करनेवाले मालिक शोषित करते थे. इसलिए यहां पैदावार के साधनों या पैदावार की उपज की मिलीजुली मिल्कियत न रह गयी थी. उसकी जगह निजी मिल्कियत ने ले ली. यहां गुलामों का मालिक अक्षरशः सम्पत्ति के पहले और मुख्य स्वामी के रूप में प्रकट होता है.
धनी और ग़रीब, शोषक और शोषित, अधिकारयुक्त और अधिकारहीन लोग और इनके बीच घोर वर्ग-संघर्ष – गुलामी की व्यवस्था की यही तस्वीर है.
सामन्ती व्यवस्था में उत्पादन-सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि सामन्ती मालिक पैदावार के साधनों का स्वामी होता है और पैदावार में काम करने वाले भूदास का पूरी तरह मालिक नहीं होता. वह अब उसकी जान नहीं मार सकता, लेकिन उसे बेच और खरीद सकता है. सामन्ती मिल्कियत के साथ, किसान और दस्तकार की निजी मिल्कियत भी रहती है. यह मिल्कियत पैदावार के औज़ारों और उसकी अपनी मेहनत पर चलने वाले निजी धंधे की होती है. इस तरह के उत्पादन-संबन्ध उस समय की उत्पादक शक्तियों के मुख्यतः अनुकूल होते हैं. लोहे के गलाने और उसकी चीजें बनाने में और तरक्क़ी, लोहे के हल और करघे का प्रसार; खेती, बागबानी, अंगूरबानी और डेरी के काम का और विकास; दस्तकारों की दुकान के साथ-साथ कारखानों का बनना – उत्पादक शक्तियों की दशा की ये अपनी विशेषतायें हैं.
नयी उत्पादक शक्तियों की मांग होती है कि मेहनत करने वाला पैदावार में किसी तरह की पहलक़दमी और काम के लिये रुझान, काम से दिलचस्पी ज़ाहिर करे. इसलिये, सामन्ती मालिक गुलाम से नाता तोड़ लेता है. गुलाम ऐसा मेहनत करने वाला है जिसे काम से कोई दिलचस्पी नहीं होती और जो क़तई पहलक़दमी नहीं करता. उसके बदले, सामन्ती मालिक भूदास से नाता जोड़ना पसन्द करता है.
भूदास की अपनी गिरिस्ती होती है, पैदावार के अपने औज़ार होते हैं और काम में इतनी दिलचस्पी होती है जितनी ज़मीन की काश्तकारी के लिये और सामन्ती मालिक को फ़सल का एक हिस्सा ग़ल्ले के रूप में देने के लिये जरूरी हो.
यहां निजी मिल्कियत का और विकास होता है. शोषण क़रीब-क़रीब वैसा ही कठोर होता है जैसा गुलामी में – अब वह जरा सा मद्धिम होता है. शोषक और शोषितों के बीच वर्ग-संघर्ष सामन्ती व्यवस्था का मुख्य लक्षण है.
पूंजीवादी समाज में पैदावार के सम्बन्धों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों के मालिक पूंजीपति होते हैं न कि पैदावार में काम करने वाले मजदूर, जो पगार पर मजदूरी करते हैं. इन्हें पूंजीपति न मार सकता है, न बेच सकता है क्योंकि वे निजी तौर पर आज़ाद हैं. लेकिन, उनके पास पैदावार के साधन नहीं होते और भूख से न मर जायें, इसलिये उन्हें मजबूर होकर अपनी श्रम-शक्ति पूंजीपति को बेचनी पड़ती है और शोषण का जुआं बर्दाश्त करना पड़ता है. पैदावार के साधनों में पूंजीवादी सम्पत्ति के साथ-साथ, पैदावार के साधनों में, पहले एक बडे़ पैमाने पर, किसानों और दस्तकारों की निजी सम्पत्ति दिखाई देती है. ये किसान और दस्तकार भूदास नहीं होते और उनकी निजी सम्पत्ति उनकी अपनी मेहनत का फल होती है. दस्तकारों की दूकानों और कारखानों के बदले, अब बड़ी-बड़ी मिलें और मशीनों से लैस कारखाने उठ खड़े होते हैं. जमींदारों की रियासतों के बदले, जिन्हें किसान पैदावार के आदिम औज़ारों से जोतते-बोते थे, अब बडे़-बडे़ पूंजीवादी फ़ार्म सामने आ जाते हैं, जिनमें वैज्ञानिक ढंग से काम होता है और जिनके पास खेती करने की मशीनें होती हैं.
