संघियों का नारा – जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वह कश्मीर हमारा है – का उद्घोष करते हुए संघियों ने जिस आक्रामकता के साथ भारत की तत्कालीन सत्ता पर हमला किया, उससे ऐसा प्रतीत होता है मानो श्यामा प्रसाद मुखर्जी सचमुच कश्मीर में विद्रोहियों के हाथों मारे गये थे. जबकि हकीकतन यह है कि वहां उनकी हृदय गति रुकने से मौत हुई थी, जहां वे जमीन्दारों की छीनी जमीन और सूदखोरी में लगा उनका धन वापस करने की कोशिश में भिड़े हुए थे, जो कि धारा 370 लागू होने के कारण संभव नहीं हो रही थी.
चूंकि आरएसएस देश के सबसे प्रतिक्रियावादी गिरोह बड़े सामंतों, जमीन्दारों और धन्नासेठों का प्रतिनिधित्व करते थे और इसी कोशिश में उसने गांधी की भी हत्या किया था, जिस कारण आरएसएस लगभग समूचे देश में बदनाम हो गया था, इसलिए उसने जमीन्दारों, सूदखोर धन्नासेठों का प्रतिनिधित्व करने के लिए कश्मीर में नया पैतरा आजमाया और उसकी वफादारी करने लगा और इसी कोशिश में उनकी मौत हृदय गति रुकने से हो गई.
चूंकि भूमि-सुधार कार्यक्रम के कारण बड़े जमीन्दारों का जमीन छीना गया और किसानों की कर्ज माफी के कारण सूदखोरी में लगा उनका धन भी जप्त हो गया, जिसका मुआवजा भी उसे धारा 370 लागू होने के कारण नहीं दिया गया, फलतः संघियों ने धारा 370 हटाने की मांग को पूरजोर तरीकों से उठाना शुरू किया, जिसको हटाने का ढ़ोल नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जमकर पीटा.
अब, जब आरएसएस अपने मुखौटा संगठन भाजपा के माध्यम से देश की सत्ता पर काबिज हो गया है तो अब वह महात्मा गांधी की ही तरह श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मौत का अनुसंधान करना चाहती है. गांधी की मौत के बारे में उसके नेता नेहरु को जिम्मेदार मानते हुए जो तर्क देता है, उसे सुनकर लज्जा को भी लाज आने लगती है. मसलन, गांधी संघ से बहुत प्रभावित थे. अतः वे संघ में शामिल होने के लिए निकले. यह मालूम होते ही नेहरु ने उनको रोक दिया. इससे गांधी इतने दुःखी हुए कि वे वापस लौटकर पंखे से लटककर अपनी जान दे दी.
खैर, गांधी की गोली मारकर हत्या करने वाला आतंकवादी संगठन आरएसएस अपने इस पाप से निवृत होने के लिए कितनी निर्लज्जता से झूठ बोलेगा, यह तो दीख रहा है, लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत का गुनाहगार नेहरू को ठहराने के लिए वह कितनी बेहयाई से झूठ बोलेगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है. बहरहाल, यहां हम कश्मीर मसले के विद्वान अशोक कुमार पांडेय, संपादक, क्रेडिबल हिस्ट्री, द्वारा श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मौत का दास्तान प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे राजकमकल प्रकाशन से प्रकाशित किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में विस्तार से जानकारी दी गई है, इसका एक अंश यहां हैं.
श्यामाप्रसाद प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर में हुई मृत्यु को लेकर लोग बहुत से सवाल करते हैं. पढ़िए उस रोज क्या हुआ था. गांधी की हत्या के बाद अलग-थलग पड़ चुके हिन्दुत्ववादी दक्षिणपंथ के लिए आज़ाद हिन्दुस्तान का इकलौता मुस्लिम बहुल प्रदेश कश्मीर ख़ुद को प्रासंगिक बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद ज़रिया बना और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा मधोक ने ‘प्रजा परिषद’ के साथ ख़ुद को झोंक दिया. यह मौक़ा मिला उन्हें वहां शेख द्वारा भूमि सुधार लागू करने के बाद.
