धीरू भाई अम्बानी के निमंत्रण पर एक ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार बर्ष 1991, मुम्बई में अनिल अंबानी और टीना मुनीम की शादी अटेंड करता है, फिर वो 1998-99 में एक किताब पब्लिश करता हैं – The Polyster Prince : the rise of Dhirubhai Ambani. ये धीरूभाई अम्बानी की अनिधिकृत बायोग्राफी है, जिसके पब्लिश होते ही अम्बानी परिवार पत्रकार को धमकाता है, जिसके कारण इंडियन एडिशन पब्लिश नहीं होता. फिर अगले एक दशक बाद ये किताब इंडिया में पब्लिश हो जाती है. कारण ये था कि इस किताब में धीरूभाई अम्बानी के जवानी में किये गए संघर्ष को स्याही से रंग दिया गया है, जो उसका परिवार नहीं चाहता था कि पब्लिश हो.
धीरूभाई के पिताजी स्कूल टीचर थे, उस परिवार को उतनी इनकम से घर चलाना मुश्किल था, इसलिए स्कूल की पढ़ाई करके धीरूभाई पैसा कमाने अपने बड़े भाई के पास गल्फ कंट्री यमन (Aden) चले गए. वहां आयल कंपनी shell में काम करना शुरू किया. उस समय उनकी तेज दिमाग में एक अलग ही आईडिया आया. यमन में सऊदी ‘सॉलिड रियाल सिक्के’ का प्रचलन था, जो चांदी का होता था. रियाल का कंटेंट वैल्यू, एक्सचेंज रेट की तुलना में ब्रिटिश पाउंड और दूसरे विदेशी करेंसी से ज्यादा था. धीरूभाई को लगा ये सिक्के से ज्यादा कीमती इसका कंटेंट है, इसे पिघलाकर पैसा कमाया जाए.
धीरूभाई ने लोगों से रियाल सिक्के खरीदा और उसे पिघला कर सिल्वर शीट को लंदन के डीलरों को बेचना शुरू किया. मार्जिन ज्यादा नहीं था लेकिन इतना था कि कुछ महीनों में उसने 1950 के दशक में लाखों रुपये कमा लिए. यमन के राजशाही ऑफिसियल को अंदाजा हुआ कि रियाल सिक्के धीरे-धीरे मार्केट से गायब हो रहा है. उनलोगों ने पता लगाया तो मालूम हुआ कि एक 20 साल का भारतीय क्लर्क है, जो रियाल सिक्के को ख़रीदकर, पिघलाकर बेच रहा है. इसके बाद धीरूभाई अपना खुद का बिज़नेस करने भारत लौट गए.
हामिश मैकडोनाल्ड ने किताब में लिखा है कि धीरूभाई का मानना रहा कि न कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन. सबका अपना सेल्फ इंटरेस्ट होता है, जिसे पहचान करना होता है. 1957 में 500 रुपया इन्वेस्ट करके बिज़नेस शुरू करने वाले धीरूभाई ने अगले 50 साल में अपनी आयल कंपनी बना लिया, जितनी बड़ी कम्पनी में वो कभी एक क्लर्क था. इसके सफलता के पीछे मेहनत तो हैं ही, राजनीतिक जुगलबंदी का पूरा अध्याय हैं, जिसमें ढेरों कहानियां है. रिलायंस देश की पहली प्राइवेट कंपनी बनी थी, जो Fortune 500 की लिस्ट में शामिल हुई.
पॉलीस्टर के बिज़नेस की राजनीति ने इसे मार्केट का शहंशाह बना दिया. 70 के दशक में इंदिरा गांधी के साथ दिखना शुरू किया. 80 में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी इसके प्यार में पागल हुआ. कपड़े बनाने के रसायन खरीदारी पर रिलायंस को सरकार से जो फायदा पहुंचा, उसमें बॉम्बे डाईंग पीछे रह गया. उस समय के इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी और गुरुमूर्ति ने रिलायंस के ख़िलाफ़ आरोपों की झड़ी लगा दी थी. इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका ने बॉम्बे डाईंग का पक्ष लेते रिलायंस के ख़िलाफ़ एक जंग ही छेड़ दिया. लेकिन रिलायंस के कपड़े का ब्रांड विमल सरकार की मेहरबानी से बढ़ता चला गया. आरोप तो इतना तक लगा कि बॉम्बे डाईंग के मालिक नुस्ली वाडिया को जहर देकर मारने की कोशिश भी हुई.
रिलायंस ने उस समय के कांग्रेस को अपने गिरफ्त में ले लिया था. भारत ने 1983 ने वर्ड कप जीता तो रिलायंस ने उसके लिए पार्टी रखी. 1987 के वर्ल्ड कप क्रिकेट का आयोजन भी करवाया. धीरूभाई की आंखों में अगर कोई खटकता था तो वो थे – वी. पी. सिंह. वी. पी. सिंह को रिलायंस के काम करने के तरीके से सख्त नाराजगी रहा, फिर भी रिलायंस का व्यवसाय बढ़ता रहा. वी. पी. सिंह की सरकार जब बनी तो रिलायंस को परेशानी का सामना करना पड़ा. लेकिन 1991 में 3000 करोड़ की कम्पनी सदी के अंत तक आते-आते 60 हजार करोड़ की कम्पनी बन चुकी थी.
बीजेपी के महान पत्रकार और बाद में अटल सरकार में विनिवेश मंत्री बने अरुण शौरी जो 80 के दशक में इंडियन एक्सप्रेस में रिलायंस के खिलाफ स्याही उड़ेल चुके थे, वो मंत्री बनते ही धीरूभाई के सामने घुटनों के बल झुक चुके थे. वो पब्लिक इवेंट में धीरूभाई की तारीफ़ के पूल बांधने लगे. बाकी आपको पता ही होगा, अटल सरकार में विनेश मंत्रालय ही बनाया गया था पब्लिक कंपनियों को बेचने के लिए. उस समय अम्बानी का साथी बनकर अरुण शौरी ने खूब लाभ पहुंचाया. बहुत कुछ बेचा जो रिलायंस ने खरीदा.
बाकी धीरूभाई का वो वाक्य, जिसपर रिलायंस आज भी सफलता के झंडे गाड़े हुए है, न कोई स्थायी दुश्मन न कोई स्थायी दोस्त. मैनेज सिस्टम….हैंडल ब्यूरोक्रेट्स…यूज़ द लूपहोल. यही अंबानी के बिज़नेस की सफलता का सत्य है.
- आलोक कुमार
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