नयी उत्पादक शक्तियों की मांग होती है कि पैदावार में काम करने वाले, कुचले हुए अनपढ़ भूदासों के मुकाबिले में, ज्यादा शिक्षित और ज्यादा चतुर हों, वे मशीनों का काम समझ सकें और उन्हें ठीक से चला सकें. इसलिये, पूंजीपति पगार पाने वाले मज़दूरों से काम लेना ज्यादा पसन्द करते हैं. ये मज़दूर भूदास प्रथा के बन्धनों से मुक्त होते हैं और इतने शिक्षित होते हैं कि मशीनों से सही तौर पर काम ले सकें.
लेकिन उत्पादक शक्तियों को जबर्दस्त सीमा तक विकसित करने के बाद, पूंजीवाद ऐसी असंगतियों में फंस गया है जिन्हें वह हल नहीं कर पाता. अधिकाधिक तादाद में बिकाऊ माल पैदा करके और उनके भाव गिराकर, पूंजीवाद होड़ को तेज करता है, छोटे और मध्यम श्रेणी के निजी मिल्कियत वालों को तबाह कर देता है, उन्हें सर्वहारा में तब्दील कर देता है और उनकी खरीदने की ताक़त कम कर देता है. नतीजा यह होता है कि जो बिकाऊ माल तैयार किया जाता है, उसे ठिकाने लगाना असंभव हो जाता है. दूसरी तऱफ, पैदावार को फैलाकर और लाखों मज़दूरों को बड़ी-बड़ी मिलों और कारखानों में केन्द्रित करके पूंजीवाद उत्पादन-क्रम को एक सामाजिक रूप दे देता है और इस तरह, खुद अपनी जड़ कमज़ोर करता है. कारण यह कि उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप की मांग होती है कि पैदावार के साधनों की मिल्कियत भी सामाजिक हो. लेकिन, पैदावार के साधन पूंजीपतियों की निजी दौलत ही रहते हैं, जो उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूप के बिल्कुल प्रतिकूल होता है.
उत्पादक शक्तियों के रूप और उत्पादन-सम्बन्धों के बीच दूर न होने वाले ये अंतर्विरोध समय-समय पर अति-पैदावार के संकटों के रूप में ज़ाहिर होते हैं. उस समय खुद अपनी तरफ़ से तबाह किये हुए आम लोगों की ग़रीबी की वजह से अपने माल की खासी मांग न देखकर पूंजीपतियों को मजबूरन अपनी उपज जला देनी पड़ती है, कारखानों में तैयार किया हुआ माल नष्ट कर देना होता है, पैदावार का काम मुल्तवी कर देना पड़ता है और ऐसे समय उत्पादक शक्तियों का नाश करना पड़ता है जब लाखों लोग मजबूरन बेकारी और भुखमरी के शिकार होते हैं, इसलिये नहीं कि काफ़ी माल है, नहीं, बल्कि इसलिये कि माल की अति-पैदावार हो गयी है.
इसका अर्थ यह होता है कि पैदावर के पूंजीवादी सम्बन्ध समाज की उत्पादक शक्तियों की दशा से अब मेल नहीं खाते और उन शक्तियों से अब उनका कभी न सुलझने वाला विरोध पैदा हो गया है.
इसका अर्थ यह होता है कि पूंजीवाद के गर्भ में क्रांति पुष्ट हो रही है, जिसका काम है – पैदावार के साधनों की मौजूदा पूंजीवादी मिल्कियत की जगह समाजवादी मिल्कियत क़ायम करना.
इसका अर्थ यह होता है कि पूंजीवादी व्यवस्था का मुख्य लक्षण शोषक और शोषितों के बीच बहुत ही तीव्र वर्ग-संघर्ष है.
