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देश बदल रहा है और सोच भी

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देश बदल रहा है और सोच भी

गुरूचरण सिंह
जब सबसे ताकतवर आदमी गुंडई पर उतर आता है तो हम सब को कुछ न कुछ तो खोना ही पड़ता है और ताकत के इस जीवन दर्शन को समाज के सबसे निचले स्तर तक मान्यता मिलने लगती है

बदलना तो कुदरत की करवट है. जड़ पदार्थ में भी एक समय के बाद कुछ बदलाव आ जाता है तो जीवित प्राणी के हमेशा एक ही स्थिति में रहने, एक जैसी प्रतिक्रिया देने, सोचने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती. शव में शक्ति (जीवन) का संचार होने पर उसके शिव (सबके लिए कल्याणकारी) बन जाने की कथा भी बदलाव के इसी पक्ष की ओर संकेत करती है. बदलाव मानव जाति के मंगल के होता है, अगर तो ही वह अपनाए जाने योग्य होता है लेकिन अपवाद के रूप में कई बार सोच का यह बदलाव चाहे वह समुदायिक श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुआ हो (सब पर राज करने वाली हिटलर की श्रेष्ठ आर्य जाति का भाव) या किसी मिथकीय स्वर्णिम अतीत में उसकी जड़े हों, जीवन के लिए ख़तरे की एक घंटी जरूर बजा देता है !

बेशक सोच का यह विपरीत बदलाव हमारी सोच के दायरे से भी कहीं बड़े खतरे की दस्तक होता है. उसके सामने आ जाने तक उसका आभास तक नहीं होता क्योंकि एक खास तरह के जीने के सलीके के हम आदि हो चुके होते हैं ! कोई पांच साल पहले ऐसे ही एक खतरनाक बदलाव की ओर इशारा किया था हॉलिवुड अभिनेत्री मेरील स्ट्रीप ने. फिल्म समारोह के दौरान अभिनेताओं द्वारा दिए जाने वाले भाषणों को प्रायः हल्के में ही लिया जाता है और मैं भी कोई अपवाद नहीं हूं इसका लेकिन मेरील स्ट्रीप के भाषण ने तो सचमुच चिंतन की गहराई से मुझे चौंका दिया था, जब उसने कहा : ‘जब सबसे ताकतवर आदमी गुंडई पर उतर आता है तो हम सब को कुछ न कुछ तो खोना ही पड़ता है और ताकत के इस जीवन दर्शन को समाज के सबसे निचले स्तर तक मान्यता मिलने लगती है.’

उसका इशारा स्पष्ट ही अमरीका के तत्कालीन मनोनीत राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उसकी नीतियों की ओर था और ट्रंप भी इसे भली भांति जानते थे. यही कारण है कि उन्होंने तत्काल उस अभिनेत्री को विरोधी खेमे की और औसत दर्जे की अभिनेत्री बता दिया, ठीक उसी तरह जैसे काशी विश्वविद्यालय जैसी सारस्वत सभा में मोदी जी आरोपों का जवाब देने की बजाए फूहड़ मसखरी का सहारा ले कर उन्हें हंसी में उड़ा देते हैं और फिर उसके बाद उन्हीं का अनुकरण करते हुए उनके समर्थक भी ठीक उसी अंदाज में किसी की बात सुनने कि बजाए, अपनी ही ढफली बजाते रहते हैं.

किसी भी तरह सत्ता को हथियाने और फिर निहित स्वार्थों के लिए उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाला ज़हरघुला आज का राजनीतिक वातावरण सब को संक्रमित कर रहा है, विशेष रूप से युवा वर्ग को जो अचानक और अकारण ही हिंसक हो उठा है. उसे लगने लगा है कि पाना तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और कुछ न मिले तो उसे छीनने में भी कोई बुराई नहीं है. साधन तो उसके लिए अब गौंण हो चुका है. पिछले लगभग आठ दशकों से उसके मनःमस्तिष्क में धीरे-धीरे जो जहर के बीज बोए जा रहे थे कि ‘यह देश हिंदुओं का है, विदेशियों ने इसे लूटा है, इसकी इज्जत-आबरू तार-तार की है, हमारी जीवन शैली को बरबाद कर दिया है’ – आज वह नफरत की फसल लहलहाने लगी है.

सबसे बड़ा नुकसान तो लोकतांत्रिक विचारधारा का हुआ है. सत्ता पाने के लिए चुनाव के दंगल में विचारधाराओं की जम कर कुश्ती जरूर हुआ करती है लेकिन एक बार जीत-हार का निर्णय हो जाने के बाद तो वही जीता हुआ व्यक्ति सारे समाज का अविभावक बन जाता है, सबके दुख-दर्द उसके अपने दुख-दर्द बन जाते हैं, वह सबको साथ लेकर चलता है, सबके साथ संवाद बनाए रखता है लेकिन पिछले छः बरसों का अनुभव तो बिल्कुल इससे विपरीत ही कहानी कहता है. प्रशासन अब केवल हिंदू-मुसलमान के एंगल से काम करने लग पड़ा है !

इस तरह की राजनीति के परिणाम दुनियां पहले भी दूसरे विश्वयुद्ध के रूप में भुगत चुकी है. कुछ दिन पहले ही ईरानी जनरल को मार कर ट्रंप ने एक बार फिर सबका दिल दहला दिया था. सोचिए, एक बार यदि फिर से …. सोच कर रूह कांप जाती है !!!

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