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कश्मीर के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की अधिकतम सीमा निश्चित करने हेतु परिसीमन की कवायद

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नियंत्रण रेखा (एलओसी) के साथ युद्ध विराम की भारत-पाकिस्तान के बीच सहमति के 4 माह बाद, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारत सरकार द्वारा प्रशासित जम्मू-कश्मीर के 9 राजनीतिक दलों के साथ हुई बैठक से एक उम्मीद बनी थी कि जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में न्याय के मार्ग को सुनिश्चित करने की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाये जा सकते हैं.

लेकिन इस क्षेत्र के विशेषज्ञों एवं राजनीतिज्ञों का मानना है कि भारत सरकार विश्वास बहाली के बजाय विधानसभा के क्षेत्रों के परिसीमन पर जोर दे रही है. इससे यह डर पैदा हुआ है कि मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिन्दुओं के लिए अधिक सीटों की व्यावस्था की जायेगी, ताकि केन्द्र में सत्तासीन हिन्दू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी को फायदा हो सके.

24 जून, 2021 को जम्मू-कश्मीर से भारत के पक्षधर मुख्य धारा के 9 राजनीतिक दलों के नेताओं ने नई दिल्ली आकर नरेन्द्र मोदी सरकार को यह समझाने की कोशिश की कि वह अपने 5 अगस्त, 2019 के निर्णयों को पलट दें या कम से कम संशोधित करें.

नरेन्द मोदी की सरकार ने न केवल जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता को समाप्त किया है, बल्कि इस क्षेत्र को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में बांट भी दिया है. इस प्रकार इसने आरएसएस (जो एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन है और इस मुस्लिम बहुल क्षेत्र के भारतीय संघ में पूरी तरह विलय चाहता था) के करीब 50 साल की पुरानी मांग को स्वीकार कर लिया है.

इसलिए इन राजनीतिक नेताओं, जिन्हें उक्त कदमों के उठाने के तुरंत बाद हिरासत में रख दिया गया था, की प्राथमिकता राज्य का दर्जा की वापसी, स्वायत्तता की एक झलक की बहाली, स्थानीय नागरिकता कानून के निरसन से होने वाले जनसांख्यिकीय परिवर्तन पर रोक और क्षेत्रीय एमेम्बली के चुनावों पर थी, ताकि राजनीतिक ढांचा गैर स्थानीय नौकरशाहों की दया पर निर्भर न हो और इस क्षेत्र की अपनी शासन-व्यवस्था कायम की जा सके.

लेकिन इस मिटिंग में गृह मंत्री अमित शाह ने साफ शब्दों में कहा कि एक रोड़ मैप बनाया गया है, जिसके तहत विधान सभा क्षेत्रों के परिसीमन को अंजाम देना है. नये परिसीमन के आधार पर चुनाव कराया जायेगा और तब नई विधान सभा को यह अधिकार होगा कि वह इस क्षेत्र के लिए राज्य का दर्जा प्राप्त करने हेतु एक प्रस्ताव पारित कर भारतीय संसद से अनुरोध करे. इसके बाद भारत का गृह मंत्रालय एक कानून का मसौदा तैयार करेगा और उसे संसद में पेश करेगा.

पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर राज्य का दर्जा वापस भी किया जाता है तो उसके अधिकार सीमित कर दिये जायेंगे, जहां कानून-व्यवस्था और नौकरशाहों के स्थानान्तर के अधिकार केन्द्र सरकार के पास रहेंगे. इसलिए, वे मानते हैं कि जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री, जिन्हें 7वां स्थान दिया जाता है, को भारत सरकार के अधिकारिक प्रोटोकॉल लिस्ट में 15वें स्थान पर धकेल दिया जायेगा.

निरस्त की गई धारा-370 के प्रावधानों और धारा 35 ए, जो क्रमशः स्वायत्तता को सुनिश्चित करते थे और भारतीय संविधान के तहत क्षेत्र के लिए एक अलग नागरिकता कानून की गारंटी करते थे, की वापसी के लिए शाह ने बताया कि इस सम्बंध में सरकार के खिलाफ भारत के उच्चतम न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर ली है और यह मामला चूंकि विचाराधीन है इसलिए इस पर कोई बहस नहीं की जा सकती.

जबकि भारत के अन्य हिस्सों में चुनावी सीमाओं की ताजी परिसीमन कवायद 2026 में शुरू होगी, केन्द्र सरकार ने मार्च 2020 मेें जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ, असम, मणीपुर, अरूणाचल प्रदेश और नागालैंड जैसे उत्तर-पूर्व के राज्यों में विधान सभा सीटों की सीमाओं के पुनर्निधारण के लिए उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रंजना देसाई के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया है. लेकिन जब मार्च 2021 में इस आयोग के कार्यकाल को एक साल के लिए बढ़ाया गया तो इसके विचारार्थ विषय से उत्तर-पूर्व के राज्यों को हटा दिया.

