अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जारी संघर्षों में, 2020-21 का भारत का किसान आन्दोलन 13 महीने तक चला. इसने एग्रो-बिजनेस कॉरपोरेशनों के खेती हड़पने और केन्द्र के केन्द्रीकरण के एजेण्डे वाले तीन कानूनों के खिलाफ जीत हासिल की. यह आन्दोलन शानदार तरीके से लड़ा और जीता गया था. इसने पूरी दुनिया में पूंजीवाद के खिलाफ, खास तौर पर किसान संघर्ष को, एक अनोखी प्रेरणा, ताकत और दिशा दी.
एक घटना मैं कभी नहीं भूल सकता. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों ने कोविड प्रतिबन्धों के बावजूद यूनिवर्सिटी के पार्क में किसानों के समर्थन में एक सभा की और मुझसे उस सभा का मुख्य वक्ता बनने का अनुरोध किया. जब मैं बोल रहा था, उसी समय एक बड़ा ट्रैक्टर-टेंकर सड़क पर आकर रुका. उस पर एक बड़ा बैनर लगा हुआ था, ‘I support Indian Farmer’ ( मैं भारतीय किसानों का समर्थन करता हूं). ट्रैक्टर का ड्राइवर बाहर निकला और हाथ में वैसा ही एक और बैनर लेकर दर्शकों के बीच शामिल हो गया.
भाषण और सभा समाप्त होने के बाद मैंने उसे अपने बारे में बताने को कहा. उसने पूरे उत्साह से बताया कि वह एक किसान है और ऑक्सफोर्ड के पास ही एक गांव में रहता है, उसका परिवार कई पीढ़ियों से खेती से जुड़ा हुआ है और वह भारतीय किसानों के संघर्ष से बहुत प्रभावित हुआ है. उसकी जानकारी के अनुसार कृषि-विरोधी नीतियों को चुनौती देने के लिए किसान पहली बार एक साथ आये हैं और जैसे ही उसे आज की सभा के बारे में पता चला वह व्यक्तिगत रूप से इस संघर्ष में शामिल होने आ गया.
इस अंग्रेज किसान का भारत या पंजाब से कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं था. भारतीय किसानों से अंग्रेज किसान की हमदर्दी यह जाहिर करती थी कि किसान संघर्ष ने दुनिया भर में खेती से जुड़े लोगों के मन में किसान और कृषि-विरोधी राजनीतिक और आर्थिक निजाम के खिलाफ पनपते विचारों और सोच को एक लहर में बदल दिया था.
यूरोप में भी किसान आन्दोलन तेजी से उभरा है, जो कृषि-विरोधी नीतियों के खिलाफ उभरी एक सामाजिक घटना का ही हिस्सा है. इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारत के किसान आन्दोलन के उभार ने न केवल यूरोप में बल्कि पूरी दुनिया में एक नयी चेतना पैदा की है. हालांकि यूरोप और भारत के बीच आर्थिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अन्तर बहुत बड़ा है, लेकिन फिर भी इन दोनों क्षेत्रों में उभरे किसान आन्दोलनों में गहरी समानताएं हैं.
यूरोप पूंजीवाद के विकास के अन्तिम चरण में पहुंच चुका है जहां पूंजीवाद का आगे का विकास आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विनाश के रूप में प्रकट हो रहा है. खेती और किसानों की दुर्दशा यूरोप की इस विकासात्मक दिशा को स्पष्ट रूप से दर्शाती है. भारत पूंजीवाद के विकास की ओर बढ़ रहा है तथा खेती और किसानों की बिगड़ती स्थिति इस विकास पथ के खतरनाक परिणामों को दर्शाती है.
अब सवाल यह पैदा होता है कि तथाकथित विकास मॉडल के अलग-अलग चरणों में खड़े इन दोनों क्षेत्रों में खेती-किसानी की दुर्दशा क्यों है ? इसका मुख्य कारण अर्थशास्त्र का यह असफल सिद्धान्त है कि आर्थिक प्रगति का मतलब जीडीपी का बढ़ना है. इस नाकाम हो रहे आर्थिक सिद्धान्त से ही गलत आर्थिक नीतियां पैदा हुई हैं, जिसके कारण किसानों को संघर्ष करने के लिए मजबूर होना पड़ा.
