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‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ : मानवता और उसके स्वीकृत मूल्य कोई मायने नहीं रखते

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

तालिबान कहते रहे हैं कि वे ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ एकजुट हुए हैं. सत्ता पर काबिज़ होने का उनका उद्देश्य भी यही है. अब जब, धर्म के ‘खोए हुए’ गौरव को पुनर्प्रतिष्ठापित करना है तो स्त्रियों के अधिकारों को कुचलना, नौकरी आदि छुड़वा कर उन्हें घर में बंद करना जरूरी हो जाता है. सो, वे ऐसा कर रहे हैं.

उनके अनुसार स्कूल-कालेजों में सह शिक्षा धर्म के नियम के विरुद्ध है. जाहिर है, वे इस पर रोक लगा रहे हैं. उनके विचारों का, उनके तरीकों का विरोध करने वालों का क्रूर दमन और बर्बर रक्तपात उनके स्वभाव में शामिल है. वे शुरू से ऐसा करते रहे हैं और तय है कि जब तक वे ताकतवर हैं, वे ऐसा करते रहेंगे.

उन्होंने अपनी आंखों पर धर्म का ऐसा चश्मा और बुद्धि पर ऐसा आवरण चढ़ा लिया है कि मानवता और उसके स्वीकृत मूल्य उनके लिये कोई मायने नहीं रखते. वे ‘शरिया’ लागू करना चाहते हैं. एकदम धर्म के नियमों के अनुसार सब कुछ होते देखना चाहते हैं.

जाहिर है, संगठन चलाने के लिये, सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिये धन की आवश्यकता होती है और सिर्फ ‘धर्म-धर्म’ करने से धन हासिल नहीं हो सकता, तो इसके लिये वे कई संदिग्ध स्रोतों से संसाधन हासिल करते हैं, इनसे जरूरतें पूरी नहीं हो पाती तो वे ड्रग्स का कारोबार करते हैं. कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि ड्रग्स के अंतरराष्ट्रीय रैकेट से जुड़ कर उन्होंने अकूत धन कूटा है और उसे धर्म की संस्थापना के लक्ष्य में लगाया है.

अब वे सत्ता में हैं. उनके द्वारा अपने ही नागरिकों के क्रूर दमन और उनमें से अनेक की बर्बर हत्याओं की खबरों से आजकल दुनिया भर के अखबार भरे रहते हैं. दुनिया क्या सोचती है, इससे उन्हें अधिक फर्क नहीं पड़ता. उन्हें धर्म का ‘खोया हुआ’ गौरव लौटाना है, नदियों की धाराओं को, हवाओं के प्रवाह को, मानवता और सभ्यता की विकास यात्रा को धर्म के अनुसार संचालित करना है.

उनके पास कोई कांसेप्ट नहीं है कि वे अपने देश की भयानक गरीबी से कैसे निपटें, बेरोजगारी से बेजार नौजवानों के लिये क्या करें, अर्थव्यवस्था की गिरती ही जा रही सेहत को सुधारने के लिये कौन से उपाय करें.

आधी आबादी को आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने से हतोत्साहित कर कोई भी सिस्टम अपनी अर्थव्यवस्था कैसे सुधार सकता है ? लेकिन, उनके लिये अर्थव्यवस्था प्राथमिकता नहीं, शरिया प्राथमिक है, जो उन्हें निर्देश देती है कि पढ़ी-लिखी महिलाओं को बैंक, पुलिस, परिवहन आदि संस्थाओं की नौकरी से हटा कर घर बैठा दिया जाए.

विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अफगानिस्तान में अगर तालिबान की सत्ता लंबी चली तो उसकी आर्थिक दुर्गति तय है. यह अजीब सा विरोधाभास है कि आज के दौर में, जब दुनिया में आर्थिक तरक्की की भूख बढ़ती ही जा रही है, धर्म और राष्ट्र आदि के छद्म तले सत्ता की राजनीति करने वालों की जमातें भी ताकतवर होती जा रही है. ऐसी जमातों के पास, चाहे वे जिस भी देश के हों, चाहे वे कितने भी ताकतवर हों, अर्थव्यवस्था के सफल संचालन का शऊर नहीं होता.

