देश की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (सीबीआई) के दो सबसे बड़े अधिकारी राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा दो करोड़ रूपये घूस के मामले में सुख्रियां बटोर रहे हैं. सीबीआई के भीतर चल रहा युद्ध सड़क पर आ गया है. इस कांड की वजह से सीबीआई की साख तो गिरी ही है, वहीं आम आदमी का विश्वास भी टूटा है. सीबीआई की साख का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब पुलिस से भरोसा उठ जाता है तो सीबीआई जांच की मांग जनता करती है.
सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा व विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच की लड़ाई की मौजूदा वजह मीट कारोबारी मोईन कुरैशी है. 15 अक्टूबर को सीबीआई ने अस्थाना के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराते हुए उन पर कुरैशी से तीन करोड़ रूपये रिश्वत लेने का आरोप लगाया. इसके पूर्व 24 अगस्त को अस्थाना ने कैबिनेट सचिव से शिकायत की थी कि इस मामले में अलोक वर्मा ने सतीश सना से दो करोड़ रूपये लिये हैं. कुरैशी को इडी ने मनी-लॉड्रिंग के आरोप में पिछले साल अगस्त में गिरफ्तार किया था. अस्थाना कुरैशी से जुड़े मामले की जांच कर रहे थे. अब सवाल है कि दोनों एक दूसरे की ओर उंगली ताने हुए बबाल क्यों कर रहे हैं ? इससे जुड़ा एक और सवाल है कि इस शिकायत से जुड़े कागजात बाहर कैसे आये और इसमें किसका हित शामिल है ?
स्थापना के बाद से ही सीबीआई को बड़ी इज्जत की नजर से देखा जाता रहा है. हलांकि बड़ी मछलियों को फंसाने में इस जांच एजेंसी की सफलता के आंकड़े बहुत संतोषप्रद नहीं कही जा सकती, पर इस पर संतोष तो किया ही जा सकता है कि भ्रष्टाचार एवं अन्य संगीन अपराधों के कुछ दोषियों को दंड दिलवाने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है. फिर भी कई केस में परिणाम सामने न आना वर्तमान पूंजवादी संसदीय व्यवस्था को बचाने की कवायद ही तो है. टू-जी मामले में सभी आरोपियों का बरी हो जाना, इसकी विफलता ही तो है. बोफोर्स तोप घोटाले मामले में सीबीआई कुछ नहीं कर सकी. 1984 ई. के दंगों के मामले में वह विफल है. व्यापम घोटाले की जांच आदि सामने है.
मौजूदा विवाद से पहले भी इस जांच एजेंसी में मुकदमेवाजी हो चुकी है. मामला हाईकोर्ट तक भी पहुंचा. पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के समय भी सीबीआई की साख पर ऐसे ही सवाल उठने लगे थे. उनपर पद पर रहते हुए कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की जांच प्रभावित करने की कोशिश करने का आरोप था, जिसके चलते खुद उन्हीं पर संस्थान को एफआईआर दर्ज करनी पड़ी. अप्रैल, 2013 ई. में सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा विवादों में तब आये थे जब कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट का ड्राफ्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपने के पहले उन्होंने उसे तत्कालीन कानून मंत्री को दिखाया था. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था, ‘‘सीबीआई पिंजरे में बंद तोते की तरह है.’’
बबाल मच रहे इस मामले में अस्थाना और वर्मा में से कौन सच है, यह तो गहन जांच के बाद ही पता चलेगा किन्तु, इसमें सीबीआई की पोल खुल चुकी है. इस बारे में रोचक बात यह है कि केन्द्र सरकार के कैबिनेट सचिव के पास महीनों पहले पहुंची लिखित शिकायत के बाद मामला दर्ज कराने में इतना समय कैसे लग गया ? यद्यपि प्रथमदृष्टया तो राकेश अस्थाना पर शिकंजा कस गया है, जिसका पूर्वानुमान उन्हें हो चुका था, तभी उन्होंने अपने उच्च अधिकारी के विरूद्ध पहले ही शिकायत भेज दी थी. इसके पहले भी इस तरह की घूसखोरी के मामले सामने आये थे.
सीबीआई के अनेक छोटे-बड़े कर्मचारी-अधिकारी पकड़े भी गये लेकिन निदेशक और विशेष निदेशक के पद पर आसीन अधिकारी पर इतने संगीन आरोप लगने से सीबीआई की तथाकथित पवित्रता तार-तार होकर रह गयी है. तू चोर-तू चोर की तू-तू, मैं-मैं में राफेल डील का मामला भी बीच में आता है, जिसपर सीधे प्रधानमंत्री का गला फंसा है और उन्हें जवाब देते नहीं बन रहा है. अन्य कई मामले भी सामने आने की पंक्ति में खड़े हैं. सीबीआई के इन दो अफसरों में कौन सच-झूठ के बीच लोगों में इतना संदेश तो चला ही गया है कि चाहे नेता-मंत्री हों या अफसर-पुलिस बहती गंगा में हाथ धोने को सभी व्याकुल हैं, भले ही उनका संघटनात्मक और संवैधानिक ओहदा कुछ भी हो.