इसका मतलब हुआ कि अब यह आयोग केवल जम्मू-कश्मीर के विधान सभा क्षेत्रों की सीमांकन करेगा. ऐसी कार्रवाई से यह सन्देह हुआ कि केन्द्र सरकार ने हिन्दू राष्ट्रवादियों के प्रभाव में जम्मू-कश्मीर क्षेत्र चयन किया है, ताकि मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में विधान सभा सीटों को कम किया जाये या हिन्दु बहुल जम्मू क्षेत्र के सीटों के बराबर किया जाये, जिसकी मांग हिन्दू समूह 1950 से ही करते रहे हैं.

लेकिन सरकारी खेमे तर्क करते हैं कि परिसीमन जरूरी है, क्योंकि संसद द्वारा 5 अगस्त, 2019 को पारित जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून ने विधान सभा की प्रभावी क्षमता को 86 से बढ़ाकर 90 कर दिया है. चूंकि लद्दाख एक अलग केन्द्र प्रशासित क्षेत्र है, जिसमें 4 विधान सभा सीटें थीं. इस नई विधान सभा में पाकिस्तान नियन्त्रित क्षेत्र के लिए 24 सीटों को खाली रखा जायेगा.

आज से 27 साल पहले 1995 में 1981 की जनगणना के आधार पर जम्मू-कश्मीर के विधान सभा क्षेत्रों का पुनर्गठन किया गया था. उस समय यह राज्य अपने संविधान के तहत शासित होता था. अभी जो आयोग बनाये गये हैं, वह अपना काम करने में सक्षम नहीं हो सकते, क्योंकि नेशनल कान्फ्रेंस जैसी बड़ी पार्टी, जिनके 3 सांसद हैं, ने इसकी कार्यवाहियों का बहिष्कार किया था. ये सांसद इस आयोग के पदेन सदस्य हैं. 24 जून की बैठक की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि नेशनल कान्फ्रेंस ने आगे आयोग की कार्यवाहियों में भाग लेने पर सहमति जताई.

भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के जम्मू-कश्मीर राज्य में जम्मू, कश्मीर एवं लद्दाख शामिल था और यह एक मुस्लिम बहुल राज्य था. दुनिया भर के संसदीय जनवाद के व्यवहार में चुनावी क्षेत्रों का सीमांकन जनसंख्या वितरण के आधार पर होता रहा है. 2011 की सरकारी जनगणना में कश्मीर घाटी और जम्मू भाग की आबादी क्रमशः 6ः8 मिलियन और 5.3 मिलियन रेकॉर्ड की गई थी. इसी आधार पर कश्मीर भाग को 46 एवं जम्मू को 37 विधान सभा सीटें प्रदान की गईं थीं.

लेकिन सत्तासीन सरकार ने आयोग के समक्ष इसकी पिछली बैठक में प्रस्ताव किया कि आबादी के बजाय भू-भाग को मानदंड मानकर सीटों का निर्धारण किया जाये. केन्द्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह, जो इस आयोग के पदेन सदस्य भी हैं, ने आयोग के समक्ष अपने प्रस्तुतीकरण में जोर दिया कि जम्मू भाग 26, 293 वर्ग किलोमीटर का है, जबकि कश्मीर घाटी 15, 520 वर्ग किलोमीटर का ही है, इस तर्क को पेश करने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उनका मानना है कि नये मानदंड के आधार पर जम्मू क्षेत्र के सीटों की संख्या बढ़ जायेगी.

इसके साथ-साथ जम्मू के दो मुस्लिम बहुल उप क्षेत्रों-चिनाब घाटी एवं पिर पंचाल में भी सीटें बढ़ेंगी. ये दोनों क्षेत्र, बड़े पहाड़ी भू-भाग में फैले हुए हैं, जहां की आबादी कम है. जम्मू क्षेत्र एकरूप भी नहीं है. वहां का आबादी में 31 प्रतिशत मुस्लिम, 18 प्रतिशत दलित, 25 प्रतिशत ब्राह्मण, 12 प्रतिशत राजपूत, 5 प्रतिशत वैश्य या व्यवसायी समुदाय और 9 प्रतिशत अन्य (जिनमें सिख भी हैं) शामिल हैं.