सत्ता हासिल कर लेना और जनता के व्यापक हितों के अनुकूल सत्ता का संचालन करना…दोनों दो बातें हैं. छद्म विमर्शों की आड़ में गाल बजा कर सत्ता तो हासिल कर ली जा रही है, लेकिन सार्थक आर्थिक चिंतन के अभाव में अर्थव्यवस्था का बाजा बजा दिया जा रहा है. विरोध की आवाजों को कहीं धर्म का विरोध कहा जा रहा है तो कहीं राष्ट्र का विरोध करार दिया जा रहा है.

आज की तारीख में दुनिया में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि धर्म-धर्म…राष्ट्र-राष्ट्र की टेर लगाते हुए, जनता को दिग्भ्रमित कर, उनका समर्थन हासिल करने के बाद किसी सत्तासीन जमात ने अपनी जनता का आर्थिक कायाकल्प भी कर दिया हो.

देखा तो यही गया है कि ऐसी सत्तासीन जमातें अपनी प्रसिद्धि का, अपनी राजनीतिक सफलताओं का चाहे जितना जश्न मना लें, उनकी जनता भयानक बेरोजगारी, असहज कर देने वाली महंगाई आदि विभीषिकाओं का ही सामना करने को अभिशप्त होती है.

छद्म रचने से, गाल बजाने से राजनीतिक सफलताएं हासिल कर लेना संभव है, देश और समाज की आर्थिक सेहत में सुधार लाने के लिये इससे अधिक की जरूरत होती है.

यहीं पर ऐसी जमातों की सीमाएं स्पष्ट होने लगती हैं.
छद्म…यह ऐसा शब्द है जिसकी एक आड़ होती है. इस आड़ में बहुत कुछ ऐसा होता है जो घोर जन विरोधी है, मनुष्यता विरोधी है. जब भी कोई सत्तासीन जमात राजनीतिक सफलताएं हासिल करने के लिये छद्म रचती है तो उसकी आड़ में मनुष्यता विरोधी शक्तियां अपना खेल रचती हैं.

अगर तह में जाया जाए तो राजनीतिक सत्ता के शिखर पर विराजमान, ताकतवर दिख रहा राजनेता बेहद कमजोर मालूम होने लगता है. छद्म विमर्शों का यही निर्मम सच होता है.

वैश्विक शक्तियों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा, उनके शह-मात के खेल में तालिबान को सत्ता पर काबिज़ होने का मौका मिला है. तो कई अन्य देशों में वैश्विक कारपोरेट शक्तियों के रचे हुए खेल से कोई सत्ता पर काबिज हुआ है. छद्मों को जन्म देता, छद्मों से जन्म लेता अपने ही समर्थकों-मतदाताओं से निरन्तर छद्म रचता.

वे जितने ही मजबूत होते गए, जनता उतनी ही कमजोर होती गई. उनके सरपरस्तों के आर्थिक हित जितने सधते गए, जन सामान्य की आर्थिक हालत उतनी ही बदतर होती गई. चाहे वैश्विक सामरिक शक्तियां हों या वैश्विक कारपोरेट शक्तियां, वे सब के सब निर्धन देशों के लिये, निर्धन लोगों के लिये अभिशाप रचने में लगी हैं.

अभिशाप रचने के लिये छद्म रचना जरूरी है. व्यापक जन विद्रोह के उदाहरण इतिहास में एकाधिक हैं. विद्रोह की चेतना को शिथिल करने के लिये छद्म अनिवार्य है. तालिबान उजड्ड हैं, अनगढ़ हैं, बर्बर हैं, वे शुरू से ही एक्सपोज्ड हैं. सत्ता में वे लंबी पारी खेल पाएंगे, इसमें गहरे संदेह हैं.

किन्तु, दुनिया में कई ऐसी सत्तासीन जमातें हैं जो सम्भ्रांत दिखने का छद्म रचती हैं, लेकिन जनता का खून चूसने वाली अदृश्य शक्तियों को अवसर मुहैया करने के मामले में अत्यंत निर्मम हैं.

मनुष्यता के विरुद्ध खड़ी शक्तियों का वैश्विक स्तर पर ताकतवर होते जाना एक बड़ी त्रासदी बन चुकी है. इनसे पार पाना ही होगा. यह सार्वभौमिक संघर्ष है, मानवता को बचाने के लिये पूरी मनुष्य जाति का संघर्ष.

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