भूमि सुधार : ग़रीब खुश और अमीर नाराज़
यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि भूमि सुधारों में प्रजा परिषद से जुड़े अनेक लोगों की ज़मीन गई थी और चूंकि क़र्ज़ देने के धंधे में भी वे ही थे तो क़र्ज़ माफ़ी का नुक्सान भी उन्हें ही हुआ था, जबकि इसके लाभार्थी ग़रीब और वंचित लोग थे. नतीजतन पहले तो उन्होंने डोगरा शासन को बनाए रखने की कोशिश की लेकिन वह अब संभव नहीं था तो भारतीय संविधान के अन्दर संपत्ति के अधिकार के तहत इसे चुनौती देने की कोशिश की गई, लेकिन अनुच्छेद 370 के कारण यह भी संभव नहीं हुआ था, जिसके तहत भारतीय संविधान का यह प्रावधान वहां लागू नहीं होता था.
इसके विरोध में उन्होंने एक तरफ़ संविधान सभा के चुनावों का बहिष्कार किया तो दूसरी तरफ़ चुनावों के बाद उसे ‘जम्मू के हिन्दुओं के संदर्भ में ग़ैर-प्रातिनिधिक’ बताया. शेख़ के प्रति उनकी नफ़रत का एक उदाहरण शेख़ द्वारा मुखर्जी को लिखे एक ख़त में मिलता है जहां प्रजा परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य ऋषि कुमार कौशल के एक बयान का ज़िक्र किया है जिसमें वह कहते हैं- ‘हम शेख़ अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अन्य कार्यकर्ताओं को ख़त्म कर देंगे. हम उनका खून चूस लेंगे. हम इस सरकार को जड़ से उखाड़ देंगे और कश्मीर भेज देंगे. यह राज हमें पसंद नहीं.’[i]
फ़रवरी, 1952 के आरम्भ में और फिर नवम्बर-दिसम्बर 1953 तथा मार्च 1953 के अंत में ‘डायरेक्ट एक्शन’ का आह्वान किया गया. आश्चर्यजनक है कि यह शब्दावली सीधे जिन्ना से ली गई थी. इस दौरान जम्मू और कश्मीर राज्य के झण्डे का विरोध करते हुए, 370 का विरोध करते हुए जम्मू और कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की मांग करते हुए जम्मू में लूटपाट और हिंसा की भयानक घटनाएं हुईं.[ii]
1965 में जब एक साक्षात्कार में ‘शबिस्तान उर्दू डाइजेस्ट’ के एक पत्रकार ने शेख़ अब्दुल्ला से पूछा कि 1953 में नेहरू से उनके सम्बन्ध क्यों ख़राब हुए तो तो वह बताते हैं कि ‘जागीरदारी के ख़ात्मे और किसानों के ऋण माफ़ी को अंजाम दिया गया तो नुकसान हिन्दू-मुसलमान दोनों ही तरह के जागीरदारों का हुआ लेकिन हिन्दू जागीरदारों के सीधे दिल्ली से सम्पर्क थे और इसे हिन्दू विरोधी साबित कर दिया गया, जो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था…मुझे ब्रिटिश एजेंट, कम्युनिस्ट एजेंट और अमेरिकी एजेंट कहा गया…एक षड्यंत्र के तहत मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया.’[iii]
370 के विरोध का कारण
चूंकि, 370 के कारण ही भारतीय संविधान के ‘संपत्ति के अधिकार’ का क़ानून लागू कर मुआवज़ा दिलाने की उम्मीद ख़त्म हुई थी इसलिए भूमि सुधारों के विरोध की जगह 370 का विरोध शुरू किया गया. आख़िर आर्थिक मोर्चे से अधिक ताक़तवर धर्म का मुद्दा होता है और देशभक्ति, अक्सर वह सबसे मज़बूत आड़ होती है, जिसके पीछे आर्थिक शोषण की प्रणाली को जीवित रखा जा सकता है तो संविधान सभा में 370 पर कोई आपत्ति न करने वाले श्यामा प्रसाद ‘एक देश में दो विधान/ नहीं चलेगा’ के नारे के साथ अपने 3 सांसदों के साथ देशभक्ति के हिंदुत्व आइकन बनकर उभरे.