20 फरवरी, 2017 को मीट कारोबारी मोईन कुरैशी का सहयोग करने के आरोप में सीबीआई ने अपने पूर्व प्रमुख अमर प्रताप सिंह पर प्राथमिकी दर्ज की थी. दरअसल सीबीआई निदेशक पद पर रहते हुए सिंह ने नवम्बर, 2012 में सीबीआई में दिवाली सेलिब्रेशन के लिए एसएस प्रोडक्शन नामक कंपनी को ठेका दिया था, जिसमें कुरैशी की 10 प्रतिशत और उसकी बेटी सिल्विया की 90 प्रतिशत हिस्सेदारी है. रंजीत सिन्हा 30 नवम्बर, 2012 से 2014 ई. तक निदेशक रहे. सिन्हा के 15 महीने के कार्यकाल में मोईन कुरैशी ने इनसे 90 बार मुलाकात हुई थी.
विचारणीय मुद्दा यह है कि जब सीबीआई में शीर्ष स्तर पर इस तरह के गोरखधंधे चल रहे हैं, तब निचले स्तर पर क्या हो रहा होगा, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है. इस मामले में जिस तरह की पेंचबंदी की गई है, उसके तार राजनीति और 2019 ई. के भावी आम चुनावों से जुड़े हैं. निदेशक आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा जाता है. वर्मा छुट्टी पर जाकर आनन्द मनाने के बजाय सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं. इधर इस मुद्दे पर सियासी पारा चढ़ जाता है और उधर उनके घर की निगरानी आईबी के चार अधिकारी शुरू कर देते हैं. सीबीआई के भीतर मचा यह घमासान व्यवस्था में भ्रष्टाचार के बदनुमा चेहरे के सामने लाता है और मोदी के ‘गुड गवर्नेंस’ के दावे का मजाक उड़ात है. इससे राकेश अस्थाना, जो मोदी-शाह के चहेते बताये जाते हैं, द्वारा जांच किये गये हाई प्रोफाईल मामलों, जिसमें विजय माल्या और अगस्ता वेस्टलैंड के मामले भी शामिल हैं, की जांच पर भी सवालिया निशान खड़े होते हैं.
दल से लेकर इसे दिया गया पर इसमें कोई विशेष प्रगति नहीं है. 1990 ई. के दशक का झारखण्ड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड में भी अंततः पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव सहित सभी आरोपी बरी हो गये. आरूषी हत्याकांड भी सीबीआई की कुशलता पर आज भी प्रश्नों के हथौड़े मार रहा है. लंबित केसों की भी फेहरिश्त लंबी है. महत्वपूर्ण केस है – आईआरसीटीसी स्कैम, एयरसेल मैक्सस केस, आईएनएक्स मीडिया केस, पीएनबी स्कैम, बैंक लोन केस, अगस्ता वेस्टलैंड केस, स्टर्लिंग बायोटेक केस, राबर्ट वाड्रा धोखाघड़ी केस, सृजन घोटाला, गुटखा स्कैम, मुजफ्फरपुर शेल्टर रेप केस, दाजी महाराज रेप केस.
शिकायतों का सार्वजनिक होना, शासकीय पत्र मीडिया को उपलब्ध होना आदि साफ-साफ दिखा रहे हैं कि इस मामले में किस कदर राजनीतिक गोटियां बिठायी जा रही है. दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था में सत्ता केन्द्रीयकृत होती है और भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का स्वाभाविक गुण है. सत्ता में बैठे हुक्मरान भ्रष्टाचार की जड़ होते हैं और इसे फलने-फूलने के लिए खाद-पानी के व्यवस्थापक भी. इस विद्रुप प्रकरण से इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि –
1. सीबीआई समेत अन्य तमाम संस्थाएं घुसखोरी एवं अन्य प्रकार के भ्रष्टाचार से अछूती नहीं है.
2. किसी मामले में वैसे व्यक्ति को भी नोटिस और पूछताछ से परेशान किया जा सकता है, जिसका उससे कोई लेना-देना न हो. इसका उद्देश्य क्या हो सकता है, बताने की आवश्यकता नहीं.
3. घुसखोरी के लिए बिचौलियों का सहारा भी लिया जाता है.
4. एजेंसी के अंदर अपने आका को खुश रखने और उनका आशीर्वाद बरकरार रखने के लिए शीर्ष अधिकारियों के बीच सत्ता संघर्ष या एक-दूसरे की टांग खींचने से लेकर फंसाने तक के अपराध घटित होते हैं.
5. शीर्ष अधिकारी की मनमानी से कोई मामला लंबे समय तक किसी न किसी प्रकार की प्रक्रियागत खांच का हवाला देकर लटकाया जा सकता है.
6. किसी प्रमुख विभाग में नियमों की अनदेखी करते हुए किसी अधिकारी की प्रतिनियुक्ति हो सकती है.
फिलहाल आगे-आगे देखिए होता है क्या ?
- संजय श्याम
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