समाजवादी व्यवस्था में, जो अभी तक सिर्फ़ सोवियत संघ में क़ायम हुई है, पैदावार के साधनों की बुनियाद यह है कि पैदावार के साधनों की मिल्कियत सामाजिक होती है. यहां पर अब और शोषित नहीं हैं. जो माल पैदा किया जाता है वह लोगों की मेहनत के अनुसार बांट दिया जाता है। इसका असूल है: “जो काम न करेगा वह खायेगा भी नहीं.” यहां उत्पादन-क्रम में लोगों के आपसी सम्बन्धों की विशेषता यह है कि शोषण से मुक्त मजदूर भाईचारे का सहयोग करते हैं और समाजवादी ढंग से एक-दूसरे की मदद करते हैं. यहां पैदावार के सम्बन्ध पूरी तरह उत्पादक शक्तियों के अनुकूल होते हैं, क्योंकि उत्पादन-क्रम के सामाजिक रूख को पैदावार के साधनों की सामाजिक मिल्कियत और मज़बूत कर देती है.
इस वजह से, सोवियत संघ में समाजवादी पैदावार न तो अति-पैदावार के समय-समय पर आने वाले संकट जानती है और न उनके साथ की यहां बेहूदगियां होती हैं.
इस वजह से, यहां उत्पादक शक्तियां और तेज़ तफ्तार से विकसित होती हैं, क्योंकि उनसे मेल खाने वाले सम्बन्ध ऐसे विकास के लिये उन्हें पूरा मौक़ा देते हैं.
मानव इतिहास के दौरान में, मनुष्यों के उत्पादन-सम्बन्धों के विकास की यही तस्वीर है.
पैदावार के सम्बन्धों का विकास समाज की उत्पादक शक्तियों के विकास पर इस तरह निर्भर है और सबसे पहले पैदावार के औज़ारों के विकास पर निर्भर है.
इस निर्भरता की वजह से, उत्पादक शक्तियों की तब्दीली और विकास आगे-पीछे उत्पादन-सम्बन्धों में वैसी ही तब्दीली और विकास पैदा कर देते हैं.
मार्क्स ने लिखा था :
“मेहनत करने के औज़ारों”1 का इस्तेमाल और उनका निर्माण बीज रूप में कुछ खास तरह के पशुओं में जरूर मौजूद रहता है, लेकिन मनुष्य की मेहनत का जो सिलसिला होता है, उसकी यह अपनी विशेषता है. इसलिये, फ्रेंकलिन ने मनुष्य की यह व्याख्या की थी कि वह औज़ार बनाने वाला पशु है. मेहनत करने के पुराने औज़ारों के अवशेष खत्म हो चुकने वाले समाज के आर्थिक रूपों की जांच-पड़ताल के लिये उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि पशुओं की खत्म हो चुकी जातियां पहचानने के लिये हड्डियों के अवशेष. विभिन्न आर्थिक युगों को हम इस बात से नहीं पहचानते कि उस समय कौन सी चीजें बनायी जातीं थीं, बल्कि इससे पहचानते हैं कि वे कैसे और किन औज़ारों से बनायी जाती थीं. मेहनत करने के औज़ारों से इसी का माप-दण्ड नहीं मिलता कि मनुष्य की मेहनत किस हद तक विकसित हुई है, बल्कि उनसे उन सामाजिक परिस्थितियों का भी पता चलता है जिनमें वह मेहनत की गयी थी.” (कार्ल मार्क्स, पूंजी, लंदन, 1908, खण्ड 1, पृष्ठ 159)
और आगे :
-“उत्पादक शक्तियों से सामाजिक सम्बन्धों का नज़दीकी सम्बन्ध है. नयी उत्पादक शक्तियां हासिल करने में मनुष्य अपनी पैदावार के तरीके बदल देते हैं. पैदावार का अपना तरीका बदलने में, अपनी रोजी हासिल करने का तरीका बदलने में, वे अपने तमाम सामाजिक सम्बन्ध भी बदल देते हैं. हाथ की चक्की हमें ऐसा समाज देती है जिसमें सामन्ती स्वामी होता है. मशीन से चलने वाली मिल ऐसा समाज देती है जिसमें औद्योगिक पूंजीपति होता है.” (कार्ल मार्क्स, दर्शनशास्त्र का दारिद्रय, अं.सं., मास्को, 1935, पृष्ठ 92)