शेख़ और नेहरू से लम्बी ख़त-ओ-किताबत के बाद [1] 1953 के मई महीने में उन्होंने टकराव का रास्ता चुना था तो यह कश्मीर के मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने के लिए ही था. इस मुद्दे पर जनसंघ के साथ खड़े हुए अकाली नेता मास्टर तारा सिंह का कश्मीर को लेकर जो स्टैंड है, वह उस दौर में साम्प्रदायिक शक्तियों के कश्मीर को लेकर रवैये को तो बताता ही है साथ ही यह समझने में मदद करता है कि शेख़ अब्दुल्ला और कश्मीर के लोग राज्य की स्वायत्तता को लेकर इतने संवेदनशील क्यों रहे हैं. लखनऊ के एक भाषण में मास्टर तारा सिंह कहते हैं –
‘कश्मीर पाकिस्तान का है. यह एक मुस्लिम राज्य है. लेकिन मैं इस पर दावा उस संपत्ति के बदले करता हूं जो रिफ्यूजी पश्चिमी पाकिस्तान में छोड़ आए हैं. कश्मीरी मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए, जहां के वे असल में हैं.’[i]
उन दिनों क्या हुआ था कश्मीर में ?
मुखर्जी से जुड़े घटनाक्रम पर लौटें तो पूर्वोद्धरित इंटरव्यू में शेख़ बताते हैं कि भारत सरकार ने कश्मीर को युद्ध क्षेत्र घोषित कर डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल के तहत कश्मीर में आवागमन पर पाबन्दी लगा दी गई थी. मुखर्जी को डल के पास निशात बाग़ के एक निजी घर में रखा गया था. शेख़ इसके लिए तत्कालीन गृहमंत्री बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद और जेल तथा चिकित्सा मंत्री श्यामलाल सर्राफ़ को जिम्मेदार बताते हैं, हालांकि प्रधानमंत्री के रूप में सामूहिक जिम्मेदारी से इंकार भी नहीं करते.
शेख अब्दुल्ला बताते हैं कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद उन्होंने उनके निजी चिकित्सक बी. सी. रॉय को कश्मीर आकर जांच का प्रस्ताव भी दिया लेकिन रॉय नहीं आए.[ii]
मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी
वह हृदयरोग से ग्रस्त थे और उनके लिए कश्मीर का मौसम एकदम ठीक नहीं था. मधोक को पढ़कर लगता है कि योजना बनाने वालों को यह लगा था कि उन्हें जम्मू की सीमा पर भारतीय सेना द्वारा गिरफ़्तार कर दिल्ली लाया जाएगा लेकिन उनकी गिरफ़्तारी कश्मीर में होने से ऐसा नहीं हो पाया.
हालांकि मधोक बताते हैं कि मुखर्जी के साथ उनके एक निजी चिकित्सक वैद्य गुरुदत्त भी थे.[iii] मुखर्जी के जीवनीकार तथागत रॉय बताते हैं कि उनके दाहिने पैर में लगातार दर्द था और उनकी भूख ख़त्म हो गई थी. 19 जून की रात उन्हें सीने में दर्द और तेज़ बुखार की शिक़ायत हुई तो डॉ. अली मोहम्मद और अमरनाथ रैना को भेजा गया. लेकिन ज़ाहिर तौर पर ‘स्ट्रेप्टोमाय्सिन’ देने का गुनाह अली मोहम्मद के माथे मढ़ा गया.
वैसे मुखर्जी की जिद पर उन्हें एक हिन्दू नर्स भी उपलब्ध कराई गई थी जिसकी सुनाई गई कथित कहानी में भी यह स्पष्ट है कि उसने आख़िरी इंजेक्शन दिया था और तबियत बिगड़ने पर डॉक्टर ज़ुत्शी तुरंत पहुंचे थे !
हालांकि अगले तीन दिनों के घटनाक्रम को रॉय काफी नाटकीय तरीके से पेश करते हैं लेकिन यह स्पष्ट लगता है कि मुखर्जी की मृत्यु हृदयाघात से हुई थी. षड्यंत्र कथाएं बहुत सी बनाई गई हैं, जिसमें एक पंडित की भविष्यवाणी से लेकर 20 जुलाई को संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर की वह रिपोर्ट भी शामिल है जिसमें कोई स्रोत नहीं दिया गया है.
रॉय यह अलग से लिखते हैं कि श्रीनगर से कोलकाता भेजे जाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि मुखर्जी की मृत देह किसी मुसलमान से न छू जाए![iv]
- स्रोत :
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