हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
सोचने की बात यह है कि 2004 के बाद नियुक्त होने वाले अधिकारी / कर्मचारी, जो वाजिब पेंशन से महरूम हो न्यू पेंशन स्कीम के दायरे में हैं, अगर समय पूर्व रिटायरमेंट प्लान के घेरे में आए तो अपना बुढापा कैसे बिताएंगे ? इतना तो तय है कि बाजार के हवाले की जाती रही उनके पेंशन प्लान की आंशिक राशि उनको चूना लगा चुकी होगी. अगर वे सेवा में बने रहे और कल को बाजार चढ़ेगा, तब भी उनके पेंशन की राशि उनकी वाजिब जरूरतों के अनुसार नहीं हो पाएगी.
दरअसल, न्यू पेंशन स्कीम सरकारीकर्मियों के साथ सरकार का सबसे बड़ा छल है. जितने भी लोग इस दायरे में हैं, उनको चाहिये कि वे रिया और कंगना की चिन्ता छोड़ अपने बुढापे की चिन्ता करें. जिनके पास अच्छी पैतृक संपत्ति है, वे एंकर रूपी दलालों के गढ़े गए किस्सों और उनकी चीखों-चिल्लाहटों में आराम से मन बहला सकते हैं.
जिनके बेटे-बेटियां मैट्रिक-इंटर पास कर चुके हैं और उच्च शिक्षा की राह पर हैं, उनको अपनी चिन्ता से अधिक अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित होने की जरूरत है. सरकारी पद अतार्किक तरीके से खत्म किये जा रहे हैं. जो पद खत्म नहीं हुए उन पर नियुक्तियों को हतोत्साहित किया जा रहा है. सरकारी रेलवे और बैंकों की आकर्षक सरकारी नौकरियों के दिन लदते जा रहे हैं. प्राइवेट में अवसर बढ़ेंगे, लेकिन वहां कर्मचारियों के हितैषी कानून बदले जा रहे हैं, उन्हें ‘कंपनियों के निरीह कर्मी की शक्ल में ढाला जा रहा है. मालिक-मैनेजर की जब मर्जी होगी, नौकरी खत्म.
वैसे भी, प्राइवेट नौकरियों में ऊंची और महंगी डिग्री वाले चुनिंदा बड़े अफसरों को ही अच्छी पगार मिलती है, बाकी तो इतना कम वेतन उठाते हैं कि सरकारी ऑफिस के चपरासी का वेतन उनसे कई गुना अधिक होता है.
तो, आज जो अपने ड्राइंग रूम में आरामदेह सोफे पर टांगे पसार कर टीवी में ‘रिया के राज’ जानने में डूबे हैं, उन्हें बगल के कमरे में प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अपने बच्चों के बारे में सोचना चाहिये. बेहद कठिन दौर उनके बच्चों की प्रतीक्षा कर रहा है.
सोचने की बात तो यह भी है कि ये जो लगभग दो करोड़ ‘सैलरीड’ लोग लॉकडाउन में नौकरी गंवा कर घर बैठे डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं, क्या वे भी टीवी-मोबाइल पर ‘रिया-कंगना’ खेल रहे होंगे ? यह सवाल इसलिये मौजूं है क्योंकि इनमें से अधिकतर लोग अपनी नौकरी गंवाने के पहले कई वर्षों से अपने टीवी-मोबाइल पर ऐसा ही कुछ खेलते रहे थे.
जिस टीवी न्यूज चैनल के हाल में एक नम्बर पर पहुंचने की चर्चा जोर-शोर से हो रही है, उसे कौन लोग देखते हैं ? किन लोगों की व्यूअरशिप ने ऐसे फालतू चैनल और मनोरोगियों की तरह चीखने-चिल्लाने वाले उसके एंकर को इन बुलंदियों तक पहुंचाया ?