-”उत्पादक शक्तियों की बढ़ती में सामाजिक सम्बन्धों के विनाश में, विचारों के निर्माण में निरंतर गति होती है. एक ही चीज गतिहीन है और वह गतिशीलता का भाव है.” (उप., पृष्ठ 93)
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में ऐतिहासिक भौतिकवाद की जो व्यवस्था की गयी है, उसकी चर्चा करते हुए एंगेल्स ने लिखा है:
“हर ऐतिहासिक युग की आर्थिक पैदावार और उससे लाज़िमी तौर से पैदा होने वाली समाज की बनावट उस युग के राजनीतिक और बौद्धिक इतिहास की बुनियाद है. …इसलिये, (जबसे, जमीन की आदिम पंचायती मिल्कियत खत्म हुई), सभी इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास रहा है, सामाजिक विकास की विभिन्न मंजिलों में शोषक और शोषितों, सत्तारूढ़ और शासित वर्गों के संघर्षों का इतिहास रहा है. …लेकिन, यह संघर्ष अब ऐसी मंजिल तक पहुंच गया है जहां कि शोषित और पीड़ित वर्ग (सर्वहारा) अपना शोषण और उत्पीड़न करने वाले वर्ग (पूंजीपतियों) से अपना छुटकारा बिना इस बात के हासिल नहीं कर सकता कि वह साथ-साथ हमें शक्ति के लिये समूचे समाज को शोषण, उत्पीड़न और वर्ग-संघर्षों से हमेशा के लिये मुक्त कर दे.” (कम्युनिस्ट घोषणापत्र के जर्मन संस्करण की भूमिका, कार्ल मार्क्स, स.ग्रं., मास्को, 1946, खं. 1, पृष्ठ 100-01)
(घ) पैदावार का तीसरा लक्षण यह है कि नयी उत्पादक शक्तियों और उनके अनुकूल पैदावार के सम्बन्धों का जन्म पुरानी व्यवस्था से अलग, उस व्यवस्था के खत्म हो जाने पर नहीं होता बल्कि पुरानी व्यवस्था के अन्दर ही होता है. यह जन्म मनुष्य की सोच-विचार वाली और सचेत कार्यवाही के फलस्वरूप नहीं होता बल्कि अपने-आप, अचेत रूप से, मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र होता है. उसके मनुष्य की इच्छा से स्वतंत्र और अपने-आप होने के दो कारण हैं.
पहला कारण यह है कि मनुष्य इस बात में स्वतंत्र नहीं हैं कि वे पैदावार का एक तरीक़ा अपनायें या दूसरा. जब कोई भी नयी पीढ़ी जीवन में प्रवेश करती है तो वह ऐसी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों को पहले से ही मौजूद पाती है जो पहले की पीढ़ियों की मेहनत का फल हैं. इसलिये, पैदावार के क्षेत्र में उसे जो कुछ पहले से तैयार चीज मिलती है, उसे मजबूरन उसे पहले स्वीकार करना पड़ता है और अपने को उसके अनुकूल बनाना पड़ता है, जिससे कि वह भौतिक मूल्य पैदा कर सके.
दूसरा कारण यह है कि जब मनुष्य पैदावार का कोई औज़ार सुधारते हैं, उत्पादक शक्तियों का कोई तत्व सुधारते हैं, तब वे महसूस नहीं करते, समझते नहीं हैं, या सोचने के लिये रुकते नहीं हैं कि इन सुधारों का सामाजिक परिणाम क्या होगा. वे सिर्फ अपने दैनिक हितों की बात सोचते हैं, अपनी मेहनत को हल करने और अपने लिये कोई सीधा और प्रत्यक्ष लाभ हासिल करने की बात सोचते हैं.