योजना के अनुसार नये विधान सभा के 18 सीट हिन्दू दलितों एवं आदिवासियों के लिए आरक्षित होगा. सरकार कश्मीरी पंडितों और हिन्दू शरणार्थियों (जो पाकिस्तान से आये हैं और 1947 एवं 1965 में जम्मू भाग में बस गये हैं) के लिए भी सीटों को आरक्षित करने पर विचार कर रही है. चूंकि सरकार ने दोनों क्षेत्रों में जिला विकास परिषदों की बराबर-बराबर संख्या का निर्धारण किया है, ऐसा अनुमान किया जाता है कि विधानसभा क्षेत्रों का बंटवारा भी इसी प्रकार किया जायेगा.

इस फॉर्मूला के आधार पर दोनों क्षेत्रों में 45-45 विधान सभा सीटें निर्धारित की जायेंगी. चूंकि आरक्षित सीटों का बंटवारा भी इसी फॉर्मूला के आधार पर होगा, राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि सीटों के नये बंटवारे से नये विधान सभा में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 50 प्रतिशत से कम हो जायेगा, जबकि क्षेत्र की कुल आबादी में उनकी संख्या 68.5 प्रतिशत हैं.

इस तरह नई योजना के तहत कश्मीर घाटी या क्षेत्रीय एसेम्बली में मुस्लिमों का राजनीतिक प्रभुत्व सदा-सदा के लिए खतम हो जायेगा. पिछले कुछ सालों में नौकरशाही में मुस्लिमों की संख्या वैसे ही घट गई है. जम्मू-कश्मीर के सरकारी आंकड़ों के अनुसार कुल 24 सचिवों में केवल 5 मुस्लिम हैं. 58 कार्यरत उच्च पदाधिकारियों में, उनकी संख्या केवल 12 है. नौकरशाही के दूसरे स्तर में मुस्लिमों की संख्या केवल 42 प्रतिशत है. पुलिस विभाग के 66 उच्च पदाधिकारियों में केवल 7 स्थानीय मुस्लिम हैं.

मुस्लिम प्रभुत्व वाली सीटों को दलितों के लिए आरक्षित करने की योजना भारत के कई राज्यों में पहले से ही लागू है, ताकि विधायिका में मुस्लिम प्रतिनिधित्व को सीमित किया जा सके. जस्टिस राजेन्द्र सच्चर के नेतृत्व में बनी सरकारी कमिटी ने 2005 में इस विषय पर विशद चर्चा की है. उसने सिफारिश की कि दलितों के लिए मुस्लिम बहुल सीटों को आरक्षित करने की परिपाटी पर पुनर्विचार किया जाये.

उत्तर प्रदेश का नगीना सीट को दलितों के लिए आरक्षित किया गया है, जबकि वहां दलितों की आबादी 22 प्रतिशत और मुस्लिमों की आबादी 43 प्रतिशत है. इस सीट के आरक्षित हो जाने के कारण कोई मुस्लिम उम्मीदवार इस सीट पर खड़ा नहीं हो सकता. इसी के पास का धुरिया सीट है, जहां दलितों की आबादी 30 प्रतिशत है, लेकिन इस सीट को सामान्य श्रेणी में डाल दिया गया है. मुस्लिम संगठन मांग कर रहे हैं कि जहां दलितों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है, उन्हें उनके लिए आरक्षित कर दिया जाये.

कानूनी दिग्गज एवं विपक्षी दल कांग्रेस के नेता कपिल सिब्बल कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में चुनावी क्षेत्रों के सीमांकन की पूरी कवायद सत्ताधारी संस्थान के पक्ष में हैं. अगर सीमांकन आयोग का नेतृत्व कोई विशिष्ट जज भी करते हैं तब भी नतीजा यही होगा. ‘अगर सीमांकन प्रक्रिया गैर-पारदर्शी तीरके से सम्पन्न की जाती है तो भाजपा की राजनीतिक उपस्थिति के मजबूत होने की ज्यादा संभावना है. विश्वास बहाली की जो बात की गई है, वह नष्ट हो जायेगी.’

विख्यात पत्रकार एवं विश्लेषक अनुराधा भसिन जयसवाल का मानना है कि विश्वास बहाली के ऊपर सीमांकन के एजेण्डा को प्राथमिकता देकर मोदी सरकार ने एक संदेश दिया है कि वास्तव में जनता लोकतंत्र के विचार को महत्व नहीं देती है. ‘जम्मू-कश्मीर में चुनावी क्षेत्रों के सीमांकन को वे महत्व देते हैं और इस सीमांकन को ही लोकतन्त्र के असली अमृत के रूप में ‘पेश किया जा रहा है’ – ऐसा उन्होंने कहा.

भासिन ने आगे कहा कि इसको पता लगाने के लिए रॉकेट विज्ञान की जरूरत नहीं है कि सीमांकन कवायद के प्रति नई दिल्ली सरकार की जुनून का असली अर्थ दूसरे वायदा को भूलकर भाजपा को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से हिन्दू बहुल विधान सभा क्षेत्रों की संख्या को बढ़ाना है.

घजाला वहाब, जो एक प्रमुख सुरक्षा विश्लेषक एवं फोर्स पत्रिका के कार्यकारी सम्पादक हैं, ने कहा कि सीमांकन कवायद का लक्ष्य जम्मू को भाजपा के प्रति ज्यादा संवेदी बनाना है. उन्होंने कहा- ‘जबकि जम्मू एवं कश्मीर के बीच सीटों की हिस्सेदारी विवेक सम्मत हो सकती है, लेकिन सीमांकन कवायद का बड़ा उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जम्मू भाग के किसी भी क्षेत्र में मुस्लिमों का वोट निर्णायक नहीं होना चाहिए. एक बार ऐसा हो जाता है तो ऐसा संभव है कि जम्मू को एक अलग राज्य घोषित किया जायेगा और कश्मीर की सुरक्षा की स्थिति के कारण उसे एक संघीय क्षेत्र के रूप में बनाये रखा जायेगा.’

चुनावों का सौदा कर और विधानसभा को बहाल कर विश्व को बताया जा रहा है कि लोकतंत्र की बहाली कर दी गई है. मोदी सरकार लम्बी अवधि के उपायों के रूप में 1994 को दुहराना चाहती है. 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने ईरान को आश्वासन दिया था कि कश्मीर पर एक विश्वसनीय आन्दोलन होगा, अगर हमारा देश नई दिल्ली को बचाने के लिए ताकत का इस्तेमाल करता है. साथ में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के सामने बदनामी भी झेलनी होगी.

इस्लामी देशों का संगठन (ओआईसी) संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कमीश्नर के समक्ष एक प्रस्ताव भेजता रहा है कि वह भारत सरकार द्वारा कश्मीर में किये जा रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन की निन्दा करे. अगर इस प्रस्ताव का अनुमोदन होता है तो भारत के खिलाफ आर्थिक पाबन्दियों और दण्डात्मक कार्रवाईयों को शुरू करने हेतु संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अग्रसरित किया जाना था. ज्ञात हो कि ओआईसी के निर्णय सर्वसम्मत्ति से लिये जाते हैं.

इस बात को याद करते हुए कि भारत को कैसे अपमान से बचाया गया, भूतपूर्व भारतीय कैरियर राजनयिक एम. के. भ्रद कुमार मानते हैं कि राव ने चालाकी से ईरान को मतदान करने से अलग रखा. उन्होंने कहा कि ‘अगर ओआईसी में सर्वसम्मत्ति नहीं हुई तो प्रस्ताव का विफल होना तय था.’ भद्रकुमार टर्की, अफगानिस्तान एवं ईरान में भारत के राजनयिक रहे हैं.

पाकिस्तान हैरान रह गया और उसने इसे ‘पीठ में छूरा घोंपना’ कहा. ईरान को क्या हासिल हुआ, वह एक रहस्य है. लेकिन घटनाओं ने दिखाया है कि राव ने एक तरह स्वशासन एवं लोकतन्त्र की वापसी का वादा किया था. उन्होंने चुनाव कराने और जम्मू-कश्मीर के मामलों एवं विकास में पाकिस्तान को प्रवेश देने का भी वादा किया था.

एक साल बाद एक पश्चिम अफ्रीकी देश बुरकिना फासो में निर्गुट आन्दोलन बैठक में भाग लेते हुए नरसिम्हा राव ने घोषणा की थी कि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता की मात्रा की सीमा आसमान तक जाती है. उन्होंने यह भी परिकल्पना की कि पाकिस्तान से गुजरने वाली ईरान की गैस पाइपलाईन एक ‘शांति पाइपलाइन’ है. जबकि 1996 में भारत ने जम्मू-कश्मीर में असेम्बली की बहाली के लिए चुनाव कराया, लेकिन ईरान के साथ मार्च 1994 में जो वादे किये गये थे, उनमें से किसी को पूरा नहीं किया. असेम्बली का चुनाव भी इसने अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में कराया.

मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बनी जम्मू-कश्मीर की सरकार ने जून 2000 में जम्मू-कश्मीर की विधान सभा में एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया कि अधिकतम स्वायत्तता प्रदान की जाये या स्वशासन बहाल किया जाये. इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने घंटों के अन्दर ही तब तक के लिए खारिज कर दिया, जब तक वह अन्तर्राष्ट्रीय दबाव को सफलतापूर्वक चकमा देने में कामयाब होता है.

  • इफ्तिखार गिलानी

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ROHIT SHARMA

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