Home गेस्ट ब्लॉग देशभक्ति की आड़ में धूर्त्तता भरा राजनीतिक लाभ

देशभक्ति की आड़ में धूर्त्तता भरा राजनीतिक लाभ

6 second read
0
0
530

देशभक्ति की आड़ में धूर्त्तता भरा राजनीतिक लाभ

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

देश के प्रति प्रेम हर दौर के नौजवानों में रहा है. 80 और 90 के दशक में भी था. उसके पहले भी था. आगे भी रहेगा. यह हमारे संस्कारों में शामिल है लेकिन, देशभक्ति की भावना को सदैव उफान पर बनाए रखने और इसकी आड़ में नौजवान वर्ग के बड़े हिस्से का मानसिक अनुकूलन कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने के सत्ता के सतत प्रयासों ने ऐसा परिदृश्य उपस्थित कर दिया है, जिसमें बहुत सारे युवा ‘के बोले मां तुमी अबले’ की भाव मुद्रा में उसी तरह रहने लगे हैं, जैसे 1910-20 के दशक में बंगाल और देश भर के देशभक्त क्रांतिकारी युवा रहा करते थे – ‘जब देश ही नहीं बचेगा तो हम रह कर क्या करेंगे…’.

कितनी पवित्र, कितनी बलिदानी है यह भावना, जो देश के प्रति युवाओं की आस्था और उनके समर्पण को दर्शाती है ! और, कितनी अपवित्रता, कितनी धूर्त्तता छिपी है उन प्रयासों में, जो युवाओं की ऐसी मेंटल कंडीशनिंग के लिये किये जाते हैं और इसकी आड़ में राजनीतिक हित साधे जाते हैं ! देशभक्ति का यह प्रायोजित ज्वार उच्च मध्यवर्ग के ड्राइंग रूम का क्रीड़ा-कौतुक और छात्र-नौजवानों के मानसिक-भावात्मक शोषण का जरिया बन गया है.

यह बीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध नहीं, इक्कीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध है, जब भारत राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक विकास की न जाने कितनी गाथाएं रच चुका है. बदली हुई दुनिया में आंतरिक और सीमा सुरक्षा संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिये सक्षम राजनेताओं, प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों, बुद्धिमान ब्यूरोक्रेट्स और बहादुर सैनिकों की फौज देश के पास है.

तो, आज की तारीख में भारत माता गुलाम अबला नहीं, दुनिया के नक्शे पर उभरती हुई आर्थिक और सामरिक महाशक्ति है. ‘जब देश ही नहीं रहेगा’ जैसी बातों में उलझकर अगर आज के नौजवानों का बड़ा तबका जीवन के जरूरी सवालों के प्रति राजनीतिक वर्ग की प्रतिबद्धताओं का विश्लेषण नहीं कर पा रहा और यह समझ नहीं पा रहा कि देश नव उपनिवेशवाद के निर्मम शिकंजे में क्रमशः जकड़ा जा रहा है, तो यह इस दौर की सबसे बड़ी विडंबना है.

इस संदर्भ में कई सवाल उभरते हैं. मसलन, नौजवानों का बड़ा समूह, जो बैंक और रेलवे आदि की नौकरियों के लिये वर्षों से तैयारी करता आ रहा है, क्या सोच रहा होगा उन खबरों पर, जो हालिया बजट घोषणाओं के बाद फिजाओं में तैर रही हैं ? विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के हौसलों के साथ उच्च शिक्षा ले रहा या शोध कर रहा युवाओं का समूह क्या सोच रहा होगा नई शिक्षा नीति पर, जिसके प्रस्तावों की फेहरिस्त अब सामने आ रही है ?

नौकरियों की होड़ में शामिल यह आयु समूह कड़ी मेहनत कर रहा है. सूचनाओं के विस्फोट के इस युग में चारण बन चुके मुख्य धारा के मीडिया और सरकारों के न चाहने के बावजूद तमाम सूचनाएं उन तक पहुंच ही रही हैं कि देश की गति किस ओर है. लेकिन, उनमें से अधिकतर में इन मुद्दों को लेकर कोई सजग प्रतिक्रिया नहीं दिखती.

वे जिन बैंकों में नौकरियां पाने के लिये तैयारी कर रहे हैं, उनके निजीकरण के प्रस्ताव सामने हैं. जो रेलवे सरकारी नौकरियों का सबसे बड़ा प्रदाता रहा है, वह खंड-खंड हो निजी हाथों में सौंपा जा रहा है. फिर, युवाओं के बीच बेचैनी क्यों नहीं नजर आ रही ?

