गुरूचरण सिंह
अब तुम तिरंगे के नाम पर झूठे बहकावे में मरो या तिरंगे में लपेटे जाओ, क्या फर्क पड़ता है. ठग तो नगरिया लूट चुका
यह सही है संघ और सांप्रदायिक दंगे एक ही सिक्के के पहलू हैं लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि 1925 में संघ के अस्तित्व में आने से पहले ही देश का सांप्रदायिक माहौल ऐसा बन चुका था, जिसने आरएसएस की फितरत के मुताबिक एक माकूल जमीन तैयार कर दी थी. 1920-24 के दौरान कई जगहों पर हिंदुओं और मुस्सलमानों के बीच हुए दंगे इसकी गवाही देते हैं. बिहार का आरा हो या राजस्थान का अजमेर या उत्तर प्रदेश के लखनऊ, मेरठ, आगरा और सहारनपुर हों या फिर पंजाब (अब पाकिस्तान) के लाहौर और मुलतान – इन और ऐसी कई दूसरी कई जगहों पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच कभी मस्जिद के आगे बैंड-बाजा बजाने को लेकर, तो कभी हिन्दुओं द्वारा पक्की मस्जिद न बनने देने को लेकर मूर्खतापूर्ण फसाद होते ही रहते थे. ऐसे बिगड़े हुए माहौल में अहमियत इस बात की नहीं होती दंगों की वजह क्या थी क्योंकि दोनों ही तरफ मसले को सुलझाना तो कोई चाहता ही नहीं. असल मंशा तो मसले को और संगीन बनाने की होती है, इसलिए वहां कोई दलील और अपील काम नहीं करती.
ऐसे दंगे करवाने वाले ‘समाज के इज्जतदार यानी अमीर आदमी’ यकीनन बहादुर तो होते नहीं, असल में हद दर्जे के कायर होते हैं जो खुद के जान-माल की रक्षा के लिए कोई भी खतरा मोल नहीं ले सकते इसलिए वे पैसे और रसूख के बल पर अपने चारों ओर गरीब तबकों के लोगों की मजबूत दीवार खड़ी कर लेते हैं. 1920-24 के इन दंगों के बाद दोनों ही फिरकों के कायर और दंगाई नेताओं ने बेरोजगार युवकों को अपने-अपने गुंडों के रूप में पालना शुरू कर दिया. ऐसा रुझान खास तौर पर उच्च वर्ग के हिन्दुओं में तेजी से पैदा हुई, जिनके आसपास तब के ‘अछूतों’ और आज के दलितों के रूप में ऐसे लोग आसानी से उपलब्ध थे, जो इन ‘भू देवताओं’ की कृपा पाने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. लिहाजा इन वर्गों ने इन लोगों को अपने गुंडे के रूप में पालना शुरू कर दिया, ताकि दंगों के समय उन्हें ढाल की तरह आगे किया जा सके.
दंगों की इसी पृष्ठभूमि पर गांधी जी ने 29 मई, 1924 को यंग इंडिया में ‘हिन्दू मुस्लिम तनाव : कारण और उपचार’ नामक एक लंबा लेख लिखा था. इसी लेख के ‘गुंडे’ उपशीर्षक के तहत गांधी जी ने लिखा था :
‘गुंडों को दोष देना भूल है। गुंडे तभी गुंडागर्दी करते हैं जब हम उनके अनुकूल वातावरण का निर्माण कर देते हैं.
… जिस प्रकार मैं कटारपुर और आरा की काली करतूतों के लिए बेहिचक वहां के प्रतिष्ठित हिन्दुओं को जिम्मेवार मानता हूं, उसी प्रकार मुल्तान, सहारनपुर और जिन दूसरी जगहों पर जो काले कारनामें हुए, वहां के (सभी मुसलमानों को नहीं बल्कि केवल) प्रतिष्ठित मुलसमानों को उनका जिम्मेदार मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है.
… मैं यह मानता हूं कि अगर हिंदू अपनी हिफाजत के लिए गुंडों को संगठित करेंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी. उनका यह आचरण तो बस खाई से बचकर खंदक में गिरने जैसा ही होगा ! … गुंडों की एक अलहदा जाति ही समझिए, भले ही वह हिंदू कहलाते हों या मुसलमान !
… लोगों को बड़ी शान के साथ कहते सुना गया है कि अभी हाल में एक जगह ‘अछूतों’ की हिफाजत में (क्योंकि अछूतों को मौत का भय नहीं था) हिन्दुओं का एक जुलूस मसजिद के सामने से (धूमधाम के साथ गाते-बजाते हुए) निकल गया और उसका कुछ नहीं बिगड़ा.
यह एक पवित्र तरीके से करने योग्य काम का दुनियावी दृष्टि से किया गया इस्तेमाल है. अछूत भाइयों से इस तरह का नाजायज फायदा उठाना न तो आमतौर पर पूरे हिन्दू धर्म के हित में है, और न खासतौर से अछूतों के … इस तरह के संदिग्ध उपायों का सहारा लेकर भले ही कुछ-एक जूलूस मसजिदों के सामने से सही-सलामत निकल जाएं; पर इसका नतीजा यह होगा कि बढ़ता हुआ तनाव और ज्यादा बढ़ेगा.
तो लड़को देख लो. पहले ये लोग केवल दलितों के लड़कों को आगे करके उनसे दंगा करवाते थे. अब ये तुम सभी ऊर्जावान, संभावनाशील लेकिन बेरोजगार युवकों को किसी न किसी बहाने इसमें झोंक रहे हैं. किसी जमाने में रज्जब अली लखानी और वसंतराव हेंगिस्टे नाम के दो परम मित्र दंगा रोकने की कोशिश में शहीद हो गए थे. ऐसे लोगों ने यह देश बनाया.
तुम दंगा करते हुए अगर मारे जा रहे हो, तो तुम्हारे भोलेपन पर, तुम्हारे ठगे जाने पर केवल करुणा ही जागती है. नहीं मालूम कि मरने के बाद सचमुच आत्मा शेष रहती है या नहीं लेकिन यदि सचमुच तुम्हारी निर्मोही आत्मा सब कुछ देख-सुन सकती और बोल-बता सकती, तो तुम बाकी बचे अपने दोस्तों को जरूर बता पाते कि वे न ठगे जाएं.
अब तुम तिरंगे के नाम पर झूठे बहकावे में मरो या तिरंगे में लपेटे जाओ, क्या फर्क पड़ता है. ठग तो नगरिया लूट चुका इसलिए इसकी-उसकी और किसी की भी “जय-जय” छोड़ो, केवल “जय जगत” बोलो. सारी दुनिया तुम्हारी अपनी और तुम भी सबके अपने.
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