जब धीरे-धीरे और टटोलते हुए आदिम साम्यवादी समाज के कुछ सदस्य पत्थर के हथियारों से लोहे के हथियारों के प्रयोग की तरफ बढे़, तब अवश्य ही वे न जानते थे और यह सोचने के लिये वे न रुके थे कि इन आविष्कार से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे. वे यह न जानते थे या न महसूस करते थे कि धातु के औज़ारों की तरफ बढ़ना पैदावार में एक क्रांति करना होगा, कि आगे चलकर उससे गुलामी की प्रथा पैदा होगी, वे सिर्फ अपनी मेहनत हल्की करना चाहते थे. उनकी सचेत कार्यवाही उनके दैनिक हितों के तंग दायरे में सीमित थी.
जब सामंती व्यवस्था के युग में छोटी पंचायती दूकानों के साथ-साथ यूरोप का तरूण पूंजीपति वर्ग बड़े कारखाने बनाने लगा और इस तरह उसने समाज की उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ाया, तब अवश्य ही वह यह न जानता था और यह सोचने के लिये वह न रूका था कि इस आविष्कार के कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे. उसने यह न महसूस किया था या न समझा था कि इस ’छोटे से’ आविष्कार का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां नयी तरह से संगठित होंगी और इससे राजाओं की शक्ति के खिलाफ, जिनकी कृपा को वह इतना महत्व देता था, क्रांति होगी और उन सरदारों के खिलाफ क्रान्ति होगी जिनकी पांति में बैठने के लिये उसके प्रमुख प्रतिनिधि अक्सर लालायित रहते थे. वह सिर्फ माल पैदा करने की क़ीमत कम करना चाहता था, एशिया और अभी हाल में ढूंढे हुए अमरीका के बाज़ारों में माल ज्यादा तादाद में भेजना चाहता था और ज्यादा मुनाफे़ कमाना चाहता था. उसकी सचेत कार्यवाही इस मामूली व्यवहारिक उद्देश्य के तंग दायरे में सीमित थी.
जब रूसी पूंजीपतियों ने विदेशी पूंजीपतियों से मिल कर रूस में जोर-शोर से आधुनिक बडे़ पैमाने के मशीनों वाले उद्योग-धंधे क़ायम किये और ज़ारशाही को बरकरार रहने दिया और किसानों को जमींदारों के कृपा-कटाक्ष पर छोड़ दिया, तब अवश्य ही वे यह न जानते थे और न यह सोचने के लिये वे रुके थे कि उत्पादक शक्तियों की इस विशाल बढ़ती से कौन से सामाजिक परिणाम निकलेंगे. उन्होंने यह महसूस न किया या न समझे थे कि समाज की उत्पादक शक्तियों के क्षेत्र में इस भारी छलांग का फल यह होगा कि सामाजिक शक्तियां फिर से संगठित होंगी, जिससे कि सर्वहारा वर्ग किसानों से एका कायम कर सकेगा और विजयी समाजवादी क्रांति कर सकेगा. वे सिर्फ़ उद्योग-धंधों की पैदावार आखिरी हद तक बढ़ाना चाहते थे, विशाल घरेलू बाज़ार पर कब्जा करना चाहते थे, इज़ारेदार बनना चाहते थे और राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से जितना भी हो सके मुनाफ़ा खींचना चाहते थे. उनकी सचेत कार्यवाही उनके मामूली और एकदम व्यवहारिक हितों के दायरे के बाहर नहीं गयी.
इसीलिये मार्क्स ने लिखा था :
“अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में (यानी मनुष्यों के जीवन के लिये आवश्यक भौतिक मूल्यों की पैदावार में – सम्पादक) मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्र1 होते हैं.
पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की अपनी भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं।” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को 1946, खण्ड 1 पृष्ठ 300)
लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि उत्पादन-सम्बन्धों में तब्दीली और पैदावार के पुराने सम्बन्धों से नये उत्पादन-सम्बन्धों की तरफ़ प्रगति शांतिमय ढंग से, बिना संघर्षों के और बिना हलचल के हो जाती है. इसके विपरीत, इस तरह की प्रगति आम तौर से पुराने उत्पादन-सम्बन्धों को क्रांतिकारी ढंग से खत्म करके और पैदावार के नये सम्बन्ध क़ायम करके होती है. एक वक़्त तक उत्पादक शक्तियों का विकास और पैदावार के संबंधों के क्षेत्र में तब्दीली अपने-आप होती है, मनुष्यों की इच्छा से स्वतंत्र होती है.
लेकिन, ऐसा एक वक्त तक ही होता है जब तक कि नयी और विकसित होती हुई उत्पादक शक्तियां बढ़ कर अच्छी तरह पुष्ट नहीं हो जाती. नयी उत्पादक शक्तियों के पुष्ट हो जाने के बाद, पैदावार के मौजूदा सम्बन्ध और उनके हिमायती – शासक वर्ग – एक ’भारी’ अड़चन बन जाते हैं, जिसे नये वर्गों की सचेत कार्यवाही से ही हटाया जा सकता है, जिसे इन वर्गों की बलपूर्वक कार्यवाही से, क्रांति से ही हटाया जा सकता है.
यहां नये सामाजिक विचारों, नयी राजनीतिक संस्थाओं और नयी राजनीतिक सत्ता की ज़बरदस्त भूमिका1 बहुत ही स्पष्ट दिखाई देती है. इनका काम होता है कि पैदावार के पुराने सम्बन्धों को बलपूर्वक खत्म कर दें. नयी उत्पादक शक्तियों और पैदावार के पुराने सम्बन्धों के संघर्ष से, समाज की नयी आर्थिक मांगों से, नये सामाजिक विचार पैदा होते हैं. नये विचार आम जनता को और संगठित करते हैं.
आम जनता एक राजनीतिक सेना में सुगठित हो जाती है. वह एक नयी क्रांतिकारी सत्ता रचती है और उसका इसलिये इस्तेमाल करती है कि उत्पादन-सम्बन्धों की पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक खत्म कर दे और दृढ़ता से नयी व्यवस्था क़ायम करे. विकास के अपने-आप होने वाले सिलसिले की जगह मनुष्यों की सचेत कार्यवाही ले लेती है, शान्तिमय विकास की जगह बलपूर्वक होने वाली हलचल ले लेती है, विकास की जगह क्रांति ले लेती है.
मार्क्स ने लिखा था :
“पूंजीपतियों से संघर्ष करते समय, परिस्थितियों की वजह से सर्वहारा वर्ग को एक वर्ग रूप में अपने को संगठित करना पड़ता है. …क्रांति के जरिये वह अपने को शासक वर्ग बनाता है और इस तरह पैदावार की पुरानी परिस्थितियों को बलपूर्वक खत्म कर देता है.” (कम्युनिस्ट घोषणापत्र, कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खण्ड 1, पृष्ठ 131)
और भी आगे:
-“सर्वहारा वर्ग अपने राजनीतिक प्रभुत्व का इस्तेमाल इसलिये करेगा कि क्रमशः पूंजीपतियों से सभी पूंजी छीन ले और राज्य के, यानी शासक वर्ग के, रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हाथ में पैदावार के सभी साधन केन्द्रित कर ले और जहां तक हो सके कुल उत्पादक शक्तियों को बढ़ाये।” (उप., पृष्ठ 129)
-“पुरानी समाज-व्यवस्था के गर्भ में जब नयी समाज-व्यवस्था आ जाती है, तब उसके जन्म के लिये धाय के रूप में बल आवश्यक होता है।” 1⁄4कार्ल मार्क्स, पूंजी, खण्ड 1, पृष्ठ 776)
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अर्थशास्त्र की आलोचना की ऐतिहासिक भूमिका में, मार्क्स ने 1859 में ऐतिहासिक भौतिकवाद के सार तत्व का मसौदा दिया था जो एक प्रतिभाशाली दिमाग की उपज है :