यह सिद्धान्त अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है जो अब फेल हो रहा है. दरअसल, इस सिद्धान्त ने अभी तक बढ़ते आर्थिक विकास की सीमाओं को नहीं पहचाना और इस विचार में धर्म की तरह विश्वास पैदा किया गया कि आर्थिक विकास हमेशा होता रहेगा और आने वाली हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी की तुलना में न केवल आर्थिक रूप से बल्कि रूहानी तौर पर भी ज्यादा खुशहाल होती रहेगी.
इस नाकाम हो रहे आर्थिक सिद्धान्त और इस पर आधारित आर्थिक नीतियों के विनाशकारी परिणामों पर हो रहे नये शोध से पता चला है कि आर्थिक विकास की दो मुख्य सीमाएं हैं: प्राकृतिक और सामाजिक. जब आर्थिक विकास इन प्राकृतिक सीमाओं को पार कर जाता है तो प्रकृति का विनाश सामने आने लगता है. जब आर्थिक विकास सामाजिक सीमाओं को पार कर जाता है, तो यह सामाजिक विघटन और गिरावट की ओर ले जाता है.
यह घातक आर्थिक विकास मॉडल प्राकृतिक सीमाओं को पार कर चुका है, जो इन दो मुख्य परिणामों में सामने आ रहा है : वैश्विक जलवायु परिवर्तन (ग्लोबल क्लाइमेट चेंज) और जैव विविधता (बायोडायवर्सिटी) का नुकसान. यह विकास मॉडल सामाजिक सीमाओं को भी पार कर चुका है, जो बढ़ती आर्थिक असमानता और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक झगड़े और सांस्कृतिक गिरावट में सामने आ रहा है.
यह विकास मॉडल इस धारणा पर आधारित है कि विकास करने के लिए खेती को दबाकर औद्योगीकरण करना जरूरी है और उससे आगे सेवा क्षेत्र में शामिल होना जरूरी है. इस घातक मॉडल का सैद्धांतिक शिकार न केवल पूंजीवादी व्यवस्था है, बल्कि इस मॉडल से सोवियत संघ भी प्रभावित हुआ था.
इस विकास मॉडल की कमजोरियां उजागर होने पर पूंजीवादी विकास के कुछ समर्थक इस विचार की ओर मुड़ रहे हैं कि इसे बदलने की जरूरत है क्योंकि यह मॉडल हमें प्राकृतिक विनाश की ओर ले जाएगा लेकिन उनकी सोच सामाजिक असमानता का समाधान नहीं करती है.
वैचारिक स्तर पर, सबसे अच्छा यह सिद्धान्त उभर रहा है कि सोवियत संघ में अपनाये गये गलत तरीकों से सीखकर समाजवादी विचारक इस दिशा में बढ़ रहे हैं कि एक ‘इको-सोशलिज्म’ (पर्यावरणीय – समाजवाद) रास्ते की जरूरत है, जो प्रकृति – समर्थक’ और सामाजिक समानता पर आधारित हो.
यूरोप और भारत के किसान संघर्ष का सबसे बड़ा ऐतिहासिक योगदान यह है कि यह सबके लिए सोचने और इससे सम्बन्धित नीतियां बनाने के लिए मजबूर कर रहा है कि प्रकृति और समाज जो जमीन से जुड़ी हुई है, इनको विनाश से बचाने के लिए खेती को बचाना बहुत जरूरी है.
यूरोप और भारत के किसान संघर्ष के बीच गहरे सम्बन्ध की जड़ें कृषि सम्बन्धी इस नयी सोच से जुड़ी हैं. खेती-किसानी को बचाने का मतलब प्रकृति और समाज को बचाना है. खेती और किसानी के विनाश का रास्ता प्रकृति और समाज के विनाश का रास्ता है. ये किसानी लहरें इस दोहरी और एक दूसरे से जुड़ी हुई बर्बादी को रोकने के लिए एक नयी उम्मीद पैदा कर रहीं हैं.
- प्रो. प्रीतम सिंह,
विजिटिंग स्कॉलर, वूल्फसन कॉलेज,
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यूके.
संपर्क : 44-7922657957
‘किसान बुलेटिन’ से
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