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दिल्ली के नतीजों ने नफ़रत की राजनीति को शिकस्त दी है ?

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दिल्ली के नतीजों ने नफ़रत की राजनीति को शिकस्त दी है ?

दिल्ली के नतीजों ने नफ़रत की राजनीति को शिकस्त दी है- यह एक अधूरा वक्तव्य है. पूरी बात यह है कि यह शिकस्त अभी अधूरी है. इससे हम बस इतनी उम्मीद कर सकते हैं कि केंद्र सरकार के मंत्री शायद अब शाहीन बाग को गालियां देना बंद करेंगे और गद्दारों को गोली मारने वाले नारे नहीं लगवाएंगे. वे चुने हुए मुख्यमंत्री को आतंकवादी बताने से बाज आएंगे. लेकिन यह उम्मीद बहुत नाकाफ़ी सी है. क्योंकि इससे पार्टी का विचार नहीं बदलने जा रहा, रणनीति भले बदल जाए. अंध राष्ट्रवाद के तपते बुख़ार में देश को धकेलने वाली यह पार्टी हिंदू-मुसलमान का अपना एजेंडा छोड़ने नहीं जा रही, भले इस ओर अब वह कुछ चोरक़दमों से बढ़े. मसलन, वह पाकिस्तान के साथ अनबोले और टकराव को इस मोड़ तक ले आए कि युद्ध जैसे हालात बनें और फिर पाकिस्तान से नफ़रत को हिंदुस्तानी मुसलमानों से नफरत से बदलने की कोशिश की जाए. या फिर भव्य राम मंदिर के निर्माण में उन्माद का ऐसा माहौल बनाया जाए जिसके आगे बाकी सारे अल्पसंख्यक दोयम दर्जे के नागरिक नज़र आएं.

दिल्ली पर लौटें. यह सच है कि दिल्ली के नागरिकों ने ध्रुवीकरण की राजनीति को नकार दिया है. लेकिन यह इतना सपाट मामला नहीं है. नागरिकों के फ़ैसले के पीछे और भी वजहें हो सकती हैं. आम आदमी पार्टी का दावा है कि उसके काम की वजह से उसे वोट मिले. बहुत दूर तक यह बात सही लगती है. मुफ्त बिजली-पानी, महिलाओं के लिए मुफ़्त यात्रा और स्कूलों और मोहल्ला क्लीनिकों की सुविधा इस महानगर के ग़रीब और निम्नमध्यवर्गीय लोगों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं रही. हालांकि सांप्रदायिकता ऐसी अंधी होती है कि उसे कई बार कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है. बीजेपी की कोशिश दरअसल सांप्रदायिकता के इसी राक्षस को ज़िंदा करने की थी. इस कोशिश को नकार देना भी छोटी बात नहीं है. लेकिन इसके साथ एक और बात जुड़ी है. आम आदमी पार्टी ने आम आदमी को जैसी सुविधाएं दीं, उसको बीजेपी ने बहुत हिकारत से देखा. जो लोग देश की राजधानी में सबसे कम साधनों में अपना काम चलाते हैं, जो सबसे कम जगह घेरते हैं, जो सबसे कम बिजली जलाते हैं, जो सबसे कम पानी का इस्तेमाल करते हैं, उनके लिए यह राहत बहुत बड़ी थी. लेकिन इस पूरी आबादी को बीजेपी जैसे बस डराती या बहलाती रही. वह कोशिश करती रही कि चुनाव विकास के मुद्दे पर नहीं, शाहीन बाग़ पर लड़ा जाए. जनता ने इसे नकार दिया.

मगर यही वह अधूरी लड़ाई है जो अभी लड़ी जानी बाक़ी है. शाहीन बाग पर बीजेपी और उसके चुने हुए जन प्रतिनिधियों ने जैसी टिप्पणी की है, वह बिल्कुल विषाक्त है. प्रधानमंत्री ने शाहीन बाग़ पर अविश्वास जताया- कहा कि यह संयोग नहीं प्रयोग है. अमित शाह बार-बार बोलते रहे कि बटन इतनी ज़ोर से दबाओ कि आवाज़ शाहीन बाग़ तक जाए. बीजेपी सांसद परवेश वर्मा ने यहां तक कह दिया कि शाहीन बाग़ से उठ कर लोग घरों में घुसेंगे और रेप करेंगे.

यह बात स्तब्ध करती है कि ऐसी विषाक्त भाषा उस आंदोलन के लिए इस्तेमाल की गई जो दरअसल लोकतांत्रिकता की नई प्रयोगशाला बन रहा है. शाहीन बाग़ जैसा सुंदर आंदोलन दुनिया भर में मिसाल बनने लायक है. वहां संविधान पढ़ा जा रहा है, वहां कविता पढ़ी जा रही है, वहां बच्चों के लिए स्कूल चलाया जा रहा है, वहां एक छोटा सा पुस्तकालय बन गया है, वहां राष्ट्र के प्रतीकों को सम्मान दिया जा रहा है, वहां साझा संस्कृति के तार जोड़े जा रहे हैं, वहां हवन हो रहा है- वहां एक छोटा सा भारत बना दिया गया है जो नफ़रत की राजनीति को ख़ारिज कर रहा है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह शाहीन बाग़ सिर्फ़ दिल्ली तक सीमित नहीं है. देश के कई कोनों में ऐसे और भी शाहीन बाग़ बन गए हैं.