यह 1990 का दशक नहीं, जब निजीकरण एक आकर्षक विचार प्रतीत होता था. तीन दशक बीतने के बाद इससे जुड़ी इतनी विसंगतियां सामने आ चुकी हैं कि यूरोपीय देशों सहित दुनिया के अनेक देशों में अंध निजीकरण के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं और मांग उठने लगी है कि सरकारी संस्थाओं को सुदृढ किया जाना चाहिये.

कोरोना संकट ने दुनिया भर को सबसे बड़ा सबक यही दिया है कि अगर मानवता को बचाना है तो सरकारी संस्थाओं को सुदृढ किये जाने का कोई विकल्प नहीं. लेकिन, भारत में इस सबक को दरकिनार करते हुए कोरोना संकट के चरम पर रहने के दौरान ही निजीकरण के न जाने कितने प्रस्ताव क्रियान्वित कर दिए गए.

जो हो रहा है, समय ने साबित कर दिया है कि यही अंतिम विकल्प नहीं. निजीकरण कारपोरेट प्रभुओं के लिये अपना व्यापारिक साम्राज्य बढाने का और असीमित मुनाफे के नए स्रोतों को पाने का सुनहरा अवसर देता है, लेकिन सामान्य जन के विशाल समूह के हितों के लिये यह कितना प्रासंगिक है, इस पर न जाने कितने सवाल उठने लगे हैं.

लेकिन, कारपोरेट सम्पोषित सत्ता और मीडिया ने ऐसे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को भी जरूरी बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, जो सरकार को भारी मुनाफा देते रहे हैं. वे धड़ल्ले से इनके निजीकरण का प्रस्ताव सामने लाते जा रहे हैं. इन सन्दर्भों में पढ़े-लिखे नौजवानों में मानसिक-वैचारिक सजगता का अभाव इस दौर की बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आया है.

आश्चर्य तो तब होता है जब ऐसे लोग उन नैरेटिव्स के जाल में भी उलझते जाते हैं जो नव उपनिवेशवादी शक्तियों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन के सन्दर्भ में सत्ता और सत्ता प्रायोजित मीडिया द्वारा गढ़े जाने लगे हैं. ताजा उदाहरण किसान आंदोलन का है, जिसे देश विरोधी ताकतों द्वारा प्रोत्साहित किये जाने के नैरेटिव में घेरा जा रहा है और नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा इसे सच भी मान रहा है. न सिर्फ सच मान रहा है, बल्कि किसान आंदोलन पर कटाक्ष करने में भी लगा है.

उन्हें नहीं पता कि कल को जब वे अपने रोजगार के मुद्दे पर कोई बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगे तो उन्हें भी ‘देश विरोधी तत्वों के हाथों खेलने वाला’ करार देने में थोड़ी भी देरी नहीं की जाएगी. इन खतरों से वे बेपरवाह हैं.

चेतना की सायास और इच्छित कंडीशनिंग मानवता के समक्ष इस शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बन कर उपस्थित हो चुका है. अनुकूलित मानस का निर्माण कारपोरेट संपोषित सत्ता का सबसे प्रभावी हथियार है.

उपनिवेशवादी शक्तियां किसी देश की जमीन पर कब्जा करती थी, उसके निवासियों के शरीर पर कब्जा करती थी. नव औपनिवेशिक शक्तियां लोगों की आत्मा और उनके दिमाग पर कब्जा कर लेती हैं.

आत्मा और दिमाग पर कब्जा किये जाने का ही परिणाम है कि दिन भर किसी बंद कोठरी में रीजनिंग, मैथ और जेनरल नॉलेज की घुट्टी पीते नौजवान जब शाम को अपने समूह के साथ देश की नीतियों और राजनीति पर बात करते हैं तो उनमें से अधिकतर की वैचारिक दरिद्रता और मानसिक गुलामी के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं.

नौकरियों के प्राइवेट होते जाने की ही सिर्फ बात नहीं, प्राइवेट नौकरियों की सेवा शर्त्तों के भी क्रमशः अमानवीय होते जाने का संज्ञान तक लेने को कोई तैयार नहीं. बीते ढाई दशकों में श्रम कानूनों में इतने बदलाव किए जा चुके हैं, जिनमें कोरोना संकट के दौरान किये जाने वाले बदलाव अहम हैं, कि निजी क्षेत्र की नौकरी आर्थिक और मानसिक शोषण का पर्याय बनती जा रही है.

इन सन्दर्भों में, बीते दिनों वित्त मंत्री मैडम ने विभिन्न सरकारी उपक्रमों के निजीकरण का जो व्यापक खाका देश के सामने रखा है, उसके बारे में नौजवान तबकों की खामोशी किसी हैरत में नहीं डालती.

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…