पेंटिंग में नाजी कैम्प बनाम असम में बने डिटेंशन कैम्प
झूठों का अवतार पुरूष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘सिर्फ कांग्रेस और अर्बन नक्सलियों द्वारा उड़ाई गई डिटेन्शन सेन्टर वाली अफ़वाहें सरासर झूठ है, बद-इरादे वाली है, देश को तबाह करने के नापाक इरादों से भरी पड़ी है – ये झूठ है, झूठ है, झूठ है … जो हिंदुस्तान की मिट्टी के मुसलमान हैं, जिनके पुरखे मां भारती की संतान हैं. भाइयों और बहनों, उनसे नागरिकता क़ानून और एनआरसी दोनों का कोई लेना देना नहीं है. देश के मुसलमानों को ना डिटेंशन सेन्टर में भेजा जा रहा है, ना हिंदुस्तान में कोई डिटेंशन सेन्टर है. भाइयों और बहनों, ये सफेद झूठ है, ये बद-इरादे वाला खेल है, ये नापाक खेल है. मैं तो हैरान हूं कि ये झूठ बोलने के लिए किस हद तक जा सकते हैं.’
जबकि हकीकत यह है कि केवल असम में ही पिछले 10 वर्षों से 6 डिटेंशन कैंप चलाये जा रहे हैं और सरकार के मुताबिक़ क़रीब 1,000 लोग फ़िलहाल राज्य के डिटेंशेन कैंपों में क़ैद हैं. डिटेंशन कैम्प की अन्दरूनी हालात कितनी भयानक है इसकी एक तस्दीक बीबीसी ने की है. उस रिपोर्ट के अनुसार ‘एक 35 फ़ुट x 25 फ़ुट के कमरे में करीब 35 आदमी सो रहे हों. सुबह पांच बजे लगभग सभी को एक दहाड़ती हुई आवाज़ के साथ जगा दिया जाए. छह बजे तक इन सभी को कमरे में मौजूद एकमात्र टॉयलेट से फ़ारिग होकर चाय और बिस्कुट ले लेने होंगे. साढ़े छह बजे इन सभी लोगों को बाहर एक बड़े से आँगन में छोड़ दिया जाएगा, पूरा दिन काटने के लिए. अगर सुबह की चाय-बिस्कुट मिस कर गए तो फिर कुछ घंटे बाद ही चावल मिलेगा, जिसके साथ दाल कितनी पकी मिलेगी ये सिर्फ़ क़यास की बात है.
‘चार बजे तक रात का डिनर भी ले लेना अनिवार्य सा है. सब्ज़ी-दाल और चावल. हफ्ते में दो दिन उबले अंडे मिलेंगे और एक दिन मीट परोसा जाएगा. रोज़ शाम साढ़े छह बजे इनकी दुनिया वापस उसी कमरे में सिमटा दी जाएगी. रात भर खाने का कोई दूसरा ज़रिया नहीं और ‘सही जुगाड़ वालों को’ वालों को टॉयलेट के दरवाज़े से थोड़ी दूर सोने को मिल सकता है. लेकिन इस दुनिया को सिर्फ़ भीतर रहने वाले ही देख पाते हैं और बयान कर पाते हैं.’ असम में चलाये जा रहे इस डिटेंशन कैम्प में अबतक तकरीबन 29 लोगों की मौतें हो चुकी है. जिसमें से 25 लोगों की लिस्टें यहां दी गई है, जिस पर खुद असम सरकार ने मुहर लगाई है. यह डिटेंशन कैम्प खौफ और मौत का पर्याय बन चुकी है. ऐसा ही डिटेंशन कैम्प नाजी हिटलर ने बनाया था.
They Gave Me Injection To Kill My Unborn Child: Assam Ex-Detainee
She was beaten & forcefully sent for abortion. She says she could feel the baby move inside her. They killed the baby.
They didn't allow her to attend her husband's funeral too.#NRChttps://t.co/TPu9qG9TpQ
— 𝖀𝖓𝖎𝖈💞𝖗𝖓 (@snapnchat) January 29, 2020
नाजी हिटलर का पहला मौत का कैम्प बतौर प्रयोग पोलैंड में बनाया था, जो ऑस्त्विज डेथ कैंप के नाम से कुख्यात हुआ था, जिसमें तकरीबन 11 लाख लोगों को मौत के घात उतारा गया था. जिसे हिटलर ने दुनिया के सामने आने से रोकने का हर संभव प्रयास किया था. मोदी ने देश की जनता के बीच खासकर असम की जनता में एनआरसी-सीएए के नाम पर डिटेंशन कैम्प का खौफ इस कदर भर दिया है कि पिछले साल तक करीब 60 लोगों ने आत्महत्या कर लिया है, जो नाजी हिटलर के आतंक की ही याद दिलाता है.
