कोख में बेटियां ही नहीं मारी जाती
‘कोख’ में कविताएं भी मारी जाती हैं
कुछ बेटियां कोख के बाहर भी मारी जाती हैं
कुछ कविताएं कागज़ पर उतरने के
बाद भी कत्ल कर दी जाती हैं.
कोख में ‘बीज के अखुआते’ ही औरत
सबसे पहले घर के ‘स्वामी’ के बारे में सोचती है
ठीक वैसे ही
कवि की कोख में कविता के सिर उठाते ही
वह सबसे पहले तानाशाह के बारे में सोचता है-
‘यदि यह कविता उसकी आंखों के सामने से गुज़र गयी तो…!’
इस चिंता और डर में
कभी तो वह पूरी कविता को खुद ही सूली पर चढ़ा देता है,
तो कभी कुछ पंक्तियों का गला घोंट देता है.
और इस तरह कवि खुद ही अपनी कविता को अपंग कर देता है.
कविता को बचाना और बेटियों को बचाना
एक ही है.
ठीक वैसे ही बेटियों को जन्म देना और कविता को जन्म देना
एक ही है.
दोनों ही में औरत और कवि को
प्रसव वेदना से गुजरना होता है.
लेकिन सदियों से इन दोनों प्रक्रियाओं पर
स्वामियों/तानाशाहों की गहरी नज़र टिकी है.
हम कब तक
सिर्फ बेटियों/कविताओं के बारे में सोचेंगे
स्वामियों/तानाशाहों के बारे में कब सोचेंगे
उनकी मौत के बारे में कब सोचेंगे ?
उस भविष्य के बारे में कब सोचेंगे
जहां न स्वामी होंगे और न तानाशाह ?
जहां बेटियों की आंखों में पल रहा सपना
और कविताओं के गर्भ में पल रहा सपना
चुपचाप मिट्टी में उतर रहा होगा,
और बसंत बनकर
एक नए सपने को जन्म दे रहा होगा….!
- मनीष आजाद
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