“अपने जीवन की सामाजिक पैदावार में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्ध कायम करते हैं जो लाजिमी होते हैं और उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं. पैदावार के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल से मेल खाते हैं. इन उत्पादन-सम्बन्धों का कुल जोड़ समाज की आर्थिक बनावट है – वह सच्ची बुनियाद जिस पर कानून और राजनीति की सारी इमारत खड़ी होती है और जिसके अनुकूल सामाजिक चेतना के विभिन्न रूप होते हैं. भौतिक जीवन की पैदावार का तरीका आम तौर से सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक जीवन का क्रम निश्चित करता है. मनुष्यों की चेतना उनकी सत्ता को निश्चित नहीं करती बल्कि इसके विपरित उनकी सामाजिक सत्ता उनकी चेतना को निश्चित करती है. विकास की एक मंजिल तक पहुंच कर, समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां उस समय के उत्पादन-सम्बन्धों से टकराती हैं, या – उसी चीज को क़ानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – वे अब तक सम्पत्ति के जिन सम्बन्धों में काम करती आती थीं, उनसे टकराती हैं. उत्पादक शक्तियों के विकास के रूप न रह कर, ये सम्बन्ध उनके लिये बेड़ियां बन जाते हैं. तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है. आर्थिक बुनियाद बदलने के साथ, ऊपर की समूची भारी इमारत भी बहुत कुछ जल्द ही बदल जाती है. इस तरह की तब्दीलियों पर विचार करते हुए, एक भेद ध्यान में रखना चाहिये. एक तो पैदावार की आर्थिक परिस्थितियांे की, जो प्रकृति-विज्ञान के नपे तुले तरीके से निश्चित की जा सकती हैं, भौतिक तब्दीली होती है. दूसरी कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्य सम्बन्धी या दार्शनिक तब्दीली – संक्षेप में, विचारधारा के रूप बदलते हैं, जिन रूपों में मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत होते हैं और निपटारे के लिये लड़ते हैं. जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी धारणा इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह तब्दीली के दौर के बारे में खुद उसकी चेतना के आधार पर हम राय क़ायम नहीं कर सकते. इसके विपरीत, भौतिक जीवन की असंगतियों के आधार पर, समाज की उत्पादक शक्तियों और पैदावार के सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर, इस चेतना की व्याख्या करनी चाहिये. कोई भी समाज-व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती जब तक कि उसके अन्दर गूंजाइश रहते हुए तमाम उत्पादक शक्तियां विकसित नहीं हो जातीं. पैदावार के नये और उच्चतर सम्बन्ध तब तक कभी सामने नहीं आते जब तक कि उनके जीवन की भौतिक परिस्थितियां पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट न हो चुकी हों. इसलिये, मनुष्य जाति अपने सामने हमेशा ऐसे ही काम रखती है जिन्हें वह कर सकती है. कारण यह कि इस विषय को नज़दीक से देखने पर हमेशा हम यही पायेंगे कि काम हमेशा तभी सामने आता है जब उसे पूरा करने के लिये ज़रूरी भौतिक परिस्थितियां पहले ही मौजूद हों, या कम से कम निर्माण की हालत में हों.” (कार्ल मार्क्स, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1946, खण्ड ! पृष्ठ 300-01)
सामाजिक जीवन, समाज के इतिहास पर लागू किया जाने वाला मार्क्सीय भौतिकवाद इस तरह का है.
द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मुख्य लक्षण इस तरह के हैं. इससे स्पष्ट हो जायेगा कि लेनिन ने पार्टी के लिये कौन सी सैद्धांतिक निधि की रक्षा की थी और संशोधनवादियों और गद्दारों के हमलों से उसे बचाया था और हमारी पार्टी के विकास के लिये लेनिन की पुस्तक भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना का प्रकाशन कितना महत्वपूर्ण था.
1. मेहनत करने के औज़ारों से माक्र्स का लक्ष्य मुख्यतः पैदावार के औज़ार हैं – संपादक
1. ज़ोर हमारा है – संपादक
{ द्वंदात्मक एवम एतिहासिक भौतिकवाद (बोल्शेविक पार्टी (CPSU-B) का इतिहास का एक हिस्सा), पेज 135 से 169 से उद्धृत }
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