पोलैंड में हिटलर के पहले डैथ कैम्प की जानकारी सार्वजनिक हुई है. पोजनन, पोलैंड से मेलऑनलाइन के लिए एड वाइट लिखते हैं कि वर्ष 1939 में पश्चिमी पोलैंड के इस स्थान पर नाजियों ने सबसे पहले गैस चैम्बर्स से लोगों के मारने का पहली बार परीक्षण किया था. नाजी सैनिकों ने लोगों को मारने से पहले परीक्षण के तौर पर यहूदी मानसिक रोगियों और उनकी नर्सों को सबसे पहले मारा. तीन वर्षों के बाद उन्होंने लाखों की संख्या में यहूदियों को इन गैस चैम्बर्स में मौत के घाट उतारा.
इस काम को अंजाम देने का जिम्मा नाजी जर्मनी के अर्धसैनिक संगठन शू्ल्जस्टेफल (एसएस) को दिया गया था. इस संगठन के लोगों ने सबसे पहले मनोरोगियों का अपहरण किया और उन्हें कंसंट्रेशन कैम्प में रखा. 1940 तक इन लोगों ने 5000 से ज्यादा रोगियों और सैकड़ों की संख्या में पोलिश नर्सों को मार डाला. पोलैंड पर कब्जा करने के बाद नाजियों ने सामूहिक हत्याओं के लिए गैस चैम्बरों का यहीं सबसे पहले उपयोग किया.
शू्ल्जस्टेफल (एसएस) ने 10 अक्टूबर, 1939 को पोजनन सिटी में 19वीं सदी के फोर्ट कॉल्म्ब को पहला कंसंट्रेशन कैम्प बनाया. इस स्थान को नाजी शासन के कैदियों को रखने के स्थान की बजाय मनोरोगियों की क्रमबद्ध तरीके से हत्या करने का केन्द्र बना दिया गया. जिसे भी नाजी सत्ता के खिलाफ माना गया, उसे यहां पर लाकर समाप्त कर दिया गया. 76 वर्ष पहले अक्टूबर के माह में तीसरे नाजी शासन की नीति के तहत साठ लाख यहूदियों की हत्या से पहले परीक्षण शुरू किया गया था.
अपहरण कर लाए गए मनोरोगियों को ट्रकों में भरकर लाया गया, जिन्हें बहुत पुराने गैस चैम्बरों में डाला गया था. ये पहले आर्टिलरी (तोपखाने) के भंडार होते थे. सबसे पहले पुरुष रोगियों का नंबर आया. गेस्टापो (जर्मन खुफिया पुलिस) के स्पेशल एक्जीक्यूशन ग्रुप के लोग ओविंस्का नाम के मानसिक अस्पताल से रोगियों को पकड़कर लाते थे. प्रत्येक ट्रक में 25 सक्षम लोगों को भरा जाता था और अस्पताल से प्रतिदिन कम-से-कम तीन ट्रक में लोगों को लाया जाता था.
जब सारे पुरुषों की मौत हो गई तो महिला बीमारों को लाया जाने लगा और अंत में बच्चों की भी बारी आ गई. 30 नवंबर तक यहां सभी मरीजों को मारा जा चुका था. सबसे अंत में अस्पताल के कर्मियों को भी लाकर गैस से मार दिया गया. इस कैम्प में आने पर रोगियों को नीचे उतारा जाता और इन लोगों को एक पुल के पार ले जाया जाता था, जहां से इन लोगों को कैम्प के पिछले हिस्से में बने दो गैस चैम्बरों में डाल दिया जाता था, जो कि एक पहाड़ी के ऊपर बने थे.
इन चैम्बरों के अंदर डाले जाने के बाद दरवाजों को मिट्टी से सील दिया जाता और एक छेद के जरिए चैम्बर में कार्बन मोनो ऑक्साइड को पम्प किया जाता. इन घृणित प्रयोगों की सफलता के बाद क्षेत्र के अन्य अस्पताल के रोगियों को मारने के लिए मोबाइल गैस चैम्बर्स का उपयोग किया जाने लगा, जो कि गाड़ियों के अंदर बने होते थे. इन गाड़ियों को आस-पड़ोस के जंगलों में खाली कर दिया जाता था. 4 और 6 अक्टूबर को नाजी खुफिया सेना के प्रमुख हाइनरिख हिटलर ने एसएस अधिकारियों और पार्टी कार्यकर्ताओं को कहा था कि ‘यह नरसंहार नाजियों का ऐतिहासिक मिशन है.’
एक समय पर हिटलर ने इन लोगों को ‘डीसेंट मेन’ बताया और कहा कि ‘अगर यहूदी जर्मन राष्ट्र का हिस्सा बने रहे तो हम फिर से वैसी ही स्थिति में आ जाएंगे जैसे कि 1916-17 में थे’, पर इस नरसंहार के बाद 1942 तक यूरोप की दो तिहाई यहूदी जनसंख्या की हत्या की जा चुकी थी.
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