आई. जे. राय, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ता
गोलवलकर ने कहीं भगत सिंह का नाम नहीं लिया पर उनके जीवन-दर्शन के अनुसार चूंकि भगत सिंह और उनके साथी अपने जीवन का उद्देश्य पाने में सफल नहीं रहे इसलिए वे किसी सम्मान के अधिकारी नहीं हैं. उनके अनुसार ब्रिटिश हुक्मरान ही स्वाभाविक रूप से पूजा के योग्य थे क्योंकि वे भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मारने में सफल रहे. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते.
गोलवलकर आरएसएस कैडर को यह बताते हैं कि केवल उन व्यक्तियों का सम्मान होना चाहिए जो अपने जीवन में सफल रहे हैंः ‘यह तो स्पष्ट है कि जो लोग अपने जीवन में विफल रहे हैं, उनमें कोई गंभीर खोट होगा. तो कोई ऐसा जो खुद हारा हुआ है, दूसरों को रास्ता दिखाते हुए सफलता के रास्ते पर कैसे ले जा सकता है ?’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282). गोलवलकर की इस किताब में ‘वरशिपर्स ऑफ विक्ट्री’ (विजय के पूजक) शीर्षक से एक अध्याय है, जिसमें वे खुलकर स्वीकारते हैं कि आरएसएस केवल उन्हें पूजता है जो विजयी रहे हैं.
‘इस बात में तो कोई संदेह नहीं है कि ऐसे व्यक्ति जो शहादत को गले लगाते हैं, महान नायक हैं पर उनकी विचारधारा कुछ ज्यादा ही दिलेर है. वे औसत व्यक्तियों, जो खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं और डर कर बैठे रहते हैं, कुछ नहीं करते, से कहीं ऊपर हैं. पर फिर भी ऐसे लोगों को समाज के आदर्शों के रूप में नहीं रखा जा सकता.’
‘अब हम देखते हैं कि इस धरती पर अब तक किस तरह के महान व्यक्तियों को पूजा गया है. क्या हमने किसी ऐसे को अपना आदर्श चुना है, जो खुद ही अपने जीवन के लक्ष्य को पाने में असफल रहा हो ? नहीं, कभी नहीं. हमारी परंपरा हमें सिर्फ उनकी प्रशंसा और पूजा करना सिखाती है, जो अपने जीवन उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहे हैं. परिस्थितियों के गुलाम कभी हमारे आदर्श नहीं रहे. वह नायक जो परिस्थितियों को अपने वश में कर ले, अपनी क्षमताओं और चरित्र के सहारे उन्हें बदल दे, अपने जीवन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफल हो, ही हमारा आदर्श रहा है. ऐसे महान लोग, जिन्होंने अपनी आत्मदीप्ति से आसपास के निराशा के अंधेरे को दूर किया, कुंठित हो चुके हृदयों को आत्मविश्वास से भरा, बेजान हो चुके जीवन में जीवट का संचार किया, सफलता और प्रेरणा के मानक को ऊपर उठाए रखा, हमारी संस्कृति हमें उन्हीं को पूजने की आज्ञा देती है.’ (देखें- बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बंगलुरु, 1996, पेज- 282)
गोलवलकर ने कहीं भगत सिंह का नाम नहीं लिया पर उनके जीवन-दर्शन के अनुसार चूंकि भगत सिंह और उनके साथी अपने जीवन का उद्देश्य पाने में सफल नहीं रहे इसलिए वे किसी सम्मान के अधिकारी नहीं हैं. उनके अनुसार ब्रिटिश हुक्मरान ही स्वाभाविक रूप से पूजा के योग्य थे क्योंकि वे भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को मारने में सफल रहे.
भारत की आजादी की लड़ाई के शहीदों के लिए इससे ज्यादा घटिया और कलंकित करने वाली बात सुनना मुश्किल है. किसी भी भारतीय, जो स्वतंत्रता संग्राम के इन शहीदों को प्रेम करता है, उनका सम्मान करता है, उसके लिए डॉ. हेडगेवार और आरएसएस के, अंग्रेजों से लड़ने वाले इन क्रांतिकारियों के बारे में विचार सुनना बहुत चौंकाने वाला होगा. आरएसएस द्वारा प्रकाशित हेडगेवार की जीवनी के अनुसार, ‘देशभक्ति केवल जेल जाना नहीं है. ऐसी सतही देशभक्ति से प्रभावित होना सही नहीं है. वे अनुरोध किया करते थे कि जब मौका मिलते ही लोग देश के लिए मरने की तैयारी कर रहे हैं, ऐसे में देश की आजादी के लिए लड़ते हुए जीवन जीने की इच्छा का होना बहुत जरूरी है.’ (देखें- संघ-वृक्ष के बीज- डॉ. केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पेज- 21)
आरएसएस नेतृत्व के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में अपना सब कुछ कुर्बान कर देने वाले शहीदों के प्रति रवैये के लिए ‘शर्मनाक’ शब्द भी नाकाफी है. 1857 में भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर आजादी की लड़ाई में एक शक्तिशाली प्रतीक बनकर उभरे थे. उनका मजाक बनाते हुए गोलवलकर कहते हैं : ‘1857 में भारत के तथाकथित आखिरी बादशाह ने युद्ध का बिगुल बजाते हुए कहा था, गाजियों में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. पर आखिरकार क्या हुआ ? ये तो हम जानते हैं.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 121)
गोलवलकर के अगले कथन से यह और साफ हो जाता है कि वे देश पर सब कुछ कुर्बान करने वाले के बारे में क्या सोचते थे. अपनी मातृभूमि पर जान देने की इच्छा रखने वाले क्रांतिकारियों से यह सवाल पूछना मानो जैसे अंग्रेजों के ही प्रतिनिधि हों, उनके दुस्साहस को ही दिखाता है : ‘पर एक व्यक्ति को यह भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करने से देशहित पूरे हो रहे हैं ? बलिदान से उस विचारधारा को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे समाज अपना सब कुछ राष्ट्र के नाम कुर्बान करने के बारे में प्रेरित होता है. अब तक के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि दिल में इस तरह की आग लेकर जीना एक आम आदमी के लिए असह्य है.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन- एमएस गोलवलकर, खंड एक, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981, पेज- 61-62)
शायद यही कारण है कि शहीद तो दूर आजादी की लड़ाई में आरएसएस ने एक भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं दिया. यह दुर्भाग्य ही है कि 1925 से लेकर 1947 तक लिखे आरएसएस के पूरे साहित्य में कहीं भी अंग्रेजों को चुनौती देती, उनकी आलोचना करती या उनके भारतीय जनता के साथ किए गए अमानवीय बर्ताव के विरोध में एक लाइन तक नहीं लिखी गई है. ऐसे में वे लोग जो हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई के गौरवशाली इतिहास और इन शहीदों की कुर्बानी से वाकिफ हैं, उन्हें हिंदुत्व कैंप, जिसने इस लड़ाई में धोखा दिया था, द्वारा हमारे इन नायकों की छवि के इस तरह से दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए. हम ब्रिटिश शासकों की इन सांप्रदायिक कठपुतलियों द्वारा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फिर से नहीं मरने दे सकते.
(लेखक हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं गंभीर विचारक हैं)
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