सवाल यह है कि जिनकी व्यूअरशिप इस चैनल को एक नम्बर पर ले आई है उनकी जन सापेक्षता, देश सापेक्षता और समाज सापेक्षता क्या है ? उनको क्या माना जाए ? निस्संदेह, उनमें बहुत सारे लोग अच्छी-खासी पढ़ाई कर बड़े पदों पर आसीन होंगे, बहुत सारे लोग ऐसे होंगे जो पेंशन उठाने वाले होंगे और ज़लालत भोगते भारत के दृश्यों में माथा खपाने की जगह जबर्दस्ती विषकन्या ठहराई जा रही किसी सुंदरी के ‘रहस्यपूर्ण-रोमांचक’ किस्सों में तल्लीन होंगे. बिक जाए रेलवे, दिवालिया हो जाएं बैंक, बड़े लोग लूट ले जाएं राष्ट्रीय संपत्तियों को…क्या फर्क पड़ता है ? अपनी तो ‘ओल्ड पेंशन’ है, मिलती रहेगी, वह भी बढ़ते हुए डीए के साथ.
जो न्यूज चैनल नम्बर वन, टू, थ्री आदि हैं, वे हमारे समाज के नैतिक पतन के प्रतीक हैं, हमारी पीढ़ी की आत्मघाती मानसिकता ने उन्हें फलने-फूलने का मौका मुहैया कराया है. यह बताता है कि इतने बड़े और सम्मानित लोकतंत्र में हम मीडिया की मुख्यधारा को सत्ता की साजिशों का उपकरण बनने से रोक तो नहीं ही सके, बल्कि हमने इसे फलने-फूलने और पसरने के लिये अपना दिमागी मैदान सौंप दिया.
रिया को आज न कल जमानत मिल ही जाएगी, लंबी जांच और सुनवाई के बाद सच भी सामने आ सकता है और दोषियों को सजा भी मिल सकती है, कंगना की मां अभी कल ही नई-नवेली नेताइन के रूप में अवतरित हो चुकी हैं, देर सबेर कंगना भी राज्यसभा की शोभा बढ़ाएंगी ही. सुशांत को न्याय दिलाते बिहार विधान सभा के चुनाव भी गुजर ही जाएंगे.
लेकिन, जिनकी नौकरी छूट चुकी है उन्हें दोबारा नौकरी मिलना आसान नहीं. जो पहले से बेरोजगार हैं, उनकी तो बात ही क्या ! जिनके बच्चे सरकारी नौकरियों की तैयारी में लगे हैं, उन्हें सुशांत को न्याय दिलाने के बदले अपने बच्चों को न्याय दिलाने की तैयारी करनी चाहिए. पद खत्म किये जा रहे हैं, संस्थान बेचे जा रहे हैं, अवसर संकुचित होते जा रहे हैं.
सीबीआई, ईडी, एनसीबी और कोर्ट सुशांत को न्याय दिलाने में लग गए हैं. देर सबेर सच सामने आएगा, तब तक ‘पूछता है भारत’ कोई और वाहियात सवाल खोज निकालेगा और चीखना जारी रखेगा.
जो नौकरी में हैं, संकट उनके सामने भी है, जिनकी नौकरी छूट गई, वे भी संकट में हैं, जो नौकरी के प्रत्याशी हैं, वे तो भारी संकट में हैं. देश की अर्थव्यवस्था का जो खाका सामने आ रहा है, वह डरावना है. उससे भी अधिक डरावना है सत्ता में बैठे लोगों का एजेंडा.
सारा दोष कोरोना पर डाल कर न हम-आप खुद को दोषमुक्त कर सकते हैं, न सत्ताधीशों को. इन सत्ताधारियों की विफल नीतियों और कारपोरेटपरस्ती ने अर्थव्यवस्था को इस बुरे हाल में पहुंचाया है. वे चुनाव जीतने में, एजेंडा गढ़ने में जितने माहिर हैं, अर्थव्यवस्था को चलाने में उतने ही फिसड्डी.
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