हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
पता नहीं, यह कैसी मानसिक अवस्था है कि न्यूज वाला ‘दिहाड़ी’ बोलता है और मुझे ‘बिहारी’ सुनाई देता है. वैसे भी, व्यावहारिक रूप से दोनों प्रायः समानार्थी ही हैं. देश में जहां-जहां दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत, वहां-वहां बिहारी मौजूद.
आज, इस भीषण संकट के दौर में ये दिहाड़ी महानगरों के लोगों के गले की हड्डी बन गए हैं. न उगलते बन रहा है न निगलते. अगर इन्हें बसों में लाद कर इनके गांव भेजा जाए तो लॉक डाउन बेमतलब हो जाता है, अगर इन्हें वहीं रहने को विवश किया जाए जहां अभी ये हैं, तो फिर कचरा ही कचरा है.
ये खाने के लिये लंबी लाइन लगाते हैं और इस आशंका में एक दूसरे पर गिरने-पड़ने लगते हैं कि खाने का पैकेट खत्म होने वाला है. कभी किसी बस स्टैंड, कभी किसी रेलवे स्टेशन पर बेतहाशा भीड़ लगा देते हैं कि हम तो अपने गांव जाएंगे. मतलब कि अक्सर ये लॉक डाउन की ऐसी की तैसी कर देते हैं. फिर क्या है ? पुलिस की लाठियां हैं और इन दिहाड़ियों की देह है.
ये भूख से लड़ रहे हैं, लाठियां खा रहे हैं, अपने सुविधा संपन्न घरों में लॉकडाउन में टीवी न्यूज पर नजरें गड़ाए मध्य वर्ग की दुत्कार सुन रहे हैं, ‘ये बिहारी भी न, कभी नहीं सुधरेंगे.’ काश, सुधर जाते बिहारी, तो पता चलता महानगर के लोगों को, फैक्ट्री मालिकों को कि श्रम खरीदना कितना महंगा है ?
लेकिन, बिहारी कैसे सुधरें ? वे राज्य के बाहर बिहारी हैं लेकिन राज्य में लौटते ही कुर्मी हैं, कुशवाहा हैं, यादव हैं, मुसहर हैं, पंडित हैं, ठाकुर हैं. बाहर में, जब भी मार खाने की बारी आती है, लात खाने का दुर्योग बनता है तो सभी बिहारी हो जाते हैं क्या मुसहर, क्या यादव, क्या पंडी जी…सब मार खाते हैं.
लेकिन, रेलगाड़ियों की जेनरल बोगी में बैठ कर जब वे वोट डालने अपने गांव पहुंचते हैं तो उनकी आइडेंटिटी बदल जाती है. गिद्ध की तरह यहां के नेता लोग जिन्हें सिर्फ उनके वोट से मतलब है. वोट के लिये जातीय आइडेंटिटी को उभारना जरूरी है.
बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में इन प्रवासी दिहाड़ियों का कितना योगदान है, यह गांव के दुकानदार जानते हैं, आर्थिक विशेषज्ञ जानते हैं लेकिन, जब भी वक्त प्रतिकूल होता है, यह व्यवस्था इन्हें कचरा मानने लगती है. वैसे, अखबारों में नेताओं के सहानुभूति और सहयोग दर्शाते वक्तव्य जरूर छपते रहते हैं.
अब तो जमाना बदल गया है. मास्टर-प्रोफेसर भी दिहाड़ी होने लगे हैं. हालांकि, कोशिश की गई है कि उन्हें दिहाड़ी मास्टर न कह कोई सम्मानजनक शब्द से नवाज़ा जाए, तो…’अतिथि शिक्षक’ कहने का रिवाज है. इसमें भी यूपी वालों के साथ मिल कर बिहारी आगे हैं. देश भर में जितने भी दिहाड़ी प्रोफेसर हैं उनमें अधिकतर बिहार-यूपी के ही होंगे.
इस लॉकडाउन में उनकी खबर कौन ले ? आखिर, विद्वान आदमी हैं वे लोग. इतने बड़े संकट को देख समझ ही रहे हैं. अपनी चिंता खुद कर लेंगे. उनके साथ तो शर्त्त ही थी कि जितने क्लास लोगे, उतना भुगतान होगा. अब क्लास ही नहीं तो भुगतान किस बात का ? अंतःकरण से मांं भारती को याद करते हुए राष्ट्र के समक्ष आए संकट में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करो. वैसे भी, आजकल अपने प्रधानमंत्री जी नागरिकों को कर्त्तव्यों की अधिक याद दिला रहे हैं.
यह तो कोरोना आ गया वरना अपने साहब तो देश भर के हर विभाग में दिहाड़ी संस्कृति लागू करते ही जा रहे थे. क्या रेलवे, क्या युनिवर्सिटी, क्या अस्पताल, क्या फैक्ट्री. यत्र तत्र सर्वत्र दिहाड़ी ही दिहाड़ी. इसी से मिलता जुलता अंग्रेजी का एक शब्द आजकल सरकारों को और कंपनियों को बहुत प्रिय लगने लगा है…’आउटसोर्सिंग.’
नियोक्ता और नियुक्त लोगों के बीच एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्यों की ऐसी परिभाषाएं विकसित की जाने लगी हैं जिनमें नियोक्ता के कर्त्तव्य न्यूनतम हैं. काम करते रहो. कोई ऊंच नीच हो गई, कोई बुरा समय आ गया तो हम कुछ नहीं जानते, अपना जानो.
तो, दिहाड़ी संस्कृति का नग्न सत्य आज सामने है, जिसमें मनुष्य को मनुष्य मानने से इन्कार कर दिया गया है. न सत्ता के एजेंडे में उनकी वाजिब जगह है, न समाज के चित्त में. पता नहीं, ये बिहारी, क्षमा करें, दिहाड़ी कब सुधरेंगे और कब उन्हें सुधार देने पर उतारू हो जाएंगे जो अपने ड्राइंग रूम्स में न्यूज सुनते हुए मुंह बिचका कर, कंधे उचका कर कहते हैं…’ओह, ये बिहारी भी न, कभी नहीं सुधरेंगे.’
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