का़यदे से इस शाहीन बाग़ पर चुनाव होना चाहिए था. क़ायदे से सबको यह बताने की जरूरत थी कि शाहीन बाग़ इस देश की लोकतांत्रिक बहुलता का बाग़ है, मुस्लिम एकता का नहीं, कि शाहीन बाग़ में जो बिरयानी मिलती है, वह सिर्फ़ मुसलमानों की रसोई में नहीं पकती, वह हिंदुस्तान के साझा चूल्हे से निकलती है और उसका जायक़ा हिंदुस्तान की पहचानों में एक है, कि मुगल राज की वापसी की ख़ौफ़ जो दिखा रहे हैं, वे उसे बस मुस्लिम शासन के दौर के तौर पर पेश करना चाहते हैं, जबकि कुछ वर्षों या दशकों को छोड़ दें तो मुगल राज भारत के सबसे सुनहरे दौर में एक रहा है. इस दौर में भारत की आर्थिक तरक़्क़ी दुनिया के किसी भी देश को टक्कर दे सकती थी और इस दौर की साहित्यिक-सांस्कृतिक-कलात्मक उपलब्धियां किसी भी दूसरे दौर से कम नहीं हैं. डॉ रामविलास शर्मा का कहना था कि इस मध्यकाल के तीन शिखर- तुलसीदास, ताजमहल और तानसेन हैं. चाहें तो याद कर सकते हैं कि इसी दौर में दुनिया की बेहतरीन इमारतें भारत में बनीं, बेहतरीन साहित्य लिखा गया, कई बड़े लेखक हुए और इस दौर के हस्तशिल्प की ख्याति दुनिया भर में रही.

काश कि केजरीवाल इस भारत को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ते, लेकिन वे लगातार इससे बचते रहे. उन्होंने यहां तक कह डाला कि दिल्ली पुलिस उनके पास होती तो दो घंटे में शाहीन बाग का धरना खत्म हो जाता. इसके बाद वे हनुमान मंदिर पहुंच गए और बीजेपी के जय श्रीराम के जवाब में सफलतापूर्वक बजरंग बली को ला खड़ा किया. लेकिन बीजेपी के तल्ख हिंदुत्व के मुक़ाबले केजरीवाल का यह उदार हिंदुत्व रणनीतिक तौर पर भले स्वीकार्य हो, भारतीयता की पहचान की शर्त के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता. दरअसल केजरीवाल की कामयाबी की एक वजह यह भी बताई जा रही है कि उन्होंने शाहीन बाग़ को मुद्दा नहीं बनने दिया.

मेरी तरह के लोगों को यह बात कुछ उदास करती है. इससे लगता है कि शाहीन बाग जिन मूल्यों के साथ खड़ा हो रहा है, उन मूल्यों को हम दिल से अपनाने को तैयार नहीं हैं. इस लिहाज से यह दिल्ली का चुनाव है उस बड़े हिंदुस्तान का नहीं, जिसमें दिल्ली बसती है और हमारा दिल बसता है. वह चुनाव अभी बाक़ी है और शाहीन बाग की चुनौती अभी बची हुई है. इस बीच एक घटना और हुई है. जो लोग डरा रहे थे कि शाहीन बाग से उठ कर आंदोलनकारी घरों में घुस जाएंगे और महिलाओं के साथ रेप करेंगे, अचानक वही दिल्ली के एक कॉलेज में चल रहे समारोह के दौरान घुस गए और कई घंटे लड़कियों के साथ मनमानी करते रहे. जिन लोगों के सामने यह डरावना दृश्य घटा, वे कई दिन इसको लेकर पुलिस के पास जाने को तैयार नहीं हुए. उल्टे लड़कियों पर दोषारोपण की कोशिश की गई.

तो यह वह दिल्ली है जो शाहीन बाग़ से आंख ही नहीं चुराती, उसको बदनाम भी करती है. इस दिल्ली ने अपना नेता चुन लिया है. यह एक स्तर पर उन लोगों की हार है जो नफ़रत की राजनीति को इकलौता मूल्य और सहारा मानते हैं. लेकिन वह जीत अभी बाक़ी है जो यह आश्वस्ति दे कि भारत अपनी संवैधानिक प्रतिज्ञा के मुताबिक सबको सम्मान और बराबरी देने वाले समाज में बदल रहा है.

प्रियदर्शन (NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